उचाट
इन
दिनों जिन रास्तों से गुज़रता हूँ
जिन
पहाड़ों जिन जंगलों से टपता हूँ
ऊब
उदासी से भरे दिखाई देते हैं
रास्ते
पहाड़ जंगल सारे के सारे
मुँह
फेर लेते हैं पेड़ भी
मकानात
भी खंडहरात भी
झीलों
पर नदियों पर समुद्रों पर चलता हूँ
विरक्ति
से भर जाता हूँ किसी मृग-सा
पानी
को किसी दूसरे रास्ते जाता देख
यह
कैसी ऊब है कैसा अधीरपना कैसा दुष्चक्र
जलकुण्ड
में उसी के साथ उगता हूँ सँवरता हूँ
तब
भी मन है कि किसी और गूँज में गूँजना चाहता है
तन
है कि किसी और धार में बहना चाहता है
इन
दिनों आदमियों को हाँफते-काँपते देख घबराता हूँ पूरी तरह
मालूम
नहीं इस मरुथली में किस और किसके जीवन को ढूँढता हूँ
यह
उचाट समय गहरे बहुत गहरे जाकर मारता है मुझे
और
उस हत्यारे को लग रहा है कि जीवित हूँ मैं अब भी।
अवसान
इन
दिनों मुझे रेतीला जल रहित किया जा रहा है
पूरे
मनोयोग से अमर्यादित पूरी तरह पीसते हुए
आख़िरकार
मैं भी एक ऐसे समय का हिस्सा हूँ किसी बदशक्ल जैसा
जिस
समय के किसी हिस्से को बेहतर नहीं किया जा रहा उसे सँवारते हुए
जिस
समय की जड़ता को ख़त्म किया जाना है मेरी भाषा से
जिस
समय की जटिलता को नष्ट किया जाना है मेरी लय से मेरे स्वर से
उसी
जड़ता उसी जटिलता को और बढ़ाया जा रहा है इन दिनों
मेरी
भाषा मेरी लय को मारते हुए अपनी गालियों से छलनी करते हुए
मेरे
समय की अभी कितनी ही चीज़ों को नया आकार लेना है
मेरे
समय के अभी कितने ही ख़्वाबों को मेरी कितनी ही ख़्वाहिशों को
किसी
चमचम पानी की तरह चमकाना है नई धार देते हुए नई राह निकालते हुए
अभी
मेरे द्वारा भूख के विरुद्ध बलात्कार के विरुद्ध हत्या के विरुद्ध
कितनी-कितनी
लड़ाइयाँ लड़ी जानी बाक़ी हैं शेष हैं दुष्चक्रों के बीच
अभी
कितनी-कितनी ख़ुशियों को वसंत के दिन लौटाने हैं ज़ालिमों को हराते हुए
परन्तु
मेरे दिनों में मेरे हत्यारे मुझ पर भारी हैं मेरी छातियों पर सवार एकदम
मेरी
रातों में मेरे बलात्कारी घूमते हैं ज़हरीले साँप सरीखे बदरंग बिलकुल
आप
चाहें तो मेरे अवसान मेरे विराम की घोषणा कर आ सकते हैं निःसंकोच
मेरी
मरी हुई देह को लाँघते हुए मेरे हत्यारे को अगर आप पहचानते हों मेरी ही तरह।
उत्तेजन
इस
प्रेम में क्या कुछ नहीं पार करना होता है
कहाँ-कहाँ
नहीं उतरना पड़ता है गहरे जल में
किन-किन
स्थानों पर नहीं ठहरना पड़ता है
कई-कई
शरीर धारण करते हुए चौंकानेवाला
उस
स्त्री के लिए जो ख़ुद जादूगर होती हैं
जादूगर
बनना होता है ऐच्छिक बिलकुल
उस
स्त्री का एकालाप सुनना होता है
उसी
के कहे पर एकासन में रहना होता है
उसी
में एकीभूत उसी में एकीकृत रहकर
जिस
स्त्री के लिए एकाकार हुआ जा रहा हूँ
बेकल
अधीर भी उत्तेजित भी और एकनिष्ठ भी
क्या
मालूम उसे प्रेम की कौन-सी परिभाषा में
प्रेम
करना आता है इस एकांत में फैली हुई घासों पर।
अंतःकथा
मेरे
और उसके बीच की अंतःकथा
गहरे
पानी में उतरी कभी नहीं रही
फिर
भी मालूम नहीं क्यों लोगबाग
बखानते
अपना अंतर्ज्ञान अंतर्बोध
बुरी
तरह उत्तेजित आक्रोशित
मेरे
और उसके संबंध को लेकर
जो
संबंध प्रकट था वर्षों से
जिसमें
न कोई अंतर्द्वंद्व था
न
कोई अंतर्धारा थी
न
कोई अंतर्द्वार था
उसे
लेकर इतना अंतर्युद्ध
उसे
लेकर इतना विरोध विवाद
क्यों
था, उसका मेरा भी प्रेम
कहाँ
समझ पाया
पर
प्रेम तो प्रेम ही था
कहाँ
रह पाया छिपा
कहाँ
रह पाया क़ैद
किसी
छल की तरह
प्रकट
रोज़ हो ही जाता था
उसका
और मेरा प्रेम
कभी
किसी समुद्र के निकट
कभी
किसी पेड़ के नीचे
कभी
किसी हरे मैदान में
कभी
हवाओं पर चलते हुए
यही
थी उसकी मेरी अंतःकथा
दोषरहित
छलहीन अकलंक
और
अकाट्य भी
बिलकुल
पहाड़ी नदी की तरह।
अँदरसा
पीसे
हुए चावल से बनी मिठाई अँदरसा
खिलाते
हुए उसने प्यार से कहा
यह
जादू से भरी मिठाई है
मैं
ख़ुद एक मिठाईवाला था बरसों से
और
मुझे मालूम नहीं था कि कोई मिठाई
जादू
भरी हो सकती है
कोई
वनस्पति जादू भरी हो सकती है
लेकिन
मैंने अंगीकार किया उसके इस कहे को
तब
महसूस हुआ कि अँदरसा में
सचमुच
जादू-सा था कुछ
उसी
से पूछा इस जादू के बारे में
उसी
से पूछा उसके इस अनुभव के बारे में
उसी
को आलिंगन में लेते हुए
जोकि
अँधेरिया में अँगिया पहने
ख़ुद
एक जादुई स्त्री लग रही थी
और
जो अपने मुहावरे पर हँसती हुई
मुझी
से लिपट जा रही थी
अपनी
जुगनुओं-सी चमकीली देह को
मुझसे
ही जैसे छुपाती हुई सहजता से
जैसे
ऐसा वह नहीं करेगी
तो
फैलेगी फैलती ही चली जाएगी
अँदरसे
की जादुई मिठास की तरह
उसका
सारा रहस्य रहस्य नहीं रह जाएगा फिर।
अविरत
जल
मेरे
भीतर जल है
लगातार
बहता हुआ
पूरी
तरह लयात्मक
किसी
झरने-सा
पूरी
तरह सोते पाषाणों को
सोते
हुए मनुष्यों को
उठाता-जगाता
हुआ
जैसे
मचलता है उसका भी जल
जैसे
थिरकता है उसका भी जल
जैसे
छलकता है उसका भी जल
उसी
के देहकुण्ड की
मधुशाला
में झरकर गिरीं
देवदार
की पत्तियों के साथ
वैसे
ही तो रेतीले इस समय को
जलथल
कर रहा है
मेरे
भीतर का जल
अविचलित
विजित विरामहीन
प्रकट
मेरे जीवन की सारी कठिनाइयों को
कहीं
और बहा ले जाते हुए।
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शहंशाह
आलम
जन्म
: 15 जुलाई, 1966, मुंगेर, बिहार।
शिक्षा
: एम.ए. (हिन्दी)
प्रकाशन
: 'गर दादी की कोई ख़बर आए', 'अभी शेष है पृथ्वी-राग', 'अच्छे दिनों में ऊंटनियों का
कोरस', 'वितान', 'इस समय की पटकथा' पांच कविता-संग्रह प्रकाशित। सभी संग्रह चर्चित।
'गर दादी की कोई ख़बर आए' कविता-संग्रह बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत।
'मैंने साधा बाघ को' कविता-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। 'बारिश मेरी खिड़की है' बारिश विषयक
कविताओं का चयन-संपादन। 'स्वर-एकादश' कविता-संकलन में कविताएं संकलित। 'वितान' (कविता-संग्रह)
पर पंजाबी विश्वविद्यालय की शोध-छात्रा जसलीन कौर द्वारा शोध-कार्य।
हिन्दी
की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। बातचीत, आलेख, अनुवाद, लघुकथा,
चित्रांकन, समीक्षा भी प्रकाशित।
पुरस्कार/सम्मान
: बिहार सरकार के अलावे दर्जन भर से अधिक महत्वपूर्ण पुरस्कार/सम्मान मिले हैं।
संप्रति,
बिहार विधान परिषद् के प्रकाशन विभाग में सहायक हिन्दी प्रकाशन।
संपर्क
: हुसैन कॉलोनी, नोहसा बाग़ीचा, नोहसा रोड, पेट्रोल पाइप लेन के नज़दीक, फुलवारी शरीफ़,
पटना-801505, बिहार।
मोबाइल
: 09835417537
ई-मेल
: shahanshahalam01@gmail.com
आभार।
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