यूरोप में 15वीं सदी के इतालियन रैनेसां की चरम परिणिति 18वीं सदी के ज्ञान-प्रसार आंदोलन के रूप में हुई, जिस दौर में बुद्धिवाद चिंतन के केंद्र में आ गया तथा सभी परंपरागत संस्थानों को चुनौतियाँ दी गयी l इसी काल में अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रांतियाँ हुई l स्त्री-मुक्ति आंदोलन की शुरुआत अमेरिका में हुई उसके बाद १८५९ में पीटर्सबर्ग में अगला आंदोलन हुआ l १९०८ में ‘विमेंस फ्रीडम लीग’ की स्थापना ब्रिटेन में हुई l जापान में इस आंदोलन की शुरुआत १९११ में हुई, १९३६ में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मैडम क्यूरी सहित तीन महिलाएँ फ्रांस में पहली बार मंत्री बनी l इस प्रकार विश्व के अनेक देशों में इस आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन १९५१ में संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने जब भारी बहुमत से स्त्रियों की राजनितिक अधिकारों का नियम पारित किया, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्त्री-मुक्ति की आंदोलन का प्रारम्भ तभी से माना जाता हैl
संगठित स्त्री-आंदोलन की शुरुआत
फ्रांसीसी क्रांति के दौरान ही हुई थी जब स्त्रियाँ समस्त राजनितिक जन-कारवाइयों में
खुलकर हिस्सा ले रही थी l उसी समय स्त्री-अधिकारों के लिए संघर्ष को समर्पित पहली
पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था और ‘विमेंस रिवोल्यूशनरी क्लब’ का भी गठन हुआ था
जो संभवतः आधुनिक विश्व इतिहास के प्रथम स्त्री-संगठन थे l इन संगठनों ने
क्रन्तिकारी संघर्षों में भाग लेते हुए यह माँग की कि स्वतंत्रता,समानता को किसी
प्रकार के लिंगभेद के बिना लागू किया जाना चाहिए l
हालांकि फ्रांसीसी क्रांति के नेतृत्व ने स्त्री-पुरुष समानता और स्त्रियों के
सामान अधिकारों के विचार को अस्वीकार कर दिया,लेकिन इस युगान्तरकारी क्रांति ने
सामंती संबंधो पर चोट करने के साथ ही
स्त्रियों की कानूनी स्थिति में कई महत्वपूर्ण बदलाव किये l १७९१ के एक कानून
द्वारा स्त्री-शिक्षा का प्रावधान,१७९२ की एक आज्ञप्ति द्वारा स्त्रियों को कई
नागरिक अधिकार प्रदान करना तथा १७९४ में कन्वेंशन द्वारा पारित एक कानून द्वारा
तलाक की प्रक्रिया को आसान बना देना ऐसे कुछ प्रमुख कदम थे l लेकिन थर्मिडोरियन
प्रतिक्रिया के दौरान स्त्री-आंदोलन की ये उपलब्धियाँ एक बार फिर छीन गयी l १८०४
के नेपोलियनिक कोड और अन्य यूरोपीय देशों की ऐसी ही बुजुर्रआ नागरिक संहिताओं ने
एक बार फिर स्त्रियों के नागरिक अधिकारों को अति सिमित कर दिया तथा
परिवार,शादी,तलाक,अभिभावकत्व और संपत्ति के अधिकारों के मामलों में उन्हें एक बार
फिर वैधिक तौर पर पूरी तरह पुरूषों के अधीन कर दियाl
इसी काल में मेरी वालस्टानक्राफ्ट (mary Wollstonecraft) की प्रसिद्ध
पुस्तक “विंडीकेशन आफ टी राइट्स आफ वीमेन”,1792 (vindication of the Rights of
Women) प्रकाशित हुई,जिसे आधुनिक काल में नारीवाद विचारों की सबसे पहली महत्वपूर्ण
पुस्तक के रूप में स्वीकारा जाता है l उस दौर में और भी कई लेखकों ने यूरोप में
स्त्रियों के अधिकारों के बारे में छोटी-बड़ी पुस्तकें लिखी l मेरी वालस्टानक्राफ्ट
ने मूलतः स्त्रियों के बारे में रूसो के विचारों पर कड़ा प्रहार करते हुए यूरोप का
ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था l वे समाजवादी नहीं थी,क्योंकि उन्होंने आर्थिक
व्यवस्था पर चर्चा नहीं की थी,लेकिन उनके लेखन में इस बात पर लगातार बल दिया गया
था की किसी भी अच्छी समाज व्यवस्था का समाज में भारी असमानता के साथ कोई मेल नहीं
हो सकता l
उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक तीन
दशकों के दौरान यूरोप में सक्रिय स्त्री स्वच्छंदतावादी (रोमांटिक) लेखिकाओं के
लेखन को यदि देखा जाए तो उनमें उस समय के स्त्री-आंदोलन का प्रगतिशील पहलू और उसकी
सीमाएँ-दोनों ही स्पष्ट नज़र आती है l
अन्ना सीवार्ड,हेलेन मारिया विलियम्स,मेरी हेज़
अन्ना,जोअन्ना बेली,हन्ना मोर,फेनी बर्नी,जेन टेलर,डोरोथी वर्ड्सवर्थ,मेरी
लैम्ब,मेरी शेली आदि चर्चित
स्त्री- स्वच्छंदतावादी लेखिकायें स्त्री-शिक्षा,स्त्रियों की पारिवारिक-सामाजिक
स्थिति आदि प्रश्नों को उठाती हुई एक ओर जहाँ मेरी वालस्टानक्राफ्ट की परंपरा को
विस्तार दी रहीं थी,वहीँ दूसरी ओर उनकी लेखन में स्त्री-समुदाय की
मुक्ति-आकांक्षाओं का प्रमुख स्वर है l वे स्त्री-अस्मिता के प्रश्नों को अपने
लेखन के माध्यम से उठा रही थी l
18वीं सदी के अंतिम दिनों तथा 19वीं सदी में मेरी वालस्टानक्राफ्ट,काल्पनिक
समाजवादियों,विलियम थाम्पसन,जेम्स मिल से लेकर सेनेकाफाल कन्वेंशन तथा जॉन
स्टूअर्ट मिल तक के प्रारंभिक नारीवादियों ने स्त्रियों के जनतांत्रिक अधिकारों की
माँग उठायी थी,19वीं सदी के अंत तक उनमें से अधिकांश मांगों को ब्रिटेन तथा
अमेरिका में कानूनी तौर पर मान लिया गया था l स्त्रियों में शिक्षा का विस्तार
हुआ,तथा वे ऑफिस एवं अदालतों में काम करने लगी l 19वीं सदी के अंत तक विभिन्न
विषयों पर कानून पारित किये गए जिनमें मुख्यतः स्त्रियों से जुडी समस्याओं को
उठाया गया l लेकिन 19वीं के अंत तक स्थिति यह बन गयी थी कि स्त्रियाँ अब राजनीतिक
बहसों से बाहर नहीं रह गयी थी l घरों के बाहर,विभिन्न प्रकार के संगठनों में
स्त्रियाँ हिस्सा लेने लगी थी l ऐसे परिवेश में मतदान का वह अधिकार जिसे एक भारी
क्रन्तिकारी माँग के रूप में पेश किया गया था,अब जनतांत्रिक अन्दोलन की एक बहुत ही
स्वाभाविक माँग के रूप में सामने आ गया l
19वीं सदी तक आते-आते स्त्रियों के
लिए समान अधिकार की माँग एक प्रमुख राजनितिक प्रश्न की शक्ल लेने लगी l
शिक्षा,कानून,राजनीति आदि तमाम क्षेत्रों में एक आंदोलन सा शुरू हो गया तथा
स्त्रियों के लिए मतदान के अधिकार की माँग ने एक जन-अभियान का रूप ले लिया l इस
दौर के प्रमुख स्त्रीवादी विचारकों में मुख्य रूप से इंग्लैंड के जॉन स्टूअर्ट मिल
तथा उनकी पत्नी हेरीएट टेलर तथा अमेरिका की एलिजाबेथ केडी का नाम उल्लेखनीय
है,जिनके लेखन में इस पूरे दौर के स्त्रीवादी सोच की सभी प्रमुख बातें निहित है l
एलिजाबेथ केडी सिर्फ लेखिका ही नहीं बल्कि अमेरिका में हो रहे स्त्री-आंदोलन की एक
सक्रिय कार्यकर्ता भी रह चुकी हैं l 19वीं सदी के अंत तक आते-आते,यूरोप में
स्त्री-केन्द्रित चिंतन और सामाजिक आंदोलनों ने एक ऐसी शक्ल अख्तियार कर ली
थी,जिसमें से स्त्री-मुक्ति के परवर्ती सभी प्रकार के सोच के श्रोत को पाया जा
सकता है l
20वीं सदी के प्रारंभ में ब्रिटेन और अमेरिका के
स्त्री-आंदोलन के लिए मतदान का अधिकार एक प्रमुख माँग बन गया था l इस दौरान स्त्री
और पुरुष दोनों को मतदान का अधिकार नहीं था,ज़ाहिर सी बात है की स्त्रियों को मतदा
का अधिकार का प्रश्न सार्थक मताधिकार की माँग के साथ अभिन्न रूप से जुड़ जाता l
स्त्रीवाद के नये आयाम :
क्रिस्टाबेल पैंकहर्स्ट
ब्रिटेन की स्त्रीवादी नेता, क्रिस्टाबेल पैंकहर्स्ट ( Christabel
Pankhurst ) को स्त्रीवाद की आधुनिक सेक्स-केन्द्रित धारा का एक मूल श्रोत कहा
जाता है l इन्होंने समाज के प्रगतिशील तबको के बीच पाये जानेवाले
‘पुरुष-श्रेष्ठता’ के तत्वों को देखा था और इसी के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर
पहुंची थी कि,सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में सबसे मूल बाधा,पुरूषों द्वारा
स्त्रियों को गुलाम बनाया जाना है l क्रिस्टाबेल पैंकहर्स्ट ने भी स्त्रियों के
गुलामी के लिए पुरूषों पर उनकी आर्थिक निर्भरता को ज़िम्मेदार बताया l इनका अलग से
एक महिला पार्टी था, इन्होंने यह नारा लगाया की स्त्रियों को भी मतदान का अधिकार
मिले तथा पुरूषों को सतीत्व का पालन करना चाहिए l
सिमोन द बोउवार
आधुनिक स्त्री-आंदोलन में सिमोन द बोउवार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है l उनकी
पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ जिसका हिंदी अनुवाद ‘स्त्री-उपेक्षिता’ शीर्षक से प्रकाशित
हुआ है l उन्होंने अपने अध्ययन में यही दिखाया है की स्त्री पैदा नहीं
होती,बल्कि बनायी जाती है l इस पुस्तक में अस्तित्ववादी विचारों का बहुत गहरा
प्रभाव पड़ा है l सिमोन ने आधुनिक स्त्रीवादी विचारधारा की आधारशिला रखी जिसमें
स्त्री-मुक्ति के अनिवार्य शर्त के रूप में स्त्री को अपने स्त्रीत्व से मुक्त
होना बताया गया l
बेट्टी फ्रीडेन
60 के दशक में एक विस्फोट की तरह पश्चिम में जिस नए स्त्रीवाद का जन्म लिया,
उनमें बेट्टी फ्रीडेन का महत्वपूर्ण स्थान है l उनकी पुस्तक “The Feminine
Mystique”,१९६३ में प्रकाशित हुई जिसमें उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकी
समाज में स्त्रियों की स्थिति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया है l उनका कहना है की इस
युद्ध के बाद अमेरिका में स्त्रियों को यह यकीन दिलाया जा रहा था की उनका जीवन घर
के चारदीवारों में ही सुखी है l फ्रीडेन में परंपरागत नैतिकता का गहरा बोध था
,उन्होंने अपने पुस्तक के ज़रिये अमेरिकी स्त्रियों के खिलाफ बुने जा रहें रहस्यों
को तोड़ा तथा उन्होंने अमेरिकी स्त्रियों को चारदीवारी से स्वतंत्र करने का प्रयास
किया l
अमेरिका तथा यूरोप के सभी देशों में स्त्रीवादी आंदोलन के एक नए दौर का
प्रारंभ हुआ जिसे स्त्रीवाद के इतिहास में दूसरी लहर के रूप में जाना जाता है l
दूसरी लहर की देन लिसे वोगेल को दिया जाता है , लिसे स्त्रीवादी नेता तथा
सिद्धांतकार है l वोगेल लिखती हैं कि –
“आमतौर पर यह नारी-मुक्ति आंदोलन ‘काली या मजदूर
वर्ग की महिलाओं को अपने संगठन की ओर बहुत अधिक आकर्षित नहीं कर सका था,लेकिन
नारी-मुक्ति आंदोलन के प्रयास इस ओर जारी थे तथा वे इन महिलाओं को शामिल करना सबसे
ज़रूरी समझते थे l पीटी गयी महिलाओं के शरण-स्थल,निकट सम्बन्धियों द्वारा शारीरिक
हमलों से बचाव की होटलाइन,बलात्कार सम्बन्धी मामलों के केंद्र,महिलाओं के
स्वास्थ्य केंद्र,काम के स्थलों पर विभिन्न प्रकार के अभियानों आदि से स्थानीय
इलाकों की कुछ गरीब और मजदूर वर्ग की महिलाओं को भी लाभ मिला l कई जगहों पर
नारी-मुक्ति के समूहों में सिर्फ मजदूर वर्ग की महिलाएँ ही थी l काली विद्रोही
महिलाओं की एक छोटी,किन्तु महत्वपूर्ण संख्या ऐसी थी जो नस्ल और वर्ग के आधार पर
गुलामी की सच्चाई से इंकार न करते हुए भी अपने को नारीवादी कहती थी l”[1]
इस प्रकार वोगेल ने नए विद्रोहों तेवर के साथ स्त्रीवाद की विभिन्न धाराओं का
बहुत ही सजीव चित्र पेश करने का प्रयास किया है l
निष्कर्ष रूप
में कहा जा सकता है की साहित्यिक क्षेत्र में स्त्री-लेखन की एक सशक्त भूमिका रही
है l स्वतंत्रता के पूर्व की लेखिकाओं ने व्यक्ति स्वातंत्र्य का समर्थन करते हुए
सामाजिकता को महत्व दिया और स्वातंत्र्योत्तर लेखिकाओं के रचनाओं में
मनोविश्लेषण,व्यक्तिवाद आदि को महत्व दिया l समय के साथ इस जीवन में स्त्री को
हमेशा शोषित होआ पड़ा है,कष्टों को झेलना पड़ा है l इस शोषित और पीड़ित स्त्री के
जीवन यथार्थ को वाणी देने का प्रयास स्त्री-लेखन ने किया हैं l इन लेखिकाओं ने
स्त्री-सम्बन्धी समस्याओं को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया तथा विश्लेषित भी किया
है l
स्त्री-लेखन अपनी तमाम खूबियों और
खामियों के बावजूद आधी दुनिया को अपनी रचनाओं में बड़ी खूबसूरती के साथ उपस्थित
किया है l लेखिकाओं ने महज स्त्री-जीवन पर ही नहीं लिखा है,बल्कि जीवन की तमाम
संवेदनाओं पहलुओं को अभूतपूर्व ढंग से कई मायनों में पुरुष रचनाकारों से ज्यादा
कामयाबी हासिल की हैं l स्त्री-लेखन की शुरुआत ऋग्वेद से पूर्व हो चुकी थी,लेकिन
उन्हें दर्शाया नहीँ गया l सन १९६० के बाद ही स्त्री-लेखन सक्रिय रूप में उभरा है
l बदलते सन्दर्भ,अर्थतंत्र का दबाव,शिक्षा-प्रसार,स्त्री-जगत में अस्मिता का
साक्षात्कार,विज्ञान एवं तकनीकी का आविष्कार आदि विभिन्न कारणों से पुराने मूल्यों
का विघटन होकर वहाँ नए मूल्य विकसित हो रहे हैं l परिवर्तित मूल्यों ने जहाँ एक ओर
वैवाहिक मान्यताओं में बदलाव उपस्थित किया है,वहीँ दूसरी ओर दाम्पत्य जीवन में
अनेकानेक समस्याओं को प्रस्तुत किया हैं l संबंधों के इस बदलाव ने व्यक्ति को
आत्मकेंद्रित बना दिया है पारिवारिक एवं दाम्पत्य जीवन में एक बिखराव तथा टूटन की
स्थितियाँ उत्पन्न हो गयी है l स्त्री के अवलोकन बिंदु से स्त्री-जीवन की विविध
समस्याओं को साहित्य में लेखिकाओं ने अंकित किया है l
स्त्री के समक्ष जीवन का सारा ताना-बाना सामाजिक और धार्मिक बन्धनों का है,अत:
बहुत स्वाभाविक है की इस स्त्री का रचना संसार ‘मैं’ की भावात्मकता से बहुत दूर
नहीं निकल पाया है l स्त्री का ‘मैं’ प्रेम के विस्तार,आस-पास की घटनाएँ,घर-परिवार
से जुडी समस्यायें ही बहुधा इनका लेखन क्षेत्र है l वैदिक काल के बाद बौद्धिक काल
,फिर एक लम्बी चुप्पी के बाद औद्योगिक काल में नारी-अधिकार और नारी-स्वातन्त्र्य
को लेकर स्त्रियाँ मुखे हुई हैं l
आज के स्त्री-रचनाकारों में कहानी,उपन्यास तथा कविता- ये तीन विधायें प्रमुख: स्वीकृत हैं l भारतीय सन्दर्भ में यदि देखा जाए तो स्त्री-लेखन की शुरुआत थेरीगाथा से शुरू हुई है और आज के आधुनिक काल तक आते-आते स्त्रियों ने अपनी चुप्पी तोड़ी है और रचना-संसार में अपना वर्चस्व बनायें रखा हैं , चाहे वह कहानी-संग्रह हो या उपन्यास लेखन या और कोई भी रचना-विधा हो l उन्होंने स्त्रियों की समस्याओं का मुद्दा लेकर अपने रचना के माध्यम से उन्हें विस्तृत रूप से चित्रण करने का प्रयास किया हैं l आज भी स्त्री-रचनाकारों को चुनौती का सामना करना पड़ता हैं l कठिनाईयों का सामना करते-करते उन्होंने हर क्षेत्र में सफलता पायी हैंl
सन्दर्भ ग्रन्थ सूचि:
1. नारी प्रश्न – डॉ.सरला माहेश्वरी
2. लमही,पत्रिका – सं.डॉ.विजय राय
3. स्त्री-लेखन:स्वप्न और संकल्प – डॉ.रोहिणी अग्रवाल
[1] नारी-प्रश्न , सरला माहेश्वरी – पृष्ठ सं – ४०
प्रस्तुतकर्ता: राज्य लक्ष्मी (ph.d)
हैदराबाद विश्वविद्यालय, ph. 9866041833,
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