कविता
का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा
यदि वह
ओस की
एक बूँद को बचा न सके
-
पाब्लो नेरुदा
दूसरे
सच की खोज़
कला
में यथार्थ की मांग एक लोकतान्त्रिक मांग है | आज का यथार्थ जटिल और सगुम्फित है |
इसके अनेक संस्तर हैं | दिखाई देने वाले एक यथार्थ के भीतर दूसरा यथार्थ है और
दूसरे के भीतर तीसरा | कभी आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सभ्यता के विकास के साथ
कवि-कर्म के जटिल होने की बात की थी | सभ्यता के विकास के साथ यथार्थ भी जटिल होता
गया है | यथार्थ की जटिलता को समझना ही संभवतः आज के कवि-कर्म की जटिलता है | अपने
समय के आधारभूत और अनिवार्य प्रश्नों से आँख चुराकर कोई भी कवि-कर्म सार्थक नहीं
हो सकता | उसे अपने समय के सामाजिक-सांस्कृतिक भूगोल से नाभि-नाल का सम्बन्ध रखना
होगा | एक व्यापक विचारदृष्टि के सहारे ही लेखक उस दूसरे सच की खोज़ कर सकता है जो
दिखाई देने वाले सच के भीतर छुपा है | एक कविता यथार्थ के किसी भी पक्ष की अवहेलना
करके नहीं लिखी जा सकती | भावना और स्वप्न की क्यारी में रंगीन फूल उगाकर कविता
लिखने के दिन अब लद चुके हैं |
आज़ादी
के बाद से अब तक इस देश की बुनियादी समस्याएं वही हैं- भूख, गरीबी, बेकारी और
अशिक्षा, पूँजीवाद व्यवस्था और शोषण का दिन-प्रतिदिन बदलता नया, मायावी मगर अदृश्य
जाल-मुक्तिबोध ने जिसे 1964 से पहले कभी ‘समस्या एक’ कहा था कि इस देश की जनता,
गाँव, नगर, राज्य सब शोषणमुक्त कब होंगें | गाँव की स्थिति देखें तो बद से बदतर
दिखाई देती है | इन्टरनेट के ज़माने में वहां अस्पताल, स्कूल और डाकघर की सुविधा तक
नहीं है | कुछ परिवर्तन चाहे गिनाये जाएँ- जैसे शिक्षितों के प्रतिशत में वृत्ति,
कुछ गांवों में सिंचाई की सुविधा से पर्याप्त उत्पादन, कुछ पक्की सड़कें, कुछ पक्के
घर, कृषि के नए तकनीक, संपन्न गांवों में रेडियो की जगह टी.वी. साइकिल और बैलगाड़ी
के साथ कुछ मोपेड और मोटरसाइकिलें- मगर बावजूद इन गिनती के परिवर्तनों के स्थिति
संतोषजनक नहीं है | शिक्षा रोज़गार की गारंटी तो खैर दे ही नहीं सकती, वह अपने
नागरिकों को एक धर्मनिरपेक्ष और सम्पूर्ण मानवीय जीवन-दृष्टि से संपन्न करने में
भी असमर्थ है | उपनिवेशवाद का दौर बीत चुका है | वह यथार्थ सीधे-सीधे दिखाई तो
देता था | देश की जनता, किसान-मजदूर सब बिना किसी दीक्षा के उसके विरुद्ध खड़े हो
सकते थे लेकिन नव भूमंडलीकरण उससे बहुत आगे की स्थिति है | विश्व अब गाँव हो गया
है विश्वबंधुत्व के नाम पर एक सत्ता के नीचे पूरे विश्व को उपनिवेश बना लेने का अब
षड्यंत्र है | अब अस्त्र का काम वित्तीय पूँजी से लिया जा रहा है | बाज़ार और
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अब अस्त्र हैं | विश्वबैंक और अंतरष्ट्रीय मुद्रा कोष से
ऋण दिलाकर विकासशील देशों पर दबाव डाला जा रहा है कि वे अपनी नीतियाँ बदलें और
नीतियाँ बदली जा रही है | सार्वजनिक उपक्रम घाटे में बेचे जा रहे हैं- निजी और
विदेशी संस्थाओं को | पेटेंट भारतीय कृषकों को उनके मूल अधिकारों से वंचित कर रहा
है | जैव प्रौद्योगिकी से प्रकृति के स्वाभाविक नियमों से छेड़छाड़ करके बीजों को
बाज़ार के हित के अनुकूल बनाया जा रहा है और उन्हें उनकी स्थायी उर्वरक क्षमता से
वंचित किया जा रहा है | आने वाले दिनों में शीघ्र किसानों को बाज़ार से बीज खरीदने
होंगें और उन बीजों से वे दूसरी फसल नहीं ले सकते जोकि वे आजतक लेते रहे हैं |
कृषक का चाहे इससे अहित हो मगर बाज़ार का हित है | उनके बीज हर साल बिकेंगें | यह
जैव प्रौद्योगिकी का चमत्कार नया दारुण यथार्थ है जिसका सामना एक कृषक को करना है-
आज जो अनभिज्ञ है | स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भारतीय नेता जेल जाया करते थे |
वे अब भी जेल जाते हैं मगर दोनों यथार्थ में गहरा अंतर है | भ्रष्टाचार, अपराध और
हिंसा के क्रूरतम उदाहरण सामने हैं |
पिछली
शताब्दी के अंतिम दशकों में साम्प्रदायिकता एक भीषण समस्या के रूप में अपना फन उठा
चुकी है | इस सांप को कुचलने वाला कोई नहीं दिखता | सब दूध पिलाने के लिए
पंक्तिबद्ध खड़े हैं | फासीवाद का स्पष्ट उभार देश की राजनीति और समाज में देखा जा
सकता है | अल्पसंख्यक डरे हुए हैं | अब यह हिन्दू राष्ट्र है | लोग-जिनमें
स्त्रियाँ, बूढ़े और बच्चे भी शामिल हैं-जिंदा जलाये जा रहे हैं | यह इक्कीसवीं सदी
में पहुंचे हुए भारत का यथार्थ है जिसे एक चित्रकार के कैनवास पर सिर्फ काले रंग
से अभिव्यक्त किया जा सकता है | इक्कीसवीं सदी के मस्तिष्क में मध्य युग का ज़हर भरा
हुआ है लेकिन इसे विकास कहा जा रहा है | इस नयी सभ्यता के केंद्र में धन है | तो
विकास भौतिक है | नैतिक और आत्मिक दृष्टि से विकास की चिंता यहाँ किसे है | मनुष्य
हाशिये पर है | मनुष्यता एक फालतू चीज़ है | गति और सूचना के इस दौर में लोभ-लाभ का
गणित ही प्रधान है |
ऐसे
समय में कविता का धर्म बदलता है | वह इस दुधर्ष यथार्थ के बीच खड़ी है- जलती हुई
ज़मीन पर | बकौल स्व. शलभश्रीरामसिंह- ‘तुम जहाँ भी रखोगे पाँव/ ज़मीन जलती हुई
मिलेगी |’ बेशक इस यथार्थ के अन्दर कुछ सुन्दर पक्ष भी हैं जो हमारी सभ्यता के
आधार हैं और हमारे जीने का कारण भी | कविता यहाँ से ऑक्सीजन लेती है और पुनः अपने
दुधर्ष यथार्थ के बीच लौट आती है | क्या एक कविता- फिर चाहे वह लम्बी कविता ही
क्यों न हो- अपने समय के सम्पूर्ण यथार्थ को व्यक्त करने में सक्षम है ? शायद नहीं
| वह एक लघुकाय विधा है- संश्लिष्ट और गहन | उसकी सीमायें हैं | वह पूरी फिल्म
नहीं दिखा सकती पर ट्रेलर ज़रूर दिखाती है | कुछ संकेत वहां हैं, कुछ प्रतीक |
एक-एक प्रतीक से समय की एक-एक परत जैसे उधड़ती जाती है | कविता प्रायः कम में अधिक
कहने का प्रयत्न करती है | यह कविता की प्रकृति है |
इस
जटिल यथार्थ की अभिव्यक्ति आज कविता की सबसे बड़ी चुनौती है | अपनी सीमाओं से जूझते
हुए, अपनी जरूरी शर्तों को बरकरार रखते हुए कविता इस चुनौती का सामना करती है |
लेखक
की ज़मीन
कविता
में लोक की बात करते ही प्रायः एक ग्रामीण संसार आँखों के आगे मूर्त हो उठता है |
हमारी अधिकतर काव्यालोचना में भी लोक के इसी अर्थ पर बलाघात दिखाई पड़ता है जो
अनुचित है | लोक का सीधा अर्थ किसी राष्ट्र विशेष की जनता से है- फिर चाहे वह
ग्रामीण हो या नागर | सचेतन में यह जानते-मानते हुए भी अचेतन में जाने-अनजाने
‘लोक’ अपने ग्रामीण सन्दर्भ में ही प्रायः प्रयुक्त होता रहा है | कविता को
जनसंपृक्त कहने में अर्थान्तर नहीं होता लेकिन लोक-संपृक्त कहते ही वह ग्रामीण
समाज से ही सम्बद्ध नज़र आती है | यह अर्थ-संकोच है | आज हिंदी कविता में इस ‘लोक’
को पुनः अर्थ-विस्तार की जरूरत है |
समकालीन
हिंदी कविता में इस नागर और ग्रामीण लोक से कवि की ईमानदार और रागात्मक सम्पृक्ति
की पहचान कैसे ही जा सकती है- यह अध्ययन दिलचस्प हो सकता है | हिंदी कविता में इस
नागर लोक की हालत फ़िलहाल बड़ी ख़राब है | (अपवादों को हर जगह छोड़ना ही पड़ता है | अतः
यहाँ भी | अपवाद ही कला के सत्य को बचाए रखते हैं) एक कवि को कविता लिखने के गुर अगर
मालूम हैं तो दस-पंद्रह दिन अखबार पढ़कर वह नागर लोक की दर्जनों कवितायेँ लिख सकता
है | बेशक उसमें उत्तर आधुनिकता, भूमंलीकरण, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, बाजारवाद,
वित्तीय पूँजी, युद्ध, दंगें जैसे सन्दर्भ हो सकते हैं जिनसे उसकी कविता में
‘समकालीन यातना की अनुगूंजें’ (ये शब्द राजेश जोशी के हैं) सुनी जा सकती हैं यानी
अब कवि की लोक (नागर) सम्पृक्ति असंदिग्ध | और जब कविता में चिंता बड़ी है- यानी
राष्ट्रीय और वैश्विक- तब वह कविता भी ‘बड़ी’ ही न होगी- बेशक ग्रामीण लोक की कविता
से भी बड़ी | बेचारा गाँव, कस्बे का कवि क्या खाकर यह सब लिख सकेगा | वह तो धान
बुवाई और लुवाई के कुछ चित्र ही खीँच ले तो गज़ब | यह विडंबना है, दुर्भाग्यजनक भी
कि आज हिंदी कविता का संसार आधे से अधिक इस नकली कविता से अंटा पड़ा है |
समाचार-पत्र तो रोज़ निकलते हैं- जो ऐसी कविता के स्त्रोत हैं- फिर कविता भला रोज़
क्यों न लिखी जाये | गोया कविता का सृजन न हुआ, उत्पादन हो गया | एक प्रतिष्ठित
आलोचक से एक बार पूछा गया कि आज कविता का संकट क्या है | उत्तर था- उसका बहुत अधिक
लिखा जाना ही उसका संकट है | यह अकारण नहीं है, यदि आज बहुत अधिक कवि और बहुत कम
कविता की बात की जा रही है | रामवृक्ष बेनीपुरी का हवाला देते हुए नन्द किशोर नवल
ने कहा है कि कभी-कभी कवियों के ‘सुखाड़’ से नहीं ‘बाढ़’ से घबराना चाहिए- यदि उस
बाढ़ में फसलें फुनगियों सहित डूब जायें | महानगर में रहने वाले हिंदी के एक सुपरिचित
युवा कवि ने एक बार एक अनौपचारिक बातचीत में कहा कि यथार्थ बड़ी जगहों में पहले आता
है, गाँव-कस्बों में देर से और बाद में | अतः बड़ी जगह का कवि यथार्थ को अधिक आसानी
से और शीघ्र समझ सकता है | प्रतिउत्तर में अवाक और निरुत्तर रहने के अतिरिक्त और
किया ही क्या जा सकता था | तो यह नागरलोक की स्थिति है | कहा जा चुका है कि अपवाद
यहाँ भी हैं | इन्हीं अपवादों के कारण हिंदी कविता की आशाएं अंत तक बची रहती हैं |
तथाकथित
नागरलोक की नकली कविता लिखना जितना आसान है, ग्रामीण लोक की कविता को साधना उतना
ही कठिन | ग्रामीणलोक की संस्कृति, परम्पराएँ, तीज-त्यौहार, उसके बहुत भीतरी दुःख
और तकलीफों पर फोकस करते हुए दुर्भाग्य से (यहाँ मुझे ‘सौभाग्य से’ कहने की छूट दी
जाये) कोई नियमित समाचार-पत्र नहीं निकलता कि जिसे पढ़कर आप डेढ़-दो दर्जन कविताओं
का उत्पादन करें और ठसके से इस लोक (ग्रामीण) के कवि कहलाएँ | यहीं एक कविता की
लोक सम्पृक्ति (बेशक जन-संपृक्ति) की असली पहचान होती है | रंगा सियार अपने
रूप-रंग से चाहे धोखा दे जाये लेकिन उसकी हुआ-हुआ से तो भेद खुल ही जाना है | नरेश
सक्सेना ने लिखा है कि, ‘पुल पार करने से नदी पार नहीं होती/ नदी पार नहीं होती/
नदी में धंसे बिना’ इस ग्रामीण लोक में गहरे धंसे बिना आप इसकी कविता लिख ही नहीं
सकते | यहाँ कोई छूट नहीं मिल सकती | न बीच का कोई रास्ता ही है | बात दो-चार
कविताओं की नहीं है कि कभी प्रवास के दौरान लिख लीं | बात निरंतर लेखन की हो रही
है | बेशक हर कविता की अपनी सीमा भी होती है | नागरलोक की तरह ग्रामीणलोक की कुछ
नकली कवितायेँ लिखी जा सकतीं हैं लेकिन बहुत दूर तक और बहुत देर तक सच्चाई छुपी
नहीं रह सकती |
कविता
में लोक का यह विभाजन न उचित है और न तर्कसंगत | जैसाकि मैंने पहले ही कहा है कि ‘लोक’
के अर्थ में उसके दोनों रूप- ग्रामीण और नागर- समाहित हैं | एक सच्ची कविता की
पहचान उसकी जनपक्षधरता से होनी चाहिए | यह कि उसमें हमारा मनुष्य है या नहीं |
उसके जीवन के सुख-दुःख, सौन्दर्य और संघर्ष की प्रामाणिक, सजीव और कलात्मक
अभिव्यक्ति ही एक सच्ची कविता का प्रतिमान बन सकती है |
एक
कवि यदि गाँव-कस्बे से चलकर आया है तो जीवन भर वह उसी समाज की कविता लिखता रहे- यह
आवश्यक नहीं | उससे यह उम्मीद अतिरंजनापूर्ण भी है | लेकिन उसकी ज़मीन (उसका अपना
भूगोल, गाँव-क़स्बा, अंचल, नगर, महानगर) उसकी कविता में यदि सिरे से गायब है तो
जरूर उसकी कविता की ईमानदारी पर संदेह किया जाना चाहिए | कवि की ज़मीन उम्र भर न
सही, लेकिन कम से कम उसकी आरंभिक कविताओं में तो आनी ही चाहिए | जन-सम्पृक्ति या
लोक-सम्पृक्ति की प्रथम पहचान यही है | प्रायः हर बड़े कवि के यहाँ यह ज़मीन दिखाई
देती है | जो धरती हमारे समाज और संसार को धारण करती है, कविता भी उसी धरती को
धारण करे- यह उसका प्रथम कर्तव्य है |
कवि
और पाठक
प्रत्येक
पाठक एक दूसरा कवि है- आक्तेवियो पाज ने कहा है | इस कथन का गूढ़ अर्थ है | पहले
कवि का काम जहाँ समाप्त होता है, ठीक वहीँ दूसरे कवि का काम आरम्भ होता है | पहला
कवि भरपूर श्रम कर चुका है | अब बाजी दूसरे कवि के हाथ में है कि वह इस श्रम को
सार्थक या निरर्थक कर दे | यह एक बिंदु है जहाँ दोनों कवि आमने-सामने हैं | पहले
कवि की धुकधुकी बढ़ गयी है लेकिन दूसरा इससे बेजार है | पाठक की महत्ता कम नहीं है
| वह दूसरा कवि है कविता के प्रारब्ध का निर्णायक | जीत या हार, जीवन या मृत्यु,
दण्ड या पुरस्कार– इस बिंदु पर निस्तब्धता पसरी हुई है- समय और हृदय की टिक-टिक एक
साथ सुनाई देती है | पाठक के लिए यहाँ कविता भी वही नहीं है जो पहले कवि के लिए है
| वह भी एक दूसरी कविता है | पहले कवि का गाँव दूसरे कवि का गाँव नहीं है | कविता
में चित्रित गाँव पाठक के मानस में एक दूसरे गाँव की रचना करता है जो कवि का नहीं
पाठक का गाँव है | कविता में उड़ता हुआ पक्षी वही नहीं है जो कवि ने देखा है बल्कि
वह पाठक के स्मृति के आकाश में उड़ान भरता दूसरा पक्षी है | कविता में गुंथे हुए
कवि के दुःख ने पाठक के दुःख को जगा दिया है जैसे पवन के वेग से सोया हुआ जल जाग
उठता है | कविता यदि मनुष्य का भाग्य बांचती है तो यह मनुष्य स्वयं कवि भी है और
पाठक भी | इस बिंदु पर दोनों समान हैं | यह समानता कविता को एक नया जन्म देती है-
पुनर्जन्म | एक जन्म कागज़ पर हुआ था और दूसरा पाठक के हृदय में | एक उड़ता हुआ पक्षी
आकाश से धरती पर उतरता है | एक कविता कागज़ से उतरकर इस तरह जीवन और समाज के
क्रिया-कलाप में सम्मिलित होती है |
कवि
पाठक के लिए लिखता है और पाठक सिर्फ कविता का नहीं होता | ऐसे में कविता के
दायित्व और जोखिम बढ़ जाते हैं | पाठक को एक कविता छोड़ कर दूसरी कविता तक जाने की
छूट है लेकिन कविता अपने पाठक खोना नहीं चाहती | पाठक ही उसे सनाथ बनाते हैं |
पाठक के बिना वह अनाथ है | ऐसा लगता है कि आधुनिक हिंदी कविता के भाग्य निर्णायक
उसके श्रोता नहीं बल्कि पाठक हैं | वह सुनी जाने की जगह पढ़ी जाने योग्य अधिक है |
प्रायः उसका पाठ भी उन्हीं श्रोताओं के बीच सफ़ल रहता है जिनके कान कविता सुनने के
अभ्यस्त हो चुके हैं | आधुनिक कविता पर दुर्बोधता का आरोप लगाया जाता है | कुछ लोग
ऐसा मानते हैं कि यह दुर्बोधता दो प्रकार की होती है | एक तो जटिल जीवन को बाँधने
के प्रयत्न में भाषा और शिल्प की जटिलता जैसे मुक्तिबोध की कविता और दूसरे प्रकार
की दुर्बोधता वह है जो कवि की अपनी अक्षमता को छुपाने का कवच मात्र है | ऐसा अनुभव
और जन सम्पृक्ति की कमी के कारण हो सकता है | यदि कुछ मामलों में आचार्य रामचंद्र
शुक्ल का कथन सत्य प्रतीत होता है कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ कवि-कर्म जटिल
होता जायेगा तो कुछ मामलों में यह भी लगता है कि एक कठिन कविता लिखना जितना सरल
है, सरल कविता लिखना उतना ही कठिन है | कार्ल मार्क्स यह कह चुके हैं कि पोएट्री
इज नॉट फॉर अनम्यूजिकल इयर्स | कविता अशिक्षित कानों के लिए नहीं है | जो भी हो,
समकालीन कविता श्रोता आश्रित कम पाठक आश्रित अधिक है | एक प्रकार की कविता
तात्कालिकता की भूमि पर जनमती है और तात्कालिकता का ऑक्सीजन ख़त्म होते ही मर जाती
है | एक और कविता है जो पेट के बल रेंगते सैनिक की तरह समय का लम्बा पुल पार कर
लेती है और कालजयी बनती है | कविता कोई भी हो- तात्कालिक या कालजयी- अपने पाठक की
प्रतीक्षा करती है | पाठक जो सिर्फ पाठक नहीं है बल्कि एक दूसरा कवि भी है |
ताली
की तरह बज उठने के लिए कविता एक दूसरे हाथ की प्रतीक्षा करती रहती है | एक युगल
गाए जाने वाले गीत की तरह एक दूसरी आवाज़ के लिए वह प्रतीक्षित रहती है | ये दो कवि
हैं जो एक ही कविता को एक नया अर्थ देते हैं | सिर्फ बीज बोकर फूल उगा देने मात्र
से माली का काम ख़त्म नहीं हो जाता | वह तब तक जारी रहता है जब तक फूल के सौन्दर्य
और सौरभ से खिंचकर कोई सौन्दर्य पिपासु वहां नहीं पहुँचता | केदारनाथ सिंह यदि
अपनी एक पूरी कविता ही ‘पाठकों के नाम’ लिखते हैं तो यह सकारण है | अपनी एक अन्य
कविता में वे कविता की उम्मीद की चर्चा करते हैं-
मौसम
चाहे जितना ख़राब हो
उम्मीद
नहीं छोडती कवितायेँ
एक
अदृश्य खिड़की से
वे
देखती रहती हैं
हर
आने-जाने वाले को
और
बुदबुदाती रहती है-
धन्यवाद...धन्यवाद...
इन
आने-जाने वालों में कोई पाठक भी होगा | कविता की उम्मीद यहाँ कुछ-कुछ अपने पाठ की
उम्मीद जैसी जान पड़ती है | लीलाधर जगूड़ी ने अपनी एक कविता पुस्तक की भूमिका में
लिखा है कि वे अपने पाठकों की माँग पर कविता नहीं लिखते बल्कि पाठकों के भीतर एक
नयी मांग पैदा करने के लिए लिखते हैं | बात पाठक की मांग पर लिखने की हो या पाठक
के भीतर नयी मांग पैदा करने की- इसमें क्या संदेह हो सकता है कि अंतिम लक्ष्य यहाँ
पाठक ही है | कविता उस पत्र की तरह भटकती रहती है जिस पर किसी का नाम और पता नहीं
लिखा है जो अज्ञात पाठक के नाम है – जिसे वह मिल जाये, जो उसे पढ़ ले | कविता पूरी
तरह कभी मुक्त नहीं होती | वह एक कवि से मुक्त होकर उस दूसरे कवि की खोज़ में निकल
पड़ती है जो उसका पाठक है |
-
संपर्क सूत्र- द्वारा - श्रीमती मंजुल श्रीवास्तव, एल.आई.सी., सी.बी.ओ. 21, चौथा तल,
हिंदुस्तान बिल्डिंग एनेक्सी, 4, सी.आर.एवेन्यू, कोलकाता-700072
ईमेल- shrivastava.ekant@gmail.com
बहुत अच्छा एकांत जी,,,,,,,,,,,,,,,वैसे भी सुलझे हुए साहित्यकार हैं। साहित्य यदि अन्वेषी न हो तो वह जागरूकता पैदा नहीं करता है और साहित्य यदि एक पाठक की मानसिक खुराक की आपूर्ति न कर सके तो वह उसी प्रकार के भोजन की तरह है जो पैट में कब्ज और गैस पैदा करता है।
ReplyDeleteबहुत ही शानदार👌
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