Sunday, 28 December 2014

मधुकर अष्ठाना का आलेख - लोकप्रिय छन्द दोहा


लोकप्रिय छन्द दोहा
मधुकर अष्ठाना

समय परिवर्तनशील है और इसकी परिवर्तनशीलता के फलस्वरूप भाषा और उसकी काव्यगत विशेषताओं में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है | काल की गति के सम्मुख हजारों की संख्या में प्रचलित छन्दों का लोप होता जाता है | वैसे ऐसे छन्द पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाते क्योंकि वर्तमान के साथ स्वयं को आध्यावधिक बनाये रखना अनेक अतीतजीवी रचनाकारों के लिए संभव नहीं होता है और वे वर्तमान की आलोचना में व्यस्त हो जाते हैं किन्तु उनका सृजन मुख्यधारा से छिटक कर कीचड़ बन जाता है और ऐसा सृजन पिछड़ने के कारण अपनी प्रासंगिकता खो देता है | पोखर का ठहरा हुआ जल दुर्गन्ध देने लगता है और नदी की धारा अपनी गति से स्वयं को परिशोधित करती रहती है जिससे जल निर्मल बना रहता है | भारतीय संस्कृति का सिद्धांत ‘चरैवेति-चरैवेति’ में निहित है जो आदर्श ही नहीं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में गतिशीलता और प्रगति का द्योतक है | इस गतिशीलता में अतीत के सारे छन्द निर्जीव हो गये परन्तु दोहा अपनी इसी प्रगतिशीलता के कारण नवगीत और ग़ज़ल की भांति ही स्वयं को कालजयी और प्रासंगिक बनाये हुए है जिससे वह मुख्यधारा में है | न्यूनतम शब्दावली, नवता तथा गेयता से संस्कारित दोहा दिन प्रतिदिन अपनी लोकप्रियता में अभिवृद्धि करता जा रहा है | नवगीत तथा ग़ज़ल की विशेषताओं से मंडित दोहा, देखने में तो साधारण प्रतीत होता है परन्तु वास्तव में उत्तम दोहा सृजन हेतु घोर साधना की आवश्यकता होती है | नवगीत और ग़ज़ल के रचनाकार भी इसके सम्मोहन से मुक्त नहीं हो सके जिसका परिणाम है कि दोहाकारों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है जिसमें डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया, प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’, चंद्रसेन विराट, डॉ राधेश्याम शुक्ल, डॉ राम सनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’, रामबाबू रस्तोगी, डॉ भारतेंदु मिश्र, जय चक्रवर्ती के अतिरिक्त सैकड़ों रचनाकार निरंतर सृजनरत हैं | दोहा का जो चमत्कार अतीत में था, वही प्रगतिशील तत्वों से समन्वित होकर अपनी कालजयीयता और जीवन्तता का बोध कराता हुआ, गेय विधाओं में तीव्र आकर्षण का केंद्र बना हुआ है जिसमें दिन प्रति गहराई और व्यापकता समृद्धि की ओर अग्रसर है | अतीत में जिस प्रकार खुसरो, रहीम, कबीर, जायसी, तुलसी, बिहारी और रसलीन आदि ने दोहा को शिखर पर पहुँचाया, उसी प्रकार आज भी दोहाकार इस छन्द में अभिव्यक्ति को नए आयाम देने को तत्पर हैं जिससे इसकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है | पूर्व में दोहों के विषय विशेष रूप से नीति, उपदेश, सौन्दर्यवर्णन, भक्ति आदि थे किन्तु अब उसके विषय सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, आम आदमी का जीवन संघर्ष, विसंगति, विषमता, विघटन, विद्रूपता, विवशता और दैनंदिन त्रासदी हो गये हैं |
गोस्वामी तुलसीदास को दोहा छन्द इतना प्रिय था कि उन्होंने पूरी रामकथा दोहों में ‘दोहावली’ नामक ग्रन्थ में रच डाली | जायसी ने नागमती विरह वर्णन करते समय दोहों की सामर्थ्य का भरपूर उपयोग किया जिसके फलस्वरूप वे हिंदी साहित्य में विप्रलंभ श्रृंगार के सर्वश्रेष्ठ कवि बन गये | उनके तीन दोहे तो मुझे 50 वर्ष बीत जाने पर भी स्मरण हैं –
“कागा नैन निकासि कै, पिया पास लै जाय
पहिले दरस दिखाइ कै, पीछे लीजो खाय
कागा सब तन खाइयो, चुनि-चुनि खइयो मास
दो नैना मत खाइयो, पीउ दरस की आस
यह तन जारौ छार कै, कहौं कि पवन उड़ाव
पुनि तेहि मारग उड़ि परै, कंत धरै जहँ पाँव”
बिहारी जब आपके आश्रयदाता राजा के यहाँ गये तो सुना कि राजा आजकल नई रानी जो नाबालिग है, के प्रेम में राजकाज से विरत होकर, महल में ही भोग-विलास में पड़े रहते हैं | मंत्रियों ने बिहारी से कुछ प्रयास करने का अनुरोध किया तो उन्होंने मात्र एक दोहा लिखकर राजा के पास भिजवाया | राजा ने उसे पढ़ा तो उन्हें अपने कर्तव्य का ज्ञान हो गया और महल त्याग कर वे राज दरबार में आ गये –
“मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोय
जा तन झाई परे, स्याम हरित दुति होय”
या
“नहीं सुवास, नहीं मधुर मधु, नहीं विकास यहि काल
अली कली ही सौं विन्ध्यों, आगे कौन हवाल”
इसी प्रकार ‘रसलीन’ का मात्र एक ही दोहा उपलब्ध है जिसने उन्हें अमर बना दिया है | दोहा भी ऐसा है कि आजतक वैसा पायेदार दोहा कोई लिख ही नहीं सका –
“अमी, हलाहल, मद भरे, श्वेत, श्याम, रतनार
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इकबार”
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि दोहा सशक्त तथा हर काल में अपनी प्रासंगिकता बनाये रख सके तो वह कालजयी हो जाता है | दोहा में सामर्थ्य तो असीम है परन्तु इसकी शक्ति का भरपूर उपयोग करने में सक्षम रचनाकार उँगलियों पर गिने जा सकते हैं | इसकी समानता करने वाली कोई काव्य विधा दूर दूर तक नहीं दिखाई पड़ती है जो इसे चुनौती दे सके | इसकी व्यंजना या ध्वनि या कहन अनूठी होती है | जब कोई विराट कवि विरोधाभास के साथ लिखता है | इस प्रकार का दोहा जो आमजन में बहुचर्चित है, निम्नांकित है-
“या अनुरागी चित्त की, गति समुझें नहिं कोय
ज्यों-ज्यों बूड़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय”
दोहा अर्द्धसममात्रिक छन्द है जिसमें चार चरण होते हैं जिसमें प्रथम और तृतीय चरण को विषम चरण तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण को समचरण कहा जाता है | दोहा की ही भांति इस प्रजाति के अनेक छन्द हैं यथा दोही, दोहरा, चोडाल या चुलियाला, उपचूलिका, सोरठा, बरवै, उल्लाला, गीति, उपगीति तथा आर्यगीति आदि | जब हम दोहा की ऐतिहासिकता का आकलन करते हैं तो इसे सर्वप्रथम लोकगीतों में पाते हैं जिसकी उत्पत्ति लोकमन में निहित होती है किन्तु अपभ्रंश काल आते ही यह उस समय का प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण छन्द बन जाता है जिससे अपभ्रंश का नाम ही “दूहा विद्या” पड़ गया | संस्कृत के श्लोक और प्राकृत की गाथा की तरह अपभ्रंश में इसका प्राधान्य था | ज्ञातव्य है कि दोहा का प्राचीन रूप ‘दुवहअ’ लोक प्रचलित ताल संगीत से उद्भूत माना जाता है जिससे क्रमशः दोहा का विकास हुआ | इस क्रम में ‘दुवहअ’ से दूहा शब्द बना और वर्तमान तक आते-आते घिस-पिट कर सरल उच्चारण के कारण दोहा कहा जाने लगा | संस्कृत परम्परा के आचार्य पिंगल, जयदेव, जयकीर्ति आदि लक्षण विधान के लक्षणकारों के काल में दोहा का उल्लेख नहीं मिलता है जिससे स्पष्ट होता है कि संस्कृत काल में दोहा प्रकाश में नहीं आ सका और लोकगीतों में ही व्याप्त रहा जिसका साहित्यिक महत्त्व नहीं समझा गया | इसके उपरांत भी अपभ्रंश के पूर्व युगीन काव्य में भी दोहा का उल्लेख नहीं हुआ जिससे मेरे पूर्व कथन की पुष्टि होती है कि दोहा आचार्यों द्वारा निर्मित सैद्धांतिक विवेचनों के विपरीत लोक मानस में प्रचलित लोकधुनों की ही देन है जो संगीत के तालवृत्त से बंधा है और अपभ्रंश काल में ही साहित्य में धमाकेदार प्रवेश कर सका तथा लोकव्यवहार से काव्यव्यवहार में आने लगा | इसका सम्बन्ध संस्कृत की वर्णवृत्त परम्परा से होना प्रमाणित नहीं होता है | इसीलिए दोहा की परम्परा का प्रारंभिक परिशिष्ट काव्य के अंतर्गत आठवीं शताब्दी से जुड़ता है | अपभ्रंश काव्य में भी दोहा छन्द का प्रयोग एवं प्रवर्तन ‘सरहपा’ रचनाकारों द्वारा किया गया जिन्होंने दोहा को मुक्तक उपदेशों के लिए इसे अधिक उपयुक्त मानकर, भरपूर प्रयोग किया | दोहा का प्रभाव भी विदेशी भाषाओँ पर पड़ा जिसमें इसके अनुरूप छन्दों का निर्माण हुआ |
अपभ्रंश तथा मध्यकालीन हिंदी के काव्य को दोहा-युग कहा जा सकता है क्योंकि उस समय दोहा की लोकप्रियता शिखर पर थी | एकमात्र यही ऐसा छन्द है जिसकी निरंतरता आठवीं शताब्दी से लेकर वर्तमान युग तक व्याप्त है और विशेषता यह कि इसकी प्रासंगिकता में कोई कमी नहीं दिखाई पड़ती है | दोहा सृजन-कर्म में निरंतरता के साथ ही विषय की विविधता और विविध शैलियों का समागम भी इसे आकर्षक बनाये हुए है | अपभ्रंश के सिद्धों ने एवं जैनों के सम्प्रदाय के मत, वाद, संतों के मत-मतांतर, खंडन-मंडन तथा रहस्यानुभूतिक     विषय, कृष्ण-काव्य के दार्शनिक सिद्धांत, भक्ति परक उद्गार, अपभ्रंश एवं डिंगल की वीरगाथाएं, राम-काव्य के मार्मिक प्रसंग, सूफी प्रेमाख्यान, फुटकर श्रृंगार एवं नीतिपरक उक्तियाँ, रीतिकालीन शास्त्र चिंतन, आधुनिक, सामाजिक राजनैतिक, दार्शनिक तथा आर्थिक विचार, वर्तमान विसंगति, विषमता, विघटन और देशप्रेम सम्बन्धी उद्गार आदि दोहा छन्द के माध्यम से सर्वथा अनुकूल एवं सटीक अभिव्यक्ति उपलब्ध होती है, दोहा का प्रयोग केवल मुक्तक शैली में ही नहीं, प्रबंध शैली, पद शैली, प्रगाध शैली आदि में भी उपयोगी सिद्ध हुआ है |
दोहा छन्द प्रारंभ में बहुत दिनों तक गणबद्ध रूप में प्रयुक्त होता रहा जिसका मात्रिक गण विधान – विषम चरण : 6+4+3 तथा सम चरण 6+4+1 और जिसका चरणान्त दीर्घ-लघु होता रहा किन्तु परवर्ती हिंदी में गणमुक्त रूप में भी विषम चरण- 13 मात्राएँ तथा सम चरण- 11 मात्राएँ एवं चरणाना दीर्घ लघु है जिसका प्रयोग आमतौर से किया जा रहा है | संस्कृत वर्णवृत्त काव्य में तथा उससे उद्भुत आर्यादि मात्रिक छन्दों में पदांत तुक की प्रथा नहीं थी | दोहा छन्द में ही पहली बार पदांत तुक का प्रयोग हुआ जिसके अनुकरण स्वरुप अपभ्रंश के अन्य छन्दों में भी अन्त्यानुप्रास का प्रयोग हुआ | दोहा छन्द के इतिहास में चौदहवीं शती को स्वर्णयुग की संज्ञा दी जा सकती है | इस समय तक दोहा के उपदोहअ (दोहरा), अवदोहअ (सोरठा), संदोहय (दोही), चूडाल दोहअ (चुलियाला) आदि रूपांतर तथा दोहा के गुरु लघु वर्णों के आधार पर अनुच्छेदगत संख्या पर आधारित भ्रमर, भ्रामर, शरभ, श्येन, मंडूक, मर्कट, करभ, नर, हंस, मदुकल (गयंद), पयोधर, चल (चलबाचल), बानर, त्रिकल, मच्छ, कच्छप, शार्दूल, अहिबर, व्याल, विडाल, स्वान. उदर तथा सर्प कुल 23 भेद विकसित हो चुके थे | नंदा दोहा (बरवै) भी इसके उपरांत प्रकाश में आया | उपर्युक्त समस्त कथन के परिप्रेक्ष्य में सभी युगों, सभी क्षेत्रों, हिंदी के अंतर्गत सभी बोलियों, सभी विषयों तथा सभी शैलियों में दोहा की व्यापक उपस्थिति के फलस्वरूप इसे अपभ्रंश हिंदी का सर्वाधिक क्षमतावान एवं लोकप्रिय छन्द माना गया | इस अर्धसममात्रिक छन्द की कुल 48 मात्राओं में मात्रिक गणों की दृष्टि से इसके पादों की बनावट दो प्रकार की होती है –

विषम पाद – 1 – त्रिकल, त्रिकल, द्विकल, त्रिकल, द्विकल
3 + 3 + 2 + 3 + 2 = 13 मात्रा
2- चतुष्कल, चतुष्फल, त्रिकल, द्विकल
4 + 4 + 3 + 2 = 13  मात्रा
सम पाद – 1 - त्रिकल, त्रिकल, द्विकल, त्रिकल
3 + 3 + 2 + 3 = 11 मात्रा
इसका गण स्वरुप निम्नांकित रूप में भी हो सकता है : -
विषम पाद – षट्कल + चतुष्कल + त्रिकल
6 + 4 + 3 = 13 मात्रा
सम पाद -  षट्कल + चतुष्कल + लघु
6 + 4 + 1 = 11 मात्रा

उपर्युक्त विधान से स्पष्ट है कि किसी चरण विशेष में सभी मात्रिक गणों के स्वरुप एक समान नहीं हैं और ऊपर के विकल्पों में कोई ऐसा चरण नहीं है जिसमें एक ही मात्रिक गण आरम्भ से अंत तक प्रयुक्त हो | द्वैमत्रिक, चातुर्मत्रिक, षट्मात्रिक गणों में से एकाधिक गण का प्रयोग प्रत्येक चरण में दृष्टव्य है जो मात्रिक छन्द की विशेषता है | इसके विपरीत तालवृत्त में आरम्भ से अंत तक एक ही प्रकार के तालगणों का प्रयोग होता है जिनके द्वारा अनुशासित होकर गाया जाता है |
दोहा के 23 भेदों में प्रयोग की दृष्टि से उन्हीं भेदों की रचना अधिक की गयी है जिनमें 9 गुरुवर्णों से लेकर 14 गुरुवर्णों तक होते हैं | इनके अतिरिक्त अन्य भेदों के उदाहरण लक्षण ग्रंथों में ही सुलभ हैं अथवा किसी दोहाकार ने पांडित्य प्रदर्शन हेतु सृजन किया हो | समस्त भेदों के लक्षण एवं उदाहरण निम्नवत हैं –

(1)   भ्रमर – 22 गुरु + 4 लघु = 22*2+4 = 48 मात्रा
“वंशी में ऐसा दिखा, कान्हा का आकार
राधा को जैसे लगा, नीला पारावार”
                        आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(2)   भ्रामर – 21 गुरु + 6 लघु = 21*2+6 = 48 मात्रा
“कच्ची-कच्ची छोड़ दी, पक्की ले ली हाथ
आयेगी वह भी घड़ी, कच्ची होगी साथ”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(3)   शरभ – 20 गुरु + 8 लघु = 20*2+8 = 48 मात्रा
“नेता जी की नीति में, ऊँची-ऊँची बात
धोखा दे लेकिन करें, मौके पर आघात”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(4)   श्येन – 19 गुरु + 10 लघु = 19*2+10 = 48 मात्रा
“देखा अपना चेहरा, आईने में आज
उसे रास आया नहीं, तीन लोक का राज़”
                  प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’
(5)   मंडूक – 18 गुरु + 12 लघु = 18*2+12 = 48 मात्रा
“रंग गंधों की कभी, की जिसनें ईजाद
वह मुरझाया फूल अब, बना बाग़ की खाद”
                  प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’
(6)   मर्कट – 17 गुरु + 14 लघु = 17*2+14 = 48 मात्रा
“रंगों वाली बांसुरी, गंध नहाये गीत
सरसों- सरसों फूलती, फगुनाहट की प्रीत”
                  प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’
(7)    करभ – 16 गुरु + 16 लघु = 16*2+16 = 48 मात्रा
“जिसमें बची जिजीविषा, उसकी करो संभाल
शेष सभी को खा रहा, मुँह फैलाये काल”
                  प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’
(8)   नर – 15 गुरु + 18 लघु = 15*2+18 = 48 मात्रा
“हुए सहाय अहेतु ही, कहाँ-कहाँ अब कौन
सबके प्रति आभार है, शीश झुकाता मौन”
                  चंद्रसेन विराट
(9)   हंस – 14 गुरु + 20 लघु = 14*2+20 = 48 मात्रा
“तने हुए हैं हम इधर, उधर तने हैं आप
तीर छूटना शेष बस, खिंचे हुए हैं चाप”
                  चंद्रसेन विराट
(10)                       मदुकल (गयंद) – 13 गुरु + 22 लघु = 13*2+22 = 48 मात्रा
“इस तट हँसती जिंदगी, उस तट पर है मीच
कर्म नदी कल-कल बहे, दो कूलों के बीच”
                  डॉ राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर’
(11)                       पयोधर – 12 गुरु + 24 लघु = 12*2+24 = 48 मात्रा
“उमस, घुटन, सीलन भरी, लोग खड़े निर्वात
खूब गरजते मेघ तुम, होती कब बरसात”
                  डॉ भारतेंदु मिश्र
(12)                       चल (चलबाचल) – 11 गुरु + 26 लघु = 11*2+26 = 48 मात्रा
“रजकण की महिमा अनत, अतुल-धरम विस्तार
धरती के परमाणु की, महिमा अपरम्पार”
                  श्री शंकर सक्सेना
(13)                       बानर – 10 गुरु + 28 लघु = 10*2+28 = 48 मात्रा
“मत पूछो यह किस तरह, बीती उसकी रात
बदल-बदल कर करवटें, उसने किया प्रभात”
                  प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’
(14)                       त्रिकल – 9 गुरु + 30 लघु = 9*2+30 = 48 मात्रा
“घट-घट भरी उदासियाँ, पनघट-पनघट प्यास
गुमसुन-गुमसुम खेत हैं, पगडण्डियां उदास”
                  डॉ राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर’
(15)                       कच्छप – 8 गुरु + 32 लघु = 8*2+32 = 48 मात्रा
“तन-मन-धन सबकुछ मिला, मिला न नेह विशाल
पतझड़ सम जीवन दिखे, पग-पग झुलसी डाल”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(16)                       मच्छ – 7 गुरु + 34 लघु = 7*2+34 = 48 मात्रा
“परम-धरम निर्मल करम, भरम न मन में पाल
अजर, अमर सब कुछ नहीं, जगत काल के गाल”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(17)                       शार्दूल – 6 गुरु + 36 लघु = 6*2+36 = 48 मात्रा
“जगर-मगर दीपक जलत, स्वर्णिम लगत प्रकाश
जीवन-धन पग-पग चलत, मिलत मिलन की बास”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(18)                       अहिबर – 5 गुरु + 38 लघु = 5*2+38 = 48 मात्रा
“कवि-मन सावन, सघन घन, कवि मानस जलधार
उमड़-घुमड़ बरसत सतत, चल-चल सबके द्वार”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(19)                       व्याल – 4 गुरु + 40 लघु = 4*2+40 = 48 मात्रा
“तिरसठ बन कर चलत यदि, पग-पग मिलत असीस
दर-दर पर ठोकर सहत, बन-बन कर छत्तीस”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(20)                       विडाल – 3 गुरु + 42 लघु = 3*2+42 = 48 मात्रा
“नटखट मन, अटपट चलन, अरुण नयन मदमस्त
जन-जन-मन विचलित करे, कर सद्गति पथ ध्वस्त”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(21)                       स्वान – 2 गुरु + 44 लघु = 2*2+44 = 48 मात्रा
“समय-समय रसबिन बहुत, समय-समय रसखान
मचल-मचल सबकुछ चखत, घर-घर घुसकर स्वान”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(22)                       उदर – 1 गुरु + 46 लघु = 1*2+46 = 48 मात्रा
“भरत-भरत रुचिकर लवण, उदर रहत नित तरल
अधिक चखत उलटत सभी, लवण बनत तब गरल”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’
(23)                       सर्प – शून्य गुरु + 48 लघु = 48 मात्रा
“उथल-पुथल नित-नित नवल, समय अनवरत करत
कण-कण पर निज परम पद, धमक-धमक कर धरत”
                  आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’

उक्त सभी भेदों का व्यावहारिक काव्य जगत में प्रयोग हो चुका हो, इसकी सम्भावना कम है और आवश्यक भी नहीं है क्योंकि उपर्युक्त भेदभाषा विज्ञान की दृष्टि से उल्लिखित हैं | हिंदी काव्यजगत में गोस्वामी तुलसीदास ने दोहा के सर्वाधिक भेदों में दोहों की रचना की है जिनमें शार्दूल, कच्छ, मच्छ, त्रिकल, बानर, चल, पयोधर, भदुकल, हंस, नर तथा करभ आदि प्रमुख हैं | इसके उपरांत वर्तमान युग में प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ ने तेईस हज़ार दोहों का सृजन किया है, जिनमें सर्वाधिक भेदों का प्रयोग हुआ है | प्रायः 12 गुरु से 16 गुरु तक के पयोधर, मधुकल, हंस, नर तथा करभ आदि का ही सामान्य रूप से व्यावहारिक काव्य में प्रयोग होता है | अहिबर, व्याल, विडाल, स्वान, उदर, सर्प, मर्कट, मंडूक, श्येन, शरभ, भ्रामर तथा भ्रमर आदि लक्षण ग्रंथों अथवा आचार्यों की रचनाओं में ही प्राप्त होते हैं | जिस दोहा में तुकांत दीर्घ + लघु न हो, वह अधम दोहा माना जाता है | दोहा जगण= लघु+गुरु+लघु (जैसे जहाज़) से प्रारंभ नहीं किया जाता, हाँ यदि जगण दो शब्दों में विभक्त हो तो प्रयुक्त हो सकता है जैसे ‘डरो नहीं’ में ‘डरोन’ एक शब्द नहीं है और जगण ‘डरो एवं नहीं’ दो शब्दों में विभक्त है | दोहा में ग़ज़ल की भांति प्रथम पंक्ति का दूसरी पंक्ति के साथ सम्बन्ध एवं वज़न पर भी ध्यान देना आवश्यक है | सैद्धांतिक पक्ष जानते हुए भी, जब तक समुचित अभ्यास न हो तो शुद्ध दोहा लिखना कठिन कार्य है और उत्तम कोटि के दोहों का सृजन तो दुर्लभ है |

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संपर्क - ‘विद्यायन’ एस.एस. 108-109 सेक्टर-ई, एल.डी.ए. कालोनी, लखनऊ
मो. 09450447579, 09935582745 

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