फदकता शरीर
कृशकाय जिस्म
अतृप्त जिजीविषा
लुढ़कता लुढ़कता
चलता जाता
हाथ फैलाता
माँगता कुछ खाने को
दुत्कार मिलती उसे
भगा दिया जाता
वह चुप रहता
इतने कष्टोँ मेँ जीता
बू आती उससे सभी को
बड़ा खराब लगता
उसका आना
मैँ सोचता
पता नहीँ
वह जोँक की तरह
जिन्दगी से चिपका
या जिन्दगी उससे!
(अमरकांत की कहानी 'जिँदगी और जोँक' पढ़कर)
जिन्दगी जीने की तमन्ना में भूल जाता है कई बार आदमी अपनी इज्ज़त आबरू .. सपने स्वभिमान . बस जीने की ललक ही शेष रहती है हार कीमत पर .. मिटने तलक ..सार्थक रचना .. बधाई
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