Sunday 21 December 2014

गणेश गनी की कवितायेँ



संसद के अहाते में नहीं उगती फसलें

आज द्वार के दोनों ओर दीये जले हैं
दीवाली खड़ी है घर की देहरी पर घूंघट उठाए
औरतों ने धो डाले
आँगन से अपने पैरों के निशान
और बिछा दी उस पर मूंज की महीन परत
सजा दी आँगन में रंगोली
लछ्मी के पैरों के चिन्ह
छापे गए दरवाजे तक .

बच्चों की चमकती आँखों
और दीयों की रोशनी में
पेट की आग बुझाने वाले
सरकारी कानून की घोषणा
साफ़ देखी जा सकती है
जर्जर चेहरों पर
इस उत्सव जैसे नज़ारे में भी
बच्चे हैरान हैं कि
उनके बीस बीघा ज़मीन से भी
कितने विशाल खेत होंगे सरकार के पास .

वे पूछते हैं पिता से
क्या फाकों में गुज़र –बसर करने वालों की
बेसुध सोयेंगी रातें भर –पेट खाकर
अब वह हलवाहा कैसे समझाए कि
संसद के अहाते में नहीं उगती फसलें ......

खेतों से रोटी तक का रास्ता
गुजरता है संसद भवन से केवल
वहीँ पर होता है फैसला
फाकामस्ती और खाऊ चक्कियों के बीच का .

वह हलवाहा कैसे समझाए कि
उनके हिस्से की रोटी के झगड़े –टंटे में
हर बार संसद भवन जीतता है
और किसान हार जाता है
वैसे बाज़ी में हार–जीत पर
अक्सर नहीं उठाए जा सकते सवाल
केवल आत्महत्या की जा सकती है आसानी से.

लालकिले के दस्तावेज़ों में
दर्ज़ नहीं हो सकतीं
भूखे बच्चों के माओं के संताप आहें
और पिता के आक्रोश का लेखा-जोखा .




पगडंडियाँ पीछे चलने लगती थीं 

सावन के बादलों ने
सर पे उठा रखा था
आकाश को सारी रात
पौ फटने से पहले बिजली ने
डाल दिये हथियार कर ली आत्महत्या
बादलों को चीरने की
नाकाम कोशिश के बाद .

उधर सूरज भोर का उजाला
लाने को था बेताब
तूफ़ान ने कई पेड़ उजाड़ दिये
पर एक कागज़ रख गया मेरे सामने
और बादल स्याही की दवात
एक शाख़ कलम और
भोर का तारा दे गया पता
उस स्त्री का
जिससे जुडी थी मेरी नाल

मैं अचम्भित था इतना
कि जैसे कच्छ के रन में
बदल गई हो नमक की परत बर्फ में
और फ़ैल गया हो ग्लेशियर
अरब सागर के तट तक
कि जैसे हिमालय
बदल रहा हो सैंड डयून में तेज़ी से

इस घटनाक्रम के बीच
यह कब बताता मैं कि
कोई हरकारे की ज़रूरत नहीं बची है
कि जल्दी पहुंचे मेरी चिट्ठी माँ तक
अब युग परिवर्तित हुआ है
हालाँकि कुछ बातें
जहाँ रखी थीं वहीँ बैठी हैं .

पिता की भूमिका में
बिच्छू का पिता होना बड़ी बात है
उसके डंक और ज़हर की तुलना में
उसके शरीर का बचा हुआ घेरा
इस बात की देता है गवाही कि
नहीं की उसने उफ्फ तक
पीठ पर बैठे बच्चे ही जब
चटकर गए धीरे –धीरे पूरी पीठ .

माँ इधर बदल गया बहुत कुछ इन दिनों
चिट्ठी ने चुना है हवाई रास्ता
धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक
पलों में पहुँचने के लिये
अब नहीं बदला करते मौसम
शहर से गाँव तक
चिट्ठी पहुँचने के दौरान
बदल जाते हैं चेहरे बेशक
मौसम बदलने से पहले ही

सांसों की ऊँची उड़ान में
रिश्तों के गर्माहट भरे गुब्बारे भी
खो गए हैं कहीं अन्तरिक्ष में
पीछे चलने वाली पगडंडियाँ
बेसुध पड़ी हैं पहाड़ की गोद में
क्योंकि पिता अब बूढ़े हो रहे हैं तेज़ी से
महीनों तक अब नहीं निकलते बाहर
मृगछौनों की धमाचौकड़ी देखना
कब का छूट गया
पर अपनी तुबुक को अब भी
चमकाते हैं कभी –कभी धूप में
और साधते हैं निशाना शून्य में .......

 
पार की धूप

इन दिनों कुछ अधिक ही
हबड़ – दबड़ कर रही है चनाब
‘रहु’ की टहनियों के गट्ठर
डुबो रखे हैं नाले के पानी में
कुछ और नर्म तथा लचीला होने के लिए
उस नाले ने अपनी तेज़ रफ़्तार से
भागना शुरू किया है
चनाब तक भी संदेशा पहुँच गया है यह
अब उसके दोनों किनारे मिलने वाले हैं
क्योंकि हो गई है आरम्भ शौर गाँव में
झूलापुल बनाने की प्रक्रिया तेज़ .

बर्फ की छाती चीर कर आई
इसी हरहराती उफनती चनाब ने ही तो
तोड़ा है झूलापुल
पुल के अस्थि-पंजर
तब से लटके अपने थूहों से
कर रहे हैं जल में अट्ठखेलियाँ
जिस मैदान जैसी समतल चट्टान पर
गूंथी जानी हैं लड़ियाँ
भीगी टहनियों से
आर-पार के नाप की
उस पर शैवाल ने
जमा दी है अपनी गृहस्थी की
एक मखमली नरम परत .

‘शौराल’ जानते हैं
नौ दिनों के बदले में
जीवन आर-पार होगा
पार जो पीली गुदगुदी धुप खिलती है
आएगी इस पार
पीठ पर लादे हरी घास के बोझे
सरसराएंगी घासनियाँ भरी दोपहर
और झींगुर छेड़ेंगे तान
जब घास काटते हुए आदिवासी औरतें
करेंगी प्रतियोगिता उस पार
‘सुगलियाँ’ गाकर .

कस्तूरी मृगों की धमाचौकड़ी के बीच
मोनाल और चकोर डालेंगे नाटी
इस पार बच्चे सांझ में
चैत की छत पर लगाएंगे मेले
इस बीच दराटियां छीलेंगी ...
घासनियों की पीठ
घास के बोझे छीलेंगे औरतों की पीठ
औरतों की पीठ की छीलन रोकने के लिए
छीली जाएगी भेड़ों की पीठ .

दादी कहती थी ...
दरिया के पार
ऊंची चट्टान पर बैठा वक़्त
जो कर रहा है इंतज़ार
उसे जल्दी है इस पार आने की
उसे मालूम हो चुका है
कि बैल उपवास पर हैं
और दीवार पर टंगा जुआ
बैलों के गले लगकर
खींचना चाहता है हल
और खेत की हथेली पर
किसान के किस्मत की लकीरें .

जिसे दादी वक़्त कहती है
दरअसल वे दादा के हाथ हैं
जो ऊन के धागे से बनी
रस्सी की बाट सुलझाने में
तकली को फुर-फुर
हवा में घुमाने में रहते हैं व्यस्त
और आँखें ...
फाट पर चरती भेड़ों पर ठहरी
वक़्त को झूले झुलाती हैं .

एक दिन पहाड़ से घुड़कते-लुढ़कते
कुछ शरारती पत्थर उतर आए नीचे
उनके चेहरे कुछ इस तरह लहके
कि धागे और श्वास की
टूटी एक साथ डोर
नीचे चट्टान की ओट में
देवदार के दो बूढ़े पेड़ बने गवाह इसके .

जब पुल बनेगा
उस पार ठहरा वक़्त आएगा इस पार
तो वह वक़्त होगा
खेतों के सुनहरी होने का
भुने भुट्टे और उबले कद्दू खाने का
कहीं बीत न जाए मौसम बेशकीमती
दादी को यह चिंता खाए जा रही है .

पुल पर चलने का हुनर
सास बता रही है नई बहू को
साथ ही बता रही है
पुल के रग-रग की कथा
पुल कहीं झूलने न लग जाए
इसलिए दबे पांव चलना है पुल पर
और यह भी कि कैसे
दबे पांव चलते हैं घर के भीतर .

आज हवा सांस रोके खड़ी है
विश्वकर्मा देख रहा है
चट्टान की मुंडेर पर
बच्चों संग बैठे हैं
नल और नील भी
वे दोनों हैरान हैं
कि सीख रहा है कैसे विश्वकर्मा
एक बूढ़े ‘शौराल’ से दस्तकारी
तीनों अचम्भित हैं
कि कैसे साठ आदिवासी बुनेंगे
पुल का ताना-बाना .

दरजों-दरारों के बीच
हैरान चींटियों का जमावड़ा
पेड़ के कोटर से
कठफोड़ों की दो जोड़ी आँखें
घने वन में थमी हुई मृग की गति
सब देख रहे हैं गौर से
चट्टान की साँसें
तेज़-तेज़ चल रही हैं आजकल
देखने की बात अब यह है
कि इस पुल को
वह बूढ़ा दस्तकार पार करता है पहले
या फिर वह पास खड़ा नन्हा बालक.
 
-

गणेश गनी



शिक्षा – एम.ए., एम.बी.ए., बी.एड, पी.जी. पत्रकारिता |
एक निजी पाठशाला मे प्रधानाचार्य । कविताएं, वसुधा, बया, वागर्थ, आकण्ठ, अकार, सेतु आदि मे प्रकाशित ।
ईमेल- gurukulngo@gmail.com

2 comments:

  1. Bahut achchhi kavitain! Hardik badhai mitra... Rahul ji dhanyavaad!
    - Kamal Jeet Choudhary

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  2. जीवन से संवाद करती कविताएं, सोचने को विवश करती -----सार्थक और सुंदर रचनाएं...गहन अनुभूतियों को सहजता से व्यक्त किया है आपने अपनी रचनाओं में...बधाई और शुभकामनायें..

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