‘स्पर्श’
नानइन्टरनेटी साहित्यकारों के रचनाकर्म को भी वेब पर लाने के लिए प्रतिबद्ध है |
इस क्रम में इस हफ्ते हम पहली बार प्रस्तुत कर रहे हैं ऐसे ही एक साहित्यकार विनोद
कुमार का लघु उपन्यास ‘युगाख्यायिका’ | यह
उपन्यास काफी पहले लिखा गया था लेकिन अपने सशक्त
कथ्य के कारण मुझे आज भी प्रासंगिक लगा | कवि, कथाकार, समीक्षक और चिन्तक विनोद
कुमार, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर में रहते हैं, अंग्रेजी में परास्नातक हैं,
जीविकोपार्जन के लिए अध्यापन करते हैं और हिंदी साहित्य से आज भी बहुत गहरे तक
जुड़े हुए हैं |
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सुखविंदर कौर ने
सोये पति को जगाया, “उठिए पाँच बज गये”
जुनीद
कुनमुनाया, अलसित शरीर ने करवटें बदलीं, नेत्रों का विहाग, मस्तिष्क की शिराएँ सब
बोल पड़े- रुको, थोड़ी देर और पड़े रहो | उठने का अर्थ है ‘दिमाग का अनुशासन के घेरे
में हो जाना’ | शरीर अंगड़ाईयाँ भरता है जुनीद का | कुछ जैविक आवश्यकताएं भी होतीं
हैं, जानता है वह | उठने के बाद दिन भर आदर्श वाक्य बोलने हैं, यथार्थ की पथरीली
भूमि पर चलना है |
सुखविंदर उठकर
अंगीठी में कोयला डाल चुकी थी | उसने चाँद सी बेटी को जुनीद की बगल में लिटा दिया लेकिन
जुनीद बेखबर बना लेटा रहा | जानता है वह उठना तो है, जीवन के पहिये का घूमना तो है
ही, कुछ पल यूँ ही और....
चाय बन चुकी है,
अब उसे उठना ही है | बहुत सुखी है वह लेकिन कोई पीड़ा उसे सालती है | वह चाय पीने
के लिए उठाया जाता है | चाय पीना शुरू करता है, धीरे-धीरे और साथ ही साथ सोचने
लगता है समान आचरण संहिता की बात पर...जानता है वह इस्लामियत के कुछ स्वार्थी तत्व
इकट्ठा होंगें और उगलेंगें जहर | वह स्वयं भी तो मुसलमान है लेकिन कबीर, सूर,
जायसी और तुलसी में भेद नहीं कर पाता है, चाहकर भी उत्तर ढूँढ नहीं पाता है |
सुखविंदर टोकती
है, “कहाँ खो गये ?”
“कहीं तो नहीं”
“फिर झूठ”, वह
हँसी |
जुनीद यथार्थ की
भूमि पर लौट आया |
सोचने लगी वह...
कैसा है उसका पति ? आज तक वैसा ही, जैसा वह तब था जब रचनात्मक विद्यालय का छात्र
था | हाँ ! बिलकुल वैसा ही | कुछ नहीं बदला | कुछ शरीर जरूर पुष्ट हुआ है |
गुरुवाणी का
सच्चा अर्थ उसे जुनीद ने ही समझाया था और वह खुद भी उसकी इसी उदारता पर रीझ गयी थी
| याद आया उसे वह वार्षिकोत्सव.......चारुदत्त और वसंतसेना का वह अभिनय...भीग गयी
वह प्रणय के पलों की स्मृति में !
वह चाय पी चुका
था | अब वह दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में संलग्न होगा | जा रहा था, घिस रहा था
तम्बाकू का मंजन और सोच रहा था समान आचरण संहिता की बात पर | वह दुलार रही थी बेटी
को सोच रही थी अमृतसर की....| क्या कर रहे होंगें ? उसके भाई कहे जाने वाले लोग
....?
“तुम कुछ सोच
रही हो ?”
“तुम भी तो”
“हाँ मैं भी”
“क्या”
“तलाक ! तलाक !!
तलाक !!!”
“और क्या”
“बस इतना ही”
“नहीं और भी”
“लेकिन तुम क्या
सोच रही हो ?”
“बहुत कुछ मानव
के बारे में”
“हाँ मैं भी सोच
रहा हूँ पाकिस्तान के बारे में”
“मैंने कह तो
दिया तीन बार लेकिन मेरा तुमसे कोई रिश्ता तो नहीं बदला वसंतसेना”
“हाँ मेरे चारुदत्त”
“फिर अकांड
तांडव कैसा ?”
सुखविंदर जानती
थी अपने पति को | पहचानती थी स्वयं को इसलिए मुस्कुरा रही थी |
जुनीद चला गया
स्नानादि कर्मों हेतु | बेटी को सुलाने लगी सुखविंदर | बेटी सोने लगी और माँ की
आँखें खो गयीं स्मृतियों में- याद आया उस दिन साहिर के घर जाना | उसने अपने
प्रियतम को उस दिन क्रोधित देखा था | साहिर भलीभाँति सुशिक्षित युवक था लेकिन रूढ़ियों
की श्रृंखला में जकड़ा था, इसीलिए तो जुनीद की खरी-खोटी सुनने को बाध्य था |
साहिर के कमरे में विभिन्न सिने
तारिकाओं के चित्र सुशोभित थे, कुछ पारिवारिक चित्र थे और लगा था नववर्ष का
कैलेंडर बीच में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चित्र पर कागज़ चिपका था, सफ़ेद हल्का
पतला कागज़ | उबल पड़ा जुनीद और जाने क्या क्या कह गया साहिर को,वह चुप मूक |
उसने कहा
था “तुम मुसलमान हो, तुम बुतपरस्त नहीं हो
तो हेमामालिनी के चित्रों पर कागज़ क्यों नहीं चिपका देते ?” लेकिन मूक साहिर बोल न
सका | उस दिन से जुनीद नहीं गया साहिर के घर | कैसा मजहबी अंधापन है ? मजहब अफीम
बन रहा है | क्या था और रहेगा ?
लौट आया जुनीद
सद्यस्नात शरीर, निर्मल मन और गुनगुनाहट-
देख रहा मैं राम
को अपने चारों ओर |
लखकर मेरे प्रेम
को चक्रित हुआ चकोर ||
चक्रित
हुआ............
देख रही
रसविभोर, भाव मग्न अपने प्राणेश्वर को, हाँ प्राणों का ईश्वर | क्योंकि यही लिखा
है गुरुवाणी में- ‘निरभिमान हो जाओ | क्या पड़ा है इन क्षुद्र संकीर्णताओं में,
अहमिकाओं में, अगम अगोचर, चिर चैतन्य प्रभु की शरण पकड़ | क्या पड़ा है इन क्षुद्र
स्वार्थों में ? यह मुक्ति के नहीं, बंधन के हेतु हैं |’
‘मोहम्मद ने
किसी का खून नहीं बहाया वह परम अहिंसक व्यक्ति थे | फिर यह उनके अनुयायी कैसे हो
गये ? यह एक प्रश्नचिन्ह है |
दो वर्ष पहले वे
दोनों अविवाहित थे आज दोनों विवाहित हैं लेकिन तब से अब तक दोनों भटक रहे हैं, कुछ
प्रश्नों के उत्तरों को तलाशते हुए | रहीम, रसखान, बुद्ध, ईशु, चाणक्य, अशोक,
नानक, कबीर और जाने कौन-कौन उनके मानस बिंदु थे | दोनों कहीं भटकते हुए मिल गये थे
| दोनों यथार्थ में जीने का अभ्यास रखते थे | जी रहे थे, मुस्कुरा रहे थे, गा रहे
थे, गुनगुना रहे थे |
ख़ट ! खट !! खट
!!!
“देखिये कोई आया
है |”
कपड़े पहन चुका
है जुनीद | जा रहा है कंघा करते हुए- सोच रहा है ‘कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ जाती
जिंदगी की समस्याएं’ दरवाज़ा खोला- चिर-परिचित मुस्कान लिए मधुकर खड़ा था | मधुकर
उसे बाँहों में भर लेता है | जाने क्या क्या मिल गया दोनों को | दो पल बीत गए |
बच्ची को गले लगाये दूर खड़ी कौर मुस्कुरा रही थी |
मधुकर देख चुका
है कौर को | अब वह भाभी के चरण स्पर्श कर रहा है, बच्ची को थपथपा रहा है, देख रहा
है जुनीद अपने लघु सुखवृत्तों को | सबकुछ एक दिन सपना बन जाता है, रह जातीं हैं
केवल यादें | यह मधुकर है भी बड़ा अजीब, यद्यपि प्यारा बहुत लगता है | देख रहा है
जुनीद उसकी आँखें लाल हैं | क्योंकि वह जानता है- कभी कभी सुबह होने के साथ ही,
सूर्योदय होते ही, ऊषा के आते ही मधुकर महीन-महीन पीसकर भाँग पी लिया करता है | और
हो जाता है पूरा रागी...वैरागी और कभी-कभी खोलने लगता है मन की पर्तों को, कहता है
भाँग का नशा उर्ध्वगामी होता है | क्या दिव्य वस्तु है, दिव्या है, चिंतन है, तत्व
है, तात्विक चिंतन है अर्थात विभिन्न नामों से अभिहित है उसकी यह भाँग | मना कर
चुका है जुनीद उसे, ‘शरीर पर अत्याचार मत किया करो, मेरी बात मान लो, कभी-कभी खा
लिया करो नित्य प्रतिदिन ठीक नहीं है |’
सुखविंदर भी इसे
पीसकर पिला देती है | यह कहता ही कुछ ऐसे ढंग से है कि लोग इसका काम बड़े प्यार से
कर देते हैं | कम से कम सुखविंदर जैसी सदय नारी, प्रबुद्ध और विवेकशील नारी,
विद्रोही नारी, समाज की रूढ़ियों को ताक पर रख देने वाली नारी इसे पीसकर पिला देती
है | जानता है जुनीद|
मधुकर बच्ची से
खेल रहा है | बड़ा भोला और सरल दिख रहा है, वरना है बड़ा गंभीर | इसके अंतस की थाह
लेना कठिन काम है | जुनीद उसके मन की सूक्ष्मतम पर्तों को जानता है | बीमार पड़ा था
पिछले वर्ष परीक्षा के समय तब कितना समझाया था | नहीं मानता है, लेकिन कहना मेरा
धर्म है, मैं मित्र हूँ मेरा यह कर्तव्य है, यही कर्तव्य मेरा धर्म है | हाँ अतीत,
वर्तमान और भविष्य के मूल्यों के प्रति हमारी निष्ठा ही तो धर्म है | सोच रहा है
जुनीद |
मधुकर माँग रहा
है कुछ खाने के लिए | मिठाई के पेड़े और लड्डू ला रही है सुखविंदर | लाकर रख दी
प्लेट | अब मुस्कुरा रही है जुनीद को देखकर | जुनीद उसे देख रहा है, मधुकर और
बच्ची को देख रहा है | कमरे की सारी स्थिति देख रहा है | अखबार के बयानों को मन
में दुहरा रहा है...कल की पढ़ी हुई बातें उसके मस्तिष्क में, गूँज रही हैं कानों
में | आँखें मधुकर से टकराईं | तीनों एक साथ लड्डू खाने के लिए मचल पड़े | यही तो
प्यार है | तीनों ने एक दूसरे को एक-एक लड्डू खिला दिया | धीरे-धीरे चलता हुआ मुख
और विचारों का लावा |
“मत खाया करो |”
“क्या ? लड्डू”
“बड़े भोले हो”
“बिल्कुल मासूम”
“सरल लेकिन कठिन
भी तो”
सुखविंदर
मुस्कुरा रही है वार्तालाप सुनकर |
“तुम क्यों
मुस्कुरायीं ?”
“तुम लोगों की
नोक-झोक पर”
“तुम भी कभी-कभी
इसे पीसकर पिलाती हो”
“तुम नहीं
पिलाते”
“पिलाता हूँ”
“फिर”
“कुछ नहीं और सब
कुछ”
“यार मधुकर !
लोग फिसल क्यों जाते हैं ?”
“सच्चा कारण
जानना चाहो तो वह यह है कि हम ऊपर से सुविधाभोगी न होने पर भी अंतस से हम
सुविधाभोगी हैं, इसीलिए हम फिसलते हैं | कारण और भी बहुत हैं जैसे कभी-कभी न चाहकर
भी बेईमान हो जाता है व्यक्ति | यही है फिसलना | मन बहुत चंचल है मेरे भाई !”
जुनीद सुन रहा
था | कौर कहीं खोई-खोई सी लग रही थी | ऐसा लगता था वह कुछ सोच रही थी | बेटी का
सिर सहला रही थी | उसने मधुकर की ओर देखा | मधुकर रुक गया क्योंकि वह जानता है भाभी
कुछ कहना चाहती है | “भैया मधुकर ! मन के अश्व को बेलगाम छोड़ दिया जाये, वल्गा
ढीली कर दी जाये तो मन को फिसलते देर नहीं लगती है | इसीलिए वल्गा बुद्धि के हाथों
में होनी चाहिए |”
“लेकिन श्रृद्धा
को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है |” जुनीद का द्रढ़ मत था |
“मैं ऐसा कब कह
सकती हूँ ? लेकिन मनुष्य को मनुष्य रहने दो, भगवान् मत बनाओ वरना कुछ लोग कंकड़
पत्थर भी समझने लगेंगे |”
आज का ताजा
समाचार.............र ! हाकर की आवाज़ ‘भगत सिंह की बहन पर आतंकवादियों द्वारा
आक्रमण, वे घायल हो गयीं हैं |’
‘बहुत हो गया
मधुकर ! यह पागल लोग क्या करना चाहते हैं | शहीदों के बलिदान को बदनाम करना चाहते
हैं | उनकी अस्मिता पर वार करना चाहते हैं | अब हमें क्या करना होगा ? युगबोध
पुकारता है | भगत सिंह आँखों में नाच रहा है | कुर्सी के दलालों, खरीदारों को
धिक्कार है | वह भगत सिंह जो बचपन में जलियाँवाले बाग़ की मिट्टी लेकर आया था, उसकी
पूजा करता था | उस दिन दुर्गाभाभी की आँखों में आँसू आ गये थे, जब मैं उनसे मिला
था उस दिन क्रांतिकारियों की स्मृति में कभी उनका चेहरा उद्भासित होता था और कभी
पीड़ा के भाव देखता रहा था |’ इसीलिए तो अपने आप से ही इतना उलझता जा रहा था |
मधुकर समझ रहा
था, कौर सोच रही थी, घटनाओं की समीक्षा कर रही थी | तीनों जाने कहाँ भटक गये- यह
नीरवता अपने में आन्दोलनों को छुपाये थी, युगबोध को ढूँढ रही थी | राष्ट्र की
अस्मिता को समर्पित थी | यह नीरवता........................’भ.....इ.....या’
‘दी...पा’
कौर के चेहरे पर
मुदिता नारी का भाव आता है—दीपा कौर के अंकपाश में आ जाती है |
आत्मियता बड़ी
पवित्र वस्तु है | संभव है इसका जन्म विभिन्न परिस्थितियों में होता हो लेकिन इसका
प्यारापन अलग है |
‘छोड़ भी मुझे अब
बता पहले चाय पीयेगी या पानी’
‘देखो भाभी पहले
चाय पिलाओ, भैय्या के ऑफिस जाने में एक घंटा शेष है, साथ बैठकर चाय पीने का मज़ा
लिया जाये लेकिन चाय बनाऊँगी मैं’
‘तू ही बना, मैं
तो यही चाहती थी |’
मधुकर देख रहा
था दीपा को, सिर्फ दीपा को | क्यों ? क्यों ? क्या नहीं देखना चाहिए ? मस्तिष्क की
शिराओं में तनाव, कुछ पलों में मधुकर क्या-क्या सोच गया |
चाय ले आयी दीपा
| बैठ गये चारों, चाय पीने लगे, धीरे-धीरे | दीपा गंभीर है | सब कुछ बड़ा शांत और
सुस्थिर है | जानती है वह, मधुकर कनखियों से उसे देख रहा है | यह दो वर्षों का
पुराना क्रम है लेकिन वह जानती है मधुकर के हृदय को, आखिर वह उसके ही महाविद्यालय
का विद्यार्थी है |
‘भैया ! मुझे और
भाभी को ‘न्यू देहली टाइम्स’ मूवी दिखा दो, बड़ी प्रशंसा सुन रही हूँ | मुझे कौन दिखाने
ले जायेगा ? किसके साथ जाँऊ ? किसका
विश्वास करूँ ?’
‘क्यों, मधुकर
के साथ चली जाओ’
‘जा तो सकती हूँ
लेकिन आप और भाभी भी चलें तो ज्यादा अच्छा लगेगा |’
मधुकर की आँखें
नीची हो गयीं | अपने आप में डूबी हुई | दिव्या अपना कमाल दिखा रही थी फिर मिठाई
खाने से, चाय पीने से और सक्रिय हो गयी थी | दीपा का एक-एक शब्द उसके मन में गहरे
उतर गया |
जुनीद जाने के
बारे में सोच रहा है | वह अवकाश नहीं लेना चाहता ‘यह मूवी उसकी देखी हुई कहानी है,
सोची हुई कहानी है, भोगी हुई कहानी है और इससे भी अधिक- जानता है वह |
‘देखो दीपा ! आज
मेरी बात मान लो मैं तुम्हें फिर कभी ले चलूँगा या जाना ही चाहो तो भाभी और मधुकर
के साथ चली जाओ |’
‘अगर मधुकर के
साथ जाना है तो आप सिफारिश क्यों कर रहे हैं ? यह तो मेरे अधिकार क्षेत्र की बात
है |’ मुस्कुराकर कौर बोली | जुनीद मुस्कुराकर चल दिया ऑफिस की ओर |
‘भाभी तुम्हें
पूरा अधिकार है किन्तु आज मेरा मन स्वस्थ्य नहीं है | मैं जाना चाहता हूँ अपने
कमरे पर’
‘दीपा क्या तुम
मेरे साथ चल सकती हो ?’
‘क्यों नहीं’
‘किसी को आपत्ति
तो नहीं होगी ?’
‘अभी तक तो नहीं
हुई |’
‘तुम लोगों की
बातों में मेरा भोजन बनाने का समय निकला जा रहा है, तुम लोग जाओ लेकिन शाम को फिर
आना’ चल दिए दोनों |’
‘आज कॉलेज छोड़
दो’
‘छोड़ दूँगी,
लेकिन क्यों ?’
‘मंदिर चलना
चाहता हूँ’
‘चलो आजकल कक्षा
में पढ़ाई भी नहीं हो रही है | ये अध्यापक जो मेरे विभाग में हैं सब डिग्रीधारी हैं
लेकिन अध्ययन नहीं करते इसीलिए अध्यापन में डूब भी नहीं पाते |’
‘सच बताओ
तुम्हें मेरे साथ चलते डर तो नहीं लग रहा है’
‘नहीं’
‘क्यों’
‘क्योंकि मेरा
हृदय दुर्बल नहीं है |’
‘कल की घटना से
तुम मुझसे घृणा तो नहीं करने लगी ? मैं अपने पतन की ओर उन्मुख आचरण के लिए तुमसे
क्षमा मांगता हूँ |’
‘लेकिन तुम ऐसे
पहले कभी नहीं थे | मुझे इसका कष्ट है | तुम मुझे छूने की कोशिश करते हो तो मुझे
लगता है कि मैं कुरूप हो गयी लेकिन तुम्हारा बोलना और कण-कण में सौन्दर्य तलाश
करना मुझे अच्छा लगता है |’
‘मैं जानता हूँ
इस घटना से मैं कितना छोटा हो गया हूँ वरना तुम मेरी बहुत इज्जत करती हो’
‘तुम्हारी नहीं
| तुम्हारे अन्दर के मनुष्य को देख लिया है इसलिए आदर करती हूँ |
‘मुझे बहुत ख़ुशी
है कि तुम चरित्रवान हो’
वह चुप, मूक,
शांत, सरल, स्नेहिल | मंदिर की सीमा में दोनो का प्रवेश | चारों तरफ शांति नीरवता,
इक्का-दुक्का लोग, फैली हुई धूप, स्वर्णमय वातावरण | वसंत के दिन खुशबू और रंग |
बहती हुई हवा...
‘बैठना चाहता
हूँ’
‘लो मैं अपना
रूमाल बिछा दूँ’
‘छोटा है’
मधुकर सोचने लगा
इस दीपा के बारे में, अपना रूमाल बिछाकर बैठ गया | यह अपना रूमाल दे सकती है,
प्यार दे सकती है, बीमार होने पर सिर भी दबा सकती है लेकिन जब उसने उसके शरीर को छूना
चाहा तो वह पत्थर की शिला थी, दृढ़ थी और मजबूत | वह हार गया और हारकर भी जीत गया |
वह जान गया कि सब कुछ छूने के लिए नहीं होता, देखने के लिए होता है, जीने के लिए
होता है | एक मुस्कान बिछा देने वाली युवती कितनी दृढ़ है अपने चरित्र में | कितनी
दृढ़ है जान गया मधुकर |
‘देखो यह तालाब
गन्दा है’
‘काई है’
मधुकर जानता है
यह एक यथार्थ दर्शन है | बीच में पानी साफ़ दिख रहा है, काई किनारे लग गयी है,
जानता है उसका मन भी ऐसा ही लग रहा है, काई किनारे जा रही है, सात्विक होता जा रहा
है मन |
‘तुम इतनी बड़ी
हो मैं नहीं जानता था’
‘देखो छोटा और
बड़ा मत बनाओ | एक दूसरे को परिष्कृत करना अपना कर्तव्य है’
‘लेकिन तुम्हारी
श्रृद्धा कहीं बड़ी है’
मधुकर झूम गया |
प्रसाद की पंक्तियाँ नृत्य कर जातीं हैं- ‘नारी तुम केवल श्रृद्धा हो’ लेकिन इड़ा
भी तो |
‘सच कहती हो’
‘कम से कम
तुम्हें और कौर को देखकर तो कहना ही पड़ता है |’
‘अब तुम बड़े भले
लग रहे हो’
‘सौम्य, सुन्दर
और प्रज्ञावान’
‘लेकिन कल उस
समय इतना क्रोध आया कि मैं तुम्हें ढकेल दूँ लेकिन जाने क्यों सोचा कि स्वयं को
दृढ़ कर लो | द्रढ़तापूर्वक इस झंझा को झेल लो लेकिन मधुकर तुम मेरी एक बात मान लो’
वह मुस्कुराई | मधुकर ने देखा स्नेहिल धवलधार बह रही थी-
‘क्या ?’
तुम भाँग खाना
छोड़ दो, अपनी एक प्रवृत्ति पर रोक लगाओ, कई समस्याओं का समाधान मिल जायेगा| वैसे
मैं तुम पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकती लेकिन जीवन की नैसर्गिक प्रक्रिया पर रोक मत
लगाओ | तुम्हारा आरोपण अच्छा नहीं लगता |
मैं जानती हूँ
तुम विवाहित हो लेकिन तुम यदि मेरी श्रृद्धा का बखान करते हो तो तुम्हें अपनी
पत्नी की श्रृद्धा याद नहीं रह गयी थी | मैं तुम्हें भटकने न दूँगी | तुम्हें कुछ
बनना ही है | इस तरह फिसल-फिसल कर गिर जाने के लिए तुम नहीं बने हो | तुम्हारी
पत्नी अर्थात मेरी अनदेखी सहेली, आत्मिया | मैं तुम्हें भटक जाने देती तो जीवन भर
स्वयं को क्षमा न कर पाती, उस सरल विश्वासिनी नारी की पीड़ा भूल नहीं पाती |
मधुकर आज शांत
है | उसे लगा एक तूफ़ान जैसी हलचल गुज़र गयी, सुसंस्कृत शब्द कहना आसान है, परिष्करण
पर भाषण देना सरल है, लिखना आसान है किन्तु परिष्कृत होना बहुत कठिन है, यह कहना
बहुत आसान है | सौन्दर्य देखने के लिए होता है, छूने के लिए नहीं होता | मनुष्य इस
भावना का पालन कहीं विवशतावश तो नहीं करता ? कहीं मनुष्य अप्राप्ति को ही तो त्याग
की संज्ञा नहीं देता ? या यह नैतिकता है कि मानव ही अपने दुर्गुणों को स्वयं पहचान
लेता है, स्वीकार कर लेता है और यहीं से एक परिवर्तन प्रारंभ होता है |
दीपा प्रकृति के
सौन्दर्य को देखने में मग्न, एक तरुणी- जितना पढ़ा उतना आत्मसात कर लिया - जानता है
मधुकर लेकिन मधुकर का मन प्रश्न करता है- प्रसाद की रचना में सौन्दर्य का रहस्य
क्या है ? कालिदास की उपमा में, लौकिक और अलौकिक शरीर के सूक्ष्म सौन्दर्य का
रहस्य क्या है | ‘सुखानिलोयम् सौमित्रे कालः प्रचुर मन्मथ’ क्यों कहते हैं राम ? क्यों
कहते हैं ‘हे खग-मृग हे मधुकर सैनी, तुम देखी सीता मृगनयनी |’ मृगनयनी की तलाश में
वह स्वयं भटक जाता है | लेकिन थोड़ी देर बाद हर नयन का आकर्षण कम क्यों हो जाता है
? इतना परिवर्तनशील क्यों है सौन्दर्य का भाव ? क्या यही रमणीयता है अथवा यह मानव
के अन्दर की दुर्बलता है ? क्या है सौन्दर्यभाव ? काम एक सत्य है विकृति नहीं | यह
संततिप्रक्रिया का पवित्र यज्ञ है, वासना का धुआँ नहीं | फिर क्यों भटक जाता है ?
लेकिन देखने से तुम्हें कौन रोकता है ? नोचने की इच्छा मत रखो | चाँद की सुन्दरता
देखने से तुम्हें कौन रोक सकता है ? ऊषा की अरुणाभा देखने से तुम्हें कौन रोकता है
? देखो, पियो, आनंदित हो जाओ, उन्मदिष्णु हो जाओ, पीलो अमृत का प्याला लेकिन फिर यह
हलाहल कैसा ? काम धर्म सम्मत हो वही काम है | फिर भटकन क्यों ? क्या यह प्यास है,
तृष्णा है ? लेकिन तृष्णा तो मृगमरीचिका है ?
दीपा मुड़ी और
बोली- ‘तुम घर चले जाओ’ | स्वर में आदेश और मृदुता एक साथ |
‘हाँ चला जाऊँगा,
लेकिन तुम्हें दो पल मुस्कुराता हुआ और देख लूँ | सच कहता हूँ, झूठ नहीं कहूँगा |
लगता है जीवन में श्रृद्धा मुझे मिल गयी है लेकिन इड़ा भटका देती है |
लेकिन श्रृद्धा
भटकने न पाए, कबरी अधिक अधीर खुली न हो, छिन्न पत्र मकरंद लुटी सी मुरझाई कली न
हो, वरना कुछ अधूरा रह जायेगा | चलो मैं तुम्हें स्टेशन तक छोड़कर आऊँगी, चलो |’ चल
दिए दोनों.....
किराये का कमरा
लेकर रहता है मधुकर, उसका मन भी अब गाँव की ओर भाग रहा है | जानती है वह नयन
बिछाये बैठी होगी उसकी अर्धांगिनी | उसके पहुँचने से भैया और भाभी प्रसन्न होंगे|
आज जो कुछ वह प्रसन्न है, मस्त है, कारण भैया ही हैं | इस युग में कौन स्वयं नींव
की ईट बनकर दूसरे को आगे बढ़ाना चाहता है | माता-पिता का अभाव पीड़ा नहीं देता इतना
प्यार है भैया-भाभी का | कौन स्वयं खेत जोतकर छोटे भाई को उच्च शिक्षा देने का
प्रयास करता है ? हाईस्कूल ही कर पाए थे भईया कि नियति ने उन्हें परिवार सञ्चालन
का भार सौंप दिया था तबसे....
‘तुम चुप क्यों
हो ? बोलते क्यों नहीं ? सोच रहे हो, मैं जानती हूँ, मैं तुम्हें मुक्त हृदय से
शुभकामनायें देती हूँ | मेरा स्नेह सदैव तुम जैसे लोगों के साथ रहेगा, उसमें कोई
बाधा नहीं पड़ेगी | मैं जानती हूँ कि युगबोध तुम्हें मथता है लेकिन सौन्दर्यबोध
तुम्हें भटकाता है, तुम्हें कुछ...
‘छोड़ो भी दीपा,
मन की पहेलियाँ कैसे बूझी जा सकती हैं | मानव हृदय एक अनबूझ पहेली है | फिर नारी
का हृदय पढ़ना तो बहुत कठिन काम है | बहुत विचित्र है विधि का विधान- अनबूझा,
अनजाना और नियति जाने क्या है ?’
‘इन प्रश्नों का
उत्तर देने में उम्र ढल जायेगी, कभी बुद्ध बनना है, कभी कृष्ण की तरह राजनीति करनी
है, कभी वंशी बजानी होगी, कभी शंख | देखो ! तुम्हारा कमरा आ गया, कमरा खोलो, कुछ
खिलाओ-पिलाओ तो मैं तुम्हें भेजने चलूँ’
मधुकर ने कमरा
खोला | साथ ही साथ दीपा ने भी कमरे में प्रवेश किया | बैठ गयी वह एक कुर्सी पर
हिलती डुलती झूले का आनंद देने वाली टूटी सी कुर्सी |
‘देखो मैं
तुम्हें सिर्फ पानी पिला सकता हूँ’
‘मैं खुद पी लूँगी’
दीपा देख रही है
कमरे में फैला हुआ पुस्तकों का संसार | कमरे में कोई साज सामान नहीं लेकिन किताबें
हैं |
‘कुछ सामान लेना
है कि नहीं?’
‘कुछ अधिक नहीं’
‘मैं तुम्हें
देख रहा हूँ तुम कितनी निर्भीक हो ? आज मेरा मस्तिष्क कुछ प्रश्नों के उत्तर पा
गया | आज लोग सावित्री और सत्यवान के चरित्र को समझ क्यों नहीं पाते हैं ? दमयंती
और नल का प्रेम क्यों नहीं समझ पाते हैं? लोग आज केवल सोचते भर हैं लेकिन कर्म और
आचरण नहीं है | सत्यवान को देखकर आज सावित्री निर्णय नहीं कर पाती और दोष किसी एक
का नहीं, सत्यवान भी नहीं है समाज में, लेकिन मुझे लगता है यह मेरी अल्पज्ञता है
क्योंकि हिरण्यगर्भा है धरती हमारी, वीर प्रसू है | मानवता की विभूतियाँ जन्म लेती
रही हैं, लेती रहेंगीं |’
बहुत प्रसन्न है
दीपा |
‘मैंने तुम्हारे
इसी रूप का सम्मान किया है, इसीलिए कल बड़ी सावधानी से मैंने तुम्हें सम्भाल लिया
था|’
जानती है वह यदि
मधुकर जैसे लोग कुंठित रह जायेंगें तो प्रतिभा के प्रश्नों का उत्तर कौन देगा?
‘मैं चला
जाऊँगा,तुम क्या करोगी स्टेशन तक चलकर लेकिन मैं अपनी एक इच्छा पूरी कर लूँ |’
‘क्या ?’
मधुकर झुककर पैर
छू चुका था दीपा के |
‘बस सब कुछ मिल
गया जानता हूँ समाज के सामने पैर छूने लगूँ तो लोग जाने क्या-क्या समझेंगें ?
लेकिन मुझे तो आत्मशुद्धि करनी है | चलूँ ?’
‘हाँ’
‘अब तुम घर चली
जाओ, शाम को जुनीद और कौर से माफ़ी मांग लेना मेरी तरफ से, अच्छा विदा |’
‘फिर मिलेंगें’
‘कुछ सँजोकर’
कुछ बनाकर,
सोचकर कुछ करने की प्रेरणा लेकर, नयनों ने नयनों की भाषा पढ़ ली | दृष्टि में दोष न
हो तो देखने से गुलाब खिलते हैं | ऊषा की दृष्टि से, चाँदनी की वृष्टि से, वर्षा
की फुहारों के स्पर्शों से कुछ होता है, बहुत कुछ |
हर व्यक्ति के
जीवन का अपना रास्ता है, लेकिन कहीं मंजिल एक ही तो नहीं ? लक्ष्य एक है, लेकिन
क्या ? यह तो वही पुरानी पहेली.....
मधुकर चल दिया
स्टेशन की ओर, दीपा अपने घर की ओर | कदम तेज हैं दोनों के | अपनी-अपनी दिशायें
हैं, अपनी धुन है, अपने लक्ष्य हैं | अपने प्रश्न हैं और उत्तरों का जाल |
अब मधुकर जल्दी
घर पहुँचना चाहता है | अपनी मातृभूमि किसे प्यारी नहीं होती ? बचपन के साथी | अगर
उन्हीं के मध्य से जीवन साथी मिल जाए तो कहने ही क्या ?
स्टेशन आ गया,
गाड़ी आने ही वाली है |
टिकट खिड़की पर
भीड़ है, कुछ महत्त्वपूर्ण दिखने वाले युवक अन्दर से जाकर टिकट लेकर आ रहे हैं,
मधुकर लाइन में लग गया | महत्त्वपूर्ण दिखने की बीमारी हो गयी है इस देश में, कोई
सामान्य बनकर जीना नहीं चाहता है | कोई नियमों के लिए स्वयं को आहुत नहीं करना
चाहता है | कैसे थे हरिश्चंद्र ? अपनी पत्नी से पुत्र के कफ़न के लिए अड़ गये थे |
प्रश्न और प्रश्न, उत्तर और उत्तर | आज हरिश्चंद्र की सत्यवादिता पर प्रश्नचिन्ह
लगाने वाला सिरफिरा पैदा होने लगा है इस देश में | आज गाँधी की लंगोटी पर व्यंग्य
होने लगे हैं | गाँधी की समाधि पर बुक्का फाड़कर रोने वाला गाँधी के आदर्शों पर कफ़न
उढ़ा सकता है | आखिर वह स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं | कहाँ है सुभाष के
चिंतन का भारत ? कहाँ है गीता का ज्ञान ? कहाँ गये चेतना के पृष्ठ ? लोहिया का
जुझारू समाजवाद लोहिया के साथ चला गया | सम्पूर्ण क्रांति जयप्रकाश नारायण के साथ
चली गयी | दीनदयाल उपाध्याय का एकात्ममानववाद पुस्तकों में सिमटकर रह गया |
विचारों में
डूबा खिसकता-खिसकता कब पहुँच गया खिड़की के पास, जान न पाया | ‘एक टिकट रामपुर का’,
बाबू ने टिकट दिया, पैसे लिए | मधुकर आगे बढ़ा | गाड़ी आने वाली है | प्लेटफॉर्म पर
भीड़, जन संकुल वातावरण, आपाधापी | इतना कोलाहल और मधुकर | यह सब कुछ जीवन का
अनिवार्य अंग है, जानता है मधुकर | अकेले यात्रा का आनंद अलग है, चिंतन की दुनिया,
भीड़ में अकेला, स्वतंत्र दुनिया, अपना संसार, एकांत की अलग दिशायें, भीड़ के बीच
चिंतन, यही है जीवन | यहीं पर खोजना है हमें सर्वमान्य एकता, लादी हुई नहीं स्वतः
आई हुई भावात्मक एकता, उसी की निरंतर तलाश करती रही है भारतीय संस्कृति |
गाड़ी आ रही है |
मधुकर के पास केवल एक झोला है, मुक्त है वह, कन्धों पर पड़ा झोला और डिब्बे में
चढ़ना, कम सामान लेकर यात्रा करने में अलग आनंद है | एक डिब्बे में चढ़कर वह खिड़की
के पास वाली सीट पर बैठ गया, खिड़की के पास बैठने में मजा आता है | बादलों के फाहे,
मृगछौनों की तरह तेजी से भाग रहे हैं | पुरवा तेज बहने लगी है , बदली सघन होती जा
रही है |
कोलाहल कम हो
रहा है या अधिक, उसे अब इस पर नहीं सोचना है | जब कदम डिब्बे में आ गये और बैठ गया
जब सीट पर तो प्रकृति के सौन्दर्य को देखना है | गाड़ी झटका सा दे रही है, रेंगना
शुरू कर रही है, दिमाग भी पंख फैलाकर उड़ चला | सुदूर और आस-पास आनंदित प्रकृति और
भागती हुई गाड़ी, कण-कण सुन्दर, तन सुन्दर, मन सुन्दर और सौन्दर्य का साम्राज्य
कहीं-कहीं कंडों-उपलों के ढेर गुम्बदाकार, कहीं खपरैल, कहीं छप्पर, कहीं
नंगें-भूखे लोग | गाँवों में भारत की आत्मा निवास करती है लेकिन आज भी हमारे देश
में 40% लोग ग़रीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं | क्यों ? कैसी आज़ादी है ? लगभग
अर्धशती की कैसी मनमानी है ? यात्री की तरह देश के नागरिक और इंजन की तरह चलने
वाले, चलाने वाले नीति-निर्माता, देश कहाँ आ गया?
लाँघती, भागती,
वन, बाग़, खेतों के पास से निकलती गाड़ी और प्रश्नों के उत्तरों की तलाश में भटकता
मधुकर | बिजली चमकने लगी, फुहार पड़ने लगी, लोग खिड़कियाँ बंद करने लगे | लेकिन
मधुकर नहीं बंद करेगा खिड़की | प्रकृति के सुरम्यतम् रूप की छटा रोज़ रोज़ तो नहीं
बसती है आँखों में | उसका भी मन भीग रहा है, क्रीड़ा कर रहा है, आखिर वह भी एक युवक
है| युवा प्रश्नों की बात ही कुछ अलग है| किशोर मन के मग्न या मगन स्वप्नों की
छाया और कठोर यथार्थ निर्माण की सौगंध लेकिन कदम-कदम पर विरोध |
स्टेशनों पर
रूकती और चलती हुई गाड़ी उसे कब गंतव्य तक ले आयी वह जान न पाया | उतरने की तैयारी
करने लगा तभी उसने देखा एक साठ-पैंसठ वर्षीय वृद्ध, दोनों पैरों में बंधी हुई
पट्टियाँ, फटा हुआ कुर्ता....मधुकर ने पूछा, “बाबा कहाँ से आ रहे हो ?”
“दवाई लईके
वापिस आइत है” वृद्ध ने कहा |
मधुकर ने सोचा
मेरे पास तो कई कपड़े हैं लेकिन यह वृद्ध....!
“बाबा जी मैं आपको
एक कुर्ता देना चाहता हूँ, क्या आप ले लेंगे ?”
झोले से निकालकर
कुर्ता बाबा को दे दिया | बाबा में पर्याप्त स्वाभिमान है, लूँ या न लूँ की हिचक |
मधुकर अब नहीं रुकेगा | आशीर्वाद की प्रवंचना में वह नहीं फँसेगा | चलते-चलते जो
हो जाए वही ठीक है | हम क्या करेंगें किसी का उपकार ? और क्यों करेंगें अपकार ?
गाड़ी रुक गयी | उतरकर मधुकर चल दिया घर की ओर | गेट के पास से निकला, टिकट वापस
लेने वाला नदारद | कौन करता है कर्तव्य का पालन, छोटा सा स्टेशन, कम भीड़-भाड़ |
पैदल ही चल दिया वह और कोलाहल से दूर निकल आया |
गलियारों और
चकरोडो को पार करता हुआ मधुकर, चारों ओर फुलियाई हुई सरसों, मन मयूर नाच उठा |
विद्यालय दिख रहा है, अपना स्कूल ! यहीं से तो उसने इंटरमीडिएट उत्तीर्ण किया था |
इन चार सालों में कितना बदल गया यह स्कूल भी ? जहाँ गुरुदेव कृपालु सिंह की छाया
में उसने शिक्षा का वास्तविक अर्थ जाना था | आज वही विद्यालय भ्रष्टाचार और
राजनीति के दलदल में डूबा हुआ है | तबादलों का दौर-दौरा और यह डिग्रीधारी अनुभवहीन
लोग, कुछ पुराने न पढ़ाने वाले लोग, ट्युशन और नक़ल की दुनिया बन गयी | नैतिकता की
बातें करने वाला मूर्ख समझा जाने लगा | पढ़ाने वाला अध्यापक पीटा जाने लगा | चित्त
खिन्न हो गया, दो वर्ग ही तो स्वतंत्रता के बाद बेलगाम हो गये- अध्यापक और नेता |
अध्यापक बन गया सुविधावादी और स्वार्थी इसीलिए तो गुरुकुल स्वप्न हो गये | गुरु और
शिष्य का पवित्र रिश्ता टूट गया | रह गया केवल खरीदना और बेचना | लेकिन विद्या
खरीदी नहीं जा सकती | गीता की पुस्तक तो बाज़ार में सहज प्राप्य है लेकिन गीता का
ज्ञान देने वाला नहीं मिलता | और फिर यह नई शिक्षानीति जिसपर लिखित रूप से सहज
लब्ध कोई सामग्री नहीं है | थोड़ी देर बैठकर सुस्ताने लगा मधुकर- देख रहा अपना
विद्यालय, उजाड़ पड़ी मानस वाटिका- वाह री नई शिक्षा नीति, कान्वेंट पर अवलंबित
लेकिन कहीं-कहीं छप्परविहीन स्कूल | हम बंदरों की संतान हैं- एमएससी तक यही पढ़ाया
जाता है | यही तो है डार्विनवाद | स्वतंत्रता प्राप्ति में सबसे बड़ा योगदान एक
परिवार का था, संपन्न रईस परिवार, चाँदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा होने वाले
लोग बनते रहेंगे भारत भाग्य विधाता | सुलह कुल मनाओ, अकबर को महान सिद्ध करो लेकिन
राणा प्रताप कौन थे इस प्रश्न पर मौन तो न रह जाओ | झूठा इतिहास पढ़ाकर जातीय
समन्वय करने वालों कैसा है तुम्हारा इतिहास ? क्या है तुम्हारी शिक्षा और शिक्षा
नीति ?
विद्यालय तो
तक्षशिला में भी था लेकिन आज वह कहाँ है ? विश्व को आलोक देने वाला वह दिव्य पुंज
कहाँ तिरोहित हो गया ? विद्यालय तो शांतिनिकेतन भी था लेकिन क्या आज भी वही
अस्मिता है जो गुरुदेव के समय में थी ? क्या काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की वही
महिमा है जो महामना के समय में थी ? आज तो अराजकता का तांडव वहाँ भी होता है |
दीनदयाल संस्थान से क्या कोई फिर दीनदयाल पैदा होगा ? शायद नहीं, क्योंकि शैय्या
पर या सुविधाओं में महापुरुषों का जन्म नहीं होता | घूमते हुए प्रधानाचार्य चले आ
रहे थे, विद्यालय बंद हो चुका था, ‘कहो मधुकर कब आए ?’
मधुकर सचेष्ट
हुआ ‘कुछ देर पहले आया और अपने विद्यालय की दीनदशा पर आँसू बहा रहा था, वैसे मेरा
है भी क्या ?’
प्रधानाचार्य जी
चौंके, इतनी स्पष्टोक्ति की आशा उन्हें न थी | बोले वह- “मैं समझ रहा हूँ जो कुछ
तुम कहना चाहते हो किन्तु मैं विवश हूँ |’ प्रधानाचार्य का चेहरा निरीह हो गया |
‘एक
प्रधानाचार्य जो विद्यालय का सर्वेसर्वा होता है, यदि वह यह कहे तो अशोभनीय लगता
है’ कहकर मधुकर चलने के लिए तैयार हो गया |
‘मधुकर तुम
मुझसे मिलना जरूर, मुझे तुम्हारे सुझावों की आवश्यकता है’ नमस्कार करके मधुकर चल
दिया | जानता है वह उसकी स्पष्ट वाणी के कारण दुनिया के निरीह प्राणियों को कष्ट
होता है, उससे अधिकांश लोग सहमत नहीं होते | उसके कदम स्वतः तेज हो गये | अब वह सब
कुछ देखना चाहता है- अपना घर, भैया, भाभी, लल्लू और अपनी पत्नी राधा को | रास्ते
में मिलते लोगों से यथोचित अभिवादन करता गया- लोकरीति भी जीवन का एक अंग है |
छप्पर और खपरैल, चढ़ी हुई लताएँ, लदी हुई सेम की गुच्छियाँ, फैली हुई लौकियाँ, जीवन
की सहज लब्धता, थोड़े में निर्वाह, | गाँव बड़ा है, विकासशील गाँव, जाने-पहचाने
रास्ते, प्रीति प्यार, गुल्ली-डंडा, कबड्डी, आँख-मिचौली..........लो घर आ गया |
लल्लू को द्वार
पर खेलता देख वह मुस्कुराया | लल्लू दौड़ा, मधुकर ने प्यार से उसे गोद में उठा लिया
| बालक हर्षित हो गया | घर में प्रवेश किया मधुकर ने | भाभी आँगन में थी, मधुकर ने
आगे बढ़कर पैर छुए, भाभी की प्रसन्नता देखकर उसे एक निधि मिल गयी | बोला वह, ‘भाभी
कुछ दुबली हो गयी हो’
‘चल तू ऐसे ही
कहता है | मुझे अब और क्या बनाना चाहता है ? मैं जैसी हूँ ठीक हूँ | जा पहले राधा
को देख ले, कई दिनों से बीमार है, तेरे भैया दवाई लेने गए हैं |’ भाभी ने कहा |
सोचने लगा मधुकर
भैया का कर्तव्य निर्वाह- कितने सचेष्ट और कर्मशील, 10 बीघे जमीन और व्यवस्थित
परिवार, दो साधारण से बैल और लिपा-पुता साफ़ सुथरा घर |’
‘आज तुझे खिचड़ी
ही खिलाऊगी, जा पहले मिल ले, कहे तो खाना भी वहीँ पहुँचा दूँ |’
‘नहीं भाभी, तुम
यूँ ही क्या कम काम करती हो’
चल दिया मधुकर
अपने पुराने कक्ष की ओर, लल्लू उससे भी आगे | राधा उठ बैठी- पीतवर्णा, शांत,
स्निग्ध, हल्के से मुस्कुराई, मधुकर को लगा वह व्यर्थ ही भटक जाता है, निहारा-
एकटक, एकपल, राधा ने पैर छुए और हाथ पकड़कर बिछावन पर बैठा लिया |
‘बीमार को आराम
करना चाहिए’ मधुकर ने धीरे से कहा |
‘हाँ, डॉ साहब आ
गये हैं तो नुस्खे भी मान लिए जायेंगे’ मुस्कुराई वह और कहने लगी |
‘तुम मत जाया
करो, कभी भैया और भाभी के बारे में भी सोचो, कितना परिश्रम करना पड़ता है? वे कब
आराम करेंगे ? हम लोगों के लिए कब तक दोनों प्राणी आहत होते रहेंगे ? हम लोगों को
भी तो कुछ करना चाहिए |
मधुकर सुन रहा
था और जानता था यह जीवन का कटु सत्य है, यथार्थ है जिसे उसे जीना है और जी कर इसी
में कुछ करना होगा | वहाँ रहकर भी तो वह ट्यूशन करता है, यहाँ भी तो कर सकता है,
लेकिन शिक्षा प्राप्ति का क्रम टूट जायेगा |
‘सोचता मैं भी
हूँ, तुम ठीक कहती हो’
‘लल्लू बेटे एक
गिलास पानी पिलाओ’
लल्लू भोला
बालक, उम्र कोई सात वर्ष | साँझ ढलती चली आ रही है | हल्का धुँधलका फ़ैल रहा है,
राधा उठी डिबिया जलाने के लिए, मधुकर ने हौले से बिखरी अलकों को सँवार दिया | राधा
सिहर गयी | प्रेम की छुवन ऐसी होती ही है | फिस्..........स्स माचिस की तीली जली
और जलने लगी ढिबरी | इसी तरह दीप जलते हैं, लौ मचलती है ! जानता है मधुकर बिजली
अभी तक नहीं लग पाई है यद्यपि गाँव में ही हाईडिल स्टेशन है |
आर्थिक विषमता,
पारिवारिक दायित्व और भ्रष्टाचार के वातावरण में वैधानिक ढंग से सरकारी सुविधाएँ प्राप्त करना आसान नहीं है भैया के
लिए | लूट सके तो लूट का ज़माना है वरना लोग तो कटिया फँसाकर स्ट्रीटपोलों के बीच
फैले तारों से भी घर प्रकाशमान कर रहे हैं, कम से कम पांच सौ अवैध कनेक्शन हैं | जूनियर इन्जिनियर को प्रतिमाह कुछ देकर भी बिजली
जलाते हैं लोग लेकिन......
.....लल्लू पानी
ले आया | ‘चच्चू छप्पर के नीचे बैठे दादा बुला रहे हैं’
मिलना चाहता है
अपने देवता जैसे भाई से, चल दिया, आँगन से निकलता जा रहा था....
‘कहाँ चल दिए ?’
भाभी ने पूछा |
‘मंदिर’- छोटा
सा उत्तर दिया मधुकर ने |
‘जल्दी आना’
कहकर वह मुस्कुरा उठी | छप्पर के नीचे भैया बैठे थे, बहुत शीघ्रता से उठे, मधुकर
पैर भी न छू पाया था कि उन्होंने उसे बाहों में भर लिया | दृढ़ बंधन, बंधुत्व,
मधुकर भैया की धड़कनों को स्पष्ट सुन रहा है | धड़कनों की भाषा, प्यार की भाषा, दो
हर्षातिरेक में डूबे प्राणी, अपने आप में दोनों एक वृत्त, एक कहानी |
‘मैं अब शहर
नहीं जाऊँगा | मुझे अब पढ़ना नहीं है |’
‘तो क्या मेरी
तरह खेती करेगा ?’
‘हाँ......नहीं
कर सकूँगा तो शहरों की ओर बढ़ते पलायन पर प्रश्न तो लगा सकूँगा | जानता हूँ आप
भौचक्के होंगे लेकिन जब तक शिक्षित युवक गाँवों में जीने का व्रत नहीं लेंगे केवल
डिग्री की भूख उन्हें दौड़ाती रहेगी तब तक..... ‘तुम अपनी जिंदगी का विकास रोक लोगे
मधुकर, शोध भी कर लो, मैं नहीं पढ़ पाया, तुम ही पढ़ लो, मैं समझूँगा पिताजी का
कर्तव्य पूरा करने में मुझसे कमी नहीं हुई.....|’
‘मैं नौकरी नहीं
करुँगा | क्योंकि किसी मूर्ख को अपना अधिकारी मानने में मुझे आत्मिक कष्ट होता है
| मैं अपनी स्वाधीनता को अनुबंध पत्रों पर हस्ताक्षर करके समाप्त नहीं करना चाहता
|’
‘तूने अभी कुछ
खाया कि नहीं, मैं तेरी सब बातों को समझ रहा हूँ, यह दवाई ले, बहू को दे देना |’
‘तुम लोग बातें ही करोगे या कुछ और भी
करोगे ? क्यों खाना नहीं खाओगे ?’
‘मैं तो आ रहा
था, तुम्हारा यह दुलारा कहता है पढ़ने नहीं जाऊँगा, पहले इससे निपटो |’
‘निपटना बाद में
होगा, पहले पेट पूजा होगी’, भाभी ने कहा |
xx xx xx
हर शाम अलग होती
है, लेकिन क्यों ? क्योंकि कोई किसी का प्रतिरूप नहीं है | कल की संध्या आज की
संध्या नहीं है | शहर की संध्या गाँव की संध्या नहीं है | लेकिन संध्या के स्वरुप
की यह भिन्नता कभी परिवेश के कारण या भौगोलिक स्थितियों के कारण होती है |
लखनऊ की संध्या
कह लो, लक्ष्मणपुर की संध्या कहो या शाम ए अवध कह लो | अंतर क्या लगता है, यह है
संध्या......सांवली, सलोनी, अंजन रंजित दृग, यही तो है संध्या, जुनीद लौट आया |
जुनीद डेढ़ घंटे पहले अर्थात साढ़े सात बजे आया था तब से लगातार वह अध्ययनरत
है...बेटी सो रही है, कौर स्वेटर बुन रही है, तीलियों से उलझी है, फंदे गिन रही
है, काहे के ? स्वेटर के ही नहीं जीवन के भी | दो बार तब से चाय पी चुका है जुनीद,
लगता है पुस्तक को अंतिम पृष्ठ तक पढ़ ही लेगा | कौर मुस्कुरा रही है | जानती है इस
पुस्तक के बारे में, यह अनामदास का पोथा या अथ रैक्व आख्यानम्- कुछ है ही ऐसा जिसे
जितना समझो उतना ही आनंद आता है | जिंदगी भी तो अनामदास का पोथा है | बेटी
कुनमुनाई, कौर ने रख दी बुनाई, जुनीद का ध्यान भी टूटा ‘अरे ! साढ़े सात बजने वाले
हैं, तुमने बताया भी नहीं.....’
‘अच्छा मैं
तुम्हें बताती, मैं बहुत ज्ञानी हूँ न, समय का सदुपयोग आप मुझसे अच्छा स्वयं जानते
हैं | अध्ययन से भी बढ़कर कोई दूसरा सुख है ? ‘कोई सुख बड़ा नहीं और कोई दुःख बड़ा
नहीं | किसी से किसी की कोई तुलना नहीं | उपमेय और उपमान, तुलना, समानता और विरोधाभास
ज्ञान की प्राथमिक स्थितियाँ हो सकतीं हैं | कौन बड़ा है और कौन छोटा, जाना नहीं जा
सकता, छोड़ो, यह सब तो अनंत है | मुझसे एक पत्रिका ने कुछ सुझाव माँगे हैं भारतीय
समस्याओं के समाधान हेतु | मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी सहायता करो |’
कौर मुस्कुराकर
बोली, क्यों किसी की पत्रिका बंद करवाना चाहते हो ?’
‘भई मैं सुझाव
रखूँगा’
‘जानते हो
प्रस्ताव कभी-कभी ध्येय बन जाता है |’
‘हाँ’
‘तो फिर’
‘मैं यही चाहता
हूँ’
‘शब्द सीमा
होगी’
‘नहीं’
‘क्यों, क्या
संपादक मित्र है इसीलिए अपनी पत्रिका बंद करवाने पर तुल गया है | तुम्हारे जैसा ही
लगता है नहीं तो तुमसे इस तरह लिखने को न कहता , क्योंकि सत्य को मिटाने के लिए
शासक ही नहीं छुटभैय्ये नेता और समाज के तथाकथित अगुवा भी आगे बढ़ते हैं |’
‘देखो ! बातें न
बनाओ, काम की बातें करो’, मुस्कुराई वह |
‘ऐसे नहीं होगा,
कल सुबह तक सोचकर बताऊँगी, मैं भी लिखूँगी, तुम भी लिखो और मिलाकर एक लेख तैयार कर
लिया जाये | कोई न भी छाप पायेगा तो कम से कम यह सोचकर तो हम प्रसन्न हो सकेंगे कि
हमने भी कुछ सोचा और लिखा था | और अगर वह स्वीकार्य होता तो.....
‘लेकिन कल सुबह
तक के लिए एकाग्र होकर लिखना ही पड़ेगा – आज मैंने दोनों को बुलाया था – न दीपा आई
और न मधुकर – हो सकता है दोनों अपने-अपने अध्ययन में व्यस्त हों |
रात्रि आती गयी,
दोनों सोचते रहे, अलग- अलग टुकड़ों पर लिखते रहे अपने विचार क्योंकि प्रातः तक लेख
तैयार होना ही था | ऑफिस जाने से पहले साफ़-साफ़ उतारना भी था | लिखने का मौका जुनीद
को ज्यादा मिला क्योंकि कौर को गृहस्थी में भी अपना पूरा योगदान देना पड़ा |
प्रातः काल अपने
और जुनीद के विचारों का मिला जुला लेख तैयार किया कौर ने और तब उसे लगा विचारों की
अद्भुत समानता के कारण ही दोनों के वैवाहिक जीवन में साम्य है | लिखने की कला,
शब्दों को चुनना- कौर ने जुनीद की डायरियां वर्षों पढ़कर पाया था | जुनीद आज जल्दी
ही निकल गया, लेख लेकर उसे जाना है |
संपादक मित्र ने
कहा था बड़ी आशाओं से लेख माँग रहा हूँ | जुनीद का लेख पाकर उसे संतुष्टि मिली | वह
साप्ताहिक शंखध्वनि को लोगों तक पहुँचाना चाहता था, खतरों से वह नहीं डरता,
विज्ञापनों के लिए खींसें नहीं निपोरता, इसीलिए धन न सही लेकिन प्रबुद्ध से लेकर
सामान्य कोटि तक का पाठक उसे जरूर मिल जाता है | इसीलिए उसने मूल्य भी बहुत कम रखा
है- चार रुपये मासिक | एक संक्षिप्त लेख, कहानी-कला पर एक लेख और दो कविताओं के
साथ उसने टिप्पणी लगाई जुनीद के लेख में और पत्रिका में प्रकाशित कर दिया |
सुझाव, आलोचना,
समालोचना सबका स्वागत है, अपने एक प्रबुद्ध नागरिक की आवाज़- लेखक के विचारों से
संपादक सहमत है अतः समस्त वाद-विवादों का उत्तरदाई वह स्वयं होगा | आपके विचार
शीर्षक से प्रकाशित---
भारतीय समस्याओं का समाधान
दृष्टि हमारी और
आप सबकी, मुक्त हृदय से सोचिये, हमारी बातें, आपकी अपनी लगेंगीं, हम सबकी लगेगीं---
भारत यदि गौतम,
गाँधी, अशोक के आदर्शों पर चलाया जा रहा है तो सारे देश में अस्त्र-शस्त्रों के
लाइसेंस क्यों दिए जाते हैं ? बन्दूक लटकाकर चलना फैशन क्यों है ? शक्ति का
प्रदर्शन क्यों है ? जब शासक दल गाँधीवाद की दुहाई देता है तो उसे सत्ता सँभालते
ही शस्त्र विहीन कर देना था इस समाज को, सीमा पर बल होता | देश निःशस्त्रीकरण की
राह पर होता तब निःशस्त्रीकरण सम्मलेन सफल होता और चाणक्य बुद्धि यह कहती है कि
स्वयं को सभ्य कहने वाले राष्ट्र जब तक छीना-झपटी का खेल खेलते हैं तब तक सेनायें
शक्तिशाली होनी चाहिए तो देश में शांति होती, तमाम दुर्घटनायें स्वतः कम घटती-
क़त्ल, हिंसा और ऐसे तमाम कुविचार स्वतः कम पैदा होते | प्रश्न यह उठता है कि चीन
हमारी 90 हज़ार वर्ग किलोमीटर भूमि हथिया ले गया और इस शस्त्रों से युक्त समाज ने
क्या किया ? यह कैसी मिली-जुली व्यवस्था है ? काश्मीर पर पाक अपना दावा प्रस्तुत
करता है और यह शस्त्रों से भरा समाज क्या कर लेता है? शस्त्र न होते और देश के
अन्दर पुलिस को दे दिया जाता केवल बेंत या लाठी, मल्ल होने की शक्ति, कुश्ती में
निपुणता, मलखम्भ भाँजने वालों को वरीयता, पटा-बाना जानने वालों को वरीयता,
विवेकशील को वरीयता तो समाज की भारतीय भूमि की समस्यायें कुछ कम होतीं | पुलिस के
नग्न अत्याचार कम होते, निरंकुशता का वातावरण कम होता | और यदि यह देश राम, कृष्ण,
चाणक्य, अशफाक, नानक या गोविन्द सिंह, शिवाजी का है तो अब तक परिवर्तन हो जाना
चाहिए | यदि सेना में क्रांतिकारियों को वरीयता दी गयी होती उन्हें विद्वेष की
दृष्टि से न देखा गया होता तो सेना की प्राणगाथा में एक और समर्पण होता, उनके
बहुमूल्य योगदानों को नकारा न गया होता- बोस और भगत सिंह के भारत को भुलाया नहीं
जा सकता | गाँधी के सपनों का रामराज्य, कहाँ गया वह चिन्तक यद्यपि उसकी बकरियां भी
तांगें पर चलती थीं | गौतम ने देश को ही नहीं अपितु विश्व की संस्कृति में अपना
योगदान दिया था | लेकिन राष्ट्रीयता की सीमा में गौतम और गाँधी पर प्रश्न उछाले जा
सकते हैं, यह अलग बात है | औरंगजेब की खूंरेजी पर प्रश्न लगाए जा सकते हैं, गौहर
बाबू को माँ मानने वाले पर प्रश्न नहीं लगाये जा सकते | सीता और सावित्री पर
प्रश्न लगाना मूर्खता है |
धर्मनिरपेक्ष
गणतंत्र, तो क्या धर्मान्तरण करने की वस्तु है ? धर्म तो पवित्र है, निष्काम है,
कर्तव्यबोध है - फिर इससे निरपेक्ष होने की जरूरत क्यों पड़ी ? शायद ‘रेलिजन’ शब्द
ने भ्रम पैदा कर दिया, धर्म का शब्दार्थ होकर | मजहब, सम्प्रदाय और जातियाँ तो
हमने पैदा की हैं | क्यों नहीं शामिल किया गया संविधान में, 26 जनवरी सन 1950 को ?
क्यों यह घोषित नहीं किया गया कि नौकरी के फार्मों पर, आवेदनपत्रों पर, विद्यालयों
में- जाति का कॉलम नहीं होगा | कोई हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, मंगोल,
ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, चमार नहीं होगा | क्या घट जाता हमारे देश के रहने
वालों का- हम सब भारतीय होते, हिन्दुस्तानी होते, हिन्दू एक संस्कृति है | इस देश
का कोई भी व्यक्ति अपने को हिन्दू कह सकता है वैसे ही जैसे अमेरिका में रहने वाला
अमेरिकी होता है | जापान का रहने वाला जापानी होता है | रूस का रहने वाला रूसी है
रशियन है लेकिन वह राष्ट्र का वासी है | इकहरी नागरिकता होती ही नहीं संविधान में
लिखित केवल बल्कि प्रायोगिक रूप में भी होती | आवेदनपत्रों में जन्म भारत में भरना
होता तो हम सबसे पहले भारतीय होते- उ.प्र. के, पंजाब के, तमिल, महाराष्ट्र के या
गुजराती आदि न होते | हम मनुष्य होते, भारतीय होते, राष्ट्रवादी होते तब हमारी
अंतर्राष्ट्रीयता वरेण्य होती, पूज्य होती, वह कोरी बातें न होतीं | अमेरिका नहीं
बनता गुटनिरपेक्ष सम्मलेन का दादा, रूस की अपनी सत्ता है | हम जानते हैं कि हमारे
पास ठोस धरातल है फिर भी ....|
अब्राहम लिंकन
की आत्मा रीगन से मिलती है- अख़बारों में छप रहा है | लिंकन अमर यशस्वी व्यक्ति थे|
अच्छे लोग होते हैं- वे पूरब, पश्चिम, उत्तर या दक्षिण के
नहीं होते | उन्हें कहीं भी जन्म लेने से कोई रोक नहीं सकता – वह स्वयं अरण्य की
तरह उगते हैं | वे जंगलों के फूल की तरह अलग होते हैं | उनसे पूछो जीवन की परिभाषा
| बाणभट्ट से पूछो तो वह बताता जंगल कैसा होता है ? नेतृत्व उन्हें मिलना चाहिए और
मिलता जाने किसे है ? जीवन के विद्रूप को झेले बिना ही मिला हुआ राजपाट-
सदवृत्तियों के होते हुए भी सही दिशा देने में कठोर निर्णय लेने में हिचकिचाहट रह
जाती है- इन सारी बातों पर हमें विचार करना पड़ेगा | मानव मूल्यों में कोरी लफ्फाजी
और गप्पबाज़ी बंद होनी चाहिए |
एकात्ममानववाद
को इसलिए स्वीकार मत करो क्योंकि वह झोपड़ियों में जीवन की अनुभूति से पैदा हुआ था
| राम के प्रश्न पर धर्मनिरपेक्षता का लबादा मोहम्मद के हृदय को दुखाना है वह बड़ा
अहिंसक व्यक्ति था |
तमाम समस्याओं
से जूझते भारत की समस्याओं की जड़ मुद्रास्फीति भी है | क्या चलन में मुद्रा बढ़
जाने से वास्तविक प्रसन्नता आ जायेगी | सेवाओं और वस्तुओं का उत्पादन कागज़ी मुद्रा
पर निर्भर क्यों ? घाटे का बजट सिर्फ फैशन तो नहीं है ? विकास का रास्ता संतुलित
बजट भी तो हो सकता है- न बेकार का फैलाव और न समेटने की ज़िम्मेदारी | पढ़ लिखकर
सुविधाभोगी जीवन की चाह रखने वाले युवक न होते- गुरुकुल क्या बुरा होता ? जनक का
शासन बुरा तो न था | त्याग पहले होना चाहिए- हमें भोग
निरपेक्ष होना चाहिए | हनक जताने के लिए हेलीकाप्टर का प्रयोग ग़लत है | राष्ट्र के
धन का दुरूपयोग, अपनी दुर्बलताओं को राष्ट्रसेवा की आड़ में सिद्ध करना गलत है |
जहाँ अनिवार्य है अथवा प्राणों की रक्षा का प्रश्न है- वहाँ सब कुछ होना चाहिए |
मंत्रियों की कारों में उनके परिवार के लोग क्यों बैठते हैं- यह भी एक प्रश्नचिन्ह
है | सत्ता का दुरूपयोग करने का अधिकार, यह मनमानापन बंद होना चाहिए | संविधान
जलाने वाले लोगों को तुष्ट करना किसने सिखाया था ? राज्य की प्रभुसत्ता, राज्यसत्ता
का प्रयोग यदि व्यक्तिगत स्वार्थों में न किया जाए तो हमारी समस्याओं का समाधान हो
सकता है | जब तक जीवन की धारा है तब तक समस्यायें होंगी- महाभारत होगा लेकिन यदि
सद्विचारों को स्वीकार करके दृढ़तापूर्वक चला जाए तो 21वीं शती लाने का दावा तो
नहीं लेकिन एक महान भारत की नींव की ईंटों में शामिल हुआ जा सकता है | आओ मेरे
साथियों- विवेकपूर्वक सोचकर इन्हें देखें |
भाषा राष्ट्र की
धड़कन है | घोषित राष्ट्रभाषा को यदि उसका अपेक्षित अधिकार देकर 1950 में यदि जोड़
लिया गया होता सम्पूर्ण भारत को तो आज तक ऐसी भावना का उदय हो गया होता जो सभी को
एक दूसरे से जोड़ता- लोग एक दूसरे से मिलकर अपना सुख-दुःख कह लेते | पूरब, पश्चिम,
उत्तर, दक्षिण सब अपने महापुरुषों के बारे में पढ़ तो सकते | वे सब भारतीय होते |
भाषा की गुलामी बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है | विभिन्न भाषाएँ सीखनी चाहियें
लेकिन सेतु को अस्वीकार नहीं किया जा सकता- भाषा के पीछे राजनीतिक शह और मात न
होती तो कितना अच्छा होता |
अल्पसंख्यकवाद,
तुष्टिकरणवाद, आरक्षणवाद के बजाये सामान्य व्यक्ति में राष्ट्रीय भावनाओं का
जागरणवाद हमारी आवश्यकता है | यदि आरक्षण दस वर्षों का था तो अपेक्षित कार्य करके
उनकी जीवनदशा को सुधारा जाता, उन्हें वोट बैंक न बनाया जाता तो आज वे खुशहाल होते,
अम्बेडकर को सच्ची श्रृद्धांजलि होती | राजनीति में, समाज में जब 99% गलत लोग हों
तो बचा खुचा 1% भी गलत को स्वीकार करने पर बाध्य कर दिया जाता है, यह है विडम्बना
|
सीमा प्रान्तों
की समस्यायें राजनीतिक उठापटक के कारण बनी हुई हैं- एक ही गणराज्य के संविधान में
किसी एक राज्य को विशेष दर्जा न दिया जाता तो अच्छा होता | आज हमारी समस्यायें कम
होतीं तो हमें कम हल ढूँढने पड़ते |
xxxxxxxx xxxxxxxx xxxxxxxx
उठो ! जल्दी
से..........भाभी को बिच्छू ने डंक मार दिया है | कंडे लेने गयी थी | उठ बैठा
मधुकर... सूरज निकलने को है लेकिन कोठरी में अँधेरा सा है | मधुकर तुरंत चल दिया |
आँगन में पहुँचा- भाभी बायें हाथ की अंगुली दाहिने हाथ से कसकर पकड़े बैठी हैं |
पीड़ा को सहने का अभ्यास है इसीलिए पीड़ा के भावों को जबरदस्ती पिये बैठी है | आँखों
में विचलन लेकिन होठों पर दृढ़ता- बगल में लल्लू खड़ा है | मधुकर को देखकर पीड़ा में
भी मुस्कुरा दी | मधुकर ने अंगुली में कसकर सुतली बाँध दी, पीड़ा पोरों में थम गयी
|
‘भाभी ! कहो तो
जंतर-मंतर वाले चच्चू को बुला लाऊँ ?’
‘क्या करोगे
बुलाकर ? लाल दवाई से धो दो पानी गर्म करके’, राधा पानी गरम करने लगी | मधुकर
सोचने लगा- ‘पिछले वर्ष छुट्टियों में मैं यहाँ आया था तो एक अंशकालिक काम करने
वाले सीधे-साधे, भोले-भाले केसन को बिच्छू ने डंक मार दिया था और उसने उसे काम्पोज
की गोलियाँ खिलाई थी लेकिन वह रोता रहा था | उस पर असर न हुआ था क्योंकि उसने कहा
था- ‘भैय्या जब तक झारा न जाई तब तक अच्छा न होई’ और मधुकर ने एक प्रयोग किया था
उसके साथ उसका एक और लंगोटियां यार सुरेश- दोनों ने मिलकर खूब संस्कृत के मन्त्र
पढ़े, बुदबुदाये, मिट्टी फूँकी और केसन को आराम मिल गया | यद्यपि वे सारे मन्त्र
प्रतिमानाटकम् के ही थे | काम तो इतनी देर में काम्पोज की गोली भी कर गयी थी |
राधा पानी ले आई
लाल दवा डालकर- धोने लगी धीरे-धीरे लाल दवा डालकर | मधुकर ने भाभी से पूछा, ‘कहो
तो डॉ साहब को बुला लाऊँ ?’
‘क्या करोगे ?’
‘मैं थोड़ी देर
में स्वस्थ हो जाऊँगी | महाभारत में तो लिखा है पितामह बाणों की शय्या पर लेटे थे
| कृष्ण कालिया के फन पर नाचे थे | मैं थोड़ी पीड़ा सह लूँगी तो क्या हो जायेगा |’
‘भाभी महाभारत
में तो बहुत कुछ लिखा है | मैं एक प्रश्न पूछूँ | पितामह चुप क्यों रहे थे जब
दुःशासन द्रोपदी की साड़ी खींच रहा था ? तुम कहोगी नियति को कौन रोक सकता है ?
लेकिन मेरा प्रश्न उत्तर माँगता है |’
‘मैं तुम्हारे
प्रश्न का क्या उत्तर दूँ, जीवन तुम्हें खुद ही समझा देगा | अनुभूत ज्ञान बहुत बड़ा
होता है |’
राधा चुप कैसे
रहे ? ऐसे वार्तालाप में उसे मज़ा आता है | भाभी की ओर देखकर मुस्कुराई और बोली-
‘द्रोपदी का अपमान महाभारत की पृष्ठभूमि थी’ | लल्लू सुन रहा है, समझ कितना रहा है
यह नहीं कहा जा सकता है |
‘अच्छा भाई चाय पिलाओ तो मज़ा आये |’
जानती है राधा चाय पिए बिना इनका कोई काम नहीं होता| चाय बनने लगी | कंडे और उपले
जले, चढ़ गया पानी- चल दिया मधुकर | घूमता हुआ बाहर की ओर |
भैया बैलों को
लिए जा रहे थे | पढ़े कम थे लेकिन पूरे परिवार में रामचरितमानस और महाभारत का वाचन
उन्हीं की देन है | तभी तो पूरा परिवार कर्मयोग की साधना के साथ साथ चिंतन की
दुनिया में भी विचर लेता है | मधुकर पीछे पीछे चुपचाप चल दिया | भैया अपने में मगन
गुनगुनाते जा रहे हैं | उन्हें रोककर उनकी मुदित भावना में हस्तक्षेप नहीं करना
चाहता | जानता है भैया के पदचिन्हों में अलग बात है वरना 10 बीघे जमीन में जीवन
यापन, माना वह ट्यूशन करके अपना खर्च निकाल लेता था | सादा जीवन उच्च विचार का
आदर्श मूक बलिदान है जबकि राष्ट्रपति सहस्त्रों में दहाई की सीमा लाँघ चुका है,
भारत का किसान नंगा, भूखा और परेशान है | माना इसके पीछे शिक्षा का अभाव है |
लेकिन कैसा है तंत्र जो कई दशकों में 40% जनसँख्या को ही साक्षर बना पाया | उसमें
भी विवेकी और ज्ञानी तलाश किये जाएँ तो ज्यादा से ज्यादा डिग्री और
डिप्लोमाधारियों की नई नई खेपें देता रहा है | रोज़-रोज़ नई शिक्षा नीति के नारे
सुनाई पड़ते हैं लेकिन जितना कुछ पाठ्यक्रमों में है उससे भी अज्ञात बने रहो | माना
कान्वेंट और विश्वविद्यालयों से प्रशासनिक सेवाओं हेतु अफसर, अधिकारी, वेतनभोगी
शिक्षक, लोलुप वकीलों, घूसखोरों, सभी कोटि के लोगों को पैदा किया है अपवादस्वरुप मेधा
का भी रूप मिलता है लेकिन बुद्धि को शासन का मौका नहीं दिया जाता है और बुद्धि बनाम
बहुमत पर मामला आकर उलझ जाता है | कुछ त्यागी और पुरुषार्थी अवश्य हुए हैं
जिन्होंने कालखंड के युगबोध को पहचाना लेकिन युग के तिमिर में------------ पीछे से
किसी ने उनकी आँखें बंद कर दीं | अंगुलियाँ पहचानी सी लगती हैं लेकिन वह थोड़ी देर
चुप रहता है | चुप रहने का अलग मज़ा है | भाव बोलें, सब कुछ कह लो फिर भी कुछ अज्ञात,
अनाम और स्वगत रह जाता है- ‘जान तो गये होगे’
‘हाँ’
‘तो फिर आँखें
बंद करने का क्या फायदा ?’
‘फायदा है, बचपन
का मज़ा’
सुरेश ने हाथ
हटा लिए | मधुकर ने पलटकर उसे गले लगा लिया | मधुकर को याद आया था कि चाय बनाने को
कह आया था- बोला,‘चलो घर तक चलें, बहुत दिनों से साथ-साथ नहीं बैठे |’ लौट पड़े
दोनों, बचपन की यादों में खोये-खोये | कभी इन सड़कों पर शाम होते ही पाला खींचकर
कबड्डी खेलने का मज़ा था | 12 बजे रात घूमना, टहलना, प्राकृतिक आनंद- तमाम आनंद तो
अब भी वैसा ही है, नहीं रह गया तो केवल बचपन |
‘बोलो नहर नहाने
चलोगे ?
‘हाँ, चलूँगा
क्यों नहीं ! वह मज़ा ही अलग है |’
‘या नलकूप पर
नहा लिया जाये |’
‘चलो पहले चाय
पी जाए, बहुत दिन से तुमने चाय नहीं पिलाई !’
‘यार अब मैं शहर
नहीं जाना चाहता’
‘तो न जाओ,
साथ-साथ मिलकर विद्यार्थियों को पढ़ाया करेंगें, पढ़ा करेंगें, काम करेंगें और
लिखेंगें जीवन गाथाओं को, भारतीय जनता की सहज अनुभूत पीड़ा को, गाँव और शहरों के
बीच फासलों पर, सड़कों ने हमें जोड़ा और प्रतिभा भाग चली शहरों की ओर- अभावों की
पीड़ा से परेशान होकर |’
दोनों से लोग
मिलते रहे बड़े प्यार से ‘राम-राम’, ‘दुआ-सलाम’ कहते दोनों घर पहुँच गये | छप्पर के
नीचे पुराना शीशम का पड़ा हुआ तखत- सामने नीम और बरगद के पुराने पेड़, बाँसी की कोठी
की ठंडी हवा |
लल्लू द्वार पर
बैठा प्रवेशिका के पन्नों को पलट रहा है | रखी है तखती, घुटी हुई सुन्दर- इन्हीं
पाटियों पर लिखने के कारण ही तो दोनों की लिखावट सुन्दर है | शहरों की तुलना में
कितना कम खर्च बालानसी !
‘बेटे चाय
पिलाओ, कह आओ अपनी छोटी अम्मा से | लल्लू चला गया | दोनों बैठ गये |
चाय पुनः गर्म की
राधा ने और ले आई पीने के लिए- ‘सरकार राम-राम’ सुरेश कहकर मुस्कुराया, मधुकर भी
मुस्कुराया | चाय रखकर राधा अन्दर जाने लगी और बोली ‘आज भैया के लिए कलेवा लेकर
तुम्हें ही जाना है दार्शनिक महोदय !’ जानता था मधुकर इस कटाक्ष को, चाय जो पुनः
गर्म हुई है- अपनी भुलक्कड़ी उसे अजीब लगती है, क्योंकि जब मानसिक क्रियायें चलती
हैं तो शारीरिक क्रियाएं गौड़ हो जातीं हैं, क्या करे वह- चाय पीते-पीते बातें करने
का, सोचने का मज़ा कुछ और है, अलग है |
‘ऊषा की
अरुणाभा, किरणों का जाल फैलाता जा रहा था- रोज़ का क्रम, रात के बात दिन का आना,
सुख और दुःख के उपमान |’
रूचि वैचित्र्य
व्यक्ति की परिस्थितियों पर निर्भर है | मिलन की रात अच्छी है लेकिन विरही के लिए
काली नागिन/ सूर्य तो उदय और अस्त नहीं होता- घूमती तो धरती है | यह तो केवल
यथार्थ का दृष्टिभ्रम है कि हमें रात और दिन मालूम पड़ते हैं | लोग सत्य कहाँ जानते
? ज्यादा से ज्यादा यथार्थ की सीमाओं में घुसकर लोग विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं |
लेकिन मनीषा ने इसे खोजने का प्रयास किया है यद्यपि बात जाकर नेति-नेति पर अटक
जाती है |’
‘कहाँ खो गये
सुरेश ? चाय मीठी कम है |’
‘तो क्या हुआ
भाभी का प्यार तो मीठा है |’
‘भई शादी क्यों
नहीं कर डालते ? मुझे भी तो भाभी के हाथों की चाय पिलाओ |’
‘शायद तुम्हें
यह सौभाग्य नहीं मिलेगा, क्योंकि कौन मुझ जैसे के साथ जीवन बिताना चाहेगी ? मैं
अकेला और पिता जी पीले पत्ते की तरह रुग्ण- कहते तो वह भी रोज़ हैं लेकिन मैं जानता
हूँ जितनी सेवा मैं पिताजी की कर लेता हूँ
कोई नारी आकर नहीं करेगी | उसके अलग स्वप्न होंगें, फिर किसी ने मुझे देखा भी
नहीं, कोई मेरी ओर देखकर मुस्कुराई भी नहीं | मैं यथार्थ से जूझ रहा युवक, कौन
युवती मेरे साथ अपनी आकाँक्षाओं का गला घोटना पसंद करेगी ?
फिर परिवार मेरी
साधना में बाधक बन जायेगा | मैं वीतरागी, चिररागी, विकृतियों का शिकार और यदि किसी
नारी ने मुझे अपने सौन्दर्यजाल में बाँध लिया तो मेरा लक्ष्य अधूरा रह जायेगा|
‘लेकिन सुरेश
शक्ति के बिना शिव भी पूर्ण नहीं है | कृष्ण की राधा, सत्यभामा, रुक्मिणी, राम की
सीता भी तो कुछ कहती है |’
‘रहने भी दो यह
प्रसंग मत चलाओ, चलो दिशा-मैदान चलें |’
‘हाँ चलो, बहुत
दिनों से तुम्हारे साथ घनी झाड़ियों की ओर आम्रकुंजों की ओर, खेतों और खलिहानों में
बैठकर बतियाने का मौका नहीं मिला | लोटे घर से मँगवा लो |’
‘लल्लू बेटे दो
लोटे पानी भरकर ले आओ | चलो रास्ते भर जी भरके बातें करेंगें- कम से कम तीन महीने
हो रहे हैं तुम्हारे साथ समय नहीं बिता सका | कहाँ वह बचपन ? और कहाँ आज की उलझनें
? कैसे भोले थे वे दिन !’
‘जैसे ललुवा के’
दो लोटों में
पानी लेकर लल्लू आ गया |
‘भाभी की तबियत
कैसी है ?’
‘अम्मा सब्जी
काट रही हैं |’
‘वाह री ! मेरी
भाभी’
सुरेश और मधुकर
लोटा लेकर चल दिए | दोनों जल्दी-जल्दी उठकर खलिहानों में पहुँच जाना चाहते थे और
जवानी के क़दमों की गति तेज होती है, भले ही बेहोशी में कभी-कभी कदम गलत हो जाएँ और
काँटे चुभ जायें | निकल आए दोनों काफी दूर, सुरेश ने लोटा मधुकर को पकड़ाया और
तम्बाकू रगड़ने लगा, आने लगीं पुरानी यादें-
‘तुम्हें याद है
मधुकर ! बचपन में हैं कितना कुचाली था ? कुसंग का ज्वर बड़ा भयानक होता है लेकिन
मुझे यह बुखार चढ़ ही चुका था | लेकिन आज प्रसन्न हूँ क्योंकि इतना व्यस्त हूँ कि
गलत सोचने का मौका ही नहीं लगता | चाहता भी यही हूँ इसीलिए बापू की सेवा से जो समय
बच जाता है उसमें जूनियर कक्षाओ के 30-35 विद्यार्थियों को अलग-अलग बुलाकर स्वयं
को उनसे घिरा रखता हूँ | मैं चाहता भी यही था कि कोई साथ देने वाला मिल जाए |’
‘इसीलिए तो कहता
हूँ शादी कर डालो’
‘फिर वही राम
कथा’
‘जानते हो
मधुकर, रूप में गर्व न हो ऐसा कम ही होता है, रूप में विनम्रता नहीं होती | मैं
देखता हूँ रूप में अभिमान का संयोग सहज लब्ध है लेकिन रूप और शील विरल ही मिलता
है’
‘होता है, हो
सकता है | सम्भव है तुमने न देखा हो- मैं तुम्हें दिखला दूँगा |’
‘नहीं तुम मुझे
मत दिखलाना मैं यूँ ही जी लूँगा |’
‘फिर अधूरे रह
जाओगे, जानते हो शंकराचार्य को मंडन मिश्र की पत्नी से यहीं हारना पड़ा था |
प्रत्यक्ष न सही अप्रत्यक्ष तुम्हें वात्स्यायन के कामसूत्र भटकाते रहेंगें |’
‘होने दो कुछ भी
हो, मैं स्वयं को अब नहीं छलूँगा- बचपन में मैं धन का लालची था | दूसरों को अच्छा
खाते, पहनते देखकर मेरा मन ललक उठता था लेकिन अब वह मन सो गया | एक उम्र के बाद
काम भी ठंडा हो जायेगा | मैं अपने तरीके से जीना चाहता हूँ | मैं अपनी स्वतंत्रता
नहीं खोना चाहता हूँ | दीनू और श्याम की तरह नहीं- दोनों कॉलेज के समय में कितना
लसे रहते थे, हमारी चौकड़ी मशहूर थी हर चीज़ में, अब उनके घर जाता हूँ तो औपचारिकता
की सीमा में रहना पड़ता है | आखिर दोनों पत्नी वाले हो गये हैं | एक व्यापारी हो
गया है दूसरा बिजली विभाग में मीटर रीडर | सौभाग्य या दुर्भाग्य से दोनों का विवाह
धनी परिवारों में हुआ है | तुम्हारे पास 3 महीने बाद बैठकर जो शांति मिली है उन
दोनों से रोज़ मिल लूँ तो नहीं मिलती- आखिर क्यों ?’
सुरेश तम्बाकू
झाड़ने लगा | मधुकर ने चुपचाप चुटकीभर तम्बाकू उठा ली और दाब ली | लोटे जमीन पर
रखकर दोनों बैठ गये घास पर, घनी आम की बाग़, शांति और नीरवता |
‘देखो सुरेश !
ये सारी बातें सच भी हो सकतीं हैं और यह भी हो सकता है कि तुम उनके जीवन का यथार्थ
समझ न पाते हो | लेकिन तुम्हें अपना जीवन अपने ढंग से जीना है, उसे ढाल लेना अपने
अनुसार | आखिर जीवन के 26 पतझड़ और वसंत देख चुके हो कितने दिन यूँ ही बिताओगे ?
नारी तो नदी का जल है किनारे कमज़ोर न हों तो नदी उन्हें तोड़ नहीं पाती | पुरुष को
चाहिए कि वह अपने चेतन किनारे ऊँचा करता रहे नदी गहरी होती जाए और उफनाकर किनारे
तोड़ न सके |’
‘कहते तो ठीक हो
लेकिन मोह बुरा होता है मेरे भाई और राग के संसार का बहुत बड़ा केंद्र है पत्नी और
अगली श्रृंखला है संतानोपत्ति- मैं नहीं चाहता, मैं नहीं मानता कि शरीर से
उत्पन्न, पत्नी के गर्भ से जन्मा बालक ही मेरा बेटा होगा | मुझे मानसपुत्रों की
तलाश है’
‘नहीं मानोगे’
‘बहुत मुश्किल
है’
‘तो फिर चला जाए
दैनिक क्रियायें पूरी की जायें |’, दोनों चल दिए अलग-अलग दिशाओं में |
XXXX XXXX XXXX
हिंदी विभाग का
कक्ष-
कुछ छात्र और
छात्रायें उपस्थित हैं | स्नातक और परास्नातक स्तर के विद्यार्थी आमंत्रित हैं | आज
विचार गोष्ठी है | संख्या कम है विद्यार्थियों की क्योंकि विचारों से दूर भाग रहा
है आज का विद्यार्थी | दीपा का कुछ सोचते हुए प्रवेश- अपने चिंतन में मगन |
प्राध्यापक गण भी आ रहे है | विद्यार्थियों में खुसर-पुसर हो रही थी लेकिन डॉ सिंह
को देखते ही शांत हो गयी | सभी लोग सुव्यवस्थित होकर बैठ गये | श्यामपट पर
मोटे-मोटे अक्षरों में लिख दिया डॉ सिंह ने ‘विद्यार्थी और समाज’ फिर धीरे से मुड़े
विद्यार्थियों की ओर और कहना शुरू किया- ‘प्रिय विद्यार्थियों और साथियों, आज इस
विद्यार्थी परिषद् के मध्य मुझे कुछ कहना है तत्पश्चात इस गोष्ठी का प्रारम्भ होगा
| विद्यार्थी राष्ट्र की शक्ति है यदि उनके मन में मूल्यों के प्रति आस्था होगी तो
हमारा राष्ट्र उन्नति करेगा | जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं तो शंख हूँ, बजता रहा
हूँ, बजता रहूँगा | मैं अध्यापन करता हूँ और जब तक जीवन है करता रहूँगा | लेकिन
मैं अदना सा व्यक्ति हूँ | क्या बतला सकता हूँ- यदि हजारी प्रसाद जी होते तो बताते
कि मैं तो साहित्य को मनुष्य के दृष्टिकोण से देखने का पक्षपाती हूँ | बहुत कुछ दे
जाते कुछ पलों में लेकिन फिर भी यदि मैं आपके चेतना पृष्ठों को खोल सकूँ यदि आपको
आत्मतत्व के दर्शन करा सकूँ तो स्वयं का जीवन सार्थक मानूंगा | अब मैं चाहता हूँ
कि विचारगोष्ठी का प्रारम्भ किया जाए | मैं आमंत्रित करता हूँ इस वर्ष विद्यार्थी
संघ के चुने गये अध्यक्ष श्याम नारायण पाण्डेय को-
श्याम नारायण
पाण्डेय- लम्बा चौड़ा, सजा-धजा व्यक्तित्व, हलकी फ्रेंचकट दाढ़ी, बोलना शुरू किया-
‘आदरणीय व्याख्यानगणों......!’
प्रतिक्रिया वही
जो होनी चाहिए थी, दीपा मुस्कुरा उठी इस मूर्खतापूर्ण सम्बोधन पर, न जाने कैसे चुन
लिए जाते हैं छात्रसंघ के अध्यक्ष | सभी विवेकशील मुस्कुरा रहे थे अध्यक्ष की
मूर्खता पर | दो-तीन मिनट इधर-उधर की उड़ाता रहा फिर चला गया अपने स्थान पर |
डॉ सिंह उठे
अगले विद्यार्थी को आमंत्रित करने के लिए- ‘दीपा बनर्जी अब अपने विचार व्यक्त
करेंगीं |’
धीरे-धीरे चलती
हुई दीपा मंच के पास पहुंची और दोनों हाथ मेज पर टिकाकर बोलना शुरू किया- ‘कैसी है
यह शिक्षा जो लार्ड मैकाले के क़दमों को चूमकर चलाई जा रही है | उ.प्र. में सपुस्तकीय
योजना लागू की गयी थी कक्षा 9 में, प्रश्न यह है कि शिक्षा विभाग में कितने बुद्धि
के दिवालिये और नपुंसक लोग बैठे हैं | यदि सपुस्तकीय योजना ही लागू करनी है तो
प्रमाणपत्रों का आडम्बर क्यों ? दिल्ली, नैनीताल में मॉडल स्कूल क्यों ? और गाँवों
में छप्परविहीन स्कूल क्यों ?? कहीं 12 वर्ष की बालिका एक में पढ़ती है अर्थात
गांवों में और नैनीताल का कान्वेंट पद्धति वाला स्कूल जहाँ हिंदी बोलने पर
विद्यार्थी सजा पाकर आत्महत्या तक करने को विवश हो जाता है, ऐसे स्कूल क्यों ? आधे
में वैभव विराट क्यों ? आधे में तम छाया क्यों ?? जाने क्या-क्या पढ़ाया जाता है
पाठ्यक्रम के नाम पर- आखिर मार्क्सवाद ही क्यों पढ़ाया जाता है | महाभारत से बड़ा
युद्ध तो नहीं करवाया था मार्क्स ने वर्ग संघर्ष के नाम पर, यह आयातित विचार ही हमें
पढ़ाये जायेंगें या धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के बारे में भी बताया जायेगा ? हम बुद्ध
बने या कृष्ण, राम बनें या मोहम्मद ? हमारा आदर्श क्या है ?? क्या मोहम्मद और राम
की तुलना करना उचित है | मोहम्मद बहुत कुछ थे लेकिन उनका जन्म
मक्का में हुआ था, अरब में हुआ था | प्रश्न तो मातृभूमि का है ‘जननी जन्मभूमिश्च
स्वर्गादपि गरीयसी’ का है |
इस देश की
शिक्षा नीति और प्रणाली दोनों दोषपूर्ण हैं | हमारे देश में ही इतने महापुरुष हुए
हैं कि विद्यार्थी को अन्यत्र भटकने की जरूरत ही नहीं है | हमने ‘वसुधैव
कुटुम्बकम’ का आदर्श रखकर सबकुछ दिया, लेकिन राष्ट्रीयता भूलने के कारण नुकसान
उठाया | उग्र राष्ट्रीयता की बात करना शायद अच्छा न समझा जाए लेकिन जिस राष्ट्र का
विद्यार्थी अपने राष्ट्र के महापुरुषों से अवगत न हो, राष्ट्रीय अस्मिता को
पहचानता न हो उसके अंतर्राष्ट्रीयता के प्रश्न और विचार कपोल कल्पना मात्र हैं |
विद्यार्थी आज विद्या की अर्थी ढो रहा है, नक़ल करके,
गुरुजनों का अनादर करके लेकिन इसके लिए राष्ट्र के नीति निर्धारक प्रणेता क्या कम
दोषी हैं ? जिन्होंने भारतीय अस्मिता का एक पन्ना नहीं पढ़ा, जिन्होंने गुरुकुलों
के बारे में जाना तक नहीं, वे ही इस भारत के भाग्य विधाता बनते
रहे |
विद्यार्थी को
समाज की रीढ़ न बनाकर राजनीतिज्ञों ने उसके कंधे पर रखकर अपनी बन्दूक दगाई है,
इसीलिए अनुशासन विहीनता आयी है | हमें चाणक्य का अर्थशास्त्र नहीं मार्शल की
परिभाषायें रटकर परीक्षायें पास करनी हैं | कैसी नक़ल की है हमने ? विज्ञान के
तथाकथित ज्ञानी विद्यार्थियों को बड़ी आसानी से कला संकाय में प्रवेश देना उतनी ही
बड़ी भूल है जितनी कि रसायन विज्ञान के विद्यार्थी को राजनीति विज्ञान पढ़ाना | लेकिन
क्या किया जाये ? सत्य कहने पर बागी कहा जाता है | मैं यह नहीं कहती कि हमें
विभिन्न विषयों का अध्ययन न कराया जाये, लेकिन व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास ही
शिक्षा का उद्देश्य है | समाज में सुव्यवस्था लाना ही शिक्षा का प्रतिपाद्य है |
वह कैसे पूरा होगा ? यह एक प्रश्न है |
गणित का एल्फा,
बीटा और गामा इतना महत्त्वपूर्ण हो गया कि विद्यार्थी कहता है कि हम विज्ञान के
छात्र हैं हमें हिंदी पढ़ने का समय कहाँ है ? अरे कंप्यूटर युग के यात्रियों यह
क्यों भूलते हो कि कविता का चित्र आँखों में बनाकर आँखों में सिद्ध करना पड़ता है |
जिंदगी सिर्फ त्रिभुज, चतुर्भुज या षट्भुज ही नहीं बल्कि कुछ और भी है | जिंदगी है
सिर्फ जिंदगी | समाज व्यक्तियों का समूह मात्र ही नहीं विवेकशील प्राणियों का
संगठन है लेकिन यह भीड़तंत्र, झुंडों की तरह जीने वाली जनता और हाँकने वाले नेता-
समाज के तथाकथित निर्माता- मैं तो कहूँगी नेतृत्व उसे करना चाहिए जिसने स्वयं पर
नियंत्रण कर लिया है | गुरुकुलों को नकारा न गया होता तो स्वतंत्र भारत में तो ‘सा
विद्या या विमुक्तये’ के आदर्श को पलायनवाद की संज्ञा देने वाले मूर्ख न होते-
शिक्षे तुम्हारा नाश हो तुम नौकरी के हित बनी’ कहकर मैं अपनी बात समाप्त करती हूँ
|”
दो पल तालियों
की गड़गड़ाहट, हर विद्यार्थी के मन में कुछ प्रश्नचिन्ह-
सभी को लगने लगा
था कि विचार गोष्ठी चरम सीमा पर आ गयी | डॉ सिंह सोच की मुद्रा पर खड़े हुए और कहने
लगे, “क्योंकि यह श्रृंखला अभी आगे बढ़नी है, बढ़ती रहेगी | हर वर्ष कुछ दीपक जलते
हैं और उन टिमटिमाते हुए दीपकों की लौ मुझे अच्छी लगती है | यह सही है कि अधिकांश
विद्यार्थी आज सो रहे हैं लेकिन यदि सौ की संख्या पर भी एक विद्यार्थी मिल जाता है
जो विद्यार्थी होने का सच्चा भाव रखता है तो मुझे प्रसन्नता होती है वरना विद्या
की अर्थी ढोने वाले तो बहुत हैं | अब मैं आमंत्रित करता हूँ अरुण सेन को—
अरुण सेन सजग
होकर आ रहा था | सोच रहा था....बात कहाँ से शुरू की जाये ? शुरू करनी ही है—
“अध्यापक थे
विश्वामित्र, चाणक्य और अरस्तू और तब उनके विद्यार्थी थे राम, चन्द्रगुप्त और
सिकंदर | सिकंदर आक्रमण करने आया था | चाणक्य ने भारतीय अस्मिता को बचाने, उसे
पल्लवित करने में अपनी कूटनीति लगाई थी जबकि अरस्तू आक्रमणकारी सिकंदर का गुरु था
| हाँ विश्व की हर मेधा से हमें कुछ सीखना चाहिए | शिक्षा आत्मसाक्षात्कार का साधन
भी है | चित्त को छुद्र वासनाओं से विरत करने का साधन भी है | लेकिन आज के समाज
में क्या विद्यार्थी इन मूल्यों को सुरक्षित रख पा रहा है? क्या हमें गलत आकड़ें
रटकर परीक्षा पास नहीं करनी पड़ती ? प्रायः कापियों को जाँचते समय हर धान बाईस
पसेरी तौला जाता है | यह सच है कि आज के सारे भ्रष्ट वातावरण में दोष केवल
विद्यार्थी का ही नहीं होता है क्योंकि अनुशासन विहीन सा होता दिख रहा है समाज |
अध्यापक वेतन बढ़वाने के लिए सड़कों पर आन्दोलन करते हैं- सच है लोकतंत्र में सबकुछ
होता है लेकिन अध्यापक समाज का सामान्य प्राणी होते हुए भी विशिष्ट है | पर
अध्यापक योगी नहीं होता, यद्यपि उसे योगी की तरह आचरण करना होता है | चन्द्रगुप्त
को स्थापित करने के बाद भी चाणक्य कुटिया में निवास करते थे | यह ठीक है जो, दीपा
जी ने कहा, जो श्रद्धेय सिंह साहब ने कहा, लेकिन सबको ऐसी छाया मिलती कहाँ है ? और
जब ऐसी छाया मिलती है तो युग परिवर्तन होता है | क्योंकि अध्यापक तो युग निर्माता
होता है- और विद्यार्थी मूर्ति | जिसमें प्राणों की ज्योति तो गुरु ही भरते हैं-
जलाते हैं | वे गुरु होते हैं गरिमामय- तभी तो समाज में योग्य नेता, प्रशासक और
कर्णधार पैदा होते हैं | प्रश्न यह है कि हिरण्यगर्भा धरती वाला मेरा देश आज जहाँ
पर आ गया है वहाँ प्रश्न इतने ज्यादा हैं कि अकेले अध्यापक सबकुछ नहीं कर सकता |
आज प्रश्न है कहाँ है मदन मोहन मालवीय जी जो महामना थे ? कहाँ है टैगोर ? हजारी
प्रसाद द्विवेदी कहाँ हैं ? निःसंदेह मेधा है हमारे देश में और वह कहीं ठोस
कार्यक्रम की तलाश कर रही है | किसी सच्चे गुरु को यदि दस ठोस विद्यार्थी यदि मिल
जाएँ तो समाज में परिवर्तन हो सकता है बशर्तें वह एक साथ चल सकें समरस होकर,
अंतर्द्न्द और स्वार्थ न हो |
क्या अधिक कहूँ
समाज को ? और शिक्षा के बारे में ? मुझे तो सच्चे गुरुओं की छाया मिल रही है | वे
कैसे जीते होंगें जिन्हें नहीं मिलते हैं ऐसे गुरु ? मैं अपनी बात को यहीं पर
विराम देता हूँ | फिर कभी | जय भारत...जय स्वदेश !”
सभागार फिर गूँज
उठा तालियों की ध्वनि से................
क्योंकि जो भी
बैठे थे यह सोचकर बैठे थे कि अपने सच्चे प्रतिरूप को, आत्मरूप को तलाश करें, खोजें, यही तो है आत्मविश्लेषण ....|
डॉ सिंह
प्रमुदित थे अपने शिष्यों के वैचारिक धरातल पर, ऐसे चिन्हों को देखकर, इसीलिए
संचालन के इस कार्यकलाप में आनंद भी आता है | मुख से फूट पड़ा शिक्षा का वह अजस्त्र
श्रोत...झरना झर चला....
कोई भी गुरु
अपने शिष्यों को आत्मान्वेषण में प्रवृत्त देखकर आनंदानुभूति करता है | स्वरों का
अपना कार्य है | सप्त स्वर... सा- रे- ग- म- प- ध- नि- कहीं भैरवी...कहीं
ऋषभ...कहीं सलज...कहीं ध्रुव...कहीं मल्हार...कहीं गांधार...और कहीं मृदुल तान
यही तो है
ध्वनि-नाद और उसका सौन्दर्य लेकिन दृश्यमान सुखों के नीचे एक वेदना टीसती है |
कहीं असफलता और सफलता का | राम और रावण का, कौरव और पांडव का, अरब और इजरायल का,
ईसाई और यहूदी का, काले और गोरे का, जातियों और सम्प्रदायों को संघर्ष में घसीटा
जाता है और घसीटा जाता है धर्म को | अरे ! तुम्हें मालूम भी है धर्म क्या है ?
इसीलिए तो मनीषा विद्रोह करती है | लेकिन राह उसे स्वयं बनानी होगी | युगबोध हर
राही को स्वयं समझना होता है | खोजना पड़ता है और लिखना पड़ता है | अब मैं आमंत्रित
करता हूँ कर्तार सिंह को....
“शिक्षा और समाज
के बारे को मैं विज्ञों के सम्मुख विचार रख सकूँ, ऐसा अनुभव नहीं करता फिर भी अपने
विचार प्रस्तुत हैं- दृढ़ कदम मजबूत इच्छाशक्ति !
युगों से सोने
वाला समाज कभी विक्षुब्ध तो होता है | समाज में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार और अराजकता से
पीड़ित तो होता है किन्तु कोई परिवर्तन किया जा सके इसके लिए निरंतर कर्म की
आवश्यकता होती है| अर्थात ऊसर भूमि को जोतना होता है | क्षुद्र स्वार्थी समाज और
इससे लड़ती हुई व्यक्ति की सत्ता- क्या हो पाता है ? समाज तो व्यक्तियों का समूह है
लेकिन फिर इंसान बार-बार तड़फड़ाता क्यूँ है सामाजिक बंधनों से ? क्यों ? क्या इस
समाज में पवित्र या अपवित्र या स्वतंत्र इच्छाओं की पूर्ति में समाज बाधक बनता है
इसलिए ?
समाज व्यक्ति को
विवेकशील बनाने की प्रक्रिया को पूरा करता है वरना व्यक्ति निरंकुश हो जाता तो
व्यक्ति की दमित इच्छाओं ने भी समाज को कितना नुकसान पहुँचाया है, इसका भी हिसाब
होना चाहिए समाज के पास | लेकिन तो क्या समाज को जगाने की इच्छा, सद्इच्छा बिलकुल
नहीं होती है व्यक्ति में | वाह रे समाज कैसा है मानव ?
वह मानव नहीं है
और सब कुछ है इसीलिए मनुष्य मनुष्य को यह समझाने की चेष्टा करता है कि अपने को
बलिदान कर दो लेकिन समाज का 99% सोया करता है | भोजन, पाचन, उत्सर्जन तक ही अधिकांश
समाज सीमित है | ऐसे में जागरण की बात नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सिद्ध होती है
| लेकिन वह आवाज़ कभी घूमती थी, झूमती थी और गाती थी और संसद में बम फेंककर यह कह
दिया करती थी और भगत सिंह बन जाती थी | भगत सिंह ने हिला दिया था अंतःकरण समाज का
| मूक शहादत रंग लाती है लेकिन यह मुखर भी थी | तो क्या स्वतंत्र भारत में भी
युवकों को उसी तरह इन्कलाब जिंदाबाद के नारे लगाने होंगें | इसके अलावा और कोई
चारा नहीं है | भगत सिंह के रास्ते को अनुशासन विहीनता में गिनकर या डरकर किसी को
फाँसी पर चढ़ाकर कब तक फाँसी दी जायेगी ?
लेकिन ऐसा गिना
गया | गिना जाता है और गिना जाता रहेगा |
भाई मेरे !
रक्तपात उसका उद्देश्य नहीं था | एक स्वच्छ समाज का निर्माण- शोषण विहीन समाज का
निर्माण उसका उद्देश्य था | अशफाक जैसा युवक इस धरती पर पैदा होता था | लेकिन समाज
नहीं जागेगा और फिर सो जायेगा | यह समाज नहीं जागेगा, बलिदान कर डालो | इसके अलावा
कोई रास्ता नहीं है | हर सफलता के पीछे छिपी हुई एक असफलता | जीत के पीछे हार |
हार के पीछे जीत तो रात जितनी गहरी होती जाती है सवेरा उतना ही करीब आता है |
आलोकवाही है हमारी संस्कृति | निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है परिष्करण की |”
वह अपनी बात
समाप्त करके चुपचाप जाकर बैठ गया | चिंतन की एक गहरी प्रक्रिया है शिक्षा | केवल
चार नाम ही प्राप्त हुए इस विचार गोष्ठी में जो अपने विचारों को प्रकट करने इच्छा
रखते थे | यद्यपि मैं यह नहीं कहता कि केवल बोल लेना ही सुन्दर है कुछ लोग लिख
बहुत अच्छा लेते हैं भाषण नहीं दे पाते हैं | हर मनुष्य अपने दायित्व को निभाने का
कर्तव्य सीख सके इतना भी बहुत है | संख्या में 50 विद्यार्थी और शोधार्थी एकत्र
हुए | संख्या के प्रति हमें चिंतित भी नहीं होना चाहिए | यदि इतने लोग भी एक मिशन
पर चल पड़े तो बहुत कुछ कर सकते हैं | मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है अब मैं अपने
सहयोगी अध्यापक बन्धु रवि प्रकाश जी को आमंत्रित करता हूँ | अपने विद्यार्थियों को
अपना आशीर्वाद प्रदान करें |
...बन्धु अनूप
सिंह जी !
‘वस्तुतः मेरा हृदय प्रमुदित है, मैं सभी को
साधुवाद देता हूँ ! वायदा करता हूँ और विश्वास दिलाता हूँ कि जब तक ऐसे लोग हैं तब
तक राष्ट्र विखंडित नहीं हो सकता है | जब तक विद्यार्थी इस ज्ञान की ज्योति को
जलाये हैं चाणक्य का एक शिष्य चन्द्रगुप्त युगधारा पर, युगपृष्ठ पर एक अच्छा सा
विराम जरूर है जब लोगों ने शक्ति अनुभव की होगी | अध्यापक यदि गुरु है तो
प्रतिभाशील विद्यार्थी समाज में नई ज्योति अवश्य जलायेंगें और मुझे सभा में जो
आनंदानुभूति हुई वह यह कहती है कि मनीषा का विद्रोह कभी स्थूल से सूक्ष्म की ओर
कभी सूक्ष्म से स्थूल की ओर होता है |”
अनूप सिंह जी राजनीति
के प्रोफ़ेसर हैं किन्तु उनका चिंतन बहुत विस्तृत है, जाकर बैठ गये अपने स्थान पर |
पुनः डॉ सिंह ने सभा को अपना उद्बोधन देने हेतु अपना सञ्चालन दायित्व सम्भाला –
“अग्रज तुल्य संस्था के प्राचार्य श्रद्धेय पाण्डे जी से निवेदन है कि वे हम सबको
दिशाबोध देने की कृपा करें”
प्राचार्य का
धीर-गम्भीर व्यक्तित्व जो अनुभव युक्त सूक्ष्म ज्ञान की परिभाषा को जीवन में
उतारने की प्रक्रिया में सतत लीन हैं उन्होंने व्याख्यान प्रारम्भ किया- “मैं गर्व
करता हूँ अपने सहयोगियों और विद्यार्थियों पर और विशेष रूप से कहना यह है कि
विद्यार्थियों में लगन और जोश है, परिवर्तन की चाह है लेकिन क्रांति के बाद सैलाब
न बचने पाये- यह है क्रांति और यही है शिक्षा का उद्देश्य | समाज विवेकशील
प्राणियों का समूह है और जंगल का कानून भी स्पष्ट परिलक्षित होता है | ऐसे में
हमें अपना कार्य करना है अर्थात ‘क्षीर नीर विवेके हंसालस्य त्वमेव तनुषे चेत...’
मैं अपनी बात को विराम देना चाहता हूँ क्योंकि हमें महाविद्यालय की पत्रिका ‘उभरते
स्वर’ के सन्दर्भ में विचार करना है | वार्षिकोत्सव भी समीप आ रहा है | नई पौध का
संकलन जो प्रतिवर्ष निकलता है | यह फूटते पल्लव हृदय प्रमुदित कर देते हैं | तुम
एक अनल कण हो लेकिन यदि तुमने विवेकपूर्ण मार्ग अपनाया तो सृजन होगा, ज्योति जलेगी
| इस पत्रिका में अर्थात ‘ज्योति’ में विद्यालय परिवार के लोगों की कवितायेँ,
व्यंग्य, लेख सभी कुछ होता है | इसके अतिरिक्त जीवनानुभूति की खोज में तत्पर
मनीषियों की चिंतना के पृष्ठ उसमें ढूँढकर, दौड़कर लाने का कार्य अपने कुशल संपादन
में डॉ सिंह करते ही रहते हैं |
विद्यार्थियों
में एक शैली का निर्माण हो रहा है यह अच्छी बात है क्योंकि जिस तरह नयन में संकेत,
सीप में मोती और हृदय में आशा निहित है उसी तरह व्यक्तित्व में शैली निहित है | इस
512 विद्यार्थियों से शोभित आम्रकुंजों की छाया में चलने वाले महाविद्यालय में
जिसमें विद्यार्थी घास पर बैठकर पढ़ते हैं दूसरे शान्तिनिकेतन जैसे परिणाम दे सके |
हम लोग तो बहता हुआ जल हैं | गति जीवन की परिपाटी है | लेकिन जब तक समय है अर्थात
साँसें हैं हम ज्योति से ज्योति जलायेंगें | इसी शुभाशा के साथ जय मनुष्य की,
मानवता की !
मधुकर और सुरेश-
गाँव का जीवन !
देख रहे थे, सोच
रहे थे, समझ रहे थे | परिवर्तन करना इतना आसान नहीं है जानते हैं दोनों | विभिन्न
प्रकार के लोग हैं समाज में |
संध्या घिरी आ
रही है | सुरेश के घर पर बैठा मधुकर तम्बाकू घिस रहा है | सुरेश अपने पिता की सेवा
सुश्रुषा में लगा था | जो शरीर से टूटे हुए लेकिन निर्माण की आकांक्षा से भरे हैं
|
मधुकर सोच रहा
है परिवर्तन के बारे में- दुर्निवार है यह लेकिन सरल भी है | पंद्रह दिन उसे आए
हुए बीत चुके हैं जाने के बारे में - वह विशेष चिंतित भी नहीं है | ज्ञान के लिए
वह किसी विद्यालय का मोहताज़ नहीं होना चाहता | पूरे महाविद्यालय में भी तीन- चार
लोगों को छोड़कर अनुभूति विहीन लोग भरे हैं | डॉ सिंह न हों, पाण्डेय जी न हों और न
हों अनूप जी तो महाविद्यालय में क्या है ? यह समझौता न करने वाले लोग मनीषा को
स्वीकार करने वाले लोग, जगाने वाले लोग कम होते हैं लेकिन यहाँ गाँव में भी कुछ कम
नहीं है | रामचरित मानस और महाभारत के पुजारी भैया | पक्के पत्तों की तरह कभी भी
टूटकर गिर जाने वाले सुरेश के पिता, दीनू और श्यामू- सब कुछ तो है | गांधी जी ने
कहा था, ‘विद्यार्थियों को गाँवों की ओर लौटना होगा |’ सुरेश नहीं आया काफी देर
से, क्या पिता जी की हालत ज्यादा खराब हो गयी ? देखना चाहिए |
अन्दर गया मधुकर
| उसने देखा सुरेश बैठा हुआ धीरे-धीरे पिताजी के सिर में तेल मालिश कर रहा है |
दुबला, पतला, कृशकाय शरीर साफ़ सुथरे बिछौने पर लेटा है | मधुकर पास ही में बैठ गया
‘चाचा जी को प्रणाम !’
आँखें खुलीं |
चिंतन में डूबी आँखें | जीवन भर अभावों की छाया में जी कर भी जिन्होंने सुविधाओं
के लिए अपने को झुकाया नहीं | रिरियाकर माँगा नहीं | उन आँखों की ज्योति अलग होती
है | मधुकर धीरे-धीरे चरण दबाने लगा | सेवा करके ही मेवा मिलती है जानता था और स्पष्ट
अनुभूति कर रहा था और निस्रत हुई पयस्विनी की धार...जीवन का मधुकोष झर चला |
कि यह जीवन का
क्रम | चिर परिवर्तनशील ? चिर नवीन ?? और चिर प्राचीन भी तो | लेकिन अनिर्वचनीय !
मैंने उपनिषदों का अध्ययन किया | होमर की इलियड और ओडिशी भी पढ़ गया | अरविन्द की
सावित्री भी बसी है मेरे मानस में | टैगोर की गीतांजलि पूरी याद थी मुझे | यद्यपि
जीवन भर मैं परचून की दूकान करता रहा और रद्दी में आयी हुई पुस्तकों को छाँटकर
लालटेन जलाकर पढ़ता रहा | आय थोड़ी थी लेकिन अध्ययन ने संतुलन दे दिया |
जान गया- जीवन
छोटा है और बहुत छोटा है विशेष रूप से ज्ञान पिपासु के लिए | एक विषय का ज्ञान
पाने में वर्षों लग जाते हैं, उम्र लग जाती है | फिर कितने विषय हैं ?
ज्ञान अपरिमित
है, अपरिमेय है, इसमें प्रमेय है, निर्मेय है, रचना है, दर्शन है, कर्म है,
जीवनानुभूति है |
शेक्सपियर को
पढ़ना भी एक आनंद है | मैं विरासत में सुरेश को एक अच्छी लाइब्रेरी जरूर दे रहा
हूँ....
जानता है मधुकर
चाचा के इस विराट ज्ञान को | बहुत कुछ जुबान पर | साधारण साधना का जीवन |
शेक्सपियर कालिदास नहीं हो सकता है | किसी की किसी से तुलना नहीं करनी चाहिए|
प्रतिभा अतुलनीय है | कभी व्यास के बारे में सोचो, कितने महाकाव्य, उपन्यास एक ग्रन्थ
महाभारत में पिरो दिए हैं |
मधुकर जानता है
| दादा के गुरु गहन ज्ञान को |
तभी तो उसे कुछ
ऐसा नहीं मिला उस महाविद्यालय में जो इस गाँव में भी उसने न पा लिया हो | महादेवी
जी के कुछ गीत जो उसकी समझ में नहीं आते थे | चाचा जी ने बड़ी सहजता से समझा दिए थे
बचपन में | लेकिन वे तो नींव की ईंट हैं | गाँवों की ज्योति है और प्रेरणा के
श्रोत वरना गाँवों में प्रतिभा कैसे रुकेगी ?
सुरेश सुन रहा
था, गुन रहा था |
“अरे भाई
रामलाल, राम-राम, दुआ-सलाम, सीताराम, जयघनश्याम !”
कादिर चाचा
चारपाई पर आकर बैठ गये और अनायास कहने लगे- ‘रामलाल तुम बहुत सुखी हो ! मैं तुमसे
दस वर्ष छोटा हूँ लेकिन मेरे लड़के मेरा हालचाल भी नहीं पूछते | मैं तो अंगूठाटेक
था, आपने सच्चे मनुष्य की परिभाषा समझा दी | अब तो आपके पास आकर ही शांति मिलती है
| नया वर्ष आ गया है कोई कलेंडर नहीं लाया मेरे लिए मधुकर ?’
‘लाया हूँ चाचा
जी, उसमें हनुमान जी का लंकादहन वाला चित्र बना है |’ रामलाल बोले |
‘ले आओ बेटा दे
दो कादिर चाचा को”
कादिर जानते थे-
चित्र अच्छे लगते हैं, क्या केवल निराकार ही सत्य है ? नहीं, साकार भी तो सत्य है
| अद्वैत सत्य है तो द्वैत भी कम नहीं | हनुमान ने लंका जलाई थी | कुछ दिन बाद
रावण मर गया था | लेकिन युद्धों की श्रृंखला भी बहती रहती है, चलती रहती है |
मधुकर चल दिया
कलेंडर लेने, साथ में सुरेश भी- क्योंकि वह जानता है चाचा जी और पिताजी वैसे ही
आत्मीय हैं जैसे वह और मधुकर |
मित्रता जीवन की
बहुत बड़ी उपलब्धि है | मधुकर ने सुरेश के कंधे पर एक हाथ रख दिया | चलने लगे दोनों
धीरे-धीरे बातें करते हुए | कहने लगा मधुकर- “क्यों न रामचरितमानस के आधार पर लोक
नायक तुलसी की याद में एक सभा गाँव में की जाये, कुछ लोग गाँव के इकट्ठा हो
जायेंगें और कुछ लोगों को बुला लिया जाएगा | जिन लोगों के बारे में मैं तुम्हें
बतलाया करता हूँ | तो कैसा रहेगा ?”
“रहेगा तो
अच्छा”, कहा सुरेश ने |
“क्योंकि युग
परिवर्तन माँगता है | मेधा बिखरी हुई है, यद्यपि जोड़ने का कार्य युगों से हो रहा
है | लगता है कभी महापुरुषों की बाढ़ आ जाती है और कभी अभाव सा क्यों लगता है ? यह
कहीं अपने अंतस की शून्यता तो नहीं ? अपने अस्तित्व को बचाकर काम करने की इच्छा तो
नहीं ?”
सुरेश सुन रहा
था और जानता था मधुकर की यह पीड़ा | यह आमंत्रण, यह चुनौती, यह सीधे पुरुषार्थ से
जुड़े प्रश्न- इनका उत्तर देना सरल नहीं | ‘बोलते क्यों नहीं सुरेश ? क्या हम यूँ
ही सोच सोच कर जीते रहेंगें ?’
‘नहीं, मेरे
दोस्त ! हम यूँ ही नहीं जीते हैं | हम सूर्य न सही दीपक तो बन सकते हैं | जब सूरज
शाम को जाने लगता है तो दीपक से कह जाता है कि तुम अब तब तक जलो जब तक मैं फिर न आ
जाऊँ और तब दीपक का जल उठना ही उसकी नियति है |
देखो यह परिवार
कल्याण विभाग की गाड़ी आ रही है | परिवारों का कल्याण तो जितना होता है उतना होता
ही है लेकिन इस विभाग में काम करने वालों की पौ बारह है |’...धूल उड़ाती गाड़ी निकल
गई |
पूछा सुरेश ने,
“इस विभाग के बारे में तुम्हारा क्या विचार है ?”
मधुकर बोला,
“वैसे ही जैसे सरकारी विभागों के बारे में होना चाहिए..... उस मोटे वाले वर्मा
बाबू को जानते हो ? होटलों पर प्रायः नज़र आता है | यह कहो नसबंदी के केस माँगें
गये हैं इसलिए क्रियाशीलता है | कुछ फ़र्ज़ी केस भी होंगें | हर अध्यापक को भी दो-दो
केस ढूँढकर लाने को कहा गया है- बेचारा अध्यापक आजकल पढ़ाता नहीं, केस ढूँढता है |
अरे मूर्खों ! तुमने व्यवस्था को नष्ट कर दिया, प्रकृति के क्रम को मत रोको लेकिन
प्रकृति अपना चिट्ठा किसी को पढ़ने नहीं देती, विकास के क्रम को रोकते हो इसीलिए तो
असफल हो जाते हो | कृष्ण आठवीं संतान थे...”
“तो क्या तुम
चाहते हो अधिक बच्चे पैदा ही किये जाएँ ?”, पूछा सुरेश ने |
“मैं यह नहीं
कहता, लेकिन संयमन या उन्नयन कोई एक रास्ता चुन लिया जाये |” बोला मधुकर |
“संयमन का नतीजा
विश्वामित्र की फिसलन है” सुरेश ने प्रतिवाद किया |
“और उन्नयन के
नाम पर ए सर्टिफिकेट वाली फ़िल्में, नंगा नाच और फूहड़ गीत बर्दाश्त नहीं होते |
भोगवाद की ओर बढ़ते भारत को रोकना चाहिए |” मधुकर बोला, “बातें तो तुम्हारी ठीक हैं
सुरेश लेकिन यह बातें समझाना सरकार का काम है | उसकी योजनायें हैं |”
“वैसे हल तो है
लेकिन मानेगा कौन ? घोषित कर देना चाहिए इस भारत सरकार को कि दो संतानों के बाद
वाली संतानों पर इस वर्ष के बाद सौ रूपया प्रतिमाह प्रति संतान के हिसाब से टैक्स
देना पड़ेगा, यदि दो ही बच्चे हों तो सरकार उन्हें काम करने की गारंटी देती है और
ज्यादा संतान पैदा करने वालों को वे सुविधाएँ नहीं मिलेंगीं |”
“क्या ऐसा करने
की क्षमता हमारी सरकार में है ?”, पूछा सुरेश ने |
दोनों बरगद के
पेड़ के नीचे खड़े हो गये-
“बैठो सुरेश
बनाओ तम्बाकू, तुम्हारी बातों का और तम्बाकू का आनंद लिया जाए |”
बैठ गये दोनों,
बनने लगी तम्बाकू...
“यह नशा भी कुछ
अजीब चीज़ है”
“हाँ, है तो”
“लेकिन मुझे
लगता है कि यह कुछ पल रुकने के बहाने हैं |”
“....मैं
तम्बाकू बना रहा हूँ तुम जनसँख्या प्रकरण पर कुछ और बताओं....”
“भारत के
शयनागार खेतों की अपेक्षा ज्यादा उपजाऊ हैं यदि इसे रोका न गया तो सारा विकास बालू
की भीति बन जाएगा |”
“लेकिन मेरे
भाई, तुम तस्वीर का केवल एक ही रुख देख रहे हो, हमारे पास कर्मिक हैं, किसान हैं,
बेकार भटकते नौजवान हैं अगर उन्हें जुटाया जा सके तो भारत विश्व में श्रेष्ठ
राष्ट्र बन जाएगा |”
तर्क था सुरेश
का और साथ ही साथ प्रश्न का रुख मुड़ गया | उसने पूछा मधुकर से, “नेपाल तुम्हें
कैसा लगता है ?”
“हाँ, कभी-कभी
लगता है नेपाल की बड़ी अहिंसक सत्ता है | वहाँ लोगों में नैतिकता को देखा जा सकता
है | मैं वहाँ गया था कुछ वर्ष पूर्व – वहाँ मैंने देखा एक झोपड़ी सी दूकान में एक
सुनार बैठा था, उसके पास चार-पांच किलो चाँदी का सामान था लेकिन वह निश्चिंत था |
चोरी से बेफिक्र और यहाँ तिजोरी के सिवा इतनी चाँदी रखने की कोई व्यवस्था हो सकती
है ? यहाँ तो झोपड़ी में चार-पाँच किलो चाँदी लेकर बैठने वाला या तो लूट लिया जाएगा
या मार डाला जाएगा| उसके बाद मैं इक्के पर बैठा, पुलिस वाला मिला, इक्के में लाल
बत्ती नहीं लगी थी | उसने चालान कर दिया, इक्का थाने गया, वहाँ दो रुपये आर्थिक
दंड हुआ और इक्का फिर चल पड़ा अपने गंतव्य की ओर और हमारे देश में क्या होता सुरेश
? बोलते क्यों नहीं ?”
“तम्बाकू झाड़
लूँ तब बताऊं”
पट्ट...पट्ट...पट्ट....
“ज़रा और झाड़ो,
चूना ज्यादा हो तो खाल कट जाती है |”, बोला मधुकर |
“बड़े कोमल हो”
“कुछ भी कहो”
“लो अब चूना कम
हो गया”, मधुकर ने चुटकी भर ली |
हल्की सी
चुनचुनाहट- “तुम अब भी कुचाली हो और मैं भी”
“क्यों ?”
“ये तम्बाकू
क्या दाँतों के लिए अच्छी चीज़ है ?”
“नहीं”
“तो फिर क्या
खाते हो ?”
“सारे प्रश्नों
का उत्तर तुरंत चाहते हो ?”
“हाँ” बोला
सुरेश |
“ये अच्छी या
बुरी आदतें हैं, आदत एक छड़ी की तरह होनी चाहिए न कि वैशाखी की तरह, किसी नशे की
गुलामी अच्छी चीज़ नहीं होती है | मैं जानता हूँ, जब चाहूँ, छोड़ दूँगा |”
“तो फिर छोड़ दो”
“कुछ समय दो,
मेरी भी सुन लो”
“बोलो”
“मधुकर ! न कुछ
अच्छा होता है न बुरा, केवल सोचना ही हमें ऐसा बना देता है |”
“यह शेक्सपियर
का वाक्य है, मुझे भारतीय मनीषा से उत्तर दो”
“मैं बताऊँ”
“हाँ, बताओं”
“देखो ! सुरेश
अगर चलते चलते कभी हमारे पैर फिसल जाएँ, केले के छिलके पर चलकर फिसल जायें, यदि
तुम्हारी भावनायें अपवित्र न हों तो यह क्षम्य है लेकिन तुम यदि घर से निकलते ही
आदर्शों पर कफ़न डाल देते हो तो यह अच्छी बात नहीं है | यदि एक बार गलत को सही कहने
की आदत पड़ गयी तो तमाम गलत सही बनते चले जाते हैं |”
“तुम्हारा तर्क
जाल मात्र पर्याप्त नहीं युधिष्ठिर पर प्रश्न लगाना और इसका समर्थन करना बराबर है
|”
“बात तुम्हारी
सही है मधुकर”
“चलो कैलेंडर ले
आयें, कादिर चाचा को दे दें”
“चलो”
“यह बरगद बहुत
पुराना है | इस पेड़ के नीचे और सामने बालू वाले मैदान में कितने निर्णय हमने और
तुमने लिए हैं |”
“यह सच है |”
“चलो कार्यक्रम
के बारे में चाचा जी, पिता जी की राय ले ली जाए, ऐसे लोगों की छाया कम ही लोगों को
मिलती है |”
चल दिए दोनों
गंतव्य की ओर | बाँसी की कोठी में लल्लू चारपाई डाले सो रहा है | छोटी गाय बैठी है
पास में, सुरेश बैठ गया चारपाई पर, “तुम ले आओ, मैं यहीं लेटा हूँ”
लेट गया सुरेश
और मधुकर चला गया घर को....सोचने लगा सुरेश |
कितनी समस्यायें
हैं इस देश में, एक लल्लू है और एक होगा कान्वेंट का बालक....
संस्कृत...हिंदी
लैटिन...अंग्रेजी
हिंदी और उर्दू
की राजनीति | राम जन्मभूमि में ताला लग गया, यह स्वतंत्र भारत के प्रशासकों की भूल
थी | खोला गया विचित्र ढंग से राजनीतिक रूप दिया गया किस-किस ने उसका लाभ उठाया |
व्यक्ति को अपनी
राजनीति स्वयं निर्धारित करनी होगी | हमें राजनीतिज्ञों के हाथ की कठपुतली नहीं
होना चाहिए |
सब एक ही पिता
की संतान हैं, तो फिर कोई इन्हें लड़ा रहा होगा | भारतीय अस्मिता की जड़ें खोदने पर
उतारू है | सच तो यह है कि जो खोदने की कोशिश कर रहा है वह भटक रहा है क्योंकि जो
सत्य है उसे कोई मिटा नहीं सकता लेकिन संघर्ष चलता ही रहता है |
मधुकर लौट आया
कैलेंडर लेकर | सुरेश आँखें बंद किये लेटा है, मगन है अपने विचारों में.... यह
बाँसी की कोठी...
....ठंडी
हवा...कूलर को भी मात करती है |
गाँजर की तराई
का इलाका...
छोटे बड़े सभी
प्रकार के संघर्ष शहर से सीधे संपर्क के कारण यहाँ पर आ चुके हैं | दूसरी चारपाई
पड़ी थी | लेट गया उसी पर और पुकारा सुरेश को और डूबा-डूबा सा कहने लगा | अवचेतन
कहो...
चेतन कहो ....
बुद्धि कहो,
भावना कहो
है बड़ा विचित्र
जिज्ञासा भरा प्रश्न...
मधुकर क्या
उत्तर दे ?
“कुछ बातें
परिभाषा की सीमा में नहीं आतीं | ‘यथा पिंडे तथा ब्रम्हांडे’ कह लो या ‘मुंडे
मुंडे मतिर्भिन्ना’ कह लो | या कह लो अस्मिन परिवर्तनशील संसारे किम् किम् न
सम्भाव्यते ! चाहे नेति-नेति कह लो | जीवन तुम्हारी परिभाषाओं का गुलाम नहीं है |”
“कहते तो ठीक हो
मित्र”, बोला सुरेश |
यह सारे प्रश्न
‘तुलसी जयंती’ पर जब मनीषा का संगम होगा, त्रिवेणी बहेगी | गंगा, जमुना, सरस्वती |
इच्छा, ज्ञान और कर्म या भावना ज्ञान और कर्म.....
तभी इसका हल मिल
सकता है |
तब तक सोचते रहो
और सोचकर प्रश्न रखना उस दिन | चलो कैलेंडर लेकर चलो...लल्लू मगन सो रहा है | यही
तो है गाँव का आनंद |
सब कुछ सहज
लब्ध...
धीरे-धीरे चल
दिए दोनों...
अलार्म में
घिन्घिनाहट या मिनमिनाहट या टनटनाहट या कोई एक ध्वनि |
दीपा की आँखें
खुल गयीं, चार बजे का अलार्म लगाकर सोयी थी वह | यह उसका नित्यक्रम है | अध्ययनशील
छात्र को उठना ही पड़ेगा सवेरे ! यह दो घंटे अतिरिक्त बढ़ जाते हैं जीवन में...यह
पिताजी का मूलमंत्र है |
प्राइमरी स्कूल
के अध्यापक और माता जी भी अध्यापिका | परिवार शहर में भी अच्छी तरह इसीलिए तो चल
रहा है | जब महाविद्यालय भेजा था पढ़ने, तो कहा था...
“बेटे ! तुम
मेरी अकेली संतान हो | बेटा भी और बेटी भी और तुम प्राइमरी अध्यापकों की संतान हो
| याद रखना बेटे तुम्हें कुछ बनना है | अध्यापक का पद बहुत ऊँचा होता है | वह समाज
में दिए जलाता है | विवेक मत खोना | यह दुनिया बड़ी चकाचौंध वाली है |”
अच्छी तरह उसे
याद हैं यह बातें | उसने उठा ली पुस्तक समाजशास्त्र की और सोचने लगी...
कितना सजीव है
यह शास्त्र ? यद्यपि महाविद्यालय में इस विषय को पढ़ाने योग्य अध्यापक नहीं हैं |
राजनीति और हिंदी विभाग में विद्वता है लेकिन उसकी कक्षा में विद्यार्थी तो भले ही
कुछ अच्छे हैं किन्तु अध्यापक के नाम पर श्रीमान चीफ प्राक्टर महोदय...एकदम
स्पोर्ट बॉय बनने की ललक है उनमें | चाबी का गुच्छा लटकाकर चलते हैं जेब में |
फैशन में लड़कों को मात करते हैं | हर विद्यार्थी के पास इतना पैसा भी कहाँ है जो इतने
नित नवीन सूट पहनकर अपनी चमक दिखाए | चश्में के भीतर से इनके अन्दर की गिद्ध दृष्टि
छात्राओं को घूरती रहती है| एक दो विद्यार्थी भी खूब सज धजकर आते हैं जैसे वह
छात्रसंघ का मूर्ख अध्यक्ष |
उस दिन उसने
सायकिल स्टैंड के ठेकेदार के नाम पत्र लिखा-
प्रिय
चिरंजीव....
वाह रे !
मूर्खानन्दों
तुम्हें सम्बोधन
करना तक नहीं आता | लेकिन तुम्हारे पास कुछ फालतू दादा टाइप के लोग हैं
फेलियर...और राजनीति विज्ञान के श्रीमान तिवारी जी की कृपा का विशेष पात्र है जो
पड़ा-पड़ा राजनीति की गोटें बिछाता रहता है |
मंत्रियों तक
इसकी पहुँच है | पिछली बार दीक्षांत समारोह में मंत्री नामक एक प्राणी आया था |
बेचारा शिक्षा के बारे में तो कुछ नहीं बोल पाया हाँ चश्में के भीतर से इसकी
आँखें...अध्यापिकाओं को और छात्राओं को घूरने में चुपचाप लगीं थीं | तमाम लोग आते
भी हैं गुड्डा और सभा की परी जैसे...
और जाने क्या ?
क्या ? सोचती रही |
घड़ी में पाँच
बजने वाले हैं | पिताजी और माता जी अपने दैनिक कार्यों में लग गये हैं | पिताजी की
चट्टियों की आवाज़...चिट्ट चिट्ट चट-चट
कमरे की तरफ आ
रही है | दीपा ने देखा चश्मा लगाये पिताजी कुर्सी पर आकर बैठ गये |
“दीपा क्या पढ़
रही हो ?”
“पढ़ तो कुछ नही
पायी, हाँ समाजशास्त्र की विद्यार्थी हूँ अतः सोच जरूर रही थी समाज के बारे में |“
“क्या परिवर्तन
पाया इस समाज में ?” पूछा पिताजी ने |
“आज हमारे मूल्य
बदल गये, शब्दों के अर्थ बदल गये, दादा गरिमा बोधक शब्द था लेकिन आज गुंडा और
लफंगा दादा कहलाता है | दहेज़ रुपी अभिशाप के पीछे, नारी को जलाए जाने के पीछे,
सवर्ण और निम्नवर्ण का भेद....”
“दहेज़ के पीछे
तुम्हें कारण क्या लगता है दीपा ?” पूछा पिता ने |
“युवक और
युवतियों में त्याग का अभाव, आज युवती भी पति की पीठ पर हाथ रखकर बाइक पर घूमने
में आनंद अनुभव करती है | उसे भी फ्रिज और रंगीन टी.वी. का आकर्षण है | जब तक समाज
में ऐसी युवतियां हैं जिनका आदर्श रेखा और जीनत अमान हैं, तब तक इस समस्या का
समाधान नहीं मिल सकता है | हमारी संस्कृति में ‘यत्र नार्यन्तु पूज्यते, रमन्ते
तत्र देवता’ कहा जाता था | मुग़लकाल में इसे पैरों की जूती बनाया गया | हरम में
सजाया गया | कौन है वह युवती जो जानबूझकर राजकुमारी होने पर भी सत्यवान जैसे
लकड़हारे को अपना पति बना सकेगी ?”
“तो क्या युवकों
की कोई गलती नहीं है ?” टोका पिताजी ने |
“गलती तो है
लेकिन नारी माँ भी है, दूध के साथ मिली शिक्षा सीधे मानस में उतर जाती है |
जीजाबाई ने शिवाजी जैसा लाल जन्मा था | स्वतंत्रता के बाद नारी को विकास का अवसर
मिला लेकिन यह है झटके का विकास, क्रमबद्ध विकास नहीं है और जब किसी चीज़ को दबाकर
छोड़ा जाता है तो क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया होती है इसीलिए आज झूठी शिक्षा की
दौड़ में पड़ी हुई नारी ने अपनी भारतीय अस्मिता खोई है, वह पश्चिम की तितली बनती जा
रही है | जहाँ तक युवकों का प्रश्न है, कुंठा के शिकार वे भी हैं तभी तो रामतीर्थ
जैसा सन्यासी नहीं मिलता है, राम जैसा पति नहीं मिलता है | लेकिन सीता जैसी पत्नी
भी नहीं मिलती है |”
“वर्ग भेद जैसी
समस्या पर तुम्हारे क्या विचार हैं”
“यह आयातित और
कृत्रिम संघर्ष है जो मार्क्सवाद, लेनिनवाद और फासिस्टवाद की आड़ में पनप रहा है |
स्वदेशी साम्यवाद की बात कोई नहीं करता है, राजा हर्ष कुम्भ के अवसर पर अपना
सर्वस्व अर्पित कर देता था और पुनः संचयार्थ अपनी राजधानी लौट जाता था | हरिजन
नेता बनने के ख्वाब में लोग सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति भूल जाते हैं, वोटों की
राजनीतिक दलदल में फंसा समाज बिलबिला रहा है पिताजी !”
“हाँ बेटे ! तुम
जागरूक हो | मेरा सिर गर्व से ऊँचा है, मेरा अध्यापन सफल रहा | जाओ माता जी से चाय
ले आओ, मुझे रसोईघर में प्यालियों की खनक सुनायी पड़ रही है | लो खुद चली आ रही है
चाय लेकर | माँ जी मुस्कुराईं...जानती हैं यह दोनों पिता पुत्री बड़े तार्किक हैं |
चाय की केतली और तीन कप रख दिए रख दिए मेज पर | दीपा ने चाय डाल दी तीनों कपों
में...तीनों चाय पीने लगे...
“बिटिया कल एक
पत्र आया था मधुकर का | गाँव में तुलसी बाबा पर सभा कर रहा है | मैंने तुम्हारी
किताबों के नीचे मेज पर रख दिया था | निकाल कर देख लो |”
दीपा ने पत्र
निकाला और पढ़कर पिताजी को दे दिया | पिता जी पढ़ने लगे |
मनीषा के साधकों
! मानस के भक्तों ! तुलसी ने गाँव-गाँव, नगर-नगर रामराज्य की ज्योति जलाई थी | हम
लोगों ने गाँवों से ही इस ज्योति को जलाने की सोची है | दिन चुना है रविवार
क्योंकि सभी की छुट्टी होगी | समय सायं सात बजे | मैंने जुनीद कौर, भाभी और
महाविद्यालय के वास्तविक गुरुजनों को पत्र लिख दिए हैं | अपने पिता जी को ले आना
और सभी लोगों से सम्पर्क कर लेना, मैं तुमसे गाँव से यात्रा प्रारम्भ करने की बात
करता था | मुझे लगता है अब समय आ गया है | स्टेशन पर कोई आ जायेगा | आप लोगों को
लेने के लिए | शुभकामनाओं सहित- मधुकर |
आज रविवार है |
गाँव वालों में उत्सुकता है | इस कार्यक्रम का आनंद पाने के लिए दीनू और श्याम भी
आज पुरानी चौकड़ी का मज़ा ले रहे हैं |
चबूतरा गोबर से लिपा
पुता तैयार है | सुरेश और मधुकर स्टेशन गये हैं | कादिर चाचा तुलसीदास का चित्र
लिए चले आ रहे हैं | भोला कक्कू दौड़े आ रहे हैं | आज इनकी
रगों में भी तेजी है |
गति कम हुई, कदम
रुके |
“अरे दीनू, शहर
से तो कईऔ लोग आई गये हैं, हियाँ की तैयारी तुम लोग जल्दी करौ | एक दिया जलावेक
जुगाड़ करौ, मधुकर हम ते कहि गये हैं |”
“कक्कू हमरे घर
ते कलशा माँगि लाव”
“तुई तौ स्कूल
माँ पढ़ा है हमरी भाखा काहे बोलत है ?”
“कक्कू वा भाषा
बोलि के का करी जो तुमसे दूर होई जाई | फिर हम अवध प्रान्त मा रहित है, अवधी बोलेम
कोई नुकसान तौ है नाही |”
कुछ बच्चे आकर
दरों पर बैठ गये |
प्रधानाचार्य और
कुछ अध्यापक भी आ गये | श्याम और दीनू ने नमस्कार किया |
“कहो श्याम
मधुकर कहाँ हैं ?”
“वह घर पर
मेहमानों के स्वागत सत्कार में लगा होगा |”
“छः बजने को है,
धुँधलका फैलने लगा | गैस बत्ती का इंतजाम करवा लो | विद्युत् का तो कोई भरोसा नहीं
है | किसी को भेजकर एक हमारे घर से मँगवा लो |”
आसपास कई विद्यार्थी घूम रहे थे,
उन्होंने ही एक को बुलाया और भेज दिया गैस लाने के लिए|
“चलो मधुकर को
बुला लायें |” दीनू ने कहा, “तुम बुला लाओ मैं यहाँ का इंतजाम देख रहा हूँ |” चल दिया
श्याम घर की ओर | बीच में कई लोग मिले, जो जा रहे थे बरगद की ओर | लोग शरबत पी रहे
थे | चने चबा रहे थे | श्याम ने सभी को हाथ जोड़कर अभिवादन किया | मधुकर के भैया
जलपान करा रहे थे | जुनीद चुपचाप बैठा सोच रहा है | पाण्डे जी और अनूप सिंह बातें
कर रहे हैं | मधुकर की भाभी, पत्नी राधा साथ में और दो पवित्रता की प्रतिमूर्ति सी
कौर और दीपा | भैया ने हाथ जोड़कर सभी लोगों से निवेदन किया चलने के लिए |
....................
...................
पौने सात बजने
वाले थे | “मधुकर तुम जाकर रामलाल चाचा को बुला लावो |” आदेश दिया भैया ने मधुकर
को और मधुकर चल दिया |
चलते-चलते यह
कारवाँ बरगद के समीप पहुँच गया और अतिथि लोग चबूतरे पर बिछे बिछावन पर बैठने लगे |
ध्वनि विस्तारक
यंत्र
भोंपूं पहले से
ही बज रहा था | भैया ने सञ्चालन प्रारंभ किया------
“गाँव के
बुजुर्गों ! भाइयों ! माताओं और बहनों ! रामलीला देखने वालों ! रामचरित मानस को
पूजा के भाव से पढ़ने वाले पुजारियों ! मनीषा पर तौलने वाले मनीषियों ! आए हुए
अतिथियों ! सबसे बाद में कहा मैंने क्योंकि वे तो अपने ही हैं, बहुत करीब |
गाँव के प्राण
संपोषक !
प्रतिभा गाँवों
में भी अपना विकास कर सके ऐसे विचार रखने वाले दादा रामलाल जी से निवेदन है कि वे
आज की सभा के मुखिया बनें | अर्थात आज की सभा का सभापतित्व स्वीकार करें |
सभी शाँत होकर
बैठ गये |
स्त्रियाँ और
बच्चे इसलिए आ गये थे क्योंकि वी.सी.आर. पर रामायण दिखाने की व्यवस्था भी थी |
दो महिलायें भी
आ गयीं थीं- यह आकर्षण गाँव की स्त्रियों को खींच लाया था | वृद्ध प्रभावित थे,
कादिर चाचा और रामलाल जी की मित्रता से | कुछ विद्यार्थी थे | मधुकर के परिवार के
अतिरिक्त अन्य कई घरों की महिलाओं ने भी अपना योगदान दिया था इस कार्यक्रम में |
जुनीद चिंतन की
दुनिया में डूबा,
मानस के पृष्ठों
में खोया, उठा धीरे से- एक माला तुलसीदास जी के चित्र पर और दूसरी रामलाल जी को
पहना दी | गाँवों में फूलों की कमी नहीं है क्योंकि माली जरूर देखता है इसलिए अब
भी सुगंध है, गाँवों में, बागों में-
भैया ने एक
पंक्ति कही....
“सुरसरि सम सब
कह हित होई...”
गंगा की धारा है
साहित्य | जो आएगा...अवगाहन करेगा, नहाएगा | उसका कल्मष धुल जाएगा | अब लखनऊ
विश्वविद्यालय से पधारे पांडे जी से निवेदन है कि वे हमें दिशा बोध प्रदान करें |
नई फसल को,
जवानी को रवानी देने वाले स्वरुप जी से निवेदन करता हूँ कि वे दीप जलाकर वटवृक्ष
की छाया में हमें भी शिक्षा दें |
स्वरुप जी ने
दीप प्रज्ज्वलित कर दिया | दीपक जला |
“यूँ ही दीपक से दीपक जलता है | तुलसी
ऐसे दीपक थे | जो आज भी घर-घर में जल रहे हैं | प्रकाशित कर रहे हैं विश्व की
जनसँख्या के अच्छे प्रतिशत को | और तुलसी ने क्या नहीं कहा है?
मैं चाहता हूँ
कि इस तुलसी पर होने वाली सभा के माध्यम से फिर कोई तुलसी पैदा हो जो जन-जन में रम
जाए |”
स्वरुप जी ने
आशीर्वाद दिया और सभा में गति आयी |
भैया ने कादिर
चाचा को आमंत्रित किया |
चले आ रहे थे
सांवले, दुबले, पतले, एक सच्चे किसान, सब्जियों की खेती करने वाले, आधे पैरों तक
बंधी हुई धोती और साधारण सा कुर्ता | आए और कहने लगे “अगर दे सको तो फिर एक तुलसी
दो संसार को, दुनिया को
और यह काम ऊपर
वाले पर छोड़ दो | निष्क्रिय मत बनो | काम करो | नेक काम करो | आज तक तुलसी की
लोकप्रियता कुछ सिद्ध करती है | मानस का अखंड पाठ और लोगों द्वारा पंक्तियाँ
गुनगुनाना सिद्ध करता है | तुलसी बहुत गहरे उतर गये हैं | प्रश्न लगता है एक धोबी
के द्वारा और राम सीता को भेज देते हैं ऋषि आश्रम | शिशुओं का पालन पोषण प्राकृतिक
परिवेश में कुछ कहता है | वरना सीता के लिए जो राम रावण की समस्त शक्तियों का
विनाश कर देते हैं | क्या वह लोकोपवाद से डरते थे ? नहीं वे लोकपालक राजा के
स्वरुप को बचाए रखने के साथ शिशुओं को फिर वनों में छोड़ने की अभिलाषा से भी युक्त
थे | यह कौन कह सकता है | सीता का त्याग अनूठा आदर्श है | और अधिक क्या कहूँ ?”
गाँव वालों के
लिए चाचा बहुत प्यारे थे | आनंदी स्वभाव के चाचा रोज़ पढ़ने वालों में से हैं, सब
जानते हैं |
सभा को और आगे
चलाने के लिए भैया ने सिंह साहब को आमंत्रित किया |
शांत मुद्रा में
आकर सिंह साहब खड़े हो गये और बोलने लगे- “गाँवों में जब तक ज्योति जलाई न जायेगी
तब तक राम राज्य का सपना पूरा नहीं हो सकता है | तुलसी के मानस का राम राज्य
जिसमें किसी को किसी से बैर न हो लेकिन राम राज्य की अपेक्षा सरकार से मत करो |
उन्हें पुरुषोत्तम कहा जाता है अर्थात पुरुषों में उत्तम गुणों से युक्त | लेकिन
राम के प्रशिक्षण हेतु वशिष्ठ और वाल्मीकि की वही दृढ़ता और विश्वामित्र का बल
चाहिए | विश्वामित्र ने राम से कहा था |
जब बल था तब
विवेक नहीं था और जब विवेक है तो बल नहीं | तुम्हारा बल और मेरा अनुभव आसुरी
प्रवृत्तियों का विनाश करे | बस मुझे इतना ही कहना है |”
सभा के मध्य से
एक अधेड़ सा आदमी उठा और चिल्ला उठा जोश से, “बोलो राजा रामचंद्र की जय”
प्रतिध्वनि और
ज़ोरदार हुई |
भैया ने
राजनीतिशास्त्र के प्रवक्ता अनूप जी को आमंत्रित किया | अनूप जी खड़े हो गये और
बोलना शुरू किया, “जन जन में रावण बैठा है इतने राम कहाँ से लाऊँ ? लेकिन हमें
निराश नहीं होना चाहिए ज्योति प्रस्फुटित ही होगी | रामचरितमानस में तुलसी ने उस
समय की स्थिति के बड़े स्पष्ट चित्र दिए हैं जो आज भी खरे उतरते हैं | जैसे की दशरथ
तीन पत्नियाँ होने के कारण द्वन्द् की स्थिति में फँस जाते हैं | राम वन गमन होता
है | सीता और लक्ष्मण को वनवास नहीं हुआ था लेकिन सीता जाती है अर्धांगिनी होने के
कारण और लक्ष्मण सच्चे भाई की तरह पीछे-पीछे | तुलसी ने यह भी लिखा “पंडित वहै जो
गाल बजावा’ आखिर क्यों लिखा ऐसा तुलसी ने ? क्या उस समय के समाज में पोंगापंथी थी??
अथवा तुलसी ने यह क्यों लिखा.....मात पिता बालकहि बुलावै | उदर भरै सोई पाठ पढ़ावै
||”
तुलसी के
जीवनकाल में अकबर का साम्राज्य विस्तार पा रहा था | अकबर की छाया में बीरबल हो
सकते हैं लेकिन तुलसी का जन्म लोकध्वनि है, समाज की रूढ़ियों पर प्रहार है, बस और
अधिक नहीं....
शहर से आए हुए
भाई जुनीद जी आमंत्रित हैं, वे अपनी बातों से हमें प्रेरणा दें...
आ गया जुनीद
माइक पर और बोलना शुरू किया, “मैं सबसे पहले यह कह दूँ ‘कविता करि के तुलसी न लसे/
कविता लसी पा तुलसी की कला |
तुलसी के राम
शबरी के जूठे बेरों में मगन हैं, वे निषाद को सम्मान देते हैं लेकिन आज तुलसी को
जो मजहबी तअस्सुब का चश्मा लगाकर देखते हैं वे लोग कितने बौने हैं | तुलसी सब के
हैं, सब तुलसी के- सीय राममय सब जग जानी | करहूँ प्रनाम जोरि जुग पानी ||
जिसे कण-कण में
सीता राम दिखाई दें उसे सम्प्रदायों की सीमा में नहीं समझा जा सकता है | अयोध्या
में कदम-कदम पर बने मंदिर घोषणा करते हैं कि यह अयोध्या राम की जन्मभूमि है | बाबर
कुछ भी था लेकिन वह मुल्क पर आक्रमण करने वाला था | राम इस देश की आस्था हैं,
विश्वास हैं | बाबर और राम की तुलना कोई विवेकशील नहीं करेगा | इस राष्ट्र की
शक्ति कभी परसत्वाहरण में नहीं लगी | किसी मजहब को आतंकित नहीं किया | यह है हमारे
देश की विरासत....”
वृद्ध रामलाल
तालियाँ बजाने लगे, सारी सभा राम की जयकार कर उठी |
भैया ने क्रम
आगे बढ़ाया | अब दीपा जी अपने विचार व्यक्त करेंगीं | राधा ने मुस्कुराकर दीपा की
ओर देखा और दीपा मुस्कुराकर चल दी माइक की ओर और बोलना शुरू किया...
“मैं उस स्थल की
ओर संकेत करना चाहती हूँ जब राम, सीता और लक्ष्मण श्रृंगवेरपुर से निकलकर वन पथ पर
आगे बढ़ रहे हैं और सीता पूछती है ‘पर्णकुटी करिहौ कित हवै’ (पत्तो वाली कुटिया
कहाँ बनाओगे ?) कितनी दूर और चलना है ? या मार्ग में खड़ी ग्राम वधुएँ सीता से पूछती हैं- तुम्हारे प्रियतम कौन हैं ? सीता समझ
गयीं यह ग्राम वधुयें प्रश्न बड़ा सटीक करतीं हैं | सीता ने नेत्रों के संकेत से
उत्तर दिया | कितना सुन्दर स्थल है :
सुनि सुन्दर बैन
सुधारस साने, सयानी है जानकी जानी भली
तिरछे करि नैन
दै सैन तिन्हैं, समुझाई कछू मुस्काई चली
तुलसी तेहि औसर
सोहैं सबै, अवलोकति लोचन लाहू लली
अनुराग तड़ाग में
भानू उदै, बिगसी मनौ मंजुल कंज कली |
यह मत्तगयंद
सवैया झूम कर गा रही थी दीपा और सुन रहा था जनसमुदाय |
और अधिक क्या
कहूँ, तुलसी जैसे युगबोध को, युगप्राण को नमन, शत शत वंदन | लौट चली दीपा और आकर
बैठ गयी राधा के पास |
भैया ने क्रम
आगे बढ़ाया...
सुखविंदर कौर जी
अब अपने विचार व्यक्त करेंगीं |
धीरे-धीरे चलकर कौर पहुँची माइक के
निकट और बोलना शुरू किया, “तुलसी ने उर्मिला जैसी प्रतीक्षारत नारी, सीता जैसी अर्धांगिनी,
प्राणों की बाज़ी लगाकर सत्य पर मिटने वाले दशरथ के चित्र दिए हैं | तुलसी जैसा कवि
बहुत विरल होता है जो छोड़ देता है अपना सबकुछ लोकहित के लिए | कष्टों में बीता
बचपन तुलसी का | अभावग्रस्त, प्रेमविहीन जीवन में जब रत्ना का प्रवेश हुआ तो तुलसी
आकंठ डूब गये प्रेम की सरस धार में लेकिन रत्ना का एक उद्बोधन बदल देता है तुलसी
का जीवन दर्शन | तुलसी ऐसे कवि हैं जो सिर्फ लिखते न थे अपितु भ्रमण करते हुए
लोगों को समझाया भी करते थे | कहाँ-कहाँ घूमकर लिखा तुलसी ने | परम घुमक्कड़ थे
तुलसी| पूरा उत्तर भारत मथ डाला तुलसी ने | अवध प्रान्त में छा गये तुलसी | तुलसी
रामलीला भी करवाते थे तभी तो आज तक यह लीला लोकरुचि का अंग है | रावण तब तक नहीं
मरेगा जब तक राम वन के कष्टों को नहीं सहेंगें, यही आदर्श है तुलसी का | मेरी
प्यारी बहनों ! तुम सीता और उर्मिला बनो | कैकेयी तुम जागो, भले ही समाज तुम्हें
निन्दित करे लेकिन तुम राम को वन भेजो तभी रावण का वध होगा | बस इतना ही कहूँगी
मैं |”
तालियाँ बजीं और
नारी समूह में जागरूकता आ गयी | कौर आकर राधा के समीप बैठ गयी | अब सभा के सभापति
दादा रामलाल हम सबको आशीर्वाद देंगें |
बोलने लेगे
रामलाल दादा- “गाँव में ऐसी विचार गोष्ठी हो रही है मुझे इसका गर्व है, यह जलती
हुई ज्योति मुझे शांति प्रदान कर रही है | तुलसी बनना कठिन जरूर है लेकिन असम्भव
नहीं | कोई अर्पित तो करे जीवन | तुलसी को गर्व न था | उन्होंने स्वयं को दासी का
भी दास कहा है| आत्मप्रशंसा नहीं है तुलसी में | तुलसी का यह कथन....’जब जब होहि
धरम की हानी | बाढ़हि असुर अधम अभिमानी | तब तब धरि प्रभु विविध शरीरा | हरहि कृपा
निधि सज्जन पीरा |’
याद दिलाना चाहता हूँ आप सबको, आज जो
लोग धर्म का अर्थ नहीं जानते हैं और धर्म के बारे में बहस करते हैं तो मुझे कष्ट होता
है | देश की सर्वोच्च सभा में धर्म को राजनीति से अलग करने की बातें की जा रहीं
हैं | बहसें चल रहीं हैं और समाज नैतिकता से च्युत होता जा रहा है| रावण फल-फूल
रहा है, लगता है राम के अवतरण का समय आ गया है | आज सभा में जितने लोग आए हैं यदि
वे पूर्व वक्ताओं की बातों से प्रेरित होकर कार्य प्रारम्भ करें तो समाज बदलेगा |
मुझे युग परिवर्तन दिखलाई पड़ रहा है | मूर्खता चरम सीमा पर आ गयी है | भोगी हो गया
है समाज | राम-राम रटकर रावण पैदा कर रहा है समाज | आओ इसे जगायें | नौ बजने वाले
हैं अब कुछ अधिक नहीं कहूँगा लेकिन अपने अतिथियों और ग्रामवासियों को मैं हृदय से
साधुवाद देता हूँ किन्तु प्रसन्नता होगी तब जब रावण पर प्रहार प्रारम्भ करेंगें
राम | सीता रुपी अस्मिता रावण के अशोक वन में प्रतीक्षा कर रही है राम की | जागो !
युग के राम ! कृपा निधान !”
अपनी बात को
विराम दिया दादा ने |
भैया ने माइक
सम्भाला- “सभा समाप्त हुई लेकिन दूसरे रूप में एक नए अध्याय का प्रारम्भ हुआ |
मेरा निवेदन है अपने सभी साथियों से...... तुलसी की तरह मानस दे डालो, जन मानस कब
तक पीर सहेगा?” धन्यवाद !
-
विनोद
कुमार
उपाध्यक्ष- निराला साहित्य परिषद्
कटरा बाज़ार, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर
(उ.प्र.)
मो. 09450803518
मो. 09450803518
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