हमारा होना स्त्री के होने से जुड़ा है
आपके संस्मरणात्मक आलेख 'मैं और मेरा समय' को पढ़ने से कोई भी जान सकता है कि आपकी शुरूआती जि़न्दगी कितनी बीहड़ और बेढब रही है।अभाव, दुख, असुरक्षा और स्थानीय सामन्ती आतंक—क्या-क्या नहीं सहा आपने! बहुत स्वाभाविक और सम्भव था कि आपका लेखन विष और कटुता से भर जाता है। .....फिर भी आप इससे उबरें।
पहली बात तो यह कि शायद ही किसी लेखक का उद्देश्य लेखन के माध्यम से विष परोसने का रहता हो। जहाँ तक कठिनाइयों में जीवनगुजारने की बात है, हमारे आसपास के नब्बे प्रतिशत लोगों का जीवन इन्हीं परिस्थितियों में बीत रहा था। इसलिए तब तो यह बात मन में ही नहींआती थी कि हम कठिनाई या आतंक के साये में जी रहे हैं। उन परिस्थितियों से उबरने के लिए मैंने दर्जीगीरी सीखने या मजमा लगाने का तरीकाअपनाया दूसरे लोगों ने दूसरे तरीके अपनाये होंगे। यह तो अब पता चल रहा है उन परिस्थितियों से उबर कर..... दूर से देखने और वर्तमान सेतुलना करने पर, कि वह जिन्दगी बीहड़ थी।..... अभी तक मैंने अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी की कटुता या तल्ख़ी को कहानियों का विषय बनाया भीनहीं है। पता नहीं क्यों नहीं बनाया! हो सकता है आगे के लेखन में वह सब रूप बदल कर आये।
-
-
एक यथार्थ वह था जो आपके शुरूआती जीवन के आसपास था। एक अथार्थ आपका वर्तमान है। बदलते यथार्थ के साथ आपका नज़रिया किस तरह बदलरहा है?
यथार्थ जैसा रहेगा, वैसा ही दिखाई देगा। हमको भी और आप सबको भी। और वह जैसा होगा, उसी तरह रचना में आयेगा। मेरा नजरियाकिसी पूर्वनिर्धारित सोच या विचारधारा से नियन्त्रित नहीं होता। जीवन को उसकी सघनता और निश्छलता में जीते हुए ही मेरे रचनात्मक सरोकारआकार ग्रहण करते हैं। पहले का यथार्थ यह था कि 'कसाईबाड़ा' की हरिजन स्त्री सनीचरी धोखे/जबरदस्ती से मार दी जाती थी.....उसकी खेती-बारी हड़प ली जाती थी। आज का यथार्थ 'तर्पण' में है। सनीचरी जैसे चरित्रों की अगली पीढ़ी रजपतिया के साथ जबरदस्ती का प्रयास होता है तो गाँव के सारे दलित इकट्ठा हो जाते हैं। सिर्फ इकट्ठा नहीं, बल्कि उस लड़ाई में वे संकट का समाना करते हैं। वे लड़ाई जीतने के लिए हर चीज़ का सहारालेते हैं। उसमें उचित या अनुचित का सवाल भी इतना प्रासंगिक नहीं लगता। उनके लिए हर वह सहारा उचित है जो उनके संघर्ष को धार दे सके।पहले थोड़ा अमूर्तन भी था। अब टोले का विभाजन दो प्रतिद्वन्द्वियों के रूप में सानमे खड़ा है। जातियों के समीकरण पहली कतार में आ गये हैं।1980 से 2000 तक जो परिवर्तन आया वह मेरी रचनाओं में साफ दिखता है। .....मैं 'तर्पण' को ध्यान में रखकर कह रहा हूँ। इससे आगे कायथार्थ भी मेरी रचनाओं में आ रहा है..... और उससे आप मेरा नजरिया समझ सकते हैं। 'भरतनाट्यम' के लिखे जाने का समय एक दूसरी तरह कीसमझदारी का था। तब यह स्वर नहीं उठता था कि जो दुख-दर्द घेरे है, उसके आँकडे़ क्या हैं! कारण क्या है! पैदावार और लागत का जो अनमेलअनुपात है उसके पीछे कैसे-कैसे षडयन्त्र हैं! यानी परदे के पीछे चल रहा खेल क्या है? .....आज इन सब पर नजर जा रही है। दुखी-दलित लोग संगठन बना रहे हैं। एका बनाकर सामने आ रहे हैं।
.
.
तब तो गाँव के यथार्थ को परखना आसान हो रहा है।
जी नहीं। यथार्थ को उसके यथासम्भव आयामों में पकड़ना हमेशा कठिन काम रहा है। गाँव पर लिखना कठिन होता जा रहा है। जितनानजदीक जाइये, उतना ही यह अनुभव गहराता है कि जो सोचा था वह कितना सतही है। कल्पना ने जितना देखा था, यह तो उससे कहीं अधिकभयावह है। तब डर लगता है कि इतने सन्त्रास..... इतनी भयावहता को वे पाठक/आलोचक कैसे समझ पाएँगे जो इस दुनिया से सीधे नहीं जुडे़ हैं। यकीन मानिए.....कई बार जो यथार्थ है उसे रचना में लाते समय हल्का करना पड़ता है।
.
.
'तिरिया चरित्तर' का यथार्थ जाने कितनी बिडम्बनाओं और अमानवीयताओं से घिर गया है!
बिलकुल सही कहा आपने। जीवन में, प्रेम में पंच, सरपंच, पंचायत, बिरादरी, धर्म, समप्रदाय का इतना दखल होता जा रहा है कि शिक्षा यासभ्यता के सारे दावे खोखले नजर आते हैं। आज ऐसे समाचार अपवाद नहीं रहे कि एक प्रेमी जोडे़ के साथ कैसा कबीलाई बर्ताव हुआ। या किसीलड़की पर कैसे वहशियाना आरोप मढे़ गये। कई घटनाओं में तो माँ-बाप की भी सहमति हो जाती है कि लड़का/लड़की को काट डालो। कई बार पिताके हाथों लड़का/लड़की को फाँसी दिलवाई जाती है। पंचों में वहशीपन दिख रहा है। फैनेटिज्म या नासमझी पहले से कहीं ज्यादा है। यह विकास है?इन सच्चाइयों को परखना हो तो ऐसी जिन्दगी के बीच में आना पडे़गा।
आप जिस विकास या सभ्यता पर तरस खा रहे हैं, उसका एक रूप स्त्रियों से जुडे़ सवालों में देखा जा सकता है।
क्यों नहीं। हमारा समाज स्त्रियों के प्रति ज्यादा न्यायसंगत या मानवीय नहीं रहा है। इसलिए मैं सबसे ज्यादा इस बात में भरोसा रखता हूँ किखुद स्त्रियों द्वारा... लड़कियों द्वारा जो जागरूकता आ रही है, वह ज्यादा महत्वपूर्ण या आशापूर्ण है। अब इस स्त्री-यथार्थ के भी कई पहलू हैं।स्त्रियाँ जितनी सचेत हो रही हैं, प्रतिहिंन्सा में पुरूष बर्चस्व उतना ही असहिष्णु हो रहा है। प्रतिक्रिया में पुरूष उत्पीड़न के नये-नये हरबा हथियार आजमा रहे हैं। यानी स्त्रियों के जागरूक होने पर जो होना चाहिए था, विडम्बना यह कि उसका उलटा हो रहा है।
.
.
लेकिन स्त्री-विमर्श के अगुवा तो बड़ी-बड़ी बातें ऐसे कर हरे हैं जैसे अब जानने के लिए कुछ बचा ही नहीं?
स्त्रीविमर्श का क्षेत्र बहुत व्यापक है। स्त्री विमर्श की जिन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है वे हैं किसान, मजदूर, स्त्रियाँ। चाहे गाँव में रह रही हों याशहर में, लेकिन खुद उनमें उतनी जागरूकता नहीं है, उनके बीच से कोई लेखिका नहीं है। और जो शहरी बेल्ट की लेखिकाएँ हैं, उन्हें उन नब्बेप्रतिशत की जानकारी नहीं है। अपवाद स्वरूप चित्रा जी, मैत्रेयी जी जैसी कुछ लेखिकाएँ हैं जा उनके सरोकार से खुद को जोड़ती हैं।
.
.
फिर भी, पहले वाले प्रश्न का यह जरूरी पहलू है कि स्त्रीविमर्श के लिए सबसे ज्यादा जान खपाने वाले - राजेन्द्र यादव शहरी बेल्ट की लेखिकाओं को ही बार-बार रेखांकित कर रहे थे।
यादव जी ने वह दुनिया देखी ही नहीं है, मैं जिसकी बात कर रहा हूँ। उनको शायद अवसर ही नहीं मिला।
.
.
लेकिन, जो स्त्री व दलित विमर्श पर घड़ियाली आँसू बहा रहे हैं, उनके लिए आप क्या कहना चाह रहे हैं?
घड़ियाली आँसू तो घड़ियाली ही होता है। जब वह किसी शिकार को जबड़े में दबोचता है तो दबाव से उसकी आँखों से पानी निकलने लगता है।आपका उसे आँसू समझना घड़ियाल के पक्ष में जाता है।
स्त्रियों की दुनिया से जितना वास्ता आपका पड़ता रहा है, उतना बहुत कम लेखकों को नसीब होगा। ऐसा आपके साक्षात्कारों और अन्य लेखन से पताचलता है। आपके जीवन में कई तरह की स्त्रियाँ आई हैं। व्यक्तित और लेखक के तौर पर आपके लिए स्त्री का अर्थ क्या है।
यह सही है कि मेरी जिन्दगी में बहुत-सी स्त्रियाँ आई हैं, विविध प्रकार की। विविध क्षेत्रों की। पढ़ी-लिखी तो बहुत कम, अनपढ़ अधिक। लेकिनऔर कौन आयेगा हमारे जीवन में? हमारा होना ही स्त्री के होने से जुड़ा है। हमारी नाल ही स्त्री से जुड़ी है। वह न हो तो हम कहाँ हों! अगर किसी केजीवन का रस आधी राह में ही नहीं सूख जाता है तो निश्चय ही उसके पीछे कोई स्त्री होगी। जवानी में विधुर हुए बहुत कम लोग बुढ़ापा देख पाते हैं।
.
.
बुढ़ापे तक साथ मिलने के बाद भी बहुत से लोग प्रेम-प्रीति का सही मतलब ही नहीं जानते।
कैसे जानेंगे पार्टनर! ज्यादातर लोग पचीस-तीस फीट तक की बोरिंग वाले हैण्डपम्प का पानी जीवन भर पीते रह जाते हैं। कभी 'इंडिया मार्का'हैण्डपम्प से सवा सौ डेढ़ सौ फीट की गहराई से निकला हुआ पानी पीकर देखें, तब अन्तर का पता चलेगा। यानी मन में उतरिए- गहराई तक। तभीअमृतपान कर सकेंगे। ऐसे लोग भी कम नहीं है। अभी मैने डाo विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक पढ़ी- 'नंगातलाई का गाँव'। उससे पता चलता है किपंडित जी के जीवन में आईं स्त्रियों में कितनी विविधता और गहराई है। यह पुस्तक मेरी पत्नी ने पढ़ी है। फिर पंडित जी से फोन पर कहा- आपकितने भाग्यशाली हैं कि उन्हें याद रख पाये और वे कितनी भाग्यशाली हैं कि याद रह गईं।
.
.
दरअसल मैं आपके भाग्य और दूसरे पक्ष के भाग्य के बारे में जानना चाहता था।
मैं आपका आशय, आपका संकेत समझ रहा हूँ। 'मैं और मेरा समय' में ही मैंने जाति से बेड़िनी और पेशे से बेश्या अपनी मित्र शिवकुमारी केसम्बन्ध में लिखते हुए कहा है कि कुलटा, भ्रष्टा या पतिता कही जाने वाली स्त्रियों को देखने की मेरी दृष्टि में जो परिष्कार हुआ है, वह शिवकुमारीके सान्निध्य के अभाव में कभी नहीं हो सकता था। इतनी स्त्रियाँ मिलीं जीवन में लेकिन जिन्हें कुलटा या पतिता कहते हैं, ऐसी एक भी स्त्री से अभीतक मेरा परिचय नहीं हुआ। अन्दर उतर कर देखिए तो एक से एक नायाब मोती की चकाचौंध आपको विस्मय-विमूढ़ कर जाती है। मैं पहले भी कईजगह कह चुका हूँ, किसी की प्रेयसी होना भी जरूरी है किसी की पत्नी होने के साथ-साथ। यही बात पुरूष के लिए भी। जो इन दोनो रूपों को जीसका, उसी का जीवन पूर्ण है।
.
.
तो क्या आपका जीवन पूर्ण है?
(एक मौन के बाद).....और जहाँ तक लेखन में इनके आने की बात है, मेरी लगभग सारी कहानियाँ नायिका प्रधान हैं। चाहे 'तिरिया चरित्तर' होया 'सिरी उपमा जोग'। 'कसाई बाड़ा हो', 'केशर कस्तूरी' हो, 'अकालदण्ड' हो। मेरे उपन्यास 'तर्पण' की मुख्य पात्र भी लड़की है। और अकारण नहींकि यह सभी मजदूर दलित या पिछड़ी स्त्रियाँ हैं।
.
.
आपने कई जगह अपनी पत्नी (सरिता जी) की प्रशंसा की है। कुछ सरिता जी के बारे में।
सरिता जी तो हमारी 'पितु मातु सहायक स्वामि सखा सब कुछ' हैं। उनके ही ठोकने पीटने से मैं एक जमाने में बेरोजगार से बा-रोजगर हुआथा। उन्हीं के पीछे पड़ने से लेखक बना रह गया। वे लेखन के लिए जरूरी कच्चे माल- कथानक संवाद और गीत- की सबसे बड़ी खान हैं, स्टोर हैं।एक राज की बात बताऊँ, लेखन की मेज पर बैठाने के लिए वे कभी-कभी डण्डा भी उठा लेती हैं, इस उम्र में भी। और वे मेरी रचनाओं की पहलीश्रोता/पाठक भी प्राय: होती हैं।
पाठकों की बात अच्छी आ गई। बहुत सारे लेखक पाठकों का रोना रोते हैं या उन पर कई तरह के ठीकरे फोड़ते रहते हैं। आपके अनुभव क्या हैं?
मेरे अनुभव बहुत ही अच्छे हैं। मेरी रचनाओं से कितने पाठक जुड़ते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मेरे ऊपरपाठकीय अपेक्षाओं का दबाव रहता हो। जो विषय जिस रूप में हांट करता है उद्वेलित करता है, उसी को उठाता हूँ। कोशिश करता हूँ कि विषय यासमस्या स्पष्ट हो जाय। फिर निष्पति का ध्यान देता हूँ। उसी में कुछ अच्छा कुछ खराब बन जाता है। यह अपेक्षा नहीं करता कि हर बार पाठकप्रशंसा ही करेंगे। जैसे, जिन्होंने 'केशर कस्तूरी', 'सिरी उपमा जोग', 'भरत नाट्यम' वगैरह को सराहा, उन्हीं ने 'त्रिशूल' पर आपत्ति की। उन्हेंजातिवाद की गन्ध आई। लेकिन बहुत सारे लोगों ने कहा कि यह हुई कोई बात! अब तक औरतों का रोना गाना लिखते रहे, अब ढँग की चीज़ लिखीहै। दोनों ही तरह के पाठक सही लगते हैं, जब वर्गीय स्थिति पर नजर डालते हैं।
.
.
और घोडे़ पर बैठी मक्खी यानी आलोचक के बारे में आप की राय?
मेरी रचनाएँ आलोचकों द्वारा सामान्यत: पसन्द की जाती रही हैं। 'तिरिया चरित्तर' के सम्बन्ध में नामवर जी ने कहा था कि इसे उपन्यासक्यों नहीं बनाया? और खिलकर आता। इसी कहानी पर परमानन्द जी ने गोरखपुर में एक हंगामेदार गोष्ठी करवायी थी।..... लेकिन कई बार लगताहै कि आलोचकों को दिल और दिमाग़ दोनों का प्रयोग करना चाहिए। कई बार आलोचक शरीर की लम्बाई तो नाप लेते हैं। लेकिन वाणी में जो भावनाप्रकट होती है, आँखों में जो स्नेह चमकता है, उन बारीक तन्तुओं को बेकार समझकर छोड़ देते हैं। जबकि उन्हीं बारीक तन्तुओं में बडे़ सन्देश छिपेरहते हैं। यदि आलोचक अपने फन का उस्ताद होगा तो रचना के साथ उसका वही व्यवहार होगा जो पेड़-पौधों के साथ माली का होता है। जबकिहिन्दी में ज्यादातर आलोचक लकड़हारे की भूमिका में नजर आते हैं। बगली छाँटने की बजाय फुनगी ही छाँट देते हैं। कुछ तो शाही लकड़हारा कहलानेमें गर्व का अनुभव करते हैं। पहुँचे हुए आलोचक भी साहित्येतर कारकों से प्रभावित होकर मुँह खोल रहे हैं.....और उपहास के पात्र बन रहे हैं।
एक बारीक तन्तु यह भी है कि आपके यहाँ संघर्ष करते पात्र नैतिकता की नयी तस्वीर भी बनाते हैं।
सही है। लड़ाई लड़नी है तो सब चलेगा। जिस समाज में सौगन्ध लेकर झूठ बोलना परम्परा हो वहाँ सच कितना बेबस हो सकता है! दबे कुचलेमारे पीटे जाते लोगों के लिए अहिंसा का क्या अर्थ है? 'हे दयानिधि' गाते हज़ारों साल गुज़रे। दयानिधि को दया नहीं आई। अनकी 'दया ब्रिगेड' कालबनकर टूटती रही है। अब इनके छल कपट के हथियारों से दलित भी लड़ रहे हैं तो बुरा क्या है। उन्हीं के हथियार से उनको परास्त करने का प्रयासबुरा नहीं है। बचपन में कोर्स में एक कविता पढ़ी थी 'अछूत की आह' वियोगी हरि की-
'हाय हमने भी कुलीनों की तरह
जन्म पाया प्यार से पाले गये।
किन्तु हे प्रभु! भूल क्या हमसे हुई
कीट से भी नीचतम माने गये।।
जो दयानिधि कुछ तुम्हें आये दया
तो अछूतों की उमड़ती आह सुन।
असर होवे यह कि हिन्दुस्तान में
पाँव जम जाये परस्पर प्यार का।।''
आज देख रहा हूँ ऐसी कविताओं का यथार्थ। किसी की शरण में जाकर अन्याय और शोषण से मुक्ति पाना सम्भव नहीं है। साधन की शुचिताजैसा गाँधीवादी दृष्टिकोण गाँधी जी द्वारा ही प्रयोग करने पर ही असर दिखा सकता है।
.
शायद यथार्थ के गहरे विश्लेषण से यह बात निकल रही है।..... और इसीलिए आप गाँव के जीवन पर ही लिखते रहे हैं।
जिस गाँव से मैं परिचित हूँ, वहाँ का जीवन इतना दारूण है कि शहर की कोई समस्या ही नहीं लगती। और अब तो... क्या कहूँ! मजूर किसानएका करके समस्याओं से जूझना चाहते हैं मगर क्या करें! अभी पश्चिम बंगाल में जो घटनाएँ घटी हैं, नक्सलवाड़ी से नन्दीग्राम तक की जो यात्रा है,सत्ता का दमन और बाज़ार का जो सर्वग्रासी रूप है, उससे मुझे फिर से सोचने की दृष्टि दी है। देखिये, किसान मजदूर का मजबूत एका कैसे होसकता है! आर्थिक रूप से वे इतने विषम हैं कि कोई भी लम्बी लड़ाई उनके वश में नहीं है। ऐसे हालात हैं कि वे अपने आप मर रहे हैं। मरता हुआआदमी क्या लडे़गा!
.
आप एक तरह से लोकतन्त्र पर टिप्पणी कर रहे हैं।
मैं भूख तन्त्र को देख रहा हूँ। सत्ता किसान-मजदूर को आसानी से घुटने टेकने पर विवश कर रही है। प्रजातान्त्रिक शासनप्रणाली में'कल्याणकारी राज्य' की संकल्पना की गयी है। वही आज पूँजीपतियों के एजेन्ट या दलाल की भूमिका में उतर आई है। मैं तो राष्ट्रीय फलक पर देखरहा हूँ। पिछले साल में किसी भी सरकार ने भूमि की समस्या हल करने का ईमानदार प्रयास नहीं किया।.... और अब जो किसान के पास है, उस परभी डकैती डाल रही है। जब सरकार ही किसी का उच्छेद करने में जुट जाय तो कौन बचायेगा? यह सरकारी आतंकवाद है। अफसोस, कि इसआवंकवाद पर लगाम लगाने का कारगर तरीका प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली में हम अभी तक विकसित नहीं कर पाये हैं।
.
.
इस तरह सोचते हुय तो लगता होगा कि अभी लिखा ही क्या है, इस जीवन पर!
मैं दस प्रतिशत ही लिख पाऊँगा। अगले दो दशक गाँव पर लिखता रहूँ तब भी जाने कितना बचा रहेगा। यह मेरी प्राथमिकता है तो और कुछसोचने का मौका ही नहीं मिल पाता।
.
.
इतने सन्दर्भ सम्पन्न होने के कारण ही आपको लम्बी कहानी या लघु उपन्यास का शिल्प अच्छा लगता है।
यह भी एक कारण हो सकता है। जो कहानी की पारम्परिक मान्यता है, उससे थोड़ा बाहर मेरी रचनाएँ आती हैं। और लम्बी कहानी होते-होतेलघु उपन्यास तक पहुँचती हैं। 'अकाल दण्ड' छोटी लिखना चाहता था, बड़ी हो गई। एक वजह यह भी है कि मुझे उपन्यास लिखने का अवकाशजीवन ने नहीं दिया, इसलिए उपन्यास के विषय लम्बी कहानी में प्रकट हुए। फिर भी बहुत सारी बातें रह जाती हैं। हो सकता है कि रिटायरमेन्ट केबाद इन बातों को लिखने का मौका मिले।
.
.
'मैं और मेरा समय' में जैसा गद्य लिखा था आपने वैसा गद्य भी दुबारा नहीं लिखा। वर्णन की वह शैली बहुत पसन्द की गई थी।
मुझे भी लगता है कि वह शैली लिखने व पढ़ने वाले दोनों को बाँधती है। साथ ही लेखक को बहुत गहराई तक अपने आपको टटोलने का अवसरदेती है। मेरा अगला उपन्यास इसी शैली में लिखा जा रहा है।
.
.
आपकी शैली तो विशिष्ठ है ही, आपकी भाषा भी अलग से पहचानी जाती है। भाषा को यह शक्ति कहाँ से मिलती है?
भाषा की ताकत मैं लोकजीवन और लोकगीतों से बटोरता हूँ। लोकगीतों में लगभग बहुत कम पढे़ लोग, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहतेरहते हैं। मैं प्रचलित मुहावरों की शक्ति सँजोता रहता हूँ। मैं अपनी कहानियों में इस शक्ति को विस्तार देता हूँ। मेरी कहानियों में लोकगीतों के अंशआते रहते हैं। रेणु को पढ़कर यह सच्चाई आप जान सकते हैं। देखिये इन शब्दों में कितनी मार्मिकता है-
'सजनी वहि देसवा पै गाज गिरै।
जौने देसवा के किसनवा राम भिखारी होय गये।।'
.
तो क्या लोकजीवन में केवल दुख गरीबी और सदन ही है!
ऐसा नहीं है। 'नया ज्ञानोदय' के इसी अंक में जो मेरा उपन्यास 'आखिरी छलाँग' प्रकाशित हो रहा है, उसमें भी लोकरंग की छाप आप देखसकते हैं। ग्रामीण जीवन इतनी विपरीत परिस्थितियों में बचा रह गया है तो इसका कारण भी उसकी आत्मा में बसी उत्सवधर्मिता, उल्लास और गीतसंगीत है।
.
.
जब अभिव्यक्तित की इतनी शक्ति है लोकजीवन में, तब गाँव से उपजे या उससे जुडे़ लेखक इससे क्यों विमुख हो रहे हैं?
बात यह है कि जो गाँव में पैदा हुआ है, वहाँ की समस्याएँ झेलता भोगता है- वह कोशिश करके उस दुख तकलीफ की जिन्दगी से भागने काप्रयास करता है। जो भाग जाता है उसके लिए गाँव अतीत बन जाता है। इसलिए गाँव पर लिखते समय वह स्मृतिजीवी ही हो सकता है जो उसकेलेखन की धार को कुन्द करेगा। और जो गाँव में ही पड़ा रह जाता है, वह उन्हीं समस्याओं का सामना करता है, उनमें डूब जाता है, तब उसके पासइतना अवकाश ही नहीं रहता कि उन पर लिखने की सोचे।
.
.
आपसी दृष्टि में ऐसे कौन लेखक हैं, जिन्होंने गाँव की जिन्दगी को प्रामिकता दी है?
हैं, कई महत्वपूर्ण लोग हैं। प्रेमचन्द, रेणु, शिवप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय...। मगर मैं कुछ दूसरी तरह से सोचता हूँ। वास्तविकताओं में तो रेणु भीपूरी तरह से नहीं उतरे। गाँव की जिन्दगी की रंगीनी, ध्वनि रूप, कौतूहल सब है। बच्चा साँप देखेगा, चिकनापन, लपलपाती जीभ... सम्मोहित होजायेगा। मगर जहर? जहर की समझदारी भी होनी चाहिए। प्रेमचन्द के यहाँ भी खेती के खर्चे, लागत, नफे मुनाफे का अर्थशास्त्र कहाँ है?सामान्यताओं का बढ़िया चित्रण है। जमीदारों का शोषण, किसानों का संघर्ष... पढ़ने को मिला क्या? मैं तरस गया। बहुत कुछ देखने को लिखने को था, उनके पास- जो रह गया।
.
.
यह तो बहुत पुराने नाम हो गए..... इसके बाद!
बाद के लोगों में मधुकर सिंह, संजीव, रामधारी सिंह दिवाकर, चन्द्रकिशोर जायसवाल, मैत्रेयी पुष्पा, पुन्नी सिंह, महेश कटारे आदि का नामलेना चाहूँगा।
.
.
यह नाम फिर एकाध पीढ़ी पुराने हो चले हैं। जो युवतर पीढ़ी है, इसमें से कुछ का नाम लीजिए।
आपका यह प्रश्न मुझे भी कभी-कभी चिन्तित करता है। कैलाश बनवासी, अरविन्द कुमार सिंह, सुभाषचन्द कुशवाहा, राकेश कुमार सिंह,गौरीनाथ जैसे लेखकों की कहानियाँ ध्यान आकर्षित करती हैं लेकिन... । शैली और शिल्प की दृष्टि से अत्यन्त क्षमता लेकर आये एक दो नयेलेखकों ने जरूर गाँव को अपना वर्ण्य विषय बनाया है, लेकिन जिसे सरोकार कहते हैं वह तिरोहित नजर आता है। कैरियर की होड़ ने भी उन्हें उधरसे नजर फेरने को मजबूर किया होगा। यह विश्वास करने का मन नहीं होता कि गाँव उनके मन से उतर गया होगा। जैसे खेत-खलिहान में बीज छिपेरहते हैं अनुकूल-मौसम आते ही अंकुरित हो उठते हैं। ऐसे ही अंकुरण के लिए कमर कसती नयी, फसल होगी जरूर। आने वाली होगी।
.
.
कमर कसने की जरूरत भी है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के बाद तो गाँव की जिन्दगी पर जाने कैसी-कैसी छायाएँ मँडरा रही हैं!
सही है। भूमि, जल, वनस्पति, बीज वगैरह के खिलाफ जो साजिशें चल रही हैं, वे सब भूमंडलीकरण में आती हैं। किसान को तो विलुप्तप्राय जीवोंकी श्रेणी में डाल देना चाहिए। परिवार के परिवार गायब हो रहे हैं। किसी भी गाँव में चले जाइये। गाँव छोड़कर जाते हुए दो-चार किसानों के खाली घरआपको मिल जाएँगे। खंडहर बचे हैं। इस विलुप्तीकरण पर किसी की दृष्टि नहीं है। तब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मारा था, गिरिमिटिया प्रथा ने माराथा, अब भूमंडलीकरण मार रहा है।
.
.
इन स्थितियों का सामना करने के लिए तो लेखक संगठनों को नयी भूमिका में उतरना चाहिए। आप किस लेखक संगठन से जुडे़ हैं?
सभी से । एक उदाहरण दूँगा। बचपन में नाना के यहाँ जाता था। एक ही घर था, उसी में सारे मामा रहते थे। अब सारे मामा अलग हो गये हैं।अब पूछने पर बताना पड़ता है कि हम किस मामा के यहाँ गये थे। वही हाल लेखक संगठनों का है। पाँच छह संगठन हो गये। चाहता हूँ बारी बारी सेहर मामा के यहाँ जाऊँ। विचारधारा सभी की प्रगतिशील है।
फिर भी, क्या ऐसा नहीं लगता कि लेखक संगठनों की भूमिका क्षीण हो रही है? ऐसा इसलिए पूछ रहा हूँ कि संगठनों की तरफ से इधर कथा सम्मेलनआदि के आयोजन कम हो रहे हैं। ज्यादातर प्रयास व्यक्तिगत जैसे हो रहे हैं। जैसे कथाकुम्भ (कोलकाता), संगमन और कथाक्रम आदि। इन सबसे आप भी जुडे़ हैं?
जैसे व्यक्ति बूढ़ा होता है, संगठन भी बूढे़ होते हैं। मानसिकता बूढ़ी होती है। इसी का प्रभाव होगा। सम्मेलनों की भूमिका निश्चय ही उत्प्रेरक का काम करती है। नयी और पुरानी पीढ़ी को मिलने का संवाद करने का अवसर प्राप्त होता है इसके लिए विभिन्न संगठन/संस्थाएँ प्रयास करतीं, हरमहीने कहीं न कहीं इस तरह के आयोजन चलते रहते तो निश्चय ही यह बहुत उत्साहवर्धक होता। लोगों को अभी तक पुराने कथाकुम्भ की याद है।हाल में हुए कथाकुम्भ में भी कई पीढ़ियों को एक साथ मिलने का मौका मिला। संगमन और कथाक्रम के आयोजनों के द्वारा भी व्यक्तिगत रूप से इस तरह के संवाद कायम करने का प्रयास किया जा रहा है।
.
.
संगठन की जिम्मेदारी लेखक की ओर मोड़ते हुए पूछा जा सकता कि क्या लेखक को एक्टिविस्ट होना चाहिए?
लेखक जिस विषय को या समाज को अपनी रचना का कथ्य बनाता है उसके बारे में लेखक की 'फर्स्ट हैंड' जानकारी होनी चाहिए। उसकीसमस्याएँ, उसका संघर्ष लेखक की अपनी समस्या, अपना संघर्ष हो जाना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब लेखक उसके साथ एक्टिविस्ट के रूपमें जुडे़। इस नजरिये से उसका एक्टिविस्ट होना आवश्यक है। हिन्दी में ऐसा कम हो पा रहा है। इसका कारण यह है कि ज्यादातर लेखक अंशकालिकलेखक हैं। उन्हें आजीविका के लिए कहीं न कहीं नौकरी-चाकरी करने की मजबूरी है।
.
.
तो क्या इसी मजबूरी के कारण हिन्दी में ऐसी रचना नहीं आ रही जो दुनिया को हिला दे? या नोबेल पुरस्कार के लायक मानी जाय!
एक कहावत है कि चटनी रोटी पर पहलवानी नहीं होती। या हड्डी पर कबड्डी नहीं खेली जाती। लेखन की उच्चता के लिए विषय की गहराई में डूबने का अवकाश और एकान्त चाहिए। हिन्दी का लेखक लेखन के सहारे जिन्दा नहीं रह सकता। उसे पेट के लिए कुछ न कुछ करना पड़ता है। उसीसे समय चुरा कर वह लेखन करता है। ऐसी स्थिति में वह अपने लेखन को ज्यादा समय दे नहीं सकता। जितना विदेश के वे पूर्णकालिक लेखक देते हैं, जिनकी ओर आपका संकेत है।... अपनी बात करूँ, तो यही 'आखिरी छलाँग' आखिरकार सत्रह दिन में लिखना पड़ा। सत्तर दिन में लिखा जातातो जाहिर है, बात कुछ और बनती।
.
.
शायद इसीलिए 'आखिरी छलाँग' की पांडुलिपि देते हुए आपने कहा था कि इसके शिल्प पर आप अधिक ध्यान नहीं दे पाये हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि कथ्य के पक्ष पर आपका इतना ध्यान रहता है कि कला पक्ष की ओर से आप थोड़ा उदासीन हो जाते हैं। आपकी दृष्टि में क्या ज्यादा महत्त्वपूर्ण है!
कथ्य और शिल्प दोनों महत्वपूर्ण हैं। एक आत्मा है तो दूसरा शरीर। कथ्य रूपी आत्मा न हो तो शिल्प मुर्दे को सजाने का उपक्रम बनकर रहजाएगा। लेकिन शिल्प पर ध्यान न दिया जाय और अनगढ़ रूप में चीज सामने आये, यह भी मेरी नजर में क्षम्य नहीं है। रस परिपाक में शिल्प कामहत्वपूर्ण योगदान होता है।
.
.
अब आखिरी सवाल। आप भविष्य में क्या-क्या लिखने की तैयारी कर हरे हैं!
लिखने को तो बहुत कुछ सोचा है। तीन उपन्यास अधूरे पडे़ हैं। सभी गाँव की जिन्दगी पर हैं। एक आत्मकथात्मक उपन्यास है। मेरे विचार सेगाँव पर तो इतना लिखने को है कि कई लोग लिखें तो भी पूरा न हो। ऐसे समझ लीजिए कि 'सब धरती कागद करूँ लेखनि सब बनराय। सात समुदकी मसि करूँ गुरू गुन लिखा न जाय' वाली निहाद है।... लेकिन क्या लिख सकूँगा...? अभी से क्या बाताएँ क्या हमारे दिल में है!
No comments:
Post a Comment