Tuesday, 12 May 2015

बीते दिनों पढ़ी गयीं कुछ पसंदीदा कवितायेँ – राहुल देव

अस्ति-नास्ति संवाद / रणजीत

"किस अभागे को अरे इस धूप में दफ़्ना रहे हो
और इसकी मौत पर क्यों ख़ुशी से चिल्ला रहे हो
कौन है ऐसा बिचारा, दो बता ?"
"मर गया ईश्वर, नहीं तुमको पता ?"

"मर गया ईश्वर?
ईश्वर कि जिसने स्वयं अपने हाथ से धरती बसाई
चाँद औ’ सूरज बनाए
पर्वत के, झीलों के, सागर औ’ द्वीपों के नक्श उभारे
ऊँचे-ऊँचे गिरि-शिखरों पर बर्फ़ जमाई
औ’ उनकी लम्बी छाँहों में
नदियों के डोरों से सी कर
वन, उपवन, ऊसर, परती की भूरी-हरी थिगलियों वाले
कंथे से मैदान बिछाए -
ईश्वर कि जिसने आदमी पैदा किया
क्या वही अब मर गया ?"

"हाँ, मर गया ईश्वर कि उसके त्रास सारे मर गए
सृष्टि के आरम्भ से चलते हुए
आदमी के ख़ून पर पलते हुए
अन्याय के इतिहास सारे मर गए !

"मर गया ईश्वर कि उसके धर्म सारे मर गए
स्वर्ग-नरक के, पाप-पुण्य के
पुनर्जन्म औ’ कर्मवाद के मर्म सारे मर गए ।

"मर गया ईश्वर, विषमता का सहायक मर गया
आदमी के हाथ में ही आदमी का भाग्य देकर
विश्व का दैवी विधायक मर गया
मर गया ईश्वर !"

"यह हुआ कैसे मगर ?

"सांइस की किरणों ने मारा, मर गया
वहम का पर्दा उघाड़ा, मर गया
आदमी ने जब तलक पूजा अँधेरे में उसे, ज़िन्दा रहा
रोशनी के सामने ज्यों ही पुकारा, मर गया !"

"खै़र, अच्छा था बिचारा मर गया !"
-

पिता हो गए माँ / प्रदीप सौरभ

पिता दहा्ड़ते`

मेरा विद्रोह कांप जाता
मां शेरनी की तरह गुत्थमगुत्था करती
बच्चों को बचाती
दुलराती
पुचकारती
मां की मृत्यु के बाद
पिता मां हो गये।

पिता मर गये और मां ने नया अवतार ले लिया
सौ साल पार कर चुकने के बाद भी
वे खड़े रहते
अड़े रहते
वाकर पर चलते
फ़ुदक फ़ुदक
सहारे पर उन्हें गुस्सा आता
वे लाचारगी से डरते।


कभी-कभी अपने विद्रोह पर खिसियाता मैं
क्षमाप्रार्थी के तौर पर प्रस्तुत होता
पिता बस मुस्कुरा देते
अश्रुधारा बह उठती
पिता मां की तरह सहलाते।

फ़िर एक दिन वे मां के पास चले गये
उनके अनगिनत पुत्र पैदा हो गये
कंधा देने की बारी की प्रतीक्षा ही करता रहा मैं
और वे मिट्टी में समा गये।

अक्सर स्मृतियों के झोंके आते
गाहे-बगाहे रात-रात सोने न देते
विद्रोह और पितृत्व की मुठभेड़ में
पितृत्व बार बार जीतता
निरर्थक विद्रोह भ्रम है और पितृत्व सत्य।

पिता मैं भी बना
दो बेटियों का
पिता क्या होते हैं तब यह मैंने जाना।

पिता बरगद होते हैं
पिता पहाड़ होते हैं
पिता नदी होते हैं
पिता झरने होते हैं
पिता जंगल होते हैं
पिता मंगल होते हैं
पिता कलरव होते हैं
पिता किलकारी होते हैं
पिता धूप और छांव होते हैं
पिता बारिश में छत होते हैं
पिता दहाड़ते हैं तो शेर होते हैं।
-

सीलमपुर की लड़कियां / आर. चेतनक्रांति


सीलमपुर की लड़कियां `विटी´ हो गईं
लेकिन इससे पहले वे बूढ़ी हुई थीं
जन्म से लेकर पंद्रह साल की उम्र तक
उन्होंने सारा परिश्रम बूढ़ा होने के लिए किया
पद्रह साला बुढ़ापा
जिसके सामने साठ साला बुढ़ापे की वासना
विनम्र होकर झुक जाती थी
और जुग-जुग जियो का जाप करने लगती थी
खुर्राट बुढ़िया
पचपन साल की उम्र में आकर लेस्बियन हुई!
यह डाक्टर मनमोहन सिंह और एम टीवी के उदय से पहले की बात है
तब उन लड़कियों के लिए न देस देश था
न काल-काल
ये दोनों 
दो कूल्हे थे
दो गाल
और छातियां
बदन और वक्त की हर हरकत
यहां आकर मांस के
एक लोथड़े में बदल जाती थी
और बंदर के बच्चे की तरह
एक तरफ लटक जाती थी
यह तब की बात है जब हौजखास से दिलशाद 
गार्डन जाने वाली
बस का कंडक्टर 
सीलमपुर में आकर रेजगारी गिनने लगता था
फिर वक्त ने करवट बदली
सुष्मिता सेन मिस यूनिवर्स बनीं
और ऐश्वर्य राय मिस वर्ल्ड 
और अंजलि कपूर जो पेशे से वकील थी
किसी पत्रिका में अपने अर्धनग्न चित्र छपने को दे आई
और सीलमपुर
‘शाहदरा’ की बेटियों के गालों
कूल्हों और छातियों पर लटके मांस के लोथड़े
सप्राण हो उठे 
वे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे
पंद्रह साला इन लड़कियों की
हजार साला पोपली आत्माएं
अनजाने कंपनों
अनजानी आवाजों और अनजानी तस्वीरों से भर उठीं
और मेरी ये बेडौल पीठ वाली बहनें
बुजुर्ग वासना की विनम्रता से
घर की दीवारों से और गलियों-चौबारों से
एक साथ तटस्थ हो गई
जहां उनसे मुस्कुराने की उम्मीद थी
वहां वे स्तब्ध होने लगीं
जहां उनसे मेहनत की उम्मीद थी
वहां वे यातना कमाने लगीं
जहां उनसे बोलने की उम्मीद थी
वहां से सिर्फ अकुलाने लगीं.
उनके मन के भीतर दरअसल
एक कुतुबमीनार निर्माणाधीन थी
उनके और उनके माहौल के बीच
एक समतल मैदान निकल रहा था
जहां चौबीसों घंटे खटखट हुआ करती थी. 
यह उन दिनों की बात है 
जब अनिवासी भारतीयों ने
अपनी गोरी प्रेमिकाओं के ऊपर 
हिंदुस्तानी दुलहिनों को तरजीह देना शुरू किया था. 
और बड़े-बड़े नौकरशाहों और नेताओं की बेटियों ने
अंग्रेजी पत्रकारों को चुपके से बताया था
कि एक दिन वे किसी अनिवासी के साथ उड़ जाएंगी
क्योंकि कैरियर के लिए यह जरूरी था
कैरियर जो आजादी था
उन्हीं दिनों यह हुआ कि
सीलमपुर के जो लड़के
प्रिया सिनेमा पर खड़े  
युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे
वहां की सौन्दर्यातीत उदासीनता से 
बिना लड़े ही पस्त हो गए
चौराहों पर लगी मूर्तियों की तरह 
समय उन्हें भीतर से चाट गया 
और वे वापसी की बसों में चढ़ लिये
उनके चेहरे एक खूंखार तेज से तप रहे थे
वे साकार चाकू थे वे साकार शिश्न थे
सीलमपुर उन्हें जज्ब नहीं कर पाएगा
वे सोचते आ रहे थे
उन्हें उन मीनारों के बारे में पता नहीं था
जो लड़कियों की टांगों में
तराश दी गई थीं. 
और उस मैदान के बारे में
जो उन लड़कियों
और उनके समय के बीच 
जाने कहां से निकल आया था 
इसलिए जब उनका पांव 
उस जमीन पर पड़ा
जिसे उनका स्पर्श पाते ही 
धसक जाना चाहिए था
वे ठगे से रह गए
और लड़कियां हंस रही थीं
वे जाने कहां की बस का इंतजार कर रही थीं
और पता नहीं लगने दे रही थीं
कि वे इंतजार कर रही हैं.
-

बदलते समय की संधि पर / केशव तिवारी

कीचड़ में धँसी बैलगाड़ी
अकेले ही झेल देते हो तुम
दिन भर खेतों में, फरहा करते हो
और रात भर मड़ाई
तुम्हारा शरीर जैसे किसी
मूर्तिकार ने इस्पात में ढाल दिया हो
पर बातों की वो बेबाकी कहाँ
चली गई

ये नाप-जोख कर बोलना
कहाँ से सीख लिया तुमने
हर बात पर गोल-मोल जवाब
किसी बात पर राय न देना
ये तुम्हारी अदा तो नहीं थी

कौन सा भय है जिसने ऐसा
बना दिया है तुम्हें
अचानक क्यों खो जाती है रह-रह के
तुम्हारी आवाज़ की खनखनाहट
इस बदलते समय की सन्धि पर
मुझे तुम्ही दिखे थे
सबसे ज़्यादा मज़बूत

मुझे गंदी ग़ाली-सा लगता है
तुम्हारे बारे में बोला कोई भी झूठ
रात में किसी भी गुहार पर
अब तुमने निकलना बंद कर दिया है
दोस्त संकट तो आते ही रहेंगे
कभी तुम किसी को गोहराओगे
कभी कोई तुम्हें गोहराएगा
तुम्हारे दोनों के बाहर न आने पर
एक तीसरा भी है जो बेशरमी से 
दूर बैठा मुस्कुराएगा ।
-

नई कविता जो आज रात पुरानी हो गई / वीनस केसरी


मैं चाहता था

ख़्वाब मखमली हों और उनमें परियां आएँ

सूरज की तरह किस्मत हर दिन चमकदार हो

और जब सलोना चाँद रास्ता भटक जाए,
तो तारों से राह पूछने में उसे शर्म न लगे



ये भी चाहा कि,
मैं पूरी शिद्दत से किसी को पुकारूं

और वो मुड कर मुझे देख कर मुस्कुराए 

हम सुलझते सुलझते, थोडा सा फिर उलझ जाएँ

प्यार करते करते लड़ पड़ें

और लड़ते लड़ते प्यार करना सीखें



चाहता था मैं जान लूँ 

जब टकराती हैं नज़र से नज़र
तो वो हादिसा हसीन क्यों होता है

सीखूं गणित के वो दांव पेंच
जिसमें दो और दो चार की जगह

कुछ और होने लगता है


जिंदगी ऊन के गोले सी नर्म हो
वक्त जब स्वेटर बुने तो उसका डिजाइन हमेशा नया रहे

ऐसी ही कुछ और चाहतें,
जिसको लोग हसीन कहते थे


चाहता था सारे ख़्वाब पूरे हो जाएँ

और हुए

ख़्वाब में परियां आईं
और किस्मत सूरज के जैसी चमकदार हो गई 

हर प्रश्न का उत्तर मिल गया 

मगर साथ ही मिले कुछ जवाब
जिनके सवाल नदारद थे


जाने किसने पूछा था ...

मगर जब जवाब हैं तो सवाल भी रहे होंगे ...


उन जवाबों के कारण मैंने यह जान लिया कि,

चाँद रोटी भी होता है

ख़्वाब में परियां केवल तब ही आती हैं,
जब हम भर पेट खाना खा कर सोए हों

पटरियों पर बिखरे प्लास्टिक के टुकड़े और कागज़ की कतरनें
चावल के वो दाने हैं जिनको चिड़िया नहीं चुग पाती


मैंने यह भी जाना 

कारखाने इंसानों को लील कर टीवी और फ्रिज बना रहे हैं 

रोटी कपडा मकान के सारे वादे झूठे थे

रजिस्टर के पन्ने में एक के आगे अनंत गोले हैं
और अनाज भरे बोरे गोदामों में सड़ गये हैं

आदमी खरीदे जा रहे हैं पुरूस्कार बिकते हैं

जो नहीं बिकना चाहता उसका भाव रद्दी से भी कम हो जाता है 


और मैंने यह भी जाना
बाज़ार में मिलावटी खून सस्ता मिलता है 
रिश्ते कैडबरी चाकलेट की तरह मीठे नहीं रह गये
जीने का हक सिर्फ कुछ लोगों को है
जो यह भी तय करते हैं किसे जीने देंगे और किसे ...

मैं अब भी
ख़्वाब में परियां को बुलाना चाहता हूँ
मगर अब मुझे नींद नहीं आती

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