तीन कवि : तीन कविताएँ – 14 के इस अंक में प्रस्तुत हैं श्रीप्रकाश शुक्ल, आत्मारंजन और ज्ञानप्रकाश चौबे की कविताएँ :
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एक स्त्री घर से निकलते हुए / श्रीप्रकाश शुक्ल
एक स्त्री घर से निकलते हुए भी नहीं निकलती
वह जब भी घर से निकलती है
अपने साथ घर की पूरी खतौनी लेकर निकलती है
अचानक उसे याद आता है
गैस का जलना
दरवाज़े का खुला रहना
नल का टपकना और दूध का दहकना
एक-एक कर वह पूछती है
प्रेस तो बंद कर दिया था न !
आँगन का दरवाज़ा तो लगा दिया था न !
किचेन का सीधा वाला नल बंद करना तो नहीं भूली !
अरे ! हाँ ! वो सब्ज़ी
वह मँहगी हरी पत्तियों वाली सब्ज़ी
जो अभी कल ही तो लाई थी सटटी से
प्लास्टिक से निकाल दिया था न !
हाँ, हाँ अरे सब तो ठीक है
आपको ध्यान है आलमारी लाक करना तो नहीं भूली
अभी कल की ही तो बात है महीनों को बचाए पैसे से नाक की कील ख़रीदी थी ।
इस तरह वह बार-बार याद करती और परेशान होती है
कि दूध वाले को मना करना भूल गई
कि बरतन वाली से कहना भूल गई कि उसे कल नहीं आना था
कि पड़ोसिन को बता ही देना था कि कभी कभी मेरे घर को भी झाँक लिया करतीं ।
इस तरह एक स्त्री निकलती है घर से
जैसे निकलना ही उसका होना है घर में ।
वह जब भी घर से निकलती है
अपने साथ घर की पूरी खतौनी लेकर निकलती है
अचानक उसे याद आता है
गैस का जलना
दरवाज़े का खुला रहना
नल का टपकना और दूध का दहकना
एक-एक कर वह पूछती है
प्रेस तो बंद कर दिया था न !
आँगन का दरवाज़ा तो लगा दिया था न !
किचेन का सीधा वाला नल बंद करना तो नहीं भूली !
अरे ! हाँ ! वो सब्ज़ी
वह मँहगी हरी पत्तियों वाली सब्ज़ी
जो अभी कल ही तो लाई थी सटटी से
प्लास्टिक से निकाल दिया था न !
हाँ, हाँ अरे सब तो ठीक है
आपको ध्यान है आलमारी लाक करना तो नहीं भूली
अभी कल की ही तो बात है महीनों को बचाए पैसे से नाक की कील ख़रीदी थी ।
इस तरह वह बार-बार याद करती और परेशान होती है
कि दूध वाले को मना करना भूल गई
कि बरतन वाली से कहना भूल गई कि उसे कल नहीं आना था
कि पड़ोसिन को बता ही देना था कि कभी कभी मेरे घर को भी झाँक लिया करतीं ।
इस तरह एक स्त्री निकलती है घर से
जैसे निकलना ही उसका होना है घर में ।
रास्ते / आत्मारंजन
डिगे भी हैं
लड़खड़ाए भी
चोटें भी खाई कितनी ही
पगड़ंडियां गवाह हैं
कुदालियों, गैंतियों
खुदाई मशीनों ने नहीं
कदमों ने ही बनाए हैं -
रास्ते !
लड़खड़ाए भी
चोटें भी खाई कितनी ही
पगड़ंडियां गवाह हैं
कुदालियों, गैंतियों
खुदाई मशीनों ने नहीं
कदमों ने ही बनाए हैं -
रास्ते !
नदी बोलेगी / ज्ञानप्रकाश चौबे
मेरी चुप्पी
नदी की चुप्पी नहीं है
जंगलों में पेड़ों की तादाद
धूप की गर्मी से कम है
मेरे हिस्से की हवा
माँ के बुने स्वेटर की साँस से कम है
बादल छुपे हैं
यहीं कहीं सेमल के पीछे
मेरे हिस्से की धूप लेकर
फूल हँस रहे हैं
वो सब जानते हैं
ज़िन्दगी की एक-एक परत
टूटती उबासी
रेत के साथ गाते हुए
गई है अभी शहर से बाहर
सड़क से उतरकर पगडंडियों के साथ
कितनी तेज़ धूप है
और मेरी छाया उसके साथ है
जंगल की मुर्गाबियाँ
निकली हैं नदी की तलाश में
उनके पैरों के निशान
गुज़रें हैं उस पहाड़ से होकर
हवा से पता पूछते हुए
नदी की चुप्पी
मेरे अन्दर छिपी है पलकों के पीछे
बरबस मैं उसे ढूँढ़ लूँगा
जंगल के पीछे कहीं
कहूंगा ‘झाँ’
नदी खिलखिलाकर हँसेगी
पेड़ों के साथ झूमते हुए
निकल आएगी बादलो के पीछे से
धूप के साथ गलबहियाँ डाले हुए
नदी की चुप्पी नहीं है
जंगलों में पेड़ों की तादाद
धूप की गर्मी से कम है
मेरे हिस्से की हवा
माँ के बुने स्वेटर की साँस से कम है
बादल छुपे हैं
यहीं कहीं सेमल के पीछे
मेरे हिस्से की धूप लेकर
फूल हँस रहे हैं
वो सब जानते हैं
ज़िन्दगी की एक-एक परत
टूटती उबासी
रेत के साथ गाते हुए
गई है अभी शहर से बाहर
सड़क से उतरकर पगडंडियों के साथ
कितनी तेज़ धूप है
और मेरी छाया उसके साथ है
जंगल की मुर्गाबियाँ
निकली हैं नदी की तलाश में
उनके पैरों के निशान
गुज़रें हैं उस पहाड़ से होकर
हवा से पता पूछते हुए
नदी की चुप्पी
मेरे अन्दर छिपी है पलकों के पीछे
बरबस मैं उसे ढूँढ़ लूँगा
जंगल के पीछे कहीं
कहूंगा ‘झाँ’
नदी खिलखिलाकर हँसेगी
पेड़ों के साथ झूमते हुए
निकल आएगी बादलो के पीछे से
धूप के साथ गलबहियाँ डाले हुए
sundar
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