Monday 1 December 2014

अस्मुरारी नंदन मिश्र की चार कवितायेँ

अस्मुरारी नंदन मिश्र पेशे से अध्यापक हैं और हृदय से कवि | इनकी कविताओं में जीवन व समाज की सहज, ईमानदार और संवेदनशील अभिव्यक्ति हुई है | उनके पास भाव और विचारों के साथ सच को अपने तरीके से कह पाने का साहस है | वर्तमान की जटिलतम परिस्थितियों में उनकी कविताएँ एक बेचैन युवामन की कविताओं के रूप में सामने आती हैं | यथार्थ की सहज चेतना से संपृक्त इन कविताओं में शिल्प का अनगढ़पन स्वाभाविक है और उससे कविता की सम्प्रेषणियता कहीं से भी बाधित नहीं लगती | इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठक कवि की दृष्टि और गंभीर रचनात्मक समझ का आकलन स्वयं ही कर सकते हैं | स्पर्शइस युवा कवि और उनकी कविताओं का हार्दिक स्वागत करता है |
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समय क्या हो रहा

डाक, बस-ट्रेन, मोबाइल का नेटवर्क अथवा मेरा प्रेम
कुछ भी
कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा है।

दही-साग-मछली कह
रोली का टीका लगा
प्रसाद देती माँ कहती है-
बेटा समय से घर आ जाना
कि समय अच्छा नहीं चल रहा...
समय से आशंकित
समय से घर पहुँचने के लिए
समय के जिस तिपहिये पर बैठा हूँ
उसकी तीनों टाँगें आपस में अपरिचित हैं

मुझे ठीक ढंग से याद नहीं
कब कही थी माँ ने यह बात
हाँ! मेरी कलाई पर घड़ी अवश्य थी
और मैंने देखा भी था उसे
उसकी सबसे छोटी सुई
सेकेंड की चाल चल रही थी
बड़ी अपनी गतिशीलता में स्थिर।

मुझे समय का पता सूरज ने नहीं दिया
ना ही मेरी परछाईं ने
घड़ी तो क्या बताती यह सच
जो माँ ने बताया था
समय अच्छा नहीं चल रहा...

क्या करूँ
अपना समय किससे मिलाऊँ
डाक
बस-ट्रेन
मोबाइल का नेटवर्क
अथवा मेरा प्रेम
कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा...

समय अच्छा नहीं चल रहा
मैथुन के बाद की निष्क्रियता में
डूबा है
सारा दौर
कोई सिहरन नहीं
उत्तेजना नहीं
रक्त प्रवाह नहीं
तनाव नहीं
ढीले अंगों की जुगुप्साजनक कुरुपता
मानो थाम कर बैठी हो
समय की सुइयों को

निकल रही हैं पत्रिकाएँ
पढ़े जा रहे अखबार
मगर सब बेकार
सम्पादकीय को शब्द-दर-शब्द चाटता होनहार युवक
सचेत है
परीक्षाओं में पूछे जाते हैं
करेंट अफेयर्स...

क्या परीक्षाएँ समय का पता दे सकती हैं?

आज की परिक्षाएँ
कल के परिणाम तक
हो जाएँगी निष्प्रभावी
कल का परिणाम
परसों के प्रयोग में
जगह नहीं बना पाएगा...

वह दरवाजा अब भी कुछ कहने से खुलता जरुर है
लेकिन खुल जा सिमसिम का पासवर्ड बदला जा चुका
जिस समय तक हम पहुँचते हैं
हल बनकर
समय दूसरी पहेली बन तन जाता है
हमारा मुँह बेकपाट दर बन जाता है
अवाक्‍ ...

मैं कहानियाँ सुनना चाहता हूँ
पढ़ना चाहता हूँ कविताएँ
गीत गाना चाहता हूँ
और इन सब की आलोचना तक जाना चाहता हूँ
कि समय का रास्ता इधर से ही गुजरता है सुना
कि यहीं दर्ज है समय का सही-सही पता...

किसी के चेहरे पर बारह बज रहा
किसी के पाँवों के आगे बिछी है
छः बजे की सुबह
सीधी रेख में
कोई दसबजिवा फूल की तरह
मुस्करा रहा
दस बजकर दस मिनट पर
किसी की मूँछें गिरी हैं
आठ बीस-सी
वह जो चढ़ता जा रहा पाँच बजने की चढ़ाई
वह जो ढल रहा एक बजते ही...
एक रात भर खटिया पर पड़े-पड़े
देखता रहा है खटोलवा को
कब चढ़े
कब गिरे
एक की किस्मत का संदेश ले आ गया
भोर का तारा
वे जिनके नेत्र चमक-चमक जाते रहे
रेडियम की तरह
वे जो बदहवास डोलते रहे
पेंडुलम की तरह
किसी की रेत खत्म होने को है
तो कोई पहुँच भी नहीं पाया
और बज उठा स्टॉप-वाच
और इन सबके बीच ही हैं ये तीन सुइयाँ
जिनका कोई अपना समय नहीं होता
जो चल रही हैं बस दूसरों के समय के लिए
अपनी मंद-मध्यम-तीव्र चाल के बावजूद
खुद उन्हें नहीं पहुँचना कहीं भी...
गोल-गोल घूमता दमाही में बैल
दिन काट देता है चलते-चलते
एक गाल अनाज भी खा नहीं पाता
बँधा रहा है उसका मुँह
मुँज की रस्सी से...

ओ हाथ-हाथ की घड़ियो!
ओ देश-देश की घड़ियो!
घंटाघर चौराहे पर भ्रमित खड़ा हूँ मैं
कोई बताओ समय क्या हो रहा
रहा है कितना समय मेरे पास
कि मुझे पहुँचना है घर
समय से...


कुबूलनामा

जैसे नमाजी झुकता है अपनी इबादत में
ठीक वैसे तो नहीं
लेकिन झुक जाता हूँ मेज पर पढ़ते-पढ़ते
आँखें बंद कर बात करता हूँ उस पेड़ से
जो आज इस रूप में जीवित है अपनी मृत्यु के बाद भी
निश्चय ही कोई ईश्वर भक्त ऐसे सुमिरन नहीं करता होगा
मेरी उपासना इस किताब के माध्यम से
उन वनस्पतियों की है
जो दे रही है सीख जिंदगी की
अपने इस नये जीवन में
मैं तो जूते को भी माथे से लगाता हूँ
और उन पशुओं को अपना तुच्छ आभार व्यक्त करता हूँ
जिनके चमड़े हमारे पाँवों के साथ साँस ले रहे हैं...

मैं तो अपनी वसीयत में भी यही लिखना चाहता रहा
कि मृत्यु के बाद भी जिंदा रहूँ
यूँ ही जीवन की उपयोगिता में
लेकिन क्या करूँ
मेरी नफीश पशमीना में आकार लिया अजन्मा मेमना
मुझे घसिट रहा है अदालत
इल्जाम है
हत्या को दर्शन से महिमामंडित कर रहा हूँ मैं

इतने सच्चे हैं उसके बयान
कि मैं अपना अपराध कुबूल करता हूँ...




आखिरी होना

पहाड़ की फुनगी पर
आखिरी पत्ते की तरह
थोड़ा तिरछा होकर लटका पेड़

कितना त्रासद है उसका होना
आखिरी होने के कारण
होने के उत्सव से अधिक 
न होने के इंतजार की तरह...

सभी कह रहे एक दिन यह भी नहीं रहेगा
जैसे नहीं रहे तमाम पेड़ पहाड़ के

इस पेड़ का दर्द
इस पहाड़ की कचोट
अब तो मिटा सकता है
एक ऊर्जस्वित बीज ही...

और वह आखिरी में आरम्भ की तरह
होगा पेड़ में ही...



एक शोक संदेश

किसी बॉर्डर पर
नहीं मरा वह गोली खाकर
शहीद भला क्या कहलाता
किसी जंगल में 
हुआ होता शिकार भी
क्रांतिकारी तो कहला ही जाता  
नहीं आया जद में
किसी आतंकवादी विस्फोट के
कि होती शोक सभा
किसी रेल-सड़क दुर्घटना से भी दूर रह गया
वर्ना दिलवा तो जाता कुछ मुआवजा
अपने पीछे परिजन को...

हर दुर्घटना के बीच से
सुरक्षित निकल जाने के बाद (संयोगवश)
जाना था
यह जीवन ही एक दुर्घटना है
हमारा जीना
तो बिल्कुल
एक अघट घटना है...

अब वह मरने के लिए
सही समय का चुनाव तक
नहीं कर सका...

अपनी प्रेयसि से टका सा जवाब ले
जब घर लौटा
तो एक कमरे के फ्लैट में
पिताजी टी.वी. देख रहे थे
और माँ रसोई में कर रही थी
कुछ खटर-पटर
न कोई पंखा खाली था
न ही कोई चाकू
टी.वी. विश्वशक्ति बनते जा रहे
भारत नामधारी देश के एक भाग पर
आतंकवादी हमले की स्टोरी गा रहा था
कई-एक नामचीन जिम्मेदार देशभक्त
नेता की चिंता जता रहा था
इतना बड़ा देश है कि लाजमी है ऐसा होना
बात छोटी है
होती है...

वह गिर पड़ा अपने बिस्तर पर धड़ाम से
जैसे गिरा हो शेयर बाजार
लेकिन छोटी बातों पर वह गौर क्यों करेगा
वह अभी नहीं मरेगा...

माँ ने पूछा-
तबीयत कैसी है?
उत्तर - बाहर मौसम ठीक नहीं
चेहरा उतरा है?
सोऊँगा
खाना खा ले!
टी.वी. की आवाज कम कर दो
माथा दबा दूँ?
पंखे की चाल बढ़ा दो...
उसका हर जवाब प्रधानमंत्री का तर्क था
जो मँहगाई पर अंतर्राष्ट्रीय बाजार की बात करते थे
और आतंकवाद पर पड़ोसी की...
भ्रष्टाचार तो गठबंधन की मजबूरी के अर्थ में ही प्रयुक्त होता था...

आवेशित वह जब निकला आवारा सड़कों पर फिर से
चाहता था चिल्लाए
मजनु की तरह ले-ले कर
अपनी प्रेमिका का नाम
लेकिन हर तरफ गूँज रहे थे नारे
अल्लाह-ओ-अकबर
जय श्री राम!
उसकी हर आवाज
नक्कारखाने में तूती साबित हो रही थी
उधर उसकी चेतना धीरे-धीरे अस्तित्व खो रही थी

और जब वह मरा
तब बेरोजगारी, गरीबी, लाचारी सब
हस्बमामूल थी
जीने की आजादी
बस गूलर का फूल थी..
एक भी सही कारण
नहीं गिनाया जा सका
उसकी मौत का
नहीं आयी एक भी खबर
प्रेम-बलिदान की...
अखबार में बस एक समाचार था -
जहरीली शराब से मरनेवालों की संख्या छत्तीस हुई
हाय! वह किस कदर लाचार था
कि मौत भी उन बिखरे आँकडों में हुई
जिनमें जीना भी मंजूर न था उसे

ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे !

 (दो मिनट का मौन अब)
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अस्मुरारी नंदन मिश्र 


ग्राम— अरण्यडीह, जिला- नवादा, बिहार, शिक्षा अव्यवस्थित तरीके से बी.ए., बी.एड. तक हो पायी..
नौकरी के फेर में एम.ए. की पढाई को छोड़कर केंद्रीय विद्यालय का शिक्षक हो लिया बाद में एम.ए. हिंदी से किया। अभी रायगड़ा (ओडिशा) में कार्यरत हूँ | कवितायेँ लिखता रहा हूँ..
प्रकाशन की शुरुआत परिकथा से  हुई- नवलेखन अंक 2010, लेकिन भेजने के आलस्य के कारण इसमें निरंतरता नहीं रही... अब  कई जगह भेजी... 'साखी', 'सम्भाव्य', 'संवदिया' के युवा कविता केन्द्रित अंक, 'पक्षधर', बया, सर्वनाम, परींदे, अक्षरपर्व, में  प्रकाशित भी हुई हैं।
एक पुस्तक समीक्षा भी 'साखी' में तथा एक शैक्षिक विषय पर लेख 'शैक्षिक दखल' में प्रकाशित ..
पहली बार, सिताब दियारा जैसे ब्लॉगों पर भी कविता मिल जाएगी..
बस  इतनी सी कथा...
वर्तमान पता- केंद्रीय विद्यालय रायगड़ा, म्युनिसिपल कॉम्प्लेक्स, रायगड़ा, ओडिशा 765001
मो.नं.—09692934211

3 comments:

  1. बहुत ताजगी लिए हुए हैं सभी कविताएँ ।कुछ नए बिम्ब प्रभावित करते हैं ,खासकर पहली कविता में ।दूसरी कविता पढ़ते हुए सहज ही हमारे अग्रज राजेश जोशी की कविता " झुकता हूँ " का ध्यान आता है ।लेकिन अस्मुरारी भाई ने तीन- चार पंक्तियों के बाद ही कविता संभाल ली ।इस कालखण्ड में जीते हुए युवा मन के संत्रास और दुःख को टटोलती ये कविताएँ प्रभावित करती है ।कवि को बधाई ।
    राहुल भाई शुक्रिया ।
    # मणि मोहन

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  2. बहुत बेहतर तरीके से सार्थक अभिव्यक्ति... कवि और माडिरेटर दोनों को बधाई....

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  3. अच्छी कविताएँ ,बधाई

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गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...