Monday 12 October 2015

तीन कवि : तीन कविताएँ – 13

तीन कवि : तीन कविताएँ – 13 के इस अंक में प्रस्तुत हैं सविता सिंह, सुधा उपाध्याय और रूचि बागड़देव की कविताएँ :
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सच्ची कविता के लिए / सविता सिंह 


वह जो अपने ही माँस की टोकरी
सिर पर उठाए जा रही है
और वह जो पिटने के बाद ही
खुल पाती है अन्धकार की तरफ़
एक दरवाज़े-सी
जैसे वह जो ले जाती है मेरी रातों से चुराकर
मेरे ही बिम्ब गिरती रात की तरह

सब अपनी अपनी राहों पर चलती हुर्इ
कहाँ पहुँचती हैं
किन हदों तक
कविता की किन गलियों में गुम होने
या निकलने वैसे मैदानों की तरफ़
जिधर हवा बहती है जैसी और कहीं नहीं

देखना है आज के बाद
खुद मैं कहाँ ठहरती हूँ
एक वेग-सी
छोड़ती हुर्इ सारे पड़ाव यातना और प्रेम के
किस जगह टिकती हूँ
एक पताका-सी

इतिहास कहता है
स्त्री ने नहीं लिखे
अपनी आत्मा की यात्रा के वृत्तांत
उन्हें सिर्फ़ जिया महादुख की तरह
जी कर ही अब तक घटित किया
दिन और रात का होना
तारों का सपनों में बदलना
सभ्यताओं का टिके रहना

उत्सर्ग की चटटानें बनकर
देखूँगी उन्हें जिन्होंने
उठाए अपने दुख जैसे हों वे दूसरों के
जो पिटीं ताकि खुल सके अन्धकार का रहस्य
और वे जो ले गईं मेरी रातों से उठाकर थोड़ी रात
ताकि कविता संभव कर सकें

कब और कैसे लौटती हैं अपनी देहों में
एक र्इमानदार सामना के लिए
अपनी आत्मा को कैसे शांत करती हैं वे
तड़पती रही हैं जो पवित्र स्वीकार के लिए अब तक
कि सच्ची कविता के सिवा कोर्इ दूसरी लिप्सा
विचलित न कर सकी उन्हें


चिल्लर / सुधा उपाध्याय

समेट रही हूं
लंबे अरसे से
उन बड़ी-बड़ी बातों को
जिन्हें मेरे आत्मीयजनों
ठुकरा दिया छोटा कहकर।
डाल रही हूं गुल्लक में
इसी उम्मीद से
क्या पता एक दिन
यही छोटी-छोटी बातें
बड़ा साथ दे जाए
गाहे बगाहे चोरी चुपके
उन्हें खनखनाकर तसल्ली कर लेती हूं कि
जब कोई नहीं होगा आसपास
तब यही चिल्लर काम आएंगे।


अद्भुत संगीत/ रूचि बागड़देव 


कभी सुना है आपने
एक अद्भूत संगीत?
नदी जब गाती है
तो कल-कल करता पानी
ताल मिलाता है
तट सुर मिलाते हैं
नदी खुल कर गाती है
जब अल्हड़ हो जाती है
कभी सुना है आपने
एक अद्भूत संगीत?
माँ का चूल्हा हँसता है
भरभरा कर जब
मेहमान घर आता है
कौआ मुंडेर पर अपनी टेर लगाता है
कभी सुना है आपने
घर में बजते बर्तनों का संगीत?
कितनी मीठी होती है
कटर-पटर की ध्वनियाँ
जब भाई-बहन लड़ते हैं
घर में नन्हा युद्ध भी
प्रेम का नगाड़ा हो जाता है|

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