सिनेमा का
सौन्दर्यशास्त्र
रवीन्द्र कात्यायन
भूमिका
“फ़िल्म छवि है, फ़िल्म शब्द है, फ़िल्म गति है,
फ़िल्म नाटक है, फ़िल्म कहानी है, फ़िल्म संगीत है, फ़िल्म में मुश्किल से एक मिनट का
टुकड़ा भी इन बातों का साक्ष्य दिखा सकता है।”
(सत्यजित रे, हिंदी सिनेमा: बीसवीं से इक्कीसवीं
सदी तक, पृ. 12)
सत्यजित रे की बात से ये श्लोक बरबस याद आ जाता है
जो नाटक के बारे में कहा गया है-
“न तज्ज्ञानं तच्छिल्पं न
सा विद्या न सा कला ।
न सौ योगो, न तत्कर्म,
नाट्येSस्मिन
यन्न दृश्यते” ।
(आचार्य भरत, नाट्यशास्त्र, 1/117)
‘अर्थात् ऐसा कोई ज्ञान नहीं है, ऐसा कोई शिल्प नहीं
है, ऐसी कोई विद्या नहीं है ऐसी कोई कला नहीं है, ऐसा कोई योग नहीं है, ऐसा कोई
कर्म नहीं है, जिसे नाटक में न दिखाया जा सके’।
यानी कि नाटक ऐसा सार्वभौमिक माध्यम है जिसमें सब
कुछ दिखाया जा सकता है, संसार के समस्त क्रिया-कलाप। लेकिन फिर भी बहुत कुछ ऐसा रह
जाता है जिसे दिखाने के लिए नाट्य विधा कम पड़ जाती है। परंतु बीसवीं सदी की
उपलब्धि के रूप में मनोरंजन का सबसे सशक्त माध्यम बनके शुरू हुआ सिनेमा आज सौ वर्ष
में ही नाटक का अनंत विस्तार जैसा प्रतीत होता है। जहाँ नाट्य प्रस्तुति में बहुत
कुछ ‘बताने’ से काम चलाया जाता है वहीं सिने प्रस्तुति में ‘बताने’ की जगह
‘दिखाने’ का प्रयोग किया जाता है। इस बारे में मनोहर श्याम जोशी का कहना है-
“दृश्य-श्रव्य माध्यम का मूल मंत्र है ‘बताओ मत, दिखाओ’। उधर नाटक का मूल मंत्र है
‘बताओ, मत दिखाओ’। (पटकथा लेखनः एक परिचय, पृष्ठ 26)
अब मानव सभ्यता जितनी प्राचीन विधा नाटक से सिनेमा
की तुलना की जाए तो यह बात समझ में आ जाती है कि सिनेमा नाटक से आगे की चीज़ है।
क्या हुआ जो सिनेमा को आए अभी सौ साल ही हुए हैं? इन सौ सालों में ही सिनेमा नाटक
से आगे निकल गया। इसका प्रमुख कारण यह है कि सिनेमा और नाटक में जो सबसे बड़ा भेद
है वह है कैमरे का भेद। नाटक दर्शक के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और उसका
प्रत्यक्ष अनुभव होता है जो एक ही काल में एक ही स्थान पर एक ही समय में प्रस्तुत
किया जाता है। लेकिन सिनेमा में ऐसा नहीं है, क्योंकि वहाँ दर्शक और अभिनेता के मध्य
एक तीसरी आँख भी है जो कैमरे की आँख है, जो दर्शक के अनुभव को प्रत्यक्ष से,
यथार्थ से परे ले जाती है और एक ऐसे संसार की रचना करती है जहाँ दर्शक न होकर भी
पहुँच जाता है। वास्तविकता से परे होकर भी सिनेमा दर्शक को बाँधे रखता है और उसकी
समस्त इंद्रियों को अपने मोह में जकड़ लेता है। ऐसा बंधन जो दर्शक को भी पता है कि
वो सत्य नहीं है परंतु फिर भी वह उसमें ऐसा बंधता है कि अपने पराए का भेद भूल जाता
है, अपनी वास्तविक स्थिति को भूल जाता है और आनंद की परम अवस्था को प्राप्त करता
है। जिस माध्यम में इतनी शक्ति है कि वह पूरे समाज को आकर्षित कर सकता है,
प्रभावित कर सकता है, उद्वेलित कर सकता है और दिशा-निर्देश दे सकता है, उस माध्यम
को, उसकी शक्ति को जानने-समझने की बड़ी आवश्यकता है।
आदिम युग से ही मनुष्य सौंदर्य प्रेमी है। उसे हर
वो चीज़, हर वो विचार, हर वो भाव आनंदित करता है जिसमें सौंदर्य हो, जो उसकी समस्त
इंद्रियों को अपने वश में कर ले और उसे उसके वस्तु-जगत से परे एक दूसरे संसार में
ले जाए। ऐसा भाव, ऐसा विचार, ऐसा कार्य, ऐसी घटना जो मनुष्य की संवेदना को जागृत
करे और उसे दूसरे भाव जगत में ले जाए, मनुष्य को स्वभावतः प्रिय है, उसे अच्छा
लगता है। यह अच्छा लगना ही सौंदर्य है। और अच्छा लगने के जितने भी कारण सिनेमा
द्वारा पैदा होते हैं, सूत्रबद्ध करके उनका अध्ययन सिनेमा के सौन्दर्यशास्त्र का
विषय है। वैसे शास्त्र रचना बड़ा दुष्कर कार्य है, किंतु यहाँ विषय सिनेमा है और
सिनेमा चाक्षुष माध्यम है जो आलोचक और दर्शक में भेद नहीं करता। सबके लिए सिनेमा
में जो आकर्षण है, जो आनंदोपलब्धि है, जो रसास्वादन है, उसके कारणों की खोज करना
कठिन नहीं है। जो अच्छा लगता है, सुंदर लगता है, आकर्षक लगता है, उसे जानना,
समझना, उसका विश्लेषण भी मधुर होता है। सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र पर चर्चा करते
समय इन्हीं घटकों पर ध्यान देना आवश्यक है।
सिनेमा का प्रबल आकर्षण: जन-जन नायक
अपने आरंभ से ही सिनेमा में जो सबसे महत्वपूर्ण
बात उभरी, जिसने उसे जन-जन में लोकप्रिय बनाया, वह है सिनेमा में जन को नायकत्व
मिलना। सौ वर्षों के इतिहास में सिनेमा ने जन को नायक बनाने का जो इतिहास बनाया
है, वही इसकी लोकप्रियता और सफलता का सबसे बड़ा प्रतिमान है। हमारे समाज में जन को
नायकत्व नहीं मिलता है। इतिहास गवाह है कि पिछले सौ वर्षों के इतिहास को ही देखें
तो हमने कितने जन को नायक बनते देखा है? गिने चुने व्यक्तियों को छोड़कर कोई ऐसा
नायक नहीं हुआ जो सीधे आम इंसान के बीच से उभरकर आया हो। कुछ उदाहरणों को छोड़ दें
तो ऐसा सामान्यतः नहीं होता है। इसीलिए कहा जाता है कि आम जीवन में ऐसा नहीं होता,
फ़िल्मों में हो सकता है।
परंतु यही वह बात है जो फ़िल्मों को सफल बनाती है।
जो आम जीवन में नहीं होता वही फ़िल्में कर दिखाती हैं और जनता की आशाओं,
आकांक्षाओं, स्वप्नों, सफलताओं को स्वर देती हैं, उन्हें मुखर बनाती हैं। आम आदमी
जो कार्य अपने जीवन में नहीं कर सकता उसे वो सिनेमा में होता देखकर प्रसन्न होता
है। चूँकि सिनेमा देखते समय वो अपने समय, समाज, यथार्थ, परिस्थितियों से कट जाता
है और एक ऐसे संसार में प्रवेश कर जाता है जहाँ उसकी संपूर्ण चेतना सिनेमा के नायक
के जीवन के इर्द-गिर्द केन्द्रित हो जाती है, तब उसे लगता है कि वो नायक तो वह
स्वयं है। वही उस वीरतापूर्ण कार्य को कर रहा है, वही शत्रुओं का संहार कर रहा है
और एक बेहतर समाज के निर्माण का स्वप्न देख रहा है जहाँ सभी सुखी हों जाएंगे, कोई
भी किसी से त्रस्त नहीं होगा। और जब वह सिनेमा देखकर बाहर निकलता है, तब उसका मन
जोश, साहस, वीरता, प्रेम, दयालुता, करुणा, दोस्ती आदि महान मानवीय गुणों से
परिपूर्ण होता है। उसे लगता है कि वही मुग़ले आज़म का नायक दिलीप कुमार है, वही लगान
का हीरो आमिर ख़ान है, वही बाजीगर का शाहरुख ख़ान है। इस तरह एक अदना सा इंसान, चाहे
वह मज़दूर हो, या रिक्शा चालक, या फिर अध्यापक, क्लर्क, सिपाही, कलाकार, नर्तक, डॉक्टर,
नौकर या बावर्ची- एक ऐसा नायक बन जाता है जो उसे अपने असली जीवन में नसीब नहीं हो
सकता लेकिन फ़िल्म उसे नायकत्व प्रदान करती है।
प्रत्येक फ़िल्म किसी न किसी मनुष्य के जीवन का
प्रतिनिधित्व करती है। समाज में अनेक विभिन्नताएँ हैं, अनेक समुदाय है, अनेक
संप्रदाय हैं, अनेक विचारधाराएँ हैं, किंतु फ़िल्म सबका प्रतिनिधित्व करती है। किसी
का कुछ अधिक तो किसी का कुछ कम। लेकिन जितनी विविध समाज की शाखाएँ हैं उतनी ही
विविध प्रकार की फ़िल्में भी बनती हैं। ऐसा कोई समाज नहीं है, ऐसा कोई धर्म नहीं
है, ऐसा कोई कार्य नहीं है, ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जिसे फ़िल्मों में दिखाया न गया
हो। और इसे दिखाने के लिए उस समाज का, उस समूह का, उस जीवन का एक अदना सा
चरित्रवान मनुष्य चुना जाता है जो उसका प्रतिनिधित्व कर सके, उसका नायक बन सके और
समाज के समक्ष एक उदाहरण बन सके। इस तरह सिनेमा जन-जन को नायकत्व प्रदान करने का
माध्यम बन गया। और इसीलिए समाज के हर वर्ग में सिनेमा की लोकप्रियता असीमित है।
स्वप्नों को हवा देने का कार्य
समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने हिसाब से
संघर्ष करता है। उसके जीवन के कुछ लक्ष्य होते हैं, कुछ स्वप्न होते हैं। उन
लक्ष्यों को पूर्ण करने के लिए वह कुछ स्वप्न देखता है और उन्हें पूर्ण करने की
सफल-असफल कोशिशें भी करता है। लेकिन लाखों में से बिरला व्यक्ति ही उन्हें पूर्ण
कर पाता है। पर उन्हें पूर्ण करने की कोशिश अपनी क्षमतानुसार हर व्यक्ति करता है,
चाहे वह सफल हो या नहीं। बहुत कुछ पाने की चाह में व्यक्ति थोड़ा बहुत पा भी जाता
है लेकिन बहुत कुछ पाने की उसकी चाह बनी रहती है। यह चाह कभी समाप्त नहीं होती
क्योंकि यदि किसी व्यक्ति को अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो भी जाती है तो लक्ष्य
प्राप्ति तक पहुँचते-पहुँचते उसका लक्ष्य भी बदल जाता है। उसके स्वप्न भी
परिवर्तित हो जाते हैं। और उसकी लालसा भी बढ़ जाती है। वास्तविक जीवन में उसकी यह
चाह, यह लालसा, यह स्वप्न पूर्ण होते नज़र नहीं आते। लेकिन यह कार्य सिनेमा करता
है।
सिनेमा व्यक्ति के स्वप्नों को हवा देने का कार्य
करता है। सिनेमा में जो पात्र होते हैं वे अपने चरित्र से बड़ी गहराई से बँधे होते
हैं। उन्हें एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कहानी में गूँथा जाता है। वे
अपने अभिनय द्वारा अपने चरित्रों को साकार करते हैं और निर्धारित लक्ष्य तक
पहुँचते हैं। उस लक्ष्य तक पहुँचने की उनकी यात्रा बड़ी संघर्षपूर्ण, नड़ी नाटकीय,
बड़ी भावुक एवं बड़ी घटनापूर्ण होती है। दर्शक जब उस यात्रा को देखता है तो उसके
हृदय पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। उन पात्रों के अभिनय, उनकी नाटकीयता, उनके
संघर्ष उसके लिए एक आदर्श रचते हैं और वह उसे अपनी जीवन-यात्रा से जोड़ लेता है।
फिर उसे लगता है कि जब यह पात्र ऐसा कार्य कर सकता है, तो मैं क्यों नहीं कर सकता।
मैं तो इससे अधिक सशक्त हूँ। इस तरह सिनेमा समाज के लिए एक आदर्श की रचना करना है
जहाँ वह लक्ष्य-प्राप्ति, स्वप्न, संघर्ष, प्रतिरोध आदि के द्वारा बेहतर मनुष्य के
निर्माण में सहयोग देता है। सिनेमा में दिखाए गए स्वप्न, मनुष्य के अपने स्वप्न
होते हैं, जिन्हें वह पूरा नहीं कर पाता है और उन्हें पूर्ण करने के लिए सदा
प्रयासरत रहता है। सिनेमा के पात्र, नायक, नायिका उसके लिए आदर्श बन जाते हैं और
उसके लिए मार्गदर्शक का कार्य करते हैं।
संपूर्ण जीवन का आख्यान
प्रसिद्ध समीक्षक कमला प्रसाद ने कहा है- “जनमानस
को इस कलारूप (सिनेमा) ने जितने गहरे स्पर्श किया है, उतना और किसी माध्यम ने
नहीं। कला परंपरा में यह दृश्य-काव्य का विकसित रूप तो है ही, साथ में विज्ञान की
मदद से इसने चतुर्दिक विस्तार किया है। इस कला रूप में चित्र, संगीत, नृत्य,
रंगकर्म, काव्य इत्यादि का कला-संगम है। देश-काल को लाँघने की शक्ति है। स्मृति से
खेलने की आदत है” । (हिंदी सिनेमाः बीसवीं से इक्कीसवी सदी तक, पृ.- 12)
कमला प्रसाद का कथन बहुत सही प्रतीत होता है। इस
तरह सिनेमा जीवन के किसी टुकड़े का प्रतिनिधि भी हो सकता है और संपूर्ण जीवन का भी।
सिनेमा में दिखाया गया जीवन समाज का ही प्रतिरूप होता है। समाज के सुख-दुःख,
लाभ-हानि, अच्छे-बुरे कार्य, चुनौतियाँ, उपलब्धियाँ, सफलताएँ आदि सिनेमा में
प्रतिबिंबित होते हैं। जीवन में नकारात्मकता है तो सिनेमा में भी है। जीवन में
झूठ, मक्कारी, चोरी, दुश्मनी, कटुता, षड़यंत्र, नीचता है तो सिनेमा में भी है। जीवन
में ईमानदारी, सच्चाई, सादगी, प्रेम, करुणा, बंधुत्व है तो सिनेमा में उससे अधिक
है। सिनेमा इन सकारात्मक एवं नकारात्मक गुणों के संघर्ष से ही बनता है। जीवन को
संपूर्णता में प्रस्तुत करने के कारण ही सिनेमा समाज का सबसे सशक्त माध्यम है।
जिस तरह सिनेमा जीवन का आख्यान प्रस्तुत करता है,
वह भी समाज में लोकप्रिय नायकों के द्वारा, उससे कहा जा सकता है कि सिनेमा जीवन
को, जन को प्रभावित करने वाला सबसे उदात्त माध्यम है। जीवन को अपनी संपूर्णता में
देखना हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं है परंतु सिनेमा उसे उस जीवन के, उस संपूर्णता
के दर्शन करवाता है। चक दे इंडिया हो या भाग मिल्खा भाग, जीवन की संपूर्णता का
आख्यान इन फ़िल्मों में सफलता से उभरा है। इसी तरह मदर इंडिया में भी नरगिस का अपने
बेटे को गोली मारना जीवन का सबसे कड़वा सच हो सकता है लेकिन उसे छोड़ देने से वह
कहानी अधूरी ही रह जाती। ऐसा लगता कि जैसे कुछ बाकी रह गया है जिसकी प्रतीक्षा
दर्शक करता ही रह जाता। फिर, सिनेमा उदाहरण बनाता है। यदि समाज में प्रचलित अर्थ
ही प्रदर्शित करने हों तो सिनेमा बनाने की आवश्यकता ही क्या है? सिनेमा कुछ नया,
कुछ बेजोड़, कुछ अनोखा प्रस्तुत करे तभी उसकी सार्थकता है, रोचकता है और
प्रभावोत्पादकता है।
इस अनोखेपन के साथ सिनेमा जीवन के विविध रंग
प्रस्तुत करता है और समाज के लिए निर्णायक साबित होता है। समाज की संस्कृति,
परंपराएँ, मान्यताएँ, जीवन-शैलियाँ, परिस्थितियाँ, ऊहापोह, जीवन दर्शन आदि के
द्वारा सिनेमा लोक की सच्ची पहचान कराता है। चाहे उसमें कुछ-कुछ बनावटी भी लगे, पर
उसका उद्देश्य हमेशा जीवन के अनछुए, अचीन्हें, कम प्रचलित हिस्सों को समाज के
समक्ष लाना और उसे न्याय दिलाने का प्रयास करना होता है। तारे ज़मीन पर, ब्लैक,
गुज़ारिश आदि ऐसी ही फ़िल्में हैं जो जीवन के ऐसे हिस्सों से हमें परिचित कराती हैं
जिससे हम बहुत कम परिचित हैं या लगभग अपरिचित हैं।
सद-असद का संघर्ष
आदि काल से ही मनुष्य का जीवन संघर्षमय रहा है। यह
संघर्ष उसकी विकास की यात्रा का एक प्रमुख भाग रहा है। आदिकालीन मनुष्य की यह
संघर्षयात्रा वस्तुतः सद-असद का संघर्ष ही है। असत्य पर सत्य की विजय, बुराई पर
अच्छाई की विजय ही मनुष्य के जीवन का केन्द्रबिन्दु रही है। सिनेमा की उपस्थिति
भले ही मनुष्य के जीवन की विकास यात्रा के बहुत बाद में हुई, किंतु उसने इस विकास
यात्रा को भली भांति रेखांकित किया है। सिनेमा ने अपनी सौ वर्षों की यात्रा में
सत्य और असत्य के इस संघर्ष को ही प्रदर्शित करने का कार्य किया है। राजा हरिश्चंद्र
से प्रारंभ हुई यह यात्रा आज धूम-3, क्रिश-3, क्वीन और मंजूनाथ तक पहुँच गई है
जहाँ हमें इस मानवीय संघर्ष के चित्र ही मिलते हैं।
वस्तुतः मनुष्य स्वभावतः जुझारू एवं संघर्षवान
होता है। इसमें कोई कम तो कोई अधिक प्रायसरत हो सकता है लेकिन होते सब हैं। अब यदि
सभी मनुष्य संघर्षशील होते हैं तो फिर ये प्रश्न उठता है कि उनका संघर्ष होता
किससे है? ऐसा नहीं कि सभी मनुष्य सत्य के आग्रही होते हैं। कुछ सत्य के तो कुछ
असत्य के पीछे भागते हैं। यहीं से आरंभ होती है सत्य और असत्य के संघर्ष की
यात्रा। नायक और प्रति नायक अथवा खलनायक की उपस्थिति इसीसे निर्धारित होती है।
हमारे मिथकों में, इतिहास में, वर्तमान में न जाने कितने खलनायक हुए हैं और हो रहे
हैं जिनके विनाश के लिए नायकों की आवश्यकता सदा से होती रही है और होती रहेगी।
मिथक और इतिहास के नायक और खलनायक तो हमें सदा इस बात की याद दिलाते हैं कि संघर्ष
चाहे जैसा भी हो, अंततः जीत नायक की ही होती है। कई बार ऐसे भी खलनायक भी हुए हैं
जिन्हें मारने वाला नायक बहुत देर से आया या उनके जीवन में आ ही नहीं पाया। परंतु
समय हर बार बदला है और बुरे व्यक्ति को जाना पड़ा है। उसका स्थान अच्छे ने लिया है।
सिनेमा इस दर्शन को भली-भाँति समझता है।
इसी जीवन-दर्शन को सिनेमा ने हर स्तर पर भुनाने का
प्रयत्न किया है। इस प्रयत्न में कभी व्यक्ति-संघर्ष को दिखाया गया है तो कभी उन
परिस्थितियों, उन कुरीतियों, उन मर्यादाओं, उन समस्याओं से नायक के संघर्ष को
दिखाया गया है जो मनुष्य के सफलता में बाधक बनती हैं। अपने जीवन में मनुष्य चाहे
संघर्ष करता हुआ जीत न पाए किंतु सिनेमा में उसे जीतना ही होता है। यही सिनेमा की
विशेषता है। यदि सिनेमा में भी नायक हार गया तो सिनेमा के निर्माण पर ही
प्रश्न-चिन्ह लग जाएगा। असली ज़िंदगी में तो नायक की जीत बहुत कम ही हो पाती है
लेकिन सिनेमा के पर्दे पर उसे हर हाल में जीतना ही होता है। दर्शक नायक को हारते
हुए नहीं देख सकता। अगर नायक ही हार गया तो उस संघर्ष के अर्थ ही क्या रह गए?
दर्शक अपने जीवन की हार से, कमज़ोरियों से, समस्याओं से, परिस्थितियों से पहले ही
हारा हुआ होता है। वह सिनेमा में वो तलाशने जाता है जो उसे अपने जीवन में मिल नहीं
पाता। ऐसे में उसे सिनेमा संतुष्टि देता है कि पर्दे पर ही सही नायक की जीत होती
है। सिनेमा का वह नायक और कोई नहीं बल्कि वह दर्शक ही है, जो कठिन से कठिन
परिस्थितियों में संघर्ष करता है और किसी तरह असीम साहस का परिचय देता हुआ विजय
प्राप्त करता है। इस तरह सिनेमा देखते समय दर्शक दर्शक न रहकर वह नायक बन जाता है
जो सिनेमा के पर्दे पर चमत्कार करता है और खलनायक को हराकर नायक बन जाता है।
सिनेमा का यह संघर्ष ही दर्शक का सबसे बड़ा
आकर्षण होता है जो उसे सिनेमा देखने के लिए प्रेरित करता है।
जीवन से बड़ाः लार्जर दैन लाइफ़
मनुष्य अपने जीवन में वस्तुओं को अपने सही आकार
में देखने का आदी होता है। जबकि सिनेमा उसे वस्तुओं, आकारों, जीवन को बहुत बड़ा
करके दिखाता है। लार्जर दैन लाइफ़ की इस अवधारणा से दर्शक बहुत गहराई से प्रभावित
होता है। इस तरह के आर्कटाइप पात्रों को दर्शक इसलिए पसंद करता है क्योंकि वे ऐसे
कार्य करते हैं जिन्हें सामान्य मनुष्य अपने जीवन में नहीं कर सकता। इस तरह के
व्यक्ति या पात्र मिथक या इतिहास से ही लिए जाते हैं। प्रसिद्ध पटकथा लेखक मनोहर
श्याम जोशी ने कहा है- “आर्कटाइप और कुछ भी हो, अति सामान्य कभी नहीं होता। आखिर
‘लार्जर दैन लाइफ़’ आपके जीवन में रोज़मर्रा देखने को कैसे मिल सकता है ! हाँ, आप यह
ज़रूर कह सकते हैं कि दर्शकों का बहुत जाना-पहचाना होता है। तो यहाँ मैं आपका ध्यान
इस ओर दिलाना चाहूँगा कि उस जाने-पहचाने आर्कटाइप को लेखक अपनी लेखनी से और
अभिनेता अपने अभिनय से बराबर कोई नई भंगिमा, कोई नया अर्थ दे पाते हैं।“ (पटकथा
लेखनः एक परिचय, पृ. 52)
अब प्रश्न उठता है कि दर्शक क्यों इस आर्कटाइप
चरित्र या पात्र को पसंद करता है? दर्शक इस तरह के चरित्रों को इसलिए पसंद करता है
क्योंकि वे सामान्य होकर भी विशिष्ट होते हैं। चाहे मिथक चरित्र हों या नए ज़माने
के ऐसे चरित्र जिन्हें लेखक गढ़ता है, दर्शकों की पहली पसंद बन जाते हैं क्योंकि वे
ऐसे कार्य करते हैं जो सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता। उसकी अदाएँ, उसकी शैलियाँ,
उसकी अनूठी भंगिमाएँ दर्शक को भा जाती हैं और वह सामान्य होकर भी विशिष्ट कार्य
करता है और विशिष्ट कार्य करके भी सामान्य मनुष्यों की भाँति सुखी और दुखी होता
है। दर्शक यह सोचता ही रह जाता है कि इतना बड़ा व्यक्ति ऐसे रो सकता है, ऐसे द्रवित
हो सकता है, ऐसे छोटी सी खुशी में प्रसन्न हो सकता है। उसमें सामान्य मनुष्य की
तरह गुण दोष भी होते हैं जो दर्शक के लिए आश्चर्य का कारण बनता है। और बस! फ़िल्म
को पसंद करने का इससे बड़ा कारण क्या हो सकता है? नायक या खलनायक के जीवन की यही
विशेषताएँ दर्शकों के मन में उसकी प्रशंसा का कारण बनती हैं।
मनोरंजन का सशक्त माध्यम
सिनेमा नाटक का ही विस्तारित रूप है बस केवल अंतर
उसकी प्रस्तुति में है। नाटक की उत्पत्ति के लिए कहा गया है कि “विनोदजननम् लोके
नाट्यमेतद भविष्यति”। अर्थात् यह नाटक संसार में विनोद उत्पन्न होने वाला होगा।
सिनेमा भी संसार में विनोद उत्पन्न करने वाला सबसे सशक्त आधुनिक माध्यम है। सिनेमा
की उत्पत्ति भी संसार के मनोरंजन के लिए हुई है। सिनेमा ने बीसवीं सदी में मनोरंजन
की पूरी व्यवस्था को परिवर्तित कर दिया है। सिनेमा कौतूहल, आश्चर्यमिश्रित आनंद और
रसास्वादन का प्रमुख माध्यम है, जिसने संसार के हर व्यक्ति को प्रभावित किया है।
ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो सिनेमा से या उसके मनोरंजन से कहीं न कहीं जुड़ा न हो।
संसार के कोने-कोने में अगर कहीं सिनेमा देखना संभव न हो, तो भी वहाँ सिने-संगीत,
टेलीविज़न, रेडियो आदि के द्वारा सिनेमा की उपस्थिति पाई जाती है।
मनुष्य को मनोरंजन क्यों चाहिए? क्या ऐसा कोई
मनुष्य हो सकता है जिसे मनोरंजन की आवश्यकता न हो? जब परिश्रम से थका हुआ मनुष्य
अपने शरीर और मन को आराम देना चाहता है तब उसे मनोरंजन की आवश्यकता होती है।
उन्नीसवीं शताब्दी तक पारंपरिक माध्यम ही मनुष्य के मनोरंजन का माध्यम थे किंतु
बीसवीं सदी ने तकनीकी क्रांति के फलस्वरूप मनोरंजन के अनेक माध्यमों को जन्म दिया
जिनमें सिनेमा, रेडियो, टेलीविज़न, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि प्रमुख हैं। यह भी सच है
कि सिनेमा को आगे बढ़ाने में इन सभी माध्यमों का बड़ा योगदान है।
sinemaaआरंभ में सिनेमा देखने जाना एक चरम आकर्षण
का कार्य था, जबकि समाज में सिनेमा को लेकर अनेक भ्रांतियाँ थीं कि सिनेमा लोगों
को बिगाड़ देता है, सिनेमा में जो चरित्र हैं वे समाज को बहका देंगे, सिनेमा में जो
लड़कियाँ या औरतें कार्य करती हैं, वे अच्छे चरित्र की नहीं होती हैं, आदि-आदि।
लेकिन सिनेमा देखना सब चाहते थे। बल्कि सिनेमा देखने का प्रयत्न भी करते थे। इसका
सबसे बड़ा कारण था या है कि सिनेमा एक अत्यंत गहन या सघन माध्यम है जिसे देखने के
लिए अपने जीवन के तीन घंटे का समय चुराना पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति सिनेमा देखने
के लिए थिएटर में जाता है तो वो इस आकर्षण के चलते ही जाता है। दूसरे सिनेमा उसे
वो दुनिया दिखाता है जिसे वो शायद कभी भी न देख पाए। देश विदेश के सुरम्य स्थलों
की सैर उसे सिनेमा देखकर हो जाती है। गीत-संगीत के द्वारा भी सिनेमा मनुष्य के
मनोरंजन का सबसे सशक्त माध्यम रहा है।
सिनेमा मनुष्य को न सिर्फ़ प्रेम करना सिखाता है
बल्कि उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं से निपटना भी सिखाता है। यह प्रेम शारीरिक,
मानसिक अथवा आध्यात्मिक हो सकता है। यह प्रेम संबंधों से परे भी हो सकता है-
माँ-बेटे का प्रेम, स्त्री-पुरुष का प्रेम, पिता-पुत्र का प्रेम, दोस्त-दोस्त का
प्रेम, भाई-भाई का प्रेम, भाई-बहन का प्रेम, अमीर-ग़रीब का प्रेम, राजा-रंक का
प्रेम- आदि। प्रेम के इन स्वीकृत संबंधों से परे भी प्रेम के रूप हो सकते हैं
जिन्हें सिनेमा गौरवान्वित करके दिखाता है और दर्शक के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत
करता है। प्रेम की तरह ही सिनेमा अन्य मानवीय मूल्यों की स्थापना भी करता है।
सिनेमा समाज के भयावह अथवा कटु अथवा कुत्सित यथार्थ को दिखाते हुए एक बेहतर समाज
के निर्माण का स्वप्न भी दिखाता है। ऐसा सिनेमा नहीं बनाया जाता जो समाज के यथार्थ
को प्रस्तुत तो करे परंतु उसका को समाधान प्रस्तुत न करे। दर्शक सिनेमा देखने जाता
है मनोरंजन के लिए लेकिन वह उसमें प्रदर्शित समस्या का निश्चित समाधान अवश्य चाहता
है। दर्शक अधर में लटका नहीं रहना चाहता। उसे अंततः सिनेमा द्वारा एक निश्चित
समाधान, निश्चित मार्गदर्शन चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो फिर उस सिनेमा को दर्शक नहीं
मिलेंगे।
सिनेमा दर्शक के सपनों को हवा देने का कार्य भी
करता है। जो कार्य दर्शक अपने जीवन में कभी पूरे नहीं कर सकता, उनकी पूर्ति वह
सिनेमा देखकर ढाई-तीन घंटे में करता है। उन ढाई-तीन घंटों में उसके सपनों को पंख
लग जाते हैं और वह अपने जीवन के नग्न और कटु यथार्थ से अलग सिनेमा की जादुई दुनिया
में खो जाता है। उस समय उसे वह अनिर्वचनीय सुख मिलता है जिसे खोजता हुआ वह सिनेमा
देखने आता है।
ब्रह्मानंद सहोदर: परम आनंदानुभूति का प्रतिनिधि
“तैत्तरीय उपनिषद के अनुसार जब हमें सौंदर्य का
साधारण अनुभव होता है, तो हम उसे प्रिय कहते हैं, जब हम उसका सचेत रसास्वादन करते
हैं, तो हम उसे ‘मोद’ कहते हैं, जब हम उसमें डूब जाते हैं, तब हम उसे ‘प्रमोद’
कहते हैं। सौंदर्य आनंद का पर्यायवाची शब्द बन गया है। उसके अनुभव के तीन स्तर
हैं- प्रधानतः इन्द्रियों द्वारा, इन्द्रियों और बुद्धि की समन्वित चेतना द्वारा,
उसी में तन्मयता द्वारा, समावेश द्वारा” ।
(सुन्दरम् – डॉ. हरद्वारी लाल शर्मा, भूमिका -जयदेव सिंह, पृ. 10)
दर्शक सिनेमा देखने जाता है मनोरंजन के लिए। पर
सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, साधारण के असाधारण बनने का मनोरंजन भी है जिसमें मनुष्य
के सुख-दुख, राग-द्वैष, संघर्ष आदि का उदात्त स्वरूप दृष्टिगत होता है। मानवीय
भावों, कार्यों, विचारों की उदात्तता आनंद की सृष्टि किस तरह करती है? यहाँ यह
प्रश्न विचारणीय है।
कलाओं के आस्वादन की प्रक्रिया पर भारतीय आचार्यों
ने विस्तृत रूप से विचार-विमर्श किया है। सिनेमा पारंपरिक कला-रूपों से कुछ भिन्न
अपेक्षाकृत नवीन विधा है जिसमें तकनीक का प्रयोग अधिक होता है। परंतु कलात्मकता
सिनेमा की पहली शर्त है क्योंकि आकर्षण कलात्मकता से ही आता है। आकर्षण से ही
मनुष्य के भाव परमानंद की स्थिति तक पहुँचते हैं। प्रसिद्ध सौंदर्यशास्त्री
सुरेन्द्र बारलिंगे ने कहा है कि – “यदि कलाकार की रचना दर्शक अथवा पाठक को आकृष्ट
करती है तो यह पर्याप्त है। सूर्यास्त जैसे प्राकृतिक दृश्य के विषय में ‘सुंदर’
का अनुभव प्रत्यक्ष होता है।, परंतु काव्य, नाटक, अथवा चित्रकला जैसी कला-वस्तुओं
के विषय में बल आकर्षण पर होता है, और यदि यह पसन्द आने योग्य है तो कलावस्तु को
सुन्दर माना जाता है। कलावस्तु के विषय में वस्तुतः दोहरा आकर्षण होता है, कोई
वस्तु कलाकार को आकृष्ट करती है और वह दर्शकों अथवा पाठकों को भी अभिभूत करती है।
यदि अनुभव कलाकार के हृदय का स्पर्श करता है तो आस्वादक उसे सुंदर कहता है। हृदय
को आकृष्ट करने की क्षमता- क कोई वस्तु या कृति सुंदर है, उदात्त है इत्यादि-
आस्वाद की मूलभूत कसौटी प्रतीत होती है। ऐसी कोई अन्य कसौटी नहीं जिसके द्वारा हम किसी वस्तु के सुंदर होने का
निर्णय कर सकते हैं”। (भारतीय सौंदर्यशास्त्र की नई परिभाषा, सुरेन्द्र एस.
बारलिंगे, पृ.- 221)
आस्वादन की इसी प्रक्रिया के विषय में आचार्य भरत
मुनि ने कहा है कि-
“योSर्थो हृदय-संवादी तस्य भावोरसोद्भवः ।
शरीरं व्याप्यते तेन शुष्कं काष्ठमिवाग्निना”
॥ (नाट्यशास्त्र, भाग-1, पृष्ठ-348)
अर्थात् जो अर्थ हृदय से संवाद करता है उसके भाव
रसोद्भव का कारण होते हैं। वह उसी प्रकार सम्पूर्ण शरीर को व्याप्त कर लेता है
जैसे अग्नि सूखी लकड़ी को व्याप्त कर लेती है। सिनेमा भी हृदय से संवाद करने का
सबसे बड़ा माध्यम है जो दर्शक की संपूर्ण चेतना को अपने अनुसार अनुकूलित करता है और
उसके आनंद का कारण बनता है। यहाँ पर दर्शक के सारे विभाव, अनुभाव, संचारी व स्थायी
भावों का साधारणीकरण हो जाता है और दर्शक परमानंद की अवस्था को प्राप्त होता है।
परमानंद की इस अवस्था को ही साधारणीकरण कहा गया है। साधारणीकरण का अर्थ है विशेष
भावों का सर्वसाधारण जनता तक पहुँचना। जो विशेष भाव लेखक या निर्देशक के मन में
आते हैं, वही अभिनय करते समय अभिनेता के मन में आते हैं। और उस दृश्य को देखते समय
दर्शक का मन भी उन्हीं भावों के प्रति समर्पण करता है। इस तरह लेखक या निर्देशक के
मन में आने विशेष भाव जब साधारण दर्शकों तक पहुँच जाते हैं तब उन भावों का
साधारणीकरण हो जाता है।
साधारणीकरण की प्रक्रिया में साधारणीकृत मनुष्य
देश, काल और व्यक्ति की सीमा से ऊपर उठ जाता है। वह निर्वैयक्तिक हो जाता है, उसके
लिए राम-सीता या दुष्यंत और शकुंतला विशेष प्रेमी-प्रेमिका न होकर सामान्य नर-नारी
हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में दर्शक स्त्री हो या पुरुष, वह अपने सामने उपस्थित
पात्रों से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। कलाओं के आस्वादन के अवसर पर व्यक्ति का
जो आनंद प्राप्त होता है उसे ‘ब्रह्मानंद सहोदर’ भी कहा गया है। इस तरह सिनेमा भी
जिस आनंद का सृजन करता है वह मनुष्य के मन के विभिन्न भावों द्वारा ही निष्पन्न
होता है और मनुष्य के हृदय को रस से भर देता है। मनुष्य के मन में उत्पन्न होने
वाले इन भावों और रसों से ही मनुष्य के रसास्वादन की प्रक्रिया पूर्ण होती है।
सुरेन्द्र बारलिंगे जी ने इस संदर्भ में कहा है कि- “कालांतर में भारतीय सौंदर्य
शास्त्र का सिद्धांत बुनियादी तौर पर काव्य तथा नाट्य जैसी साहित्यिक कलाओं के
इर्द-गिर्द केन्द्रित हुआ और रस तथा भाव जैसी अवधारणाओं को अधिक महत्व प्राप्त हो
गया। फिर सम्भवतः इन अवधारणाओं का विकास हुआ और शिल्प अथवा स्थापत्य के संदर्भ में
भी उसका उपयोग होने लगा”। (भारतीय सौंदर्यशास्त्र की नई परिभाषा, सुरेन्द्र एस.
बारलिंगे, पृ.- आठ)
सौन्दर्य के विषय में प्रसिद्ध विद्वान डॉ.
हरद्वारीलाल शर्मा ने लिखा है- “सुन्दर की परिभाषा करना इसलिए और सुकर है कि जो
मानव की माप करने वाली विमाएँ (Dimensions) हैं, वे ही सुन्दर की भी विमाएँ हैं।
सुन्दर न केवल प्रियतम, उत्कृष्टतम अनुभव है, वह मानव का निकटतम अनुभव भी है।
प्रत्यक्ष वह पहली कड़ी है जो जीव को जीवन व जगत से जोड़ती है”। (सुन्दरम्, डॉ.
हरद्वारीलाल शर्मा, पृ.- 243)
सिनेमा में भी सौन्दर्यशास्त्र के इन्हीं
सिद्धांतों का आधार लिया जाता है। भाव, रस, साधारणीकरण, मानवीय संवेदन व अनुभूति
आदि के द्वारा सिनेमा मनुष्य के मन को अपने आकर्षण में इस तरह बाँधता है कि वह
सिनेमा के प्रति सब कुछ भूलकर समर्पित हो जाता है। सिनेमा का जादू इसीलिए हर
व्यक्ति पर पड़ता है कि वह अपने आकर्षण में मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं करता। उसका
सौंदर्य हर व्यक्ति के लिए है। सिनेमा इसीलिए मनोरंजन की सबसे सशक्त विधा तो है
ही, मनुष्य के सुख-दुख, हार-जीत, आशा-निराशा को अभिव्यक्त करने का सबसे शक्तिशाली
माध्यम है और रहेगा।
संदर्भ-सूची -
1) आचार्य भरत मुनि- नाट्य शास्त्र
2) प्रसाद कमला (सं)- हिंदी सिनेमा: बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक, साहित्य भंडार, 2009.
3) जोशी, मनोहर श्याम- पटकथा लेखनः एक परिचय, राजकमल प्रकाशन, 2000.
4) शर्मा, हरद्वारी लाल- सुन्दरम्, हिंदी समिति, 1975.
5) बारलिंगे, सुरेन्द्र एस.- भारतीय सौंदर्यशास्त्र की नई परिभाषा, भारतीय ज्ञानपीठ, 2002.
6) Untold Stories- Film Writers’ Association, Mumbai, 2013.
7) Sharma, Govind- The Magic of Bollywood Screenplay Writing, Nbc International, 2007
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डॉ रवीन्द्र कात्यायन,
अध्यक्ष, हिंदी विभाग एवं संयोजक, पत्रकारिता एवं जनसंचार,
मणिबेन नानावटी महिला महाविद्यालय, वल्लभभाई रोड, विले पार्ले (प.) मुंबई 400056
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'भटकाव के दौर में परंपराओं से नाता - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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