समकालीन
कविता के सरोकार
आज
अगर खामोश रहे तो कल सन्नाटा छाएगा
हर
बस्ती में आग लगेगी हर पत्थर जल जाएगा
रोमानियन कवि मारिन सोरेसक्यू कहते हैं- ‘‘मुझे कविता में वह पहली
ज़मीन दिखाई देती है जहाँ कोई व्यक्ति सच कह सकता है। सिर्फ कविता ही पूरी सटीकता के
साथ हमको अभिव्यक्त कर सकती है, एक इसी के माध्यम से हम स्वयं तक
वापस लौट सकते हैं, अपना
पुनर्निमाण कर सकते हैं ठीक उस मकड़े की तरह जो पत्तियों पर छोड़े अपने स्राव के
सहारे अपने रास्ते का निर्माण करता है।’’ कविता लिखना
औरों के साथ कुछ बांटने, अकेलेपन के एहसास को ख़त्म करने, अत्याचार और अन्याय के
खिलाफत की प्रक्रिया है। एक
काव्य प्रवृति के रूप में समकालीनता समय के साथ होना, चलना, जीना है। युग परिवेश और जीवन से
जुड़े सवाल समकालीन कविता को वह आधारभूमि उपलब्ध कराते हैं जिस पर खड़े होकर वह काल
विशेष में होने वाली घटनाओं के खुलासे की प्रवृति रखती है, अपने समय की विसंगति, विडम्बना
और तनाव से जुड़े सवालों से टकराती है। समकालीन कविता न केवल सत्ता का प्रतिपक्ष
रचती है बल्कि सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक तनावों और दबावों के विरुद्ध रचनात्मक
प्रतिरोध भी करती है। एदुआर्दो गालेआनो के शब्दों में कहें तो- ‘लिखा
उन्हीं के लिए जाता है जिनके नसीब या बदनसीबी के साथ जुड़ाव महसूस किया जाता है।
ये वो लोग हैं जो न ढंग का खा सकते हैं न सो सकते हैं, वे इस दुनिया के सबसे
दबे-कुचले, अपमानित और इसलिए सबसे भयंकर विद्रोही लोग हैं।‘
धूमिल भी कहते हैं- ‘लोहे का स्वाद/ लोहार से मत पूछो/ उस घोड़े से
पूछो/ जिसके मुँह
में लगाम है।‘
आज का दौर कई मायनों में कठिन व पेचीदा है।
विकेन्द्रीकरण की लोकतांत्रिक अवधारणा के विपरीत पूँजी और शक्ति के केन्द्रीकरण के
कारण निरंकुश तानाशाही की ओर बढ़ती साम्राज्यवादी सत्ता ने दमन का रास्ता अपना लिया
है। निरंकुश सत्ता अपने को स्थाई बनाए रखने के लिए विस्तार और दमन का रास्ता
अपनाती है, प्रतिरोध का
हर स्वर कुचल देना उसका लक्ष्य होता है। सत्ता के साथ पूँजी का गठजोड़ स्थितियों को
बदतर बनाता है। पूँजी का बहाव सदा विरल से सघन की ओर होता है इसलिए पूँजी और सत्ता
के गठजोड़ ने शक्तियों के केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को न केवल बढ़ाया है बल्कि दमन
को अधिक निर्मम व क्रूर किया है। इस व्यवस्था ने साजिशन मूलभूत सुविधाओं से वंचित,
भूख से मर रहे लोगों को राष्ट्र, क्षेत्र, धर्म, पंथ, जाति, सम्प्रदाय जैसे मसलों
के जरिए एक अंधे युद्ध की तरफ धकेल दिया है जिससे कि व्यवस्था के प्रति उनकी हताशा
विरोध का रूप न ले सके तथा पूँजीवादी- साम्राज्यवादी शक्तियाँ विश्व भर के आय के
स्रोतों पर अपने कब्जे को बढ़ाने और मजबूत करने का अवसर प्राप्त कर सकें।
ऐसे समय में एक रचनाकार को क्या करना चाहिए? इतिहास गवाह है कि ऐसे समय में एक रचनाकार
अपनी रचनाओं के माध्यम से साथक हस्तक्षेप
करने का प्रयास करता है। आज के दौर में भी समकालीन कविता की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण
है, उसमें आज का समय परिलक्षित हो, यह जरूरी है। जेमेसन कहते हैं कि ‘साहित्य
में जो राजनीतिक नहीं लगता उसके भी राजनीतिक निहितार्थ होते हैं।‘ अतः बेहद जरूरी है कि कवि न केवल अपनी रचनाओं के माध्यम से सार्थक
हस्तक्षेप करे बल्कि कविता के माध्यम से प्रतिगामी राजनीति के विरुद्ध एक
सांस्कृतिक प्रतिपक्ष तैयार करे। उदय प्रकाश कहते हैं- ‘आदमी
मरने के बाद/ कुछ नहीं सोचता/ आदमी मरने के बाद/ कुछ नहीं बोलता/ कुछ नहीं सोचने/
और कुछ नहीं बोलने पर/ आदमी मर जाता है।‘ कविता का काम
व्यक्ति को जगाना, देश व समाज की परिस्थितियों के प्रति उसकी
समझ को पुष्ट करना है। देश, समाज और सांस्कृतिक विसंगतियों पर करारा प्रहार करना
एक कवि का सामाजिक सरोकार भी है और कविता के साथ न्याय भी।
यह समय असंख्य अंतर्विरोधों और द्वंद्वों
से भरा हुआ है। संपन्न और समृद्ध समाज का दावा करने वाली विकास की संकल्पनाएँ
वास्तविकता में असमानता का विस्तार कर रही हैं। पूँजीवादी और साम्राज्यवादी
शक्तियों ने धर्म का एक औजार की तरह प्रयोग करते हुए समाज में ऐसे मूल्यों का
निर्माण कर दिया है जो वैचारिक, तार्किक, वैज्ञानिक चेतना के विरुद्ध हैं। पूँजी
और सत्ता के साथ धर्म के अभूतपूर्व संगम ने तर्कहीनता और कुतर्कों की ऐसी
प्रतिगामी शक्ति को ताकत दी है जिसने समाज में अनिश्चितता, असुरक्षा तथा भय को स्थापित कर दिया है।
धार्मिक प्रतिगामी शक्ति तथा वंचित वर्गों के प्रति सबल वर्ग के दमनकारी रवैए ने
समाज में हिंसा के नए रूपों को जन्म दिया है। ऐसी फासीवादी, अलोकतान्त्रातिक व्यवस्था चुप्पी और डर पैदा करती
है, रचनात्मक क्षमताओं और संभावनाओं को ख़त्म करने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी पर
हमले करती है। दूर बैठकर तमाशा देखने वाले, तालियों की गड़गड़ाहट से खुश होने
वाले, पुरस्कारों की जुगत में फिरने वाले कवि इस व्यस्था को पुष्ट करते हैं
क्योंकि यह व्यस्था उसी कविता की तारीफ़ सबसे ज़्यादा करती है जिससे उसे ख़तरा
महसूस नहीं होता। डंडे और बाज़ार के ज़ोर से सबको गूंगा-बहरा बनाने के इस दौर में
रोटी, न्याय और आज़ादी के लिए, दमनकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ बात करने का जोखिम कवि
को उठाना ही होगा। समय की पेचीदगी को समझकर मुठभेड़ की रणनीति तलाशने, हकीकत से लोक
को आगाह करने और विरोध के लिए तैयार करने का काम समकालीन कविता को करना होगा।
कोई भी कविता महत्वपूर्ण तभी होती है जब
वह तात्कालिक आनंद देने के बजाय इतिहास व समाज का हित साधन करे; आने वाली पीढ़ियों
के लिए उपयोगी तभी हो सकती है जब पहचान के लिए संघर्षरत समुदाय की जरूरतों से वह ख़ुद
को जोड़ लेती है। मानवता की लड़ाई में कविता आगे की पंक्ति में हथियार लेकर चलने
वाले सिपाही की तरह है लेकिन यहाँ यह ध्यान रखना जरूरी है कि कला विचारधारा में
नहीं बदली जा सकती। विचारधारा प्राकृतिक जनसंस्कारों की सहायता से प्रतिरोध की
आधारभूमि उपलब्ध कराती है, वह माध्यम उपलब्ध कराती है जिसकी सहायता से वास्तविकता को
समझा जा सके। प्रतिरोध के लिए वैचारिक शक्ति के साथ स्थितियों की दशा-दिशा की सही
समझ और सूक्ष्म विश्लेषण की आवश्यकता होती है। हाल के वर्षों में साम्प्रदायिकता, लचीली आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था, उत्तर आधुनिकता जैसे विमर्श प्रतिरोधी
वैचारिकता के मजबूत आधार के रूप में अस्तित्व में तो आए हैं लेकिन धीरे-धीरे ये एक
तरह की रचनात्मक फार्मूलेबाजी में बदल गए। एडोर्नो के शब्दों में ‘उत्तर
आधुनिकता प्रोटेस्ट भी है और यूटोपिया भी बल्कि कई बार एक निगेटिव यूटोपिया।‘ ऐसे में प्रतिरोध के बदले स्तर और धरातल प्रतिरोध और उसके विलोम की तरह
एक साथ उपस्थित होते हैं। एक गलत और अप्राकृतिक विचार दृष्टि को संकुचित ही नहीं
करता बल्कि कलात्मकता का भी क्षरण करता है। कौशल द्वारा गलत या कृत्रिम विचार को
खपाया तो जा सकता है लेकिन कृत्रिमता से रचना में पैदा हुआ अंतर्विरोध उसकी पोल
खोल देता है। एक कवि की व्यक्तिगत ईमानदारी, आत्मसंघर्ष, अन्तर्निषेध
जैसे तत्व प्रतिरोध के रचनात्मक चुनाव में सहायक होते हैं। समाजशास्त्रीय
परिवर्तनों के कारण प्रतिरोध के बदलते धरातल को समझे बिना सार्थक हस्तक्षेप सम्भव
नहीं है। प्रतिरोध को केवल तात्कालिक तनावों की प्रतिक्रिया के रूप में सीमित नहीं
किया जाना चाहिए वरन इसे राजनैतिक-सामाजिक दबावों के कारण पैदा हुई जड़ता और
यथास्थितिवाद को ख़त्म करने के लिए एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए।
पिछले दशकों में गडडमडड हुई
राजनैतिक-सामाजिक और आर्थिक स्थितियों ने प्रतिरोध के सवाल और उसके आधार को
मिश्रित और संदेहास्पद किया है। वैचारिक संक्रमण और संकट की निशानदेही सबसे
मुश्किल काम हो गया है। पूँजीप्रवाह ने समाज के हर वर्ग को एक सुविधाजनक खोल
प्रदान किया है। इस खोल में आज का कवि भी बन्द है। इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से
कवि न तो राजनैतिक रूप से परिपक्व हो पाए और न ही उनमें सर्वहारा के प्रति
रागात्मक संवेदना विकसित हो पाई। ऐसे कवि अपने जीवन में किसी सक्रिय आंदोलन के
सहभागी नहीं बन पाते जिसका परिणाम यह हुआ कि समाज में क्रांति के ढिंढोरचियों की
संख्या बढ़ गयी है। ऐसे कवि कला-उद्योग के मजदूर की तरह अभिजात्य वर्ग की
उपभोक्तावादी जरूरतों को पूरा करने के लिए लिखते हैं। कॉरपोरेट लूट और उसके
परजीवियों के बढ़ते वर्चस्व के इस दौर में प्रतिगामी विचारधारा को पुष्ट तथा पोषित
करने वाले साहित्य के ऐसे घुसपैठिए नकाबपोशों को बेनकाब करना समकालीन कविता की
जिम्मेदारी है। प्रतिबद्धता के दोगलेपन का स्वीकार बेहद जरूरी है। अनिल कुमार सिंह
लिखते हैं- ‘ज़िंदगी के तमाम दाँव-पेंचों के बावजूद/ कविताएँ लिखता है/ हम
अपने को अधम महसूस करने लगें/ इतने अच्छे ढंग से/ कविताएँ सुनाता है वह/ हम पर
अहसान करता है महान कवि/ पुल उसे बहुत प्यारे लगते हैं/ सत्ता के गलियारों को/
फलांगने के लिए/ जनता की छाती पर ‘ओवरब्रिज’ बनाता है महान कवि।‘ इन
पंक्तियों को कविता में मौजूद उस छद्म के प्रतिरोध के रूप में देखा जा सकता है जो
आज हमारे चारों तरफ बहुतायत से पसरा हुआ है। आज के समय में कविता की एक नई भाषा
गढ़ने की जरूरत है जो जनसंघर्षों से डरी व्यवस्था की मजदूरी करने वाले कवियों की
जय-जयकारी भाषा से अलग हो।
आज के माहौल में झूठ और सच की पहचान बहुत
कठिन हो गई है। आवारा पूँजी के खिलाड़ियों ने विश्व-बाज़ार और जनसंचार माध्यमों पर
कब्ज़ा कर लिया है। पूँजीवादी मीडिया तथ्यों और घटनाओं के स्वरूप को ठीक उल्टे रूप
में बदलकर इस ढंग से प्रचारित- प्रसारित करता है कि झूठ सच लगने लगता है। ऐसे में
खतरे की पहचान बहुत कठिन हो जाती है। जैसा कि आर चेतनक्रांति कहते हैं- ‘अगर आप चाहें तो बता दें कि सच क्या है/
क्योंकि मेरे पास सच को जानने का कोई तरीका नहीं था/ और क्योंकि उन्हें झूठ से
अनेक फायदे थे/ इसलिए उन्होंने बिल्कुल सच की तरह सहज होकर कहा कि/ सच तो यही है
जो तुम देख रहे हो।’ कुमार अम्बुज
लिखते हैं- ‘फिर मारने की
चीज़ के बारे में/ लम्बे प्रचार के बाद तय कर दिया जाता है कि/ वह बचाने की चीज है/
जैसे जिसके पास बंदूक है वही अमर है।’ इस सकारात्मक
प्रतिरोध का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है परिस्थिति के भय का स्वीकार करना, खतरे की निशानदेही। इस व्यवस्था द्वारा
तय होती लेखन की सीमाओं से यदि कवि अच्छी तरह वाकिफ़ है तो समाज की सच्चाइयाँ सामने
लायी जा सकती हैं और इन्हीं सीमाओं के साथ व्यवस्था से भिड़ते हुए अंततः इन सीमाओं
को ध्वस्त किया जा सकता है। भय की उपस्थिति को स्वीकारना उससे लड़ाई के खिलाफ पहला
कदम है लेकिन कवि स्वयं भयग्रस्त नहीं दिखना चाहिए। कविता की सार्थकता तभी है जब
वह अपनी बात पक्के इरादे, निडरता तथा बेबाकी से रख पाए और एक बेहतर दुनिया का सपना
देकर लोगों को लड़ने का हौसला दे पाए। कुमार अंबुज का मानना है कि– ‘कविता में लिखे शब्द, एक साक्षी के बयान हैं। इन बयानों से कवि
के अंतस का और अपने समय के हालात का दूर तक पता चलता है। कविता स्वप्न देखती है, किंतु उस समय के नागरिक का सकर्मक
सामर्थ्य ही उस स्वप्न्ा को पूरा कर सकता है।‘
भूमंडलीकरण, आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के साथ निरन्तर फैलते मुनाफा
केंद्रित विश्व-बाज़ार ने क्रूर, मनुष्यविरोधी
स्थितियाँ पैदा की हैं। बाज़ार अतृप्त लालसा पर आधारित उपभोकतावाद को बढ़ावा देता है
और बेचने-खरीदने, मुनाफ़ा कमाने की संस्कृति को ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ के रूप में
स्थापित करता है। यह तथाकथित संस्कृति-सभ्यता बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुली छूट देने
और संचार माध्यमों के माध्यम से पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के शिकंजे को कसने की
कवायद ही है। पूँजी और मुनाफ़ा बनाती यह व्यवस्था ऐसे सांस्कृतिक झुनझुने के सहारे
बोलने-विचारने, कुछ कहने-करने
की भावनाओं को नियंत्रित करती है, सच देखने की क्षमता को कुंद करती है और बदले में
कुछ करने, बनाने और नया
रचने के झूठे अहसास से भर देती है। यह उस लुभावने नारे की तरह है जो अपनी अस्मिता
को पाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ाता बल्कि एक खास ढंग से जीने को बाध्य करते हुए हर
तरह की लड़ाई से अनजान और उदासीन बना देता है। इस अपसंस्कृति का प्रभाव गाँवों तक साफ़
दिखाई देता है। गाँव का प्राकृतिक-सांस्कृतिक जीवन विस्थापन और अलगाव का दंश झेलता
पहचान के संकट से जूझ रहा है। लोक-जीवन की पहचान इतिहास से जन्मती और आकार लेती है
लेकिन इतिहास से यह जुड़ाव पुरानी चीज़ों और यादों से चिपके रहना नहीं है; पहचान
पाने का अर्थ कुछ खास तरह के कपड़ों, रीति-रिवाजों
और चीज़ों से मोह रखना भी नहीं है क्योंकि इस तरह के जुड़ाव या मोह बड़ी आसानी से
कट्टरता का रूप ले लेते हैं। पहचान की लड़ाई व्यवस्था के उन सभी रूपों से लोहा
लेना है जो हमें सिर्फ़ एक आज्ञाकारी मजदूर और खरीददार बनाते हैं। आज ऐसी कविता की
जरूरत है जो लोगों को कुछ नया करने की ताकत दे, इतिहास के पन्नों से बदलाव की साझा
लड़ाई की वज़हें और जरूरतें ढूँढे। ऐसी कविता को अपनी जमीन लड़ने की लोक-परंपरा और
उसके गवाह रहे अनगिनत लोकगीतों और कहानियों में ही मिलेगी। कभी न पूरे होने वाले
सपने के जाल में फंसी और अपने आस-पास की सच्चाइयों से अनजान जनता को बदलाव के लिए
प्रेरित करने, लोगों को लड़ने की जरूरत का अहसास कराने का काम समकालीन कविता को
करना होगा लेकिन यह तभी संभव है जब कवि लोक-जीवन की जड़ों, उसकी पहचान, जिजीविषा, और जीवन-संघर्षों के साथ गहराई से जुड़े। लोकधर्मी चेतना, अनुभवों की विविधता, जनसंघर्षों के प्रति आस्था, प्रतिरोध की अभिव्यक्ति, कविताई, संवेदना का सुसंगत रूप समकालीन कविता को महत्वपूर्ण बनाते
हैं। लोक और उसकी समृद्ध गंध कवि को प्रतिरोध करने की शक्ति देती है। लोक जीवन से
गहरे जुड़ा कवि ही जीवन के बिखराव को महसूस कर पाता है।
कविता लिखना एक ऐसी गतिविधि है जो इस
दुनिया का असली रंग देखने और बेहतर दुनिया बसाने का हौसला देती है। वैज्ञानिक
विकास का तमाम रास्ता तय करने के बावजूद शोषण और उत्पीड़न नए तरीकों के साथ आज भी
बदस्तूर जारी है। साम्राज्यवादी शक्तियों ने मानव मस्तिष्क का इस तरह अनुकूलन शुरु
किया है कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने वाली जनचेतना की धार कुंद होने लगी है।
ऐसी मनुष्य विरोधी क्रूर स्थितियों में मनुष्य के हाहाकार और प्रतिरोध की आवाजों
को समकालीन कविता में दर्ज किया जाना बेहद जरूरी है। उदय प्रकाश लिखते हैं- ‘दो
हाथियों की लड़ाई में/ सबसे ज्यादा कुचली जाती है/ घास............/ जंगल से भूखी
लौट जाती है गाय/ और भूखा सो जाता है/ घर में बच्चा/ चार दांतों और आठ पैरों
द्वारा/ सबसे ज्यादा घायल होती है/ बच्चे की नींद, सबसे अधिक असुरक्षित होता है/ हमारा
भविष्य/ दो हाथियों कि लड़ाई में/ सबसे ज्यादा/ टूटते हैं पेड़/ सबसे ज्यादा मरती
हैं चिड़ियां..........दो हाथियों की लड़ाई को/ हाथियों से ज्यादा/ सहता है
जंगल/........जैसे भी हो, दो हाथियों को
लड़ने से रोकना चाहिए।‘ अन्याय और उदासी के माहौल में कविता का
महत्त्व बहुत बढ़ जाता है। समकालीन कविता का सबसे बड़ा काम शब्दों को बाज़ारीकरण और
सरकारीकरण से बचाना है। एक रणनीति एक तहत शब्दों की धार कुंद की जा रही है,
शब्दार्थों को नया रूप दिया जा रहा है; जैसे आजकल इंसान ‘प्यार’ अपनी गाड़ी से करता है और ‘क्रांति’ बाज़ार में
आए नए ब्रांड़ के प्रचार के काम आ रही है; ‘आज़ादी’ कैद का पर्याय बन गयी है और ‘लोकतंत्र’ तानाशाही का। ऐसे में शब्दों को उनके सही अर्थों के साथ
जिंदा रखना कविता की जिम्मेदारी है। शब्द एक हथियार की तरह हैं जिनका प्रयोग ‘सब ठीक चल रहा है’ मानकर प्रकृति और ईश्वर का बखान करने में
भी किया जा सकता है और व्यवस्था को उलट देने के लिए भी। अन्याय का विरोध करने
वालों, ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती को महसूस करने वालों के लिखे में ही शब्द अपने पूरे
अर्थ के साथ आकार लेते हैं। कविता की सीमाओं की दुहाई देकर अपनी उलझनों को जाहिर
करने, भड़ास निकालने या नारों, पार्टी दस्तावेज़ों के लिए शब्दों की बाजीगरी करने
वालों को लिखना छोड़ देना चाहिए। जब कविता लोगों की सोच बदलने, उसे नया आयाम देने
और बदलाव के लिए प्रेरित करने में सक्षम होती है तभी उसका महत्त्व है। अपने दौर के
तमाम संकटों, खतरों से भिड़ने वाली और बदलाव की चाह समेटे समकालीन कविता ही नयी और
बेहतर दुनिया की तस्वीर दिखा सकती है। कविता प्रतिरोध का सांस्कृतिक औज़ार भी है और
नाउम्मीदी के दौर में उम्मीद भरी रोशनी भी। केदारनाथ सिंह के शब्दों में- ‘मौसम चाहे जितना खराब हो/ उम्मीद नहीं
छोड़तीं कविताएँ।’
सन्दर्भ:- अंतरजाल पर उपलब्ध आलेख
आभार राहुल भाई!
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