Tuesday, 6 October 2015

विजेंद्र के कविता संग्रह ‘ढल रहा है दिन’ पर अमीरचंद वैश्य की समीक्षा


कविता देती है आँख शत्रु को पहचानने की
अमीर चन्द वैश्य

सन् 2015 में प्रकाशित ‘ढल रहा है दिन’ कविता-संकलन में विजेन्द्र की नौ लम्बी कविताएँ संकलित हैं। इससे पूर्व उनकी लम्बी कविताओं के संकलन उठे गूमड़े नीले (1983), जनशक्ति (2011), कठफूला बाँस (2013), मैंने देखा है पृथ्वी को रोते (1914) प्रकाश में आ चुके हैं। इस प्रकार ढल रहा है दिन उनकी लम्बी कविताओं का पाँचवाँ महत्त्वपूर्ण संकलन है। प्रसिद्ध आलोचक डा0 कमलाप्रसाद ने जनशक्ति की भूमिका में लिखा है कि मुक्तिबोध के बाद विजेन्द्र ने ही सार्थक और महत्त्वपूर्ण लम्बी कविताएँ सर्वाधिक संख्या में रची हैं। इन संकलनों के अलावा उनके अन्य कविता-संकलनों में भी अनेक महत्त्वपूर्ण लम्बी कविताएँ संकलित हैं। 

समीक्ष्य संकलन की लम्बी कविताओं का संशोधन-काल और रचना-काल सन् 2013 है। इस संकलन में पाँच लम्बी कविताएँ ऐसी हैं, जिनका रचना-काल 1970 का दशक है। इस तथ्य से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विजेन्द्र सन् 1970 के दशक से ही छोटी-मझोली कविताओं के साथ-साथ लम्बी कविताएँ तल्लीनता से रचते रहे। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि विजेन्द्र ने सन् 2012 के मार्च महीने की 12 तारीख को अपनी जन्मभूमि धरमपुर की यात्रा सपरिवार की थी। उस समय इन पंक्तियों का लेखक उनके साथ था। एक दिनी यात्रा के दौर में विजेन्द्र अपने बचपन की यादों में खो गए थे। उनके बचपन का गाँव अब बहुत कुछ बदल गया है। उनकी पुश्तैनी हवेली भी खँडहर  हो चुकी है। उन्होंने अपनी जन्मभूमि की यात्रा लगभग पचास वर्षों बाद की थी। इस यात्रा ने उनके कवि-मन को नई ऊर्जा से भर दिया। उसी का परिणाम हैं ढल रहा है दिन की नौ लम्बी कविताएँ। इन कविताओं में अनेक स्थलों पर विजेन्द्र ने अपने गाँव धरमपुर को बड़ी आत्मीयता से याद किया है। ढल रहा है दिन  के प्रारम्भ में वे कहते हैं- ‘‘मेरा धरमुर गाँव/सूखता तालाब, उजड़ते खलियान/कटते बाग आमों के/ जामुनों के, खिरनियों के/ नीबुओं के,अमरूदों के/ हो रहा मन बेआब/ नहीं बित्ते भर रहा मुझको/ पाँव रखने को/ बचा अब कहाँ ठाँव।‘‘ (पृष्ठ-9) वास्तविकता यह है कि देश-प्रेम की शुरूआत जन्मभूमि के प्रति अनुराग से होती है। विजेन्द्र काव्य की यह विशेषता है कि उसमें जनपदीय वैशिष्ट्य के साथ-साथ अन्तराष्ट्रीय परिघटनाओं का भी समावेश है।

संकलित कविताओं की अंतर्वस्तु विस्तृत है। जनपद से विश्व तक। धरमपुर से भरतपुर तक। अतीत से वर्तमान तक। पहली कविता ढल रहा है दिन में शीर्षक वाक्य अनेक बार दुहराया गया है। यथा- ‘‘ढल रहा है दिन, ढल रहा/ ढल रही है साँझ पेड़ों से।‘‘ ये पंक्तियाँ अनेक बार दुहराई गई हैं। दुहराने से अर्थ में गम्भीरता का समावेश हुआ है। शीर्षक का वाच्यार्थ है कि दिन ढल रहा है। साँझ हो रही है। रात आनेवाली है। कल नया सवेरा होगा। यह जीवन का क्रम है। इस शीर्षक का दूसरा अर्थ यह भी है कि वर्तमान क्रूर व्यवस्था के दुर्दिनों की साँझ धीरे-धीरे झर रही है। जनशक्ति व्यवस्था का विरोध कर रही है। अतएव पूरी संभावना है कि कल का दिन बदला हुआ होगा। आज संघर्ष हो रहा है। संभव है कि कल भी होता रहे। लेकिन एक दिन क्रूर व्यवस्था की साँझ और रात का अवसान होगा। नया सूर्योदय होगा। ऐसी ही आशा इस कविता के अन्त में व्यक्त हुई है। कवि कहता है- ‘‘शान्ति नहीं मिलती युद्ध से/ सबकी भूख प्यास मिटने से ही/ होता है प्रारम्भ लोक राज्य का/ तभी पड़ता है सुनाई अमन राग/उसी से मिटती है हैवानियत अशेष/उसी से मिटती है शत्रुता वर्गों की /कविता का यही है खनिज।‘‘ (पृष्ठ-29) इस कविता की अंतर्वस्तु के केन्द्र में कोई विशेष चरित्र उपस्थापित नहीं है। कवि ने आत्मनिष्ठ शैली में वर्तमान क्रूर व्यवस्था के दुष्कृत्यों का उद्घाटन किया है। उनकी तीव्र निन्दा की है। जनता को सम्बोधित करते हुए कहा है- “बोलो ,बालो अन्याय के विरूद्ध, बोलो तुम/शत्रु को ललकारते हुए बोलो/दमन के खिलाफ भी बोलो/संगठित आदमी की भाषा के /होते असंख्य भुज/असंख्य हुँकारें।‘‘ (पृष्ठ-13) विजेन्द्र मानते हैं कि सार्थक कविता वही है जो अपनी आँख से अपने वर्ग-शत्रु को पहचाने। इस कविता की अंतर्वस्तु का ताना-बाना श्रमशील मानव की संक्रियाओं और प्राकृतिक परिवेश के लघु-लघु दृश्यों से बुना गया है। इसके अलावा इस कविता का एक व्यंग्यार्थ यह भी है कि कवि की अवस्था परिपक्व हो चुकी है। उसके जीवन के दिन धीरे-धीरे झर रहे हैं। उसकी यह अवस्था जीवन की सांध्य वेला है। यही भाव निराला ने भी अपनी कविता में व्यक्त किया है- ‘‘मैं अकेला /देखता हूँ/आ रही मेरे दिवस की /सांघ्य वेला।‘‘ कवि को यह चिन्ता है कि उसके जीवन-काल में अभी तक भारत जैसे विकासशील देश में कोई भी बुनियादी परिवर्तन नहीं हुआ है। आधार और अधिरचना के सम्बन्ध नहीं बदले हैं। 

संकलन की दूसरी कविता का शीर्षक है मिठ्ठन। सन् 1973 में रचित यह कविता 2013 में सशोधित और परिवर्धित की गई। इस कविता की अंतर्वस्तु का सम्बन्ध भरतपुर के सामाजिक जीवन से है। उल्लेखनीय है कि विजेन्द्र ने अपने प्राध्यापकीय जीवन के लगभग तीस वर्ष भरतपुर में गुजारे थे। वहाँ का चप्पा-चप्पा उनकी स्मृतियों में बसा हुआ है। वहाँ का जन-जीवन और वहाँ का विश्व प्रसिद्ध घना पक्षी विहार उन्हे आज भी आकृष्ट करता है। इस कविता के केन्द्र में मिठ्ठन नाम का साधारण व्यक्ति है। नाटे कदवाला। लेकिन नगाड़ा बजाने में निष्णात है। कवि होने के नाते विजेन्द्र उसकी कला का पूरा सम्मान करते हैं। अन्य जन तो उसे उपेक्षा और उपहास की दृष्टि से देखते हैं। मिठ्ठन की कला के माध्यम से कवि ने कला के प्रति समर्पण भाव की अभिव्यक्ति की है। साथ ही साथ उस धर्म-सत्ता की असलियत भी बताई है, जो पाखण्डपूर्ण है। मंसा देवी की मठिया का पुजारी नौजवान है। वेश तो उसका पुजारी जैसा है, लेकिन उसका अंतर्मन काम की दुर्भावना से भरा हुआ है। अतएव वह युवतियों और सयानी लड़कियों को कामुकता की दृष्टि से देखता है। लेकिन मिठठ्न के नगाड़े का धौंसा वहाँ के वातावरण में प्रतिरोध का स्वर गुँजा देता है। अतएव कवि कहता है- ‘‘जब लगता है धौंसा मिठ्ठन का/ नहर का काला जल हिलता है/पके पत्ते गिरते हैं/हवा से टूटकर /नगाड़े की ध्वनि से उत्पन्न थरथराहट से/जागता है मन के भीतर का/सोया मन।‘‘ (पृष्ठ-47) नाटे कद का मिठ्ठन अपनी कला से लोगों का पाखण्ड खण्ड-खण्ड कर देता है। इस कविता में धार्मिक पाखण्ड को यथार्थ के धरातल पर उजागर किया गया है। धर्म खरा सिक्का है खाने-कमाने का। ढोंग, आडम्बर, झूठ और फरेब का। ये सभी दुर्गुण आज हमारे समाज के अभिजात वर्ग के कण्ठाभरण हैं। कवि ने इस वर्ग का तीखा प्रतिरोध किया है। 

तीसरी कविता का शीर्षक है पत्ते गिर रहे हैं। यह कविता 1976 में लिखी गई। सन् 2013 में संशोधित की गई। इस कविता का शीर्षक बता रहा है कि पतझर का मौसम है। अतएव सूखे पत्ते लगातार झर रहे हैं। सरसराती हवा से आन्देालित होकर। पतझर के बाद वसन्त का आगमन होता है। इसीलिए पतझर को वसन्त का अग्रदूत कहा जाता है। पुराने पत्ते झर जाते हैं। उनके स्थान पर नये-नये पत्ते आने लगते हैं। प्रकृति का यह परिवर्तन-चक्र सामाजिक जीवन में भी लक्षित होता है। आज जो कुछ घटित हों रहा है, वह कल नये परिवर्तन के रूप में दिखाई देगा। सार्थक परिवर्तन के लिए वर्तमान को बदलना अनिवार्य है। अतएव कवि की चिन्ता यही है कि वर्तमान की वास्तविकता समझी जाए। उसका संगठित प्रतिरोध किया जाए। कवि का वर्तमान-दर्शन अपने देश तक सीमित नहीं है। वह राष्ट्रीय से अंतरराष्ट्रीय भी है। इस कविता में कवि की राजनैतिक सक्रियता भी अभिव्यक्त हुई है। लोग उससे पूछते हैं -‘‘ यह कस्बा चुना है रहने को /तुमने अपने लिए, भरतपुर /यहाँ कौन है तुम्हारा सगा/जाते हो किसानों के बीच/मलाह गाँव के आस-पास /जुड़ती हैं किसान सभाएँ/कामरेड पोखन सिंह की।‘‘ (पृष्ठ-51) उल्लेखनीय है कि अपने भरतपुर-प्रवास में विजेन्द्र किसान सभाओं में सक्रिय भाग लिया करते थे। और सी0 पी0 आई0 के सक्रिय मेम्बर थे। सी0 आई0 डी0 उनके पीछे-पीछे घूमती थी। इस कविता की अंतर्वस्तु भी श्रमशील जनों की संक्रियाओं से बुनी गई है। साथ ही साथ भरतपुर के प्राकृतिक परिवेश के लघु-लघु चित्र भी कलात्मक ढंग से सजाए गए हैं। गीत की टेक के समान पत्ते गिर रहे हैं, वाक्य की आवृत्ति अनेक बार हुई है। कवि कहता है-‘‘ पत्ते गिर रहे हैं /उन्हंें गिरने दो/नीम ,पापड़ी, शीशम पर /टिमटिमाते हैं नवजात।‘‘ (पृष्ठ-69) यहाँ नवजात पद नई कोपलों की ओर संकेत कर रहा है। पुराने पत्तों के समान पुरानी व्यवस्था भी धीरे-धीरे झर जाती है। संपूर्ण कविता सूखे पत्तों के झरने की ध्वनि से युक्त है। कवि को ऐसा आभास होता है कि मानो जलतरंग बज रहा है। इस कविता की व्यंजना यह भी है कि पुराने पत्तों के झरने पर अफसोस नहीं करना चाहिए। उनका झरना स्वाभाविक है। इसी प्रकार समाज में सड़ी हुई व्यवस्था का समापन भी आश्चर्यजनक नहीं है। लेकिन सड़ी व्यवस्था तभी बदलेगी जब वर्गीय दृष्टि से उसका प्रवल प्रतिरोध किया जाए। और परिवर्तनकामी राजनैतिक दल के नेतृत्व में आन्दोलन किया जाए। ऐसे आन्दोलन में कोटि-कोटि कृषकों और श्रमिकों की सक्रियता अनिवार्य होगी। मध्यवर्ग को अपने व्यक्त्त्वि का रूपान्तरण करना होगा। उसे श्रमशील लोक से एकात्म होना होगा। तभी अभीष्ट परिवर्तन सम्भव है। 

चैथी कविता का शीर्षक है रतलाम की सुबह।  इसका रचनाकाल सन् 1978 है। इसमें मध्यप्रदेश के रतलाम शहर का वर्णन है। यह शहर कभी रत्नललाम था। कवि को जितना प्यारा धरमपुर लगता है, उतना ही रतलाम भी। निर्मल शर्मा के निमंत्रण के अनुसार कवि रतलाम पहुँचता है। साहित्यिक समारोह में शिरकत करने के लिए। वहाँ उसकी भेंट कविवर नागार्जुन और त्रिलोचन से होती है। आलोचकों में कर्णसिंह चैहान और राजीव सक्सेना से। इस कविता की अंतर्वस्तु का विन्यास अनेक छोटे-छोटे वर्णनों एवं संस्मरणों के द्वारा किया गया है। गद्य मंे तो संस्मरण खूब लिखे गए हैं। लेकिन संस्मरणात्मक कविताएँ विरल हैं। रतलाम की सुबह का मूल आधार नागार्जुन और त्रिलोचन के रोचक संस्मरण हैं, जो उनकी चारित्रिक विशेषताएँ उद्घाटित करते हैं। कवि ने नागार्जुन की हास्यप्रियता का रोचक उद्घाटन किया है। और त्रिलोचन के निर्मल चरित्र का। त्रिलोचन के बारे में कवि कहता है-‘‘ तप है साधना शब्द को/संयमित जीवन में /कवि को देनी होती है/अग्नि परीक्षा हर क्षण/व्यवहार की भी।‘‘ (पृष्ठ-86) त्रिलोचन इस परीक्षा में खरे उतरते हैं। विजेन्द्र मानते हैं कि अच्छे कवि के लिए यह अनिवार्य है कि उसका आचरण भी प्रशंसनीय हो। चरित्र-भ्रष्ट व्यक्ति उत्कृष्ट साहित्य की सर्जना नहीं कर सकता। इस कविता की विशेषता यह है कि कवि ने छोटी से छोटी बात का रोचक और कलात्मक वर्णन किया है। रतलाम के प्राकृतिक दृश्यों से साक्षात्कार करवाया है। चाय लानेवाले पहाड़ी लड़के के मनोभाव समझे हैं। उसकी भंगिमा से प्रतिरोध की भावना व्यक्त की है। स्थापत्य की दृष्टि से यह कविता सुगठित और कलात्मक है। 

पाँचवीं कविता का शीर्षक है सुराज। कवि ने इसे वर्तमान कुराज  के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया है। इस कविता के केन्द्र में बाबू खाँ नामक अपराधी राजनेता है। बाहुबल से चुनाव जीतता है। लोगों को आतंकित करता है। कवि ने बाबू खाँ के चरित्र के माध्यम से राजनीति के अपराधीकरण की तीखी आलोचना की हैं। और अपराध के राजनीतीकरण की भी। आजकल हमारे लोकतांत्रिक समाज में ऐसा ही हो रहा है। अनेक एम0 एल0 ए0 और सांसद अपाराध के दलदल में धँसे हुए हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि ईमानदार व्यक्ति चुनाव लड़ने से डरता है। बाहुबली और धनबली छल-बल से चुनाव जीत जाते हैं। और फिर मंत्री बनकर जनता को लूटते हैं। अत्याचार करते हैं। दुराचार करते हैं। अपना घर भरते हैं। कवि की चिन्ता यह है कि ऐसा कुराज कैसे बदले। अतएव उसने सुराज नामक राजनैतिक दल की कल्पना करके शोषित जनता को एकजुट किया है। बाबू खाँ से संत्रस्त जन-गण सुराज पार्टी को अपना वोट देकर उसे विजेता बनाते हैं। इसका परिणाम होता है कि बाबू खाँ जैसा अपराधी चुनाव हार जाता है। सुराज की ताकत बढ़ने लगती है। कवि कहता है-‘‘ संघर्ष बड़ा होगा आगे/छोड़नी होगी काहिली सारी/शत्रु बड़ा प्रबल है अब भी /रचेगा जाल गुपचुप  सारे/वर्ग चेतना रचनी होगी/नींव भरो पुख्ता/जिस पर भवन बनेगा नया।‘‘ (पृष्ठ-118) इस प्रकार कवि ने आधार और अधिरचना का सम्बन्ध व्यक्त किया है। आजकल हमारे देश की राजनीति जातिवाद और संप्रदायवाद के पहियों का सहारा ले रही है। यंे दोनों पहिए देश को गर्त में ढकेल रहे हैं। वर्गीय चेतना के आधार पर जो संघर्ष किया जाएगा, वही सार्थक होगा। किसान और मजदूर दो वर्ग हैं। यदि ये दोनों वर्ग एकजुट हो जाएँ और मध्यवर्ग इनके साथ मिल जाए तो समाज में सार्थक परिवर्तन सम्भव है। अन्यथा विघटन ही विघटन सामने हैं। लेकिन हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद से आज तक वामपंथी राजनैतिक दल संपूर्ण देश में अपना जनाधार निर्मित नहीं कर सके हैं। सही कारण है कि दक्षिणपंथी राजनैतिक दल सत्ता हथिया लेते हैं। उनकी सत्ता से जन-गण को नहीं अपितु मुट्ठी भर पूंजीपतियों को लाभ पहुँचता है। वे कारेड़पति से अरबपति हो जाते हैं। दूसरी ओर जनता भुखमरी के कगार पर पहुँच जाती है। कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या करने लगते हैं।

कविता के अन्त में कवि ने राष्ट्रपिता के रामराज की ओर भी संकेत किया है। लेकिन अब रामराज संभव नहीं है। इसलिए कि रामराज में वर्ण-व्यवस्था को सर्वोपरि माना गया है। इसी व्यवस्था के कारण भारतीय समाज अंदर से बँटा हुआ है। हाँ ,इतना अवश्य है कि व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति को जातीय भेद-भाव और सांप्रदायिक वैमनस्य से हमेशा दूर रहना होगा। उसे अन्तरजातीय और अन्तरधार्मिक विवाह को वरीयता देनी होगी। इससे समाज में सौहार्द बढ़ेगा। नफरत घटेगी। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे रहनुमा अपने टुच्चे स्वार्थों के लिए जातिवाद से समझौता करते रहते हैं। सांप्रदायिक दुर्भावना फैलाते हैं। इसके विपरीत हमारे देश की समझदार जनता इन दोनो बुराइयों से नफरत करती है। स्थापत्य कला की दृष्टि से यह कविता भी सुगठित और कलात्मक है। 

छठी कविता का शीर्षक है टापें सुनीं। इसका रचना-काल 1973 है। इस कविता में भी शीर्षक पंक्ति टापें सुनीं अनेक बार दुहराई गई है। ये टापें घोड़ों की हैं। घोड़ों का सम्बन्ध राजसत्ता से है। विशेष रूप से सामन्ती व्यवस्था से। सत्ता का यह चरित्र रहा है कि उसने अपने अस्तित्व के लिए निरीह जन-गण को हमेशा दबाया है। सताया है। कुचला है। सामन्ती युग में जब कोई राजा दूसरे राज्य पर आक्रमण करता था तब वहाँ के निरीह जनों को विस्थापित कर दिया जाता था। उनके खेत-खलिहान बर्बाद कर दिए जाते थे। जनतंत्र के युग में सत्ता का चरित्र बदला नहीं हैं। वह और क्रूर हो गया है। अब सत्ता धनबल और बाहुबल से अपने अस्तित्व की रक्षा करती रहती है। अपने स्वार्थ के लिए अध्यादेश जारी करती है, जिससे दुर्बल किसानों की जमीन हड़प सके। इस कविता का कथापट भी वर्तमान की दुर्घटनाओं और प्रतिरोध भावनाओं से बुना गया है। कवि ने वर्तमान समाज की नाना प्रकार की विसंगतियाँ उद्घाटित की हैं। शोषण के नये-नये रूपों का उद्घाटन भी किया है। लेकिन श्रमशक्ति की महत्ता विस्मृत नहीं की है। कवि का आत्मविश्वास है -‘‘ जो लड़ते हैं सर्वहारा को/वहीं हैं सच्चे देश भक्त/सत्ता बदलती है/जनता की संगठित शक्ति से।‘‘ इसलिए कवि आगे कहता है-‘‘ बदलो, बदलो, बदलो /अपने हाथों के रूझान/उँगलियों के संकेत/सड़ा ठठ्ठर बदल डालो/ढीले पेचों को कसो।‘‘ और देश-द्रोहियों को पहचानो, जो पीते है। रक्त आदमी का बिन जाने कहे। (पृष्ठ-135, 136) कविता के अन्त में कवि ने यह आशा व्यक्त की है समय का आरा कभी थमता नहीं है। वह दुष्टों को काटता रहता है। हमें जल्लाद के मुँह से अपनी प्रज्ञावती मानव जाति को बचाना है।  

सातवीं कविता का शीर्षक है जुम्मन मियाँ। इसका रचना-काल 1976 है। कवि के अनुसार यह दौर लम्बी कविताओं का ही था। जनशक्ति तथा कठफूला बाँस भी इसी दौर की कविताएँ हैं। 
यह कविता उपर्युक्त दोनों कविताओं के समान प्रदीर्घ है, जिसे सन् 2013 में अंतिम रूप प्रदान किया गया। यह कविता इस संकलन में पृष्ठ संख्या 142 से प्रारम्भ हुई है और इसका समापन हुआ है पृष्ठ संख्या 194 पर। यह संकलन की सर्वाधिक लम्बी कविता है। इसके केन्द्र में अल्पसंख्यक समुदाय का एक साधारण व्यक्ति जुम्मन मियाँ का चरित्र उपस्थापित है। इस चरित्र के माध्यम से कवि ने संपूर्ण देश में परिव्याप्त सांप्रदायिक वैमनस्य की भीषण और त्रासद समस्या का निरूपण किया है। इतिहास साक्षी है कि सांप्रदायिक वैमनस्य के कारण ही भारत का विभाजन हुआ था। सन् 1857 में हिन्दू और मुसलमान दोनों एकजुट होकर अंँग्रेजों के खिलाफ लड़े थे। लेकिन यह इतिहास की बिडम्वना है कि ब्रिटिश शासकों ने दोंनों को धर्म और मजहब के नाम पर दो कौमों में विभक्त कर दिया। अपने साम्राज्य की जड़ें जमाने के लिए अँग्रेजों ने हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा घोषित कर दिया। और उर्दू को मुसलमानों की। इस कविता के केन्द्र में जुम्मन मियाँ की जली टाँग है, जो खौलते डामर के कारण जल गई थी। वस्तुतः जुम्मन मियाँ उस अल्पसंख्यक संप्रदाय का प्रतीक है, जो सांप्रदायिक वैमनस्य के कारण अपना जीवन असुरक्षित समझता है। इस कविता की अंतर्वस्तु का विस्तार जुम्मन मियाँ के आत्मालाप के रूप में किया गया है। कविता पढ़ते हुए पाठक को ऐसा आभास होता है कि जुम्मन के आत्मालाप के साथ-साथ कवि भी उसे आत्मीय भाव से जुम्मन को सम्बोधित कर रहा है। कवि ने सांप्रदायिकता की समस्या को स्थानीयता से जोड़ा है और उसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। आजादी के बाद से आज तक असंख्य सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं। उनके कारण अल्पसंख्यक समुदाय को बार-बार विस्थापित होना पड़ा है। इस कविता में विस्थापन की समस्या का उल्लेख अनेक बार किया गया है। जड़ीभूत सौन्दर्यबोध पर चोट की गई है। अभिजनों पर व्यंग्य किया गया हैं। साम्राज्यवादी अमरीका की कुचालों की आलोचना की गई है। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि साम्राज्यवाद और सांप्रदायिकता में चोली-दामन का सम्बन्ध है। साम्राज्यवादी शक्तियाँ चाहती हैं कि भारत में हिन्दू और मुसलमान एकजुट न होने पाएँ। इसलिए ऐसा महौल बनाया जाता है कि हिन्दू मुसलमानों को दुश्मन समझते हैं। मुसलमान हिन्दुओं को। परन्तु हकीकत यह है कि दोनों भारत माँ की आँखें हैं। एक संप्रदाय का काम दूसरे के सहयोग के बिना चल नहीं सकता है। विशेष रूप से दैनिक जीवन का व्यापार, जहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनो सहयोग करते हैं। मुसलमान हुनरमंद हैं। कारीगर हैं। इसलिए कला के विकास के लिए उनका योगदान अनिवार्य है। यह कविता कविता पढ़ते हुए गुजरात और मुजफ्फरनगर के दंगे याद आने लगते हैं। साथ ही साथ अल्पसंख्यक समुदाय के विस्थापन का दर्द भी महसूस होने लगता है। कविता का संदेश है कि विरोध में ही निहित है /आदमी की ताकत। वस्तुतः जुम्मन मियाँ की जली टाँग भयंकर सांप्रदायिक हिंसा से जनमे विध्वंस-वैमनस्य-अलगाव का प्रतीक है। कविता का निहित संदेश है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता  की रक्षा परम अनिवार्य है। इसका आशय यह नहीं है कि लोग अपना-अपना धर्म त्याग दें। इसका मतलब यह है कि राजसत्ता और धर्मसत्ता अलग-अलग रहें। दोनों में गठबन्धन न हो। लेकिन आजकल हमारे देश में दुर्भाग्य से यही हो रहा है कि राजसत्ता और धर्मसत्ता एकजुट होकर अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत फैला रही हैं। कविता के अन्त में कवि कहता है-‘‘ जैसे मिट्टी की परतें तराऊपर /मन के भीतर एक और मन/दरअसल हड़बड़ी में /तुमने यह जाल/ढीला कसा है/तुम्हें यह फिर उधेड़ना होगा/तुमने वहाँ अपनी उँगलियाँ /फंसा दीं /उठो , रास्ता खोजो/वो तुम्हें ही करना है।‘‘ (पृष्ठ-193, 194) कहने का तात्पर्य यह है कि धर्मनिरपेक्षता के जीवन-मूल्य की रक्षा दोनो संप्रदायों को सद्भाव से करनी होगी। अन्यथा विनाश ही विनाश सामने है। नफरत से नफरत ही बढ़ती है। इसलिए इतिहास के उन अध्यायों को दुहराना आवश्यक है ,जहाँ दोनो संप्रदायों ने एकजुट होकर दुश्मन से लोहा लिया था। इस सन्दर्भ में साहित्य और कला महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। आज ऐसा कौन सा हिन्दुस्तानी है, जिसे मीर और गालिब का कलाम अच्छा न लगता हो। फै़ज अहमद फैज को पसन्द न करता हो। कैफी आज़मी के नग्मों पर झूमता न हो। उस्ताद अल्लारक्खा खाँ और जाकिर हुसैन के तबलावादन से आनन्दित न हो। वास्तविकता यह है कि हिन्दुस्तानी संगीत के विकास में हिन्दू और मुसलमान दोनों का योगदान रहा है। हिन्दी साहित्य का इतिहास हिन्दुओं के साहित्य का इतिहास नहीं है। वह हिन्दी जाति का इतिहास है। उसे तुलसी और रहीम दोनों ने समृद्ध किया है। यदि जायसी का पद्मावत न होता तो तुलसी का रामचरितमानस भी नहीं होता। अतएव भारत जैसे बहुजातीय राष्ट्र में सांप्रदायिक सौहार्द परम अनिवार्य है। 

आठवीं कविता का शीर्षक है पाल राब्सन । यह कविता अमरीकी अश्वेत महान गायक पाल राब्सन को सम्बोधित है। उसने अपनी कृति हियर आई स्टेंड की रचना से अमरीका की श्वेत सत्ता को हिला दिया था। हम सभी जानते है कि अमरीका में काले-गोरे का भेद समाप्त नहीं हुआ है। कवि ने पाल राब्सन को सम्बोधित करते हुए कहा है-‘‘ बीसवीं सदी के/ अश्वेत योद्धा गायक/तुझे करता हूँ याद /इक्कीसवीं सदी की उफनती लहरों में/ओ योद्धा गायक/कवियों की तमस भेदक किरण /अश्वेत के कण्ठ का मुक्त राग/पूरी दुनिया में उमड़ते/मुक्ति संग्राम की लौ/फूटता सुर्ख कल्ला उजास /पृथ्वी के गर्भ में खौलता लावा/कहाँ हो तुम /एक बार फिर आओ इस कराहती दुनिया में।‘‘ (पृष्ठ-195) यहाँ सवाल उठता है कि कवि पाल राब्सन का आह्वान क्यों कर रहा है। क्या वह लौटकर आएगा। शायद नहीं। कवि का आशय यह है कि इतिहास के संघर्षपूर्ण अध्यायों से सबक सीखकर वर्तमान की विषमता से लड़ा जा सकता है। यही कारण है कि कवि स्वयं को पाल राब्सन से एकात्म कर लेता है और उसे भारत के अश्वेत एवं दलित जनों से जोड़ देता है और कहता है-‘‘ मैं भी तो अश्वेत हूँ/दोआबा की मिट्टी से बना/काली नस्ल का धरती पुत्र/ओ महागायक/तुम एक बार फिर आओ/इक्कीसवीं सदी की बदलती दुनिया में।‘‘ (पृष्ठ-202, 203) संगीत ऐसी कला है, जो लोगो के दिल-दिमाग से दुश्मनी की भावना मिटा देती है। संगीत की लय से सुननेवालों के हृदय तन्मय हो जाते हैं। यही कारण है कि बड़े-बड़े तानाशाह संगीतकारों और कलाकारों का विरोध करते हैं। मानव आत्मा के शिल्पी कवि और कलाकार तानाशाहों की आँखों की किरकिरी होते हैं। संरचना की दृष्टि से यह अनतिदीर्घ कविता कलात्मक है। इसका स्थापत्य सुघड़ है। ओज गुण से युक्त है। इस कविता की भाषाई संरचना निराला के ओज गुण का स्मरण कराती है। 

संकलन की अंतिम कविता का शीर्षक है मेरा घर। यह कविता भी अनतिदीर्घ है। इसकी अंतर्वस्तु का सम्बन्ध भरतपुर के सामाजिक परिवेश से है। इस कविता में कवि का निजी व्यक्त्त्वि है। उसके जीवन की व्यथा-कथा है। साथ ही साथ परिवेश का वास्तविक निरूपण भी। सिविल लाइन्स में रहनेवाले सभ्य अफसरों को यह शिकायत है कि विजेन्द्र जैसा साधारण प्राध्यापक हमारी उपेक्षा क्यों करता है। ग्रामीण जनों से अपना सम्बन्ध क्यों जोड़ता है। उनकी बातें क्यों सुनता है। कवि ने सिविल लाइन्स के लोगों की आलोचना करते हुए ठीक लिखा है-‘‘ यह सिविल लाइन्स है/रहते हैं जहाँ सफेदपोश मनघुन्ने/नफरत है जिन्हें गाँववालों से/दुत्कारते हैं श्रमियों को/जो उगाते हैं अम्बार उपयोगी उत्पाद का/वे खोदते है कब्र अपने शोषक शत्रु की।‘‘ (पृष्ठ-209) यह कविता इस बात का प्रामाण है कि कवि गाँव और कस्बे के साधारण जनों से तो एकात्म है, लेकिन सिविल लाइन्स के अभिजनों से नफरत करता है। कारण स्पष्ट है। अभिजन वर्ग परोपजीवी है, जो श्रमशील जनो के श्रम का उपभोग मनमाने ढंग से करता है। उनका शोषण करता है। इस कविता में श्रमशील जनों के प्रति कवि की हार्दिक सहानुभूति व्यक्त हुई है। कवि ने इस कविता में बड़ा सवाल यह उठाया है कि पूरा भारतीय समाज सड़ा हुआ क्यों है। उसका कहना है-‘‘ बन्दूक समाधान नहीं/भूख का ,कुपोषण का , काले धन का/बदलना होगा आधार अधिरचना का/लेने होंगे कड़े निर्णय जनता के पक्ष में।‘‘ (पृष्ठ-217) गम्भीर निराशा के बाद भी कवि पूर्णरूप से आशावादी है। उसकी अभिलाषा है-‘‘ ओ सुबह, तू जल्दी आ/रोशनी में दिखें खिले चेहरे और भी/जीवन की संक्रियाएँ प्रसन्न मुख/नई पत्तियों पर पड़ती दिखें किरणें सूर्य की।‘‘ (पृष्ठ-224) कविता का समापन इस बात का सबूत है कि कवि के मन में उज्ज्वल भविष्य के प्रति गहरी आस्था है। उसका विश्वास है कि एक न एक दिन जनशक्ति वर्तमान क्रूर व्यवस्था को अवश्य बदलेगी। उसके स्थान पर समतामूलक समाज की स्थापना होगी। ऐसे ही समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्त्त्वि के विकास की सभी सुविधाएँ उपलब्ध होंगीं।  

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि समकालीन हिन्दी कविता में शोषणमूलक व्यवस्था के विरूद्ध जैसा बुलन्द स्वर इस संकलन की कविताओं में व्यक्त हुआ है, वैसा अन्य कवियों में दुर्लभ है। आज कल अनेक कवि ऐसे हैं जो आत्ममुग्ध अधिक हैं। वे लोक के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हैं। उनकी कविताओं में मेहनतकशों की क्रियाशीलता के चित्र बहुत कम लक्षित होते हैं। लेकिन विजेन्द्र ऐसे लोकधर्मी कवि हैं, जो प्रत्येक लम्बी कविता के माध्यम से प्रतिरोध का स्वर बुलन्द करते हैं। जनशक्ति के प्रति आस्था व्यक्त करते हैं। मुक्तिसंग्राम की प्रक्रिया को आगे बढाते हैं। भाषिक संरचना को लयात्मक रूप प्रदान करते हैं। उसे ओज और माधुर्य से युक्त करते हैं। मानव की क्रियाओं का सम्बन्ध प्राकृतिक परिवेश से जोड़ते हैं। संकलन की सभी कविताएँ सहज संप्रेषणीय हैं। इनमें मुक्तिबोधी दुरूहता कहीं भी लक्षित नहीं होती है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि विजेन्द्र का कवि व्यक्त्त्वि समकालीन कविता के संसार में विराट् ज्योतिस्तम्भ है। 

ढल रहा है दिन/ कविता संग्रह/ विजेंद्र/ नयी किताब, 1/11829, प्रथम मंजिल, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32/ पृष्ठ- 224/ मूल्य- 400/-/ वर्ष 2015



संपर्क- अमीरचन्द वैश्य, द्वारा कम्प्यूटर क्लीनिक, चूना मण्डी, बदायूं, उ.प्र. 243601
मो0- 09897482597 
ईमेल- gtbadaun@rediffmail.com

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