हिंदी के वरिष्ठ
कवि केदारनाथ
सिंह अपनी कविताओं में
जनपदीय उपस्थिति के लिए जाने जाते हैं | उनकी कविता ने न केवल
हिंदी अपितु भारतीय भाषा के कविता के बिम्ब-विधान, मुहावरे और भाषा को गहरे
तक प्रभावित किया है | अज्ञेय द्वारा सम्पादित
तीसरा सप्तक के एक प्रमुख कवि के रूप में ख्यातिप्राप्त केदारनाथ सिंह उन कवियों
में से हैं जिन्होंने हिंदी कविता को सादगी से विन्यस्त करते हुए आंतरिक लय को नई
दीप्ति प्रदान की | युवा कवि एवं कथाकार हरेप्रकाश उपाध्याय हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए एक चर्चित नाम है | नयी पीढ़ी में वह हिंदी के सजग एवं संवेदनशील कवियों में से हैं | उनकी सीधी-सरल कवितायेँ अपने समय से सीधा संवाद करती हैं | कविता और कहानी में एक साथ शुरू करने वाले नामों
में अनिल कार्की भी इधर तेज़ी से उभरता हुआ एक युवतर चेहरा हैं | ‘स्पर्श’ पर वह पहली बार प्रकाशित
हो रहे हैं | हम उनका भी स्वागत करते
है |
‘स्पर्श’ पर इस हफ्ते तीन कवि : तीन कविताओं के इस अंक में प्रस्तुत हैं इन तीनों
कवियों की कवितायेँ :
--
बनारस /
केदारनाथ सिंह
इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो
मैंने देखा है
लहरतारा या
मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का
एक बवंडर
और इस महान
पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती
है
जो है वह
सुगबुगाता है
जो नहीं है वह
फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्ववमेध
पर जाता है
और पाता है घाट
का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम
हो गया है
सीढि़यों पर
बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी
है
और एक अजीब सी
चमक से भर उठा है
भिखारियों के
कटोरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा
है
खाली कटोरों में
वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह
खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है
यह शहर
इसी तरह रोज़
रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं
कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा
की तरफ़
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती
है
धीरे-धीरे चलते
हैं लोग
धीरे-धीरे बजते
हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे
होती है
यह धीरे-धीरे
होना
धीरे-धीरे होने
की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे
है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ
भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं
है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ
थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी
है नाँव
कि वहीं पर रखी
है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना
के
घुस जाओ इस शहर
में
कभी आरती के
आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी
बनावट
यह आधा जल में
है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यामन से
देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी
है
जो है वह खड़ा
है
बिना किसी
स्थंहभ के
जो नहीं है उसे
थामें है
राख और रोशनी के
ऊँचे ऊँचे स्तम्भ
आग के स्तम्भ
और पानी के स्तम्भ
धुऍं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए
हाथों के स्तम्भ
किसी अलक्षित
सूर्य को
देता हुआ
अर्घ्य
शताब्दियों से
इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर
खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग
से
बिलकुल बेखबर !
-
बॉस और बीवी /
हरे प्रकाश उपाध्याय
वह जो
मेरा बॉस है
आख़िर
रोज़ क्या लेकर लौटता होगा अपने घर
अपनी
प्रिय बीवी के लिए
क्या
वह अपनी बीवी से
उमगकर
करता होगा प्रेम
घर
लौटकर चूमता होगा बेतहाशा उसका चेहरा
उतार
लेता होगा उन वक़्तों में
अपने
चेहरे से बनावटी वह सख़्त नक़ाब
क्या
उसकी दिल की घड़ी बदल लेती होगी
अपनी
चाल
क्या
वह दफ़्तरी समय की
चिक-चिक, झिक-झिक से अलग
किसी
मधुर संगीत में बजने लगती होगी
मैं
लौटता हूँ लिए
अपनी
बीवी के लिए
अपने
चेहरे पर गुस्सा, चिन्ता,
धूल-पसीना
जिसे
देखते ही वह
अपनी
जीभ और होठों से
पोंछ
देना चाहती है
मैं
डपटता हूँ उसे
निकालता
हूँ उसके हर काम में
बेवजह
ग़लतियाँ
अपने
बॉस की तरह बनाकर सख़्त चेहरा
उसकी
ख़बर लेता हूँ
मेरी
प्रिय पत्नी मुझसे डरने लगती है
उसका
डरना भाँपकर
मुझे
ख़ुद से ही डर लगने लगता है
मैं
अपना चेहरा छुपाता हूँ
इधर-उधर
हो जाता हूँ
परेशान
हो जाता हूँ
मैं
पाग़ल हो जाता हूँ ...
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संपर्क- ए-935/4, इंदिरानगर, लखनऊ-226016
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तोड़ देंगे जंगलों
का मौन / अनिल कार्की
वो नहीं करंगे
इन्तजार सूरज आने का
बल्कि अल-सुबह
ही
वे कुहरे की
चादर चीरकर
भेड़ों के डोरे
खोल देंगे
और चल देंगे
जंगल की तरफ,
तब भेड़ों के
खांकर बजेंगे जंगलों के बीच
खनन-मनन वाली
धुनों में
दूर किसी पहाड़
पर
कुहरे के भीतर
गूंजेंगी
शाश्वत
खिलखिलाहटें
और बजेंगी
घस्यारिनों की
दरातियाँ
धीरे-धीरे ही
छटकेगा
कुहरा
आवाजें और साफ
और हमारे करीब
होती जायेंगी
एक दिन
ठीक उसी वक्त
धार पर चढ़ेगा सूरज
और बिखेर देगा
ढलानों पर
मोतियों की तरह
रौशनी का घड़ा
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ईमेल- anilsingh.karki@gmail.com
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काफी अच्छा ब्लौग आयोजन है ।जोङता हुआ पीढ़ियों को ।केदारनाथ सिंह ही लिख सकते हैं कि गंगा के पानी में एक पाँव पर खङा है बनारस जिसे दूसरे पाँव के वजूद की खबर नहीं ।यह सधाव आते-आते आती है ।हरेप्रकाश बॉस और स्वयं की क्रुरताएँ
ReplyDeleteस्थानांतरित करते हैं और कहते हैं कि इन क्रुरताओं के साथ मनुष्य पागल हो जाएगा ,यह भी अपेक्षाकृत एक प्रौढ़ हो रही कविता है ।तीसरी कविता कार्की की मनुष्य और पहाड़ से लगाव की कविता है ।वे पहाड़ पर रौशनियों के मटके लुढकाते हैं और मोतियों को बिखेर देना चाहते हैं ।एक नये कवि से यह रोमान अपेक्षित है ।मास्टर तो मास्टर है ,यह सिखने की जगह है ।तीन अलग आस्वाद की कविताओं से गुजारने के लिए आपको बधाई ।