Monday 22 June 2015

हरिशंकर परसाईं का व्यंग्य पत्र




प्रिय बन्धु,
आजकल नित्य ही कहीं कहीं कहानी पर बहस होती है और बड़े मजे के वक्तव्य सुनने को मिलते हैं। एक दिन मैं एक क्लासिकल होटल में चाय पी रहा था। क्लासिकल होटल वह है जिसमे जलेबी दोने में दी जाती है और पानी ऊपर से पिलाया जाता है। आधुनिक होने के लिए ऐसे होटल चाय भी रखने लगे हैं। मैं बैठा बैठा एक पत्रिका के पन्ने पलट रहा था। मेरी नजर दिल्ली में हुई मनीषा की गोष्ठी की रपट पर पड़ी। मैने पढ़ा डाँ0 नामवरसिह ने कहा कि नयी कहानी मेरा दिया हुआ नाम नहीं है। कौन कहता है कि मैंने नयी कहानी का नाम चलाया। इसी समय मेरी नज़र दीवार पर टंगे रवि वर्मा के उस चित्र पर पड़ी जिसमें मेनका विश्वामित्र को अपनों और ऋषि को भी लडकी दे रही है और विश्वामित्र परेशान हो हाथ उठा कर उसे अस्वीकार कर रहे हैं। अवैध संतान के बाप की घबडाहट मुझे समझ में आती है।
मुझे विश्वामित्र और नामवरसिंह की अदा में एक साम्य दिखा। यों मै जानता हू कि नामवर सिंह नयी कहानी के पिता नहीं है मगर लोग खूबसूरत बच्चे को गोद भी तो ले लेते हैं। अगर नयी कहानी खूबसूरत बच्ची है और नामवर सिंह में अतृप्त वात्सल्य है तो गोद ले लेने में क्या हर्ज है ? लोक लाज से इतना थोड़े ही घबड़ाया जाता है। अब उनका क्या होगा जो दसों सालों इस दम पर कहानी लिख रहे थे कि डाँ0 नामवरसिंह उसे नयी कहानी कहते हैं। जो भरोसा करके साथ हो ले उसे इस तरह बियाबान में तो किताब बेचने वाले भो नहीं छोड़ते। फिर डाक्टर साहब तो आलोचक हैं।
दूसरा आकर्षक वक्तव्य श्रीकांत वर्मा ने दिया। उन्होने कहा कि कविता लिखना ऊंचे दर्जे का काम है और कहानी लिखना घटिया काम है कवि जब ऊंचा काम करना चाहता है तब कविता लिखता है और घटिया काम करना चाहता है तब कहानी लिखता है। किसी कवि के मन में कोई घटिया काम करने की जैसे जेब काटने की इच्छा हो तो वह जेब काट कर एक कहानी लिख लेगा। मात्र कहानीकार और कवि कहानीकार में यही अंतर है। मात्र कहानीकार जेब काटने की इच्छा होने पर जेब काटेगा मगर कवि कहानी लिखेगा।
यही बात कहानीकार कवि पर लागू होती है। अश्क कहानीकार है मगर जब जब उनकी इच्छा कोई घटिया काम करने की हुई है जैसे पीछे से किसी को लत्ती मार देने की उन्होंने कविता लिख दी है। राजेन्द्र यादव भी कभी कभी फौजदारी मामले को टालने के लिए कविता लिखते हैं। श्रीकांत ने सिर्फ दो को नया कहानीकार माना है। इससे अधिक उदार तो कुंवरनारायण हैं जिन्होंने पांच को माना है। कुँवरनारायण ने श्रीकांत का भी नाम लिया है मगर श्रीकांत ने उनका नाम नहीं लिया। दोस्ती क्या इसी तरह निभती है? श्रीकांत पिछले 10 सालों से मेरा बड़ा प्यारा दोस्त है मगर उसने मेरा नाम भी नहीं लिया।
साहित्य के मूल्यांकन में अगर लोग दोस्तों को ही भूल जाएंगे तो मान दंड कैसे स्थिर होंगे? आलोचना के क्षेत्र में अराजकता का यही तो कारण है कि कुछ लोग दोस्तों को हमेशा याद रखते हैं और कु? लोग हमेशा भूल जाते हैं।
इसी गोष्ठी में एक और कहानी का जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया सचेतन कहानी। अब नयी कहानी और सचेतन कहानी की व्यूह रचना हो रही है। लेकिन आगे हर 6 महीने में कहानी के लिए एक नये नाम की जरूरत पड़ेगी। ऐसे नाम अभी से सोच कर रखने चाहिए। कुछ नाम मैं सुझाता हूं अचेतन कहानी रेचन कहानी विरेचन कहानी विवेचन कहानी रामावतार चेतन कहानी।
मुझे अब यह समझ में आने लगा है कि कहानी लिखना कोई अच्छा काम नहीं है। मगर अच्छा काम तो जेब काटना भी नहीं है। फिर उसे लोग क्यों करते हैं - क्योंकि पैसे मिलते हैं कहानी लिखने से भी पैसे मिलते हैं न।
पिछला महीना दिलचस्प वक्तव्यों का महीना था। र्डो0 प्रभाकर माचवे ने कही कहा कि रोटी से आदमी के विचार नहीं बनते। बात बिल्कुल ठीक है। मगर मेरा नम्र निवेदन है कि रोटी पर जो घी चुपड़ा जाता है उससे तो बनते होंगे। अभी पिछले महीने की ज्ञानपीठ पत्रिका मेरे हाथ में गयी। कर्तार सिह दुग्गल ने लेख लिखा है कि मै क्यों लिखता हूँ। वे क्यों लिखते हैं देखिए - मैं लिखता हूँ क्योंकि दिल के इस कोने में एक दुलहिन छिपी बैठी है। इस हसीना का आशकार करना है। इसके यौवन की एक झलक दिखाना है.
- हाय हाय
काश, हमारे दिल के उस कोने में भी बैठी होती। या हमे वह कोना मालूम होता जहाँ वह अकसर बैठा करती है।
बन्धु दुग्गल जी जैसे सहज भाग्यशाली सब थोड़े ही हैं।
पत्र समाप्त होता है। अब एक मिथ्या औपचारिक वाक्य लिखना बाकी है
आशा है आप सानंद हैं।

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व्यंग्य संग्रह – ‘और अंत में से साभार. अभिव्यक्ति प्रकाशन, 847, यूनिवर्सिटी रोड, इलाहाबाद-2

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