Wednesday 10 June 2015

समकालीन कहानी : कुछ बिन्दु

विमर्श                           


समकालीन कहानी : कुछ बिन्दु

रमाकान्त श्रीवास्तव

समकालीनता एक विशेष कालखंड का द्योतक है उसे लेखकों सम्पादकों द्वारा अपने-अपने हिसाब से तय किए गए युवाओं की एक-डेढ़ दशक की सद्य प्रकाशित रचनाओं में परिघटित करना उतना ही अनुचित है जितना कि कहानी की केंद्रीयता का विवादास्पद जुमला। कहानीकारों की तीन पीढ़ियां सक्रिय हैं और कविता के क्षेत्र में भी सक्रियता है। और उन्हें भी पाठकों द्वारा पढ़ा जा रहा है। युवा पीढ़ी उसे भी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाती है। साहित्येतिहास में रचनारत पीढ़ियों के लेखकों को समय के प्रहारों और समस्याओं का सामना समान रूप से करना पड़ता है। वर्तमान समय में कहानीकार के सामने समस्याएं कुछ होंगी और कवि के समक्ष कुछ और, यह सोचना ही मतिभ्रम है। पीड़ाएं त्रास और स्वप्न पूरे कालखंड के अंतर्मन की धड़कनों के रूप में कलानुशासनों में ध्वनित होते हैं। आज का लेखक किसी भी विधा में लिखे उसका सामना भूमंडलीकृत बाजार के अमानीय स्वार्थ धार्मिक कट्टरता, आतंकवाद, वर्ग लिंग तथा वर्णगत शोषण और विषमता के मूल कारण पूंजीवादी व्यवस्था से ही होता है। ये समस्याएं केवल युवा वर्ग की नहीं, समकालीन लेखक की भी है। युवा लेखक समकालीन परिदृश्य का उभरता हुआ सृजनधर्मा है। वह समय की गति के बीच युवा है। हिन्दी कहानी में प्रतिभा का विस्फोट नहीं हुआ है। जैसा कि कुल लेखकों और सम्पादकों ने मान लिया है कि बल्कि विकास हुआ है।

बेशक कहानियों का खूब प्रकाशन हो रहा है किंतु पाठकों की संख्या में इससे इजाफा किया हो, ऐसा लगता नहीं है। इसके बरक्स सामान्य पाठक कई बार एक जैसे होते जा रहे उसके पाठ से ऊबने की शिकायत भी करते हुए देखे जा सकते हैं। समकालीन कहानी में तीन पीढ़ियों के लेखक सृजनरत हैं। ऐतिहासिक दबाव का सामना करने और नये शिल्प को पाने की जद्दोजहद हर काल में रही है। इतना ही नहीं, जिन लेखकों का रचना काल कुछ दशकों तक फैला है, उन्होंने भी अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया है और इसके विपरीत यह भी देखने में आता है कि नव्यता के अति उत्साह में कुछ युवा लेखक अपनी ही शैली के दुहराव के शिकार होकर अल्प अवधि में ही पुराने यानी मोनोटोनस हो गए। हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य में दोनों ही तरह के उदाहरण आसानी से देखे जा सकते हैं। पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के समय को केंद्र में रखकर यदि हम विचार करें तो हजारों प्रकाशित कहानियों में से अच्छी कहानियों की एक लंबी सूची बन सकती है। सूची हमेशा अधूरी और कालचलाऊ होती है। अत: सूची में आप अपनी ओर से भी नाम जोड़ लें। विमर्शों में बांटकर कोई सूची बनाने के पक्ष में मैं नहीं हूं। मैं विभिन्न पीढ़ियों के लेखकों की कुछ कहानियों का उल्लेख कर रहा हूं। यह सूची श्रेष्ठता का मानदंड भी नहीं है, केवल दृष्टांत स्वरूप है। जहां तक मेरी पसंदीदा कहानियों का प्रश्न है, उनकी सूची बहुत लंबी है। उसमें से कुछ नाम में यह प्रमाणित करने के लिए प्रस्तुत कर रहा हूं कि नई रचनाएं प्रतिभा का विस्फोट नहीं हैं।

मैंने अभी-अभी वरिष्ठतम पीढ़ी के कथाकार दूधनाथ सिंह की कहानी पढ़ी अत: उदाहरण स्वरूप उनकी कहानी 'क्या करूं साबजी' को ही रखता हूं। लुप्त होती नस्ल (काशीनाथ), कुइयांजान (नासिरा शर्मा), बदली तुम हो साबिया (नमिता सिंह), पार्टीशन (स्वयं प्रकाश), छछिया भर छाछ (महेश कटारे), आरोहण (संजीव), त्रिशूल (शिवमूर्ति), बाजार में रामधन (कैलाश वनवासी), नाम में क्या रखा है (हरि भटनागर), कैमरे की आंख (आनंद हर्षुल), आवर्त दशमलव (सुबोध कुमार), जोग (कुंदन सिंह परिहार), सवर्ण देखता दलित देवता (हरनोट), जनु खसेऊ (श्याम कश्यप), बेचैन पुल (लेखक का नाम याद नहीं), अंधेरा (अखिलेश), वारेन हेस्टिग्ज का सांड (उदय प्रकाश), साज नासाज (मनोज रूपड़ा), मर्सिआ (योगेंद्र आहूजा), भरोसे की बहन, उन्नीस साल का लड़का (शशांक), जंगल (भालचंद जोशी), सिर्फ एक कौवा (कुमार अंबुज), नालंदा पर गिध्द (देवेंदर), सनातन बाबू का दाम्पत्य (कुणाल सिंह), रहगुजर की पोटली (अल्पना मिश्र), परिन्दे का इंतजार सा कुछ (नीलाक्षी), यस सर (अजय नवरिया), सिनेता के बहाने (वंदना राग), सिटी पब्लिक स्कूल (चंदन पांडेय), फाव की जमीन (प्रभात रंजन), पांच का सिक्का (असफल), जैसी कहानियां समकालीन हिन्दी कहानी की समृध्दि की एक झलक देती हैं।

1980 के बाद देश में जो नई आर्थिक नीति आई उसने उपभोक्तावाद और विषमता को खतरे की जद तक पहुंचाया। नक्सलपंथी आंदोलन, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श के प्रभाव से जिस गुस्से और आक्रोश ने हिन्दी कहानी में प्रवेश किया उसने मध्यवर्गीय जीवनानुभवों के वृक्ष से कहानी को बाहर निकाला। 1990 तक भूमंडलीकरण बाजारवाद ने भारतीय समाज को इस कदर अपने शिकंजे में जकड़ा कि राजनीति, अर्थनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि धर्म सभी कारपोरेट जगत के इशारे पर नाचने लगे। देश की परिस्थितियों और जनमानस में विशेष रूप से युवा मानस में अप्रत्याशित परिवर्तन हुआ। 1992 का काला अध्याय अविस्मरणीय है। नई सदी की सामाजिक सांस्कृतिक गतियां बीसवीं सदी की परिस्थितियों का विकास है। कारपोरेट जगत असीम शक्ति हासिल कर चुका है। आधुनिकता और पश्चिमीकरण की अवधारणाएं गड्ड-मड्ड हो गई हैं। अमानवीय चरित्र की सरकारें अपनी प्रशंसा के गीत खुद गा रही हैं। इस भाषायी समय को चित्रित करना आसान नहीं है। किंतु हिन्दी कहानी ने उसे चित्रित करने की कोशिश की अत: इसके क्षितिज का विस्तार हुआ। नये भाषाई मुहावरे और शिल्प ने कहानी को नया स्वरूप प्रदान किया। किंतु इस चमकदार शिल्प की अपनी सीमाएं हैं। जहां तक मूल्यों का प्रश्न है समकालीन कहानी ने उसका दामन नहीं छोड़ा है। युवा लेखकों की कहानियां में भी बाजारवादी प्रवृत्ति से असहमति, धर्मान्धता, कट्टरता का विरोध, वर्ण जाति के कारण उत्पन्न उलझनों का चित्रण है। सेक्स के वर्जित माने जाने वाले क्षेत्रों की स्थितियों को कहानी विधा में शामिल किया कारपोरेट क्षेत्र से जुड़े यथार्थ चित्रण कहानी में देखे जा सकते हैं किंतु शिल्प की चमक और अनावश्यक विस्तार को शैली की नवीनता मानने के भ्रम के शिकार युवा ही नहीं, वरिष्ठ कथाकार भी हो रहे हैं। यह रोग तो पहले से ही विद्यमान रहा है कि लंबी कहानी को ही उपन्यास के रूप में प्रकाशित करवा लिया जाय। पत्रिकाओं ने पहले से ही लंबी कहानी जैसा एक वर्ग बनाकर उसे अतिरिक्त महत्व देकर विशिष्टता प्रदान की। इसके अलावा कुछ सम्पादकों ने कथ्य और संवेदना से अधिक भाषा की चमक को नयेपन के रूप में स्थापित करने का काम किया। कई पृष्ठों की लंबी कहानी में दृष्टांत पर दृष्टांत पेश करना ही नवीनता है। बहुस्तरीयता के भ्रम में भाषा के चमत्कार के साथ स्थितियों के अतिरिक्त उलझाव को संश्लिष्टता मान लेना कितना सही है? शंभु गुप्त ने अपने लेख 'वे हमें देख रहे हैं' में राजी सेठ को उध्दृत किया है- अभिव्यक्ति के लिए जो रास्ता इन कथाकारों ने अपनाया है वह पहले की तरह भावपक्ष पर नहीं, संरचना में ही सब कुछ समेट-गढ़ लेने का है। यहां अनुभव मुख्य नहीं, अनुभव को प्रस्तुत करने वाली बौध्दिक रीति और चुस्ती प्रमुख है। चुस्ती का भरम तो तभी टूट जाता है जब कहानी रूपकों, बिम्बों, प्रतीकों, सूचनाओं, मिथकों, वक्तव्यों में उलझने लगती है। एक 'कम्पोजिट कोलॉज' बन जाती है। यहां दो बिन्दु विचारणीय हैं। पहला यह कि जिन कथाकारों ने उदय प्रकाश को आदर्श मानकर उनके जैसा ही पाठ रचने का प्रयास किया है वे बहुत जल्दी दुहराव की चपेट में आ गए हैं। उदयप्रकाश जैसे महत्वपूर्ण कथाकार का प्रभाव स्वाभाविक है किंतु उनकी शैली की नकल करके उदयप्रकाश नहीं बना जा सकता। दूसरा यह कि युवा कहानी परिदृश्य में जिन प्रतिभाशाली लेखकों को महत्व दिया गया है उनमें एकजैसापन जल्दी ही उभरकर सामने आ गया। रचना को नहीं, बल्कि कुछ नामों को ही विशिष्ट मान लिये जाने पर और क्या होगा। मेरी दृष्टि में समकालीन कहानी का एक शुभ लक्षण है कथा की वापसी। काशीनाथ, महेश कटारे हों या नीलाक्षी सिंह, उमाशंकर और प्रभात रंजन इनकी रचनाओं में किस्सागोई उपस्थित है। नई कहानी के दौर से ही कथा रस तरल हो गया था। आज की अधिकांश कहानियां पाठकों से सीधे संबोधित हैं। जहां कहानी इंटरनेटीय विवरणों और आंकड़ों में उड़ने लगती है वहां कथारस भी व्यर्थ होकर उबाऊ हो जाता है। यहां तक कि आख्यान का नवीन व्यक्तित्व भी शिल्प के मोह में बिखरने लगता है। समकालीन कथा परिदृष्य में ऐसा कथाकार तलाशना शायद असंभव है जो आत्मा और मस्तिष्क से रूढ़िवादी या प्रतिक्रियावादी हो। सारी दिक्कत आख्यान रचते हुए भी शिल्प के स्तर पर भी नया दिखने योग्य ही है। सामान्य बात के लिये शब्दाडम्बर का संभार और बौध्दिकता का गैरजरूरी तड़का बुध्दिजीवियों को उबाने के लिये काफी है। सामान्य पाठक की तो बात ही छोड़िये। कोई भी पीढ़ी प्रतिभा से हीन नहीं होती अत: प्रश्न पीढ़ी का नहीं, जिसकी समय सीमा कुछ लेखककों-सम्पादकों-समीक्षकों ने अपनी सुविधानुसार तय की है। प्रश्न अन्तर्वस्तु की सार्थकता और कलात्मकता के सूक्ष्म रेशों की है। बेशक वैचारिक-सामाजिक आंदोलनों को समय की तासीर ने काफी हद तक कमजोर कर दिया है, किंतु वैचारिक-सामाजिक दृष्टि आज भी हिन्दी कहानी से बहिष्कृत नहीं हैं।
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लेखक वरिष्ठ आलोचक हैं |
संपर्क- एल.एफ. 1, कनक रिट्रीट, ई-218, त्रिलंगा, भोपाल, म.प्र. पिन- 462039

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