Sunday, 26 October 2014

तीन कवि : तीन कवितायेँ - 10

'स्पर्शपर तीन कवि : तीन कविताओं की श्रृंखला के 10वें अंक में इस हफ्ते प्रस्तुत हैं अनामिका, संध्या सिंह, एवं शैलजा पाठक की कवितायेँ :

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अयाचित / अनामिका 


मेरे भंडार में
एक बोरा अगला जनम
पिछला जनमसात कार्टन
रख गई थी मेरी माँ।

चूहे बहुत चटोरे थे
घुनों को पता ही नहीं था
कुनबा सीमित रखने का नुस्खा
... सो, सबों ने मिल-बाँटकर
मेरा भविष्य तीन चौथाई
और अतीत आधा
मज़े से हज़म कर लिया।

बाक़ी जो बचा
उसे बीन-फटककर मैंने
सब उधार चुकता किया
हारी-बीमारी निकाली
लेन-देन निबटा दिया।

अब मेरे पास भला क्या है
अगर तुम्हें ऐसा लगता है
कुछ है जो मेरी इन हड्डियों में है अब तक
मसलन कि आग
तो आओ
अपनी लुकाठी सुलगाओ।


-
ईमेल : anamika1961@yahoo.co.in
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प्रतिरोध / संध्या सिंह 


जब जब तुम मेरे मस्तक की लकीरों में
गुलामी लिखोगे
तब तब मैं अपनी हाथ की रेखाओं में
आज़ादी कुरेदूंगी
जब जब तुम मेरी आँखों के नाम
सैलाब लिखोगे
तब तब मैं मुस्कान के बागीचे
अधरों के नाम करूंगी
मुझे नहीं बहना
तुम्हारी बनायी ढलान पर
पानी की तरह
मैं खुद को समेट कर
बर्फ हो जाऊंगी
और टिकी रहूँगी
पर्वत के शिखर के ज़रा से हिस्से पर
जिसमे गड़ी रहेगी
समझौतों से बीच से बच कर आयी
एक जिद की पताका ...
और जहां नहीं उगेगा
कोहरे को चीर कर
तुम्हारी साज़िश का कोई सूरज
मुझे पिघलाने के लिए !


-
ईमेल- sandhya.20july@gmail.com
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कम सुनने वाली औरतें / शैलजा पाठक 



कान से कम सुनने वाली औरतें
जबान से ज्यादा बोलती हैं
इतना की कभी कभी आप झल्लाकर बोल सकते हैं
अरे ! पहले सुनो फिर बोलो ...


कान से कम सुनती हुई वो आहटों पर सचेत हुई जाती है
की लगता है कोई आया ..कुछ गिरा ..कोई आवाज शायद
पर ऐसा कुछ नही होता
उनके मन के किनारों से टकराती उनकी सोच भर है ....


चिल्लाकर करते हैं बातें घर के लोग
फिर इशारे से पूछते और हंस पड़ते
भुनभुनाती है घर में बची जवान औरते
और मुंह में आँचल ठूस हंसती भी है कई बार
और मटक कर बोलती हैं ...अरे ऐसा नही वैसा बोला गया ...

इनके आस पास एक सन्नाटा इकठा होता रहता है
ये निरीह सी हमे होठ हिलाता हुआ देखती है
अंदाजे से समझती है पर कुछ नही बोलती

ये पेड़ पौधों पर मिटटी डालती है जड़ें  खोदती है बांधती है
ये दिवारों पर जम जाती है बरसों की धूल की तरह
ये बार बार मर जाने की बात कहती है
अब मर गया है कान फिर आँख फिर हाथ पैर देने लगेंगे जबाब
का डर इन्हें मारता है हर पल

कितने घरों में है कान से कम सुनने वाली औरते
आँख से ना देखने वाली दुनियां हो ना हो
दिल से महसूसने वाले इंसान भी नही बचे  क्या ?
हम कमजोरियों का मजाक उड़ाते हुए
सबसे ज्यादा मरे हुए लोग हैं

ये कम सुनने वाली औरतें
एकदम से सुन लेती हैं तुम्हारी भूख
झट पहचान जाती है तुम्हारी तकलीफ
बिना बोले लाकर पकड़ा देती हैं पानी का ग्लास
तुम्हारे थके चप्पलों की आवाज सुन लेती हैं
तुम्हारे दिन भर के थके शरीर की अनकही भी सुन लेती हैं
कहती है आराम कर लो सो जाओ काम कल कर लेना

ये कम सुनने वाली औरतें बड़ी तेज़ी से तुम्हारी चुप्पी में घोल रही है अपनी आवाज
अपनी जरूरतों को कम कर रही है
ये कम सुनने वाली औरतें घर के आँगन में मुह ढंकें सो नही रही
ये रो रही की कुछ और सुन लेती तुम्हें
पर तुम्हारी आवाज नही आती इन तक इनके सन्नाटें नही घेरते तुम्हें
ये झुकी टहनी की टूटती कमजोर डाली सी हैं चरमरा कर टूट जायेंगी
तुम सुन कर भी नही सुनोगे
ये अपनी आवाज को आटे में सान रोटी में बेल आग पर जला अपना दिन बिताएंगी

पुराने आँगन में गुजती है सोहर की आवाज पाजेब की रुन झुन

कम सुनने वाली औरतें ने जना था तुम्हें
बेहोश हालत में सुन ली थी तुमहरा पहला रोना .
तुम्हें याद है आखिरी बार तुमने कब सुना था इन्हें ?
तुम्हारी साँसों के आहट को सुनने वाली औरतें
तुम्हारी ही माँ थी बहन थी कभी पत्नी थी एक औरत थी
जो आँख से सुनती रही, समझती रही, आँख मूंद चुपचाप चली गई

ये आँख भर सोखती रही तुम्हारी आवाज
तुम कान भर भी ना सुन सके ....


-
ईमेल- pndpinki2@gmail.com
-

8 comments:

  1. मैं खुद को समेट कर
    बर्फ हो जाऊंगी
    और टिकी रहूँगी
    पर्वत के शिखर के ज़रा से हिस्से पर---- या फिर प्रतीकात्मक अर्थ बिखेरती यह पंक्तियाँ ---- चूहे बहुत चटोरे थे
    घुनों को पता ही नहीं था
    कुनबा सीमित रखने का नुस्खा
    . सो, सबों ने मिल-बाँटकर
    मेरा भविष्य तीन चौथाई
    और अतीत आधा
    मज़े से हज़म कर लिया। मन भावन -स्त्री अहसास की सुन्दर रचनाएँ हैं। बधाई सभी रचनाकारों को।

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  2. सभी कविताएँ बेहतरीन और सुन्दर चयन

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  3. वाह एक
    वाह दो
    वाह तीन
    कंडवाल मोहन मदन

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  4. Vaah! Achchha chayan! Anamika ji ko der baad padha...Sandhya ji ko pahli baar ...Shailja ko roj padhta hun... Bahut achchha lga...Haardik dhanyavaad Rahul ji!

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  5. कम सुनने वाली औरतें ने जना था तुम्हें
    बेहोश हालत में सुन ली थी तुमहरा पहला रोना .
    तुम्हें याद है आखिरी बार तुमने कब सुना था इन्हें ?
    तुम्हारी साँसों के आहट को सुनने वाली औरतें
    तुम्हारी ही माँ थी बहन थी कभी पत्नी थी एक औरत थी
    जो आँख से सुनती रही, समझती रही, आँख मूंद चुपचाप चली गई

    ये आँख भर सोखती रही तुम्हारी आवाज
    तुम कान भर भी ना सुन सके ....
    *******
    मैं खुद को समेट कर
    बर्फ हो जाऊंगी
    और टिकी रहूँगी
    पर्वत के शिखर के ज़रा से हिस्से पर
    जिसमे गड़ी रहेगी
    समझौतों से बीच से बच कर आयी
    एक जिद की पताका ...
    और जहां नहीं उगेगा
    कोहरे को चीर कर
    तुम्हारी साज़िश का कोई सूरज
    मुझे पिघलाने के लिए !
    **********
    अब मेरे पास भला क्या है
    अगर तुम्हें ऐसा लगता है
    कुछ है जो मेरी इन हड्डियों में है अब तक
    मसलन कि आग
    तो आओ
    अपनी लुकाठी सुलगाओ।...............तीनों रचनाकारों को पढ़ना बहुत अच्छा लगा ..धन्यवाद राहुल जी


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  6. बेहतरीन कवितायें तीनों कवयित्री बधाई की पात्र हैं

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  7. सभी कविताएं माशाल्लाह
    सन्ध्या सिंह बेमिसाल

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  8. सभी कवितायें बहुत अच्छी लगीं , विशेषतः संध्या सिंह का सकारत्मक दृष्टिकोण भीतर तक हलचल उत्पन्न करता हुआ ।।। बहुत बधाई अनामिका , शैलजा पाठक और संध्या सिंह को ।

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