संसार
में
सामान्य
स्त्री-पुरुष
के
अतिरिक्त
कुछ
ऐसे
प्राणी
भी
हैं
जो
सामान्य
तौर
पर
न पूरी
तरह
से
पुरुष
होते
हैं
और
न ही
पूरी
तरह
से
स्त्री।
सामान्यतया
सामाजिक
रूप
से
इन्हें
हम
तृतीयलिंगी
के
नाम
से
सम्बोधित
करते
हैं।
इनके
लिए
किन्नर,
हिजड़ा
आदि
शब्द
भी
प्रयुक्त
किए
जाते
हैं। समाज,धर्म-अध्यात्म,
विज्ञान
तृतीयलिंगी
या
किन्नर
को
अपने-अपने
तरीकों
से
व्याख्यायित
करता
है।
साहित्य
में
भी
किन्नरों
पर
अब
पर्याप्त
रूप
से
अध्ययन-चिंतन
किया
जा
रहा
है।
अनेक
पुस्तकें
ऐसी
प्रकाशित
हुई
हैं
जिनमें
किन्नरों
के
ऐतिहासिक
सामाजिक
परिप्रेक्ष्य
पर
दृष्टि
डाली
गई
है।
किन्नरों
से
सम्बंधित
मिथ
एवं
यथार्थ
को
भी
सामने
लाया
गया
है।
परंतु
ऐसे
कार्य
बहुतायत
में
अंग्रेज़ी
तथा
अन्य
भाषाओं
में
आसानी
से
उपलब्ध
हैं।
हिंदी
में
अभी
ऐसी
पुस्तकों
की
कमी
है।
वाणी
प्रकाशन,
नयी
दिल्ली
से
प्रकाशित
प्रियंका
नारायण
की
पुस्तक
‘किन्नर:
सेक्स
और
सामाजिक
स्वीकार्यता’
इसी
प्रकार
के
अनुशीलन
का
प्रयास
है
जो
किन्नरों
के
विभिन्न
मुद्दों
पर
प्रकाश
डालती
है।
अपनी
प्रकृति
में
प्रस्तुत
पुस्तक
अनूठी
है
जिसमें
किन्नरों
पर
विभिन्न
दृष्टिकोणों
से
अध्ययन
प्रस्तुत
किया
गया
है।
पुस्तक
की
भूमिका
में
वरिष्ठ
साहित्यकार
तेजेन्द्र
शर्मा
बहुत
महत्त्वपूर्ण
बात
कहते
हैं,“भारत
में
किन्नरों
का
भी
एक
‘गोल्डन
एरा’
यानी
कि
स्वर्णकाल
था।
दरअसल
किन्नरों
को
मुग़ल
साम्राज्य
में
सबसे
पहले
अहमियत
दी
गई
थी।
किन्नरों
को
महिलाओं
के
हरम
की
रक्षा
की
ज़िम्मेदारी
दी
जाती
थी।
मुगल
साम्राज्य
का
मानना
था
कि
किन्नर
हमारे
समाज
का
एक
अहम
हिस्सा
हैं
और
इसीलिए
उन्हें
इतनी
बड़ी
जिम्मेदारी
सौंपी
गई।”1
पुस्तक
का
प्रथम
अध्याय
‘लैंगिक
अवधारणा’
है।
किन्नरों
की
लैंगिक
अवधारणा
को
स्पष्ट
करने
से
पहले
प्रियंका
नारायण
सामान्य
पुरुष
और
स्त्री
की
लैंगिक
अवधारणाओं
को
विस्तार
से
समझाती
हैं।
हमारे
शास्त्रों
में
कहा
गया
है
‘यत्पिंडे
तथाब्रह्मांडे’
अर्थात्
जो
हमारे
शरीर
(पिण्ड)
में
है,
वही
इस
ब्रह्मांड
में
विस्तार
रूप
में
अवस्थित
है
अर्थात्
हमारा
यह
शरीर
भी
सम्पूर्ण
ब्रह्मांड
का
ही
सूक्ष्म
रूप
में
‘रिप्रेजेंटेशन’
है।पंचमहाभूतों
के
सभी
गुण
मनुष्य
में
भी
उपस्थित
हैं।
उल्लेखनीय
है
कि
पाश्चात्य
चिन्तन
परम्परा
में
ब्रह्मांड
की
उत्पत्ति
का
कारण
‘बिग-बैंग
सिद्धान्त’
को
माना
जाता
है।
लेखिका
के
शब्दों
में,“भारतीय
तत्त्वचिन्तन
उस
एकल
स्वरूप
को
ब्रह्म
की
संज्ञा
देता
है
और
कहता
है
कि
यह
ब्रह्म
जब
अपनी
ही
माया
से
मोहित
हुआ
तो
स्वयं
में
उत्पन्न
इस
विकार
से
प्रकृति
को
उत्पन्न
किया
जिसने
गर्भ
में
अपने
अंश
के
रोपन
के
पश्चात्
विभिन्न
तत्त्वों
की
सृष्टि
की।
यहाँ
यह
ध्यातव्य
है
कि
प्रकृति
स्त्रीरूपा
होते
हुए
भी
लैंगिक
स्त्री
नहीं
थी।
यह
उसी
ब्रह्म
की
विवर्त
थी
और
ब्रह्म
को
भी
लिंग
की
सीमा
से
परे
रखा
गया
है।”2 इस
अध्याय
में
प्रजनन
प्रक्रिया
का
विवेचन
जीववैज्ञानिक
आधारों
पर
प्रस्तुत
किया
गया
है।
मानव
समाज
का
विकास
जंगल
युग,
बर्बर
युग
और
सभ्यता
युग
के
क्रम
में
माना
जाता
है।
मानव
अपनी
बुद्धि
और
योग्यता
के
बल
पर
पशुओं
के
रहन-सहन
से
अलग
होता
गया
और
अपने
जीवन
स्तर
में
अपेक्षित
सुधार
करता
गया।
भोजन
और
सुरक्षा
की
मूलभूत
आवश्यकताओं
को
जब
मानव
पूरा
करता
गया
तो
उसे
कला
और
सौन्दर्य
की
आवश्यकता
भी
अपने
जीवन
में
महसूस
हुई।
समाज
के
विकास
के
साथ-साथ
मानव
ने
पशुपालन
और
कृषि
भी
करना
सीखा।
उल्लेखनीय
है
कि
ये
दोनों
ही
कार्य
‘एक्सटेंसिव’
यानी
कि
पर्याप्त
शारीरिक
श्रम
की
माँग
करते
हैं।
स्त्रियों
की
शारीरिक
संरचना
की
तुलना
में
पुरुष
की
शारीरिक
संरचना
अधिक
मजबूत
और
सक्षम
होती
है।
अतः
शक्ति
को
धारण
करने
वाले
पुरुष
का
वर्चस्व
धीरे-धीरे
अन्य
बातों
के
साथ-साथ
समाज
पर
भी
हावी
होने
लगा।
स्त्री-पुरुष
की
विलासिता
संतानोत्पत्ति
और
शारीरिक
संतुष्टि
का
साधन
बन
गईं।
पुरुष
और
स्त्री
के
साथ
प्रियंका
यहाँ
किन्नरों
की
स्थिति
भी
स्पष्ट
करती
हैं,“प्रजनन
और
अस्तित्व
विस्तार
के
इस
दृढ़
मानसिक-बौद्धिक
वातावरण
में
स्त्रियाँ
तो
हथियार
बनीं,
किन्नर
वो
भी
नहीं
बन
पाए।
जो
भी
है
इसी
जीवन
के
लिए
है
‘न
आगे
नाथ
न पीछे
पगहा’
वाली
स्थिति
के
कारण
उनके
अन्दर
अस्तित्व
विस्तार
की
लिप्सा
समाप्त
हो
गई
होगी।
जहाँ
अपना
कुछ
न हो,
वहाँ
से
विरक्ति
हो
ही
जाती
है।
किन्नरों
ने
पाया
कि
मैं
अर्जन
कर
के
क्या
करूँगा।
मेरे
बाद
इस
संपत्ति
सुख
को
कौन
भोगेगा।
किन्नरों
ने
अपने
अस्तित्व
की
लघुता
और
जीवन
की
निस्सारता
को
अच्छी
तरह
समझा।
शायद
यही
कारण
हो
सकता
है
कि
उन्होंने
सामाजिक
ताने-बाने
में
उलझना
मुनासिब
नहीं
समझा
हो
और
अपना
एक
अलग
संसार
निर्मित
कर
लिया
हो।
शुरुआती
दौर
में
तो
यह
वैकल्पिक
होता
होगा
परन्तु
आगे
चलकर
यह
भी
एक
रूढ़ि
बन
गई
होगी
और
ये
अपनी
लैंगिक
असमानता
के
उभरने
के
बाद
समाज
छोड़कर
चले
जाते
होंगे
या
इन्हें
बलात्
भेज
दिया
जाता
होगा।
समाज
ने
इसे
भी
एक
नियम
बना
लिया
होगा
जो
आज
भी
परम्परा
के
नाम
से
चल
रहा
है।”3 यह
एक
सच
ही
है
कि
हमारे
धर्मग्रंथों
में
किन्नरों
को
संतानोत्पत्ति,
सामाजिक
रहन-सहन
और
सम्पत्ति;
इन
सभी
प्रकार
के
अधिकारों
से
वंचित
ही
रखा
गया
है।
किन्नर
मनुष्य
द्वारा
स्वेच्छा
से
किया
गया
समाज
और
सम्पत्ति
का
त्याग
धीरे-धीरे
रूढ़िबद्धता
के
रूप
में
सामने
आया
और
आज
भी
स्थिति
यह
है
कि
स्वयं
सभ्य
समाज
ने
किन्नरों
को
उनकी
सामाजिक
स्वीकार्यता
से
पदच्युत
कर
दिया।
परिवार
समाज
की
सबसे
छोटी
इकाई
है।
जिसमें
व्यक्तियों
के
पारस्परिक
सम्बंध
और
दायित्व
निर्धारित
होते
हैं।
ध्यान
से
देखा
जाए
तो
मानव
के
सामाजिक
जीवन
का
आरम्भ
उसके
परिवार
से
ही
हो
होता
है।
मानव
की
प्रवृत्ति
होती
है
कि
वह
आत्म
अनुरक्षण
के
साथ-साथ
अपनी
जाति-प्रजाति
का
अनुरक्षण
भी
करता
है।
यह
प्रजाति
अनुरक्षण
ही
संतानोत्पत्ति
का
मूल
आधार
है।
उल्लेखनीय
है
कि
यह
प्रवृत्ति
मनुष्य
के
साथ-साथ
धरती
के
प्रत्येक
जीवधारी
में
विभिन्न
रूपों
में
पाई
जाती
है।
सामान्य
तौर
पर
पुरुष
और
स्त्री
तो
इस
कार्य
के
लिए
उपयुक्त
होते
हैं
परन्तु
किन्नर
यह
कार्य
नहीं
कर
सकते।
इसीलिए
समाज
में
स्त्री
और
पुरुष
का
महत्त्व
अनेक
दृष्टियों
से
अक्षुण्ण,
उपयोगी
और
फलदायी
रहा
परन्तु
किन्नरों
को
यह
स्थान
नहीं
प्राप्त
हो
पाया।
प्रियंका
लिखती
हैं,“शारीरिक
और
मानसिक
रूप
से
स्त्रियों
पर
आधिपत्य
न जमा
पाने
के
कारण
हिजड़ा
यानी
तीसरा
लिंग
अपने
पितृव्यों
की
गौरवानुभूति
का
विषय
न बन
पाने
के
कारण
भी
उपेक्षित-बहिष्कृत
हुए
होंगे।
समाज
में
पुरस्कृत
पौरुष
प्रकृति
के
धारक
नहीं
होने
के
कारण
तीसरे
लिंग
ने
अपनी
उपयोगिता
खोयी
और
परिवार
की
विरासत
(पैतृक
सम्पत्ति)
से
बहिष्कृत
हुए।”4 जीव
वैज्ञानिक
मानव
शरीर
को
आंतरिक
व बाह्य
रूप
से
जीव
विज्ञान
के
जटिल
सिद्धान्तों
की
कसौटी
पर
देखते
हैं।
अध्याय
दो
‘किन्नर:
एक
जीववैज्ञानिक
अध्ययन’
इन्हीं
आधारों
पर
किन्नरों
का
जैविक
विश्लेषण
प्रस्तुत
करता
है।
उल्लेखनीय
है
कि
प्राणीशास्त्री
किसी
भी
जीवधारी
के
पुरुष
या
स्त्री
होने
का
कारण
सम्बंधित
हार्मोन
को
मानते
हैं।
हार्मोनल
असंतुलन
के
कारण
अनेक
प्रकार
के
लैंगिक
और
मानसिक
विकार
उत्पन्न
हो
जाते
हैं
जिससे
शरीर
में
विभिन्न
प्रकार
के
परिवर्तन
आकर
अपना
स्थान
ग्रहण
करते
हैं।
प्रियंका
इन
विकारों
को
जेंडर
आईडेंटिटी,
जेंडर
बिहेवियर
और
सेक्सुअल
ओरियंटेशन
के
परिप्रेक्ष्य
में
विस्तार
से
अभिलेखित
करती
हैं।
पारलैंगिक
(ट्रांससेक्सुअल)
और
किन्नर
पर
भी
यहाँ
विस्तार
से
प्रकाश
डाला
गया
है।
प्रियंका
के
शब्दों
में,“भिन्न
लिंगों
में
विभक्त
शरीर
का
अपने
शरीर
के
अनुसार
न अभिव्यक्त
होना
दो
प्रकार
का
होता
है।
एक
तो
यह
कि
शरीर
की
सभी
बातें
सामान्य
होने
के
बावजूद
केवल
मनोभावों
में
विरोधाभास
पाया
जाता
है
और
दूसरा,
शरीर
का
लैंगिक
रूप
से
अविकसित
और
विकृति
के
साथ
विकसित
होना।
पहली
स्थिति
को
हम
पारलैंगिक
(ट्रांससेक्सुअल)
कहते
हैं
और
दूसरी
स्थिति
को
किन्नर।”5
पुराण
भारतीय
संस्कृति
के
सनातन
आख्यान
हैं।
पुराणों
में
मानव
इतिहास
की
अनेक
कथाएँ
प्राप्त
होती
हैं।ये
कथाएँ
उपकथाओं
और
अवांतर
कथाओं
में
भी
विभाजित
हैं।
पुराणों
में
सृष्टि
की
उत्पत्ति
का
वर्णन
बहुत
विस्तार
से
प्राप्त
होता
है।
लगभग
प्रत्येक
पुराण
में
सृष्टि
की
उत्पत्ति,
इसका
विस्तार,
इसके
भूखंड,
कालगणना
आदि
का
वृहद्
विवेचन
वृत्तांत
रूप
में
प्राप्त
होता
है।
उल्लेखनीय
है
कि
ये
जानकारियाँ
आज
विज्ञान
की
कसौटी
पर
भी
खरी
उतरती
हैं।
पुराणों
में
स्त्री-पुरुष
के
वर्णन
के
साथ
ही
किन्नरों
के
वर्णन
भी
प्राप्त
होते
हैं।
यहाँ
इन्हें
‘किंपुरुष’
कहा
गया
है।
पुराणों
में
इनसे
सम्बंधित
जो
कथाएँ
मिलती
हैं,
वे
थोड़े
से
हेरफेर
के
साथ
अन्य
पुराणों
में
भी
मिलती
हैं।
सुद्युम्न,
इला,
मोहिनी,
वृहन्नला,
शिखंडी
जैसे
अनेक
चरित्र
पुराणों
में
इस
विमर्श
से
सम्बंधित
मिलते
हैं।
लेखिका
ने
पुराणों
के
क्रम
पर
दृष्टिपात
करते
हुए
इनमें
आई
हुई
किन्नर
विमर्श
से
सम्बंधित
कथाओं
को
विश्लेषण
के
साथ
दर्शाया
है।
यहाँ
यह
तथ्य
मुख्य
रूप
से
उल्लेखनीय
है
कि
परम्परागत
रूप
से
अर्धनारीश्वर
की
अवधारणा
किन्नर
समाज
से
ही
जुड़ती
रही
है।
प्रियंका
इन
सभी
कथाओं
के
आलोक
में
कोशिकीय
विकास
के
मिथकीय
रूपांतरण
भी
रेखांकित
करती
हैं।
पुराणों
के
विभिन्न
चरित्रों
में
यह
स्पष्टतया
दर्शनीय
है।
बकौल
प्रियंका,
“ध्यान
देने
योग्य
एक
दूसरा
तथ्य
यह
भी
है
कि
अभी
तक
सुद्युम्न
या
इला
का
प्रसंग
आता
है
या
फिर
अर्धनारीश्वर
का–प्रजनन
को
आगे
बढ़ाने
की
प्रक्रिया
हमेशा
एक
ही
शरीर
में
दो
लिंगों
की
अवधारणा
के
साथ
ही
क्यों
विकसित
हो
रही
है
और
वह
भी
बिल्कुल
आरम्भिक
दौर
में।
क्या
ऐसी
कोई
संभावना
मौजूद
हो
सकती
थी
कि
द्विलिंगी
ही
या
द्विलिंगी
भी
गर्भ
धारण
करते
हों
जिसके
बारे
में
वर्तमान
विज्ञान
बात
कर
रहा
है।”6 विभिन्न पुराणों जैसे विष्णु पुराण, शिव पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, स्कन्द पुराण, लिंग पुराण, कूर्म पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण आदि में इन घटनाओं के उल्लेख प्रमुखता से मिलते हैं। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि हिन्दू धर्म में पुराणों की कथाओं की व्याख्या दार्शनिक, आध्यात्मिक और तात्विक दृष्टिकोण की माँग करती है। जीवन के अनेक रहस्य इन कथाओं में अंतर्गुम्फित-से हैं। पुराणों में केवल मिथकीय घटनाएँ ही नहीं हैं। इनमें भावी जीवन के अनेक ऐसे पक्ष सूत्ररूप में मिलते हैं जो आज भी वैज्ञानिकों को सोचने पर मजबूर कर देते हैं। लेखिका का कथन समीचीन है,“वास्तव में यदि हम आधुनिक चिन्तकों और मतानुसार पुराणों को नकारने की कोशिश करें और किसी एक विचारधारा के खूँटे से बंधकर ‘थर्ड जेंडर’ या कुछ ऐसे अस्तित्व जो कि पृथ्वी पर उतने ही पुराने हैं जितने कि हम, विचार देने की कोशिश करेंगे तो विचारधारात्मक रूप से भले ही वह स्वीकृत, प्रशंसनीय और मान्य हो जाए लेकिन शोध के निष्पक्ष मापदण्डों पर वह खरा नहीं उतरेगा। दूसरा यह भी कि अध्ययन का एक ही पक्ष परिभाषित होगा, उसका एक बहुत बड़ा पक्ष विचारधारात्मक पूर्वाग्रह से प्रभावित हो छूट जाएगा या फिर जो निष्कर्ष हम देंगे वह भी प्रभावित, एकांगी और अधूरापन लिए होगा। यहाँ किन्नर या हिजड़ा समुदाय को पूरी तरह से समझने के लिए हमें एक बार इतिहास के साथ मिथकीय इतिहास के पन्नों को भी खंगालना ही होगा क्योंकि भारतीय ऐतिहासिक समाज व परिस्थितियों के बीज उन्हीं पन्नों में छिपे हैं। यह अलग बात है कि उन्हें पूरी तरह समझ पाने की पद्धति हमारे पास नहीं है।”7
पौराणिक
परिप्रेक्ष्य
में
किन्नर
विमर्श
का
तलस्पर्शी
अध्ययन
आधुनिक
युग
में
एक
महत्त्वपूर्ण
माँग
की
पूर्ति
करता
है।
पुराणों
के
आधार
पर
किन्नर
समुदाय
का
वर्णन
केवल
धार्मिक
और
आध्यात्मिक
पक्ष
को
लेकर
नहीं
चला
है
अपितु
वैज्ञानिकता
की
आधारभूमि
पर
इन
सबको
परखा
गया
है।
भारतीय
परम्परा
में
वैदिक
ग्रंथों,
उपनिषदों
और
आरण्यकों
का
महत्त्व
किसी
से
छिपा
नहीं
है।
वेद
जहाँ
विभिन्न
प्रकार
की
ऋचाओं,
संगीत-गान,औषधियों, यज्ञ-कर्म
आदि
का
ज्ञान
प्रदान
करते
हैं;
उपनिषद्
और
आरण्यक
वेदों
की
सरल
व्याख्याएँ
प्रस्तुत
करते
हैं
और
विभिन्न
कथाओं
के
माध्यम
से
गूढ़
रहस्यों
को
स्पष्ट
करते
हैं।
भारतीय
मनीषा
चारों
पुरुषार्थों
की
सम्यक्
प्राप्ति
पर
ज़ोर
देती
है।
धर्म,
अर्थ
और
मोक्ष
के
साथ-साथ
यहाँ
‘काम
तत्त्व’
पर
भी
उतना
ही
ज़ोर
दिया
गया
है।
काम
को
तो
हमारे
यहाँ
‘ब्रह्मानंद
सहोदर’
के
रूप
में
दर्शाया
गया
है।
अध्याय
चार
‘सेक्स
और
हिजड़ा’
में
लेखिका
ने
कामसूत्र
के
अन्तर्गत
हिजड़ों
के
सेक्स
और
इसकी
प्रक्रिया
पर
व्यापक
दृष्टि
डाली
है।
ज्ञातव्य
है
कि
सेक्स
और
जेंडर
अलग-अलग
अर्थ
विस्तार
रखने
वाले
दो
अलग-अलग
शब्द
हैं।
महर्षि
वात्स्यायन
द्वारा
प्रणीत
कामसूत्र
का रचनाकाल
ईसा
की
तृतीय
शताब्दी
के
मध्य
में
माना
जाता
है।
ज्ञातव्य
है
कि
कामसूत्र
में
कुल
सात
अधिकरण,
छत्तीस
अध्याय,
चौंसठ
प्रकरण
और
1250 सूत्र
हैं।इसका
द्वितीय
अधिकरण
‘साम्प्रयोगिक’
सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण
है
जो
रतिशास्त्र
का
विस्तृत
विवरण
प्रस्तुत
करता
है।
इसके
दस
अध्यायों
में
रतिक्रीड़ा,
आलिंगन,
चुम्बन
आदि
कामक्रियाओं
का
व्यापक
और
विस्तृत
प्रतिपादन
किया
गया
है।
इसी
दूसरे
अधिकरण
‘साम्प्रयोगिक’
के
अन्तर्गत
नवां
अध्याय
‘औपरिष्टिक
प्रकरण’
है।
यह
अध्याय
मुख्यत:
किन्नर
समुदाय
के
सेक्स
सम्बंधी
तथ्यों
को
सामने
लाता
है।
स्त्री
रूपधारी
नपुंसक
(हिजड़ी)
और
पुरुष
रूपधारी
नपुंसक
(हिजड़ा)
के
सम्बंध
में
यहाँ
विस्तार
से
चर्चा
मिलती
है।
आधुनिक
समय
के
परिप्रेक्ष्य
में
प्रियंका
नारायण
कुछ
महत्त्वपूर्ण
प्रश्न
भी
कामसूत्र
के
औपरिष्टिक
प्रकरण
में
बताए
गए
किन्नरों
के
मैथुन
के
सम्बंध
में
उठाती
हैं।
उनका
प्रश्न
उचित
ही
है,“सबसे
पहले
तो
यह
कि
सेक्स
सभ्यता
की
आधारभूमि
है
लेकिन
क्या
सिर्फ़
इसी
वजह
से
ही
एक
पूरी
की
पूरी
मानवीय
स्थिति
को
नकार
देना
किस
हद
तक
सही
है?
आगे
आने
वाले
शोधकर्ता
कई
प्रकार
के
निष्कर्ष
दे
सकते
हैं
कि
हिजड़ा
समुदाय
को
समाज
से
बहिष्कृत
करने
के
और
भी
कई
कारण
हैं।
लेकिन
पूरे
दावे
के
साथ
कहा
जा
सकता
है
कि
‘तृतीय
प्रकृति’
को
समाज
से
बहिष्कृत
करने
का
आधार
कारण
‘सेक्स’
ही
है।
वात्स्यायन
यह
निर्णय
तो
देते
हैं
कि
जो
इस
कर्म
में
लिप्त
हैं
उन्हें
अपनी
आजीविका
इसी
प्रकार
चलानी
चाहिए
लेकिन
प्रकारान्तर
से
‘आजीविका’
इस
प्रकार
से
चलाए
जाने
की
संभावना
व्यक्त
करना
भी
अपने
आप
में
बड़े
सवालों
को
खड़ा
करता
है।”8 विचारणीय
बात
यह
भी
है
कि
‘कामसूत्र’
जैसा
ग्रंथ
भी
हिजड़ों-किन्नरों
के
सेक्स,
उनकी
भावनाओं
और
शारीरिक-मानसिक
संतुष्टि
को
सामान्य
स्त्री-पुरुष
के
सम्बन्धों
की
तुलना
में
थोड़ा
अलग
तरीके
से
देखता
है।
प्रियंका
नारायण
द्वारा
‘कामसूत्र’
के
सन्दर्भ
में
उठाए
गए
प्रश्न
वर्तमान
समय
में
किन्नरों
के
बारे
में
नये
तरीके
से
सोचने
की
प्रेरणा
देते
हैं।
मनुष्य
एक
सामाजिक
प्राणी
है।
वह
समूह
में
रहना
पसंद
करता
है।
समूह
में
साथ-साथ
रहने
से
व्यक्तियों
के
मध्य
सामाजिक
सम्बंधों
की
स्थापना
होती
है।
इन
सम्बंधों
के
प्रति
व्यक्ति
जागरूक
रहते
हैं
और
विचारों
की
एकरूपता
भी
रखते
हैं।
मनुष्य
जिस
समाज
विशेष
का
सदस्य
होता
है,
उसी
समाज
के
नियमों
और
दायरों
में
बँधा
होता
है।
विश्वभर
में
अनेक
प्रकार
के
समाजों
का
अस्तित्व
है
जो
परस्पर
सहभागिता,
सहकारिता
और
सहयोग
के
सूत्रों
का
समन्वयन
और
निर्वहन
करते
हैं
और
इसके
माध्यम
से
अपने
सम्बंधों
की
स्थापना
करते
हैं,
उन्हें
प्रगाढ़
करते
हैं
और
उन
सम्बंधों
का
निर्वहन
भी
करते
हैं।
इनमें
कुछ
औपचारिक
सम्बंध
होते
हैं
जो
उस
समाज
का
प्रत्येक
व्यक्ति
निभाता
है।
किसी
व्यक्ति
की
सामाजिक
स्वीकार्यता
के
प्रथम
शर्त
यही
है
कि
वह
अपने
सामाजिक
सम्बंधों
का
निर्वहन
कितनी
सफलता
से
और
सचेतन
रूप
में
करता
है।
सामान्य
मानव
समाज
की
तरह
ही
किन्नरों
का
भी
अपना
एक
विशिष्ट
समाज
या
समुदाय
होता
है
जिसके
अपने
नियम-कायदे
होते
हैं।
किन्नर
समाज
में
इन
नियमों-कायदों
को
पूर्ण
रूप
से
स्वीकार्यता
प्रदान
की
जाती
है।
परन्तु
एक
प्रश्न
यहाँ
उठता
है
कि
क्या
सामान्य
समाज
भी
किन्नर
समाज
को
उसी
रूप
में
स्वीकार
करता
है!
किन्नर
समाज
की
सामाजिक
स्वीकार्यता
और
सामाजिक
संघर्ष
की
व्यापक
पड़ताल
अध्याय
पांच
‘किन्नर:
सामाजिक
संघर्ष
एवं
स्वीकार्यता’
में
प्रस्तुत
की
गई
है।
यह
अध्याय
किन्नरों
पर
एक
समाजशास्त्रीय
अध्ययन
प्रस्तुत
करता
है।
एक
प्रकार
से
पुस्तक
का
यह
आधारभूत
अध्याय
है।
इसमें
विभिन्न
प्रश्नों
के
माध्यम
से
लेखिका
ने
एक
विस्तृत
सर्वेक्षण
को
प्रस्तुत
किया
है।
सामान्य
समाज
के
साथ-साथ
हिजड़ा
समुदाय
को
भी
इस
सर्वेक्षण
में
जोड़ा
गया
है।शिक्षित,अशिक्षित,
युवक-युवती,
प्रौढ़;
सभी
प्रकार
के
उत्तरदाताओं
के
माध्यम
से
सर्वेक्षण
की
विश्वसनीयता,
व्यापकता
और
विविधता
का
उचित
ध्यान
रखा
गया
है।
सामान्य
तौर
पर
हमारा
समाज
किन्नर
वर्ग
को
केवल
हँसी-मनोरंजन
के
माध्यम
के
रूप
में
देखता
है।
परन्तु
सर्वत्र
ऐसा
नहीं
है।
आज
समाज
का
एक
बड़ा
वर्ग
इनकी
सामाजिक
स्वीकार्यता
को
बदलते
समय
के
साथ
स्वीकार
करना
चाहता
है।
समाज
की
सहानुभूति
तो
इस
समुदाय
के
साथ
है
परन्तु
इस
सहानुभूति
की
सामाजिक
स्वीकार्यता
और
सामुदायिक
गतिशीलता
अभी
भी
संदेहास्पद
ही
है।
सामान्य
तौर
पर
हम
किन्नर
समाज
की
विभिन्न
समस्याओं
पर
चिन्ता
तो
ज़ाहिर
करते
हैं
लेकिन
स्वयं
आगे
बढ़कर
उन्हें
समाज
की
मुख्यधारा
में
सम्मिलित
किए
जाने
का
उपक्रम
अभी
कोसों
दूर
है।
यद्यपि
कुछ
उत्तरदाताओं
का
सकारात्मक
दृष्टिकोण
यहाँ
अवश्य
उल्लेखनीय
है।
इस
प्रश्नावली
की
सबसे
उल्लेखनीय
बात
यह
है
कि
किन्नर
समाज
से
सम्बंधित
प्रश्नों
को
स्वयं
किन्नर
समाज
के
सामने
भी
प्रस्तुत
किया
गया
है।लेखिका
लिखती
हैं,“इस
अध्याय
ही
नहीं
बल्कि
इस
पूरी
किताब
में
कहें
तो
यह
एक
महत्त्वपूर्ण
भाग
है
क्योंकि
अब
जिनके
विचारों
को
हमें
समझना
है
वह
खुद
किन्नर
समुदाय
है।
इसमें
वो
लोग
भी
हैं
जो
परिवार
के
साथ
रह
रहे
हैं
छद्म
तरीके
से।
उनके
अन्दर
की
भावनाएँ
स्त्रियों
की
है
और
ऊपर
से
वे
पुरुषों
की
तरह
रहते
हैं।
इनमें
से
कुछ
ने
खुद
सोशल
मीडिया
के
द्वारा
हमसे
सम्पर्क
करने
की
कोशिश
की
और
कुछ
तक
मैंने
पहुँचने
की
कोशिश
की
है
लेकिन
यह
बेहद
गोपनीय
है।”9
किन्नर
आमतौर
पर
अपने
व्यक्तिगत
जीवन
की
बात
करना
पसंद
नहीं
करते।
वे
भीतर
ही
भीतर
अपनी
सामाजिक
परतों
में
छिपे
रहते
हैं।
जल्दी
अपने
विषय
में
किसी
से
भी
बात
नहीं
करते।
यह
समस्या
लेखिका
के
सामने
भी
आई।
सामाजिक
रूप
से
प्रताड़ित,शोषित
और
अलग-थलग
पड़े
किन्नर
समाज
की
सामाजिक
स्वीकार्यता
का
प्रश्न
अपने
आप
में
इतना
जटिल
और
उलझा
हुआ
है
कि
केवल
कुछ
प्रयासों
से
यह
हल
होने
वाला
नहीं
है।
इसके
लिए
एक
बड़े
प्रयास
की
आवश्यकता
है,
जिसका
रास्ता
प्रियंका
नारायण
के
इन
सकारात्मक
और
रचनात्मक
प्रयासों
के
बीच
से
ही
निकलने
की
उम्मीद
भी
बनती
है।आम
समाज
में
किन्नरों
से
सम्बंधित
सोच
कुछ
ऐसी
है
कि
इन्हें
अच्छी
नज़र
से
नहीं
देखा
जाता।
ताली
और
गाली
ही
उनकी
पहचान
बनी
हुई
है।
प्रियंका
इन्हीं
सवालों
को
अपना
आधार
बनाकर
आगे
के
प्रश्नों
का
ताना-बाना
बुनती
हैं।
अध्याय
छः
‘हिजड़ा
समुदाय
की
कुछ
महत्त्वपूर्ण
सफलताएँ’
है
जिसमें
समाज
में
अपना
नाम
पैदा
करने
वाले
किन्नर
समुदाय
के
कुछ
प्रसिद्ध
व्यक्तित्वों
का
संक्षिप्त
परिचय
उपलब्ध
कराया
गया
है।
इनमें
शबनम
मौसी,
नर्तकी
नटराज,
लक्ष्मीनारायण
त्रिपाठी,
मानोबी
बन्द्योपाध्याय,
कल्कि
सुब्रमण्यम,
पद्मिनी
प्रकाश,
पृथिका
याशिनी,
रोज
वेंकेटेसन,
जोयिता
मण्डल,
सिमरन,
विद्या
आदि
प्रमुख
हैं।
इन
सभी
ने
अपने-अपने
क्षेत्रों
में
पर्याप्त
प्रसिद्धि
और
यश
प्राप्त
किया
है।
एक
सामान्य
परिचय
के
साथ-साथ
उनकी
उपलब्धियों
का
भी
वर्णन
यहाँ
द्रष्टव्य
है।
पुस्तक
के
अंत
में
चार
साक्षात्कार
भी
सम्मिलित
किए
गए
हैं
जो
क्रमशः
प्रख्यात्
कथाकार
चित्रा
मुद्गल,
मानोबी
बन्द्योपाध्याय,
लक्ष्मीनारायण
त्रिपाठी
और
महेन्द्र
भीष्म
से
सम्बंधित
हैं।
इन
साक्षात्कारों
में
किन्नर
विमर्श
पर
आधारित
महत्त्वपूर्ण
प्रश्नों
को
रखा
गया
है।
चारों
ही
उत्तरदाताओं
ने
किन्नरों
के
सर्वांगीण
विकास
के
लिए
उनकी
सामाजिक
स्वीकार्यता
को
बढ़ाने
और
शैक्षिक
व आर्थिक
स्थिति
को
सुधारने
की
बात
कही
है।
प्रियंका
नारायण
ने
प्रस्तुत
पुस्तक
में
किन्नरों
की
सामाजिक
स्वीकार्यता
का
ज्वलंत
मुद्दा
उठाया
है।
आजकल
हम
अपने
चारों
ओर
अस्तित्ववादी
विमर्शों
का
दौर
देखते
हैं।
किन्नर
विमर्श
भी
इन्हीं
में
से
एक
है।
किन्नरों
की
सामाजिक
स्वीकार्यता
किन्नरों
के
अस्तित्व
को
बचाए
और
बनाए
रखने
की
पहली
शर्त
है।
सामाजिक
स्वीकार्यता
ही
उन्हें
आर्थिक
रूप
से
आत्मनिर्भरता
प्रदान
करने
की
राह
प्रदान
करेगी।
किन्नरों
को
सामाजिक
और
आर्थिक–दोनों
ही
रूपों
से
आज
आत्मनिर्भर
होने
की
आवश्यकता
है।
इसके
लिए
समाज
को
ही
आगे
बढ़कर
आना
होगा।
हिजड़े
आज
किन्नर,मंगलमुखी,तृतीयलिंगी
और
अन्य
नामों
से
भी
पुकारे
जाते
हैं।
केवल
नाम
बदल
देने
भर
से
ही
समाज
इनके
प्रति
संवेदनशील
नहीं
हो
जाएगा।
इसके
लिए
सबसे
बड़ी
आवश्यकता
है
किन्नर
समुदाय
के
लिए
हमारी
प्रतिबद्धता
और
जागरूकता
की।
प्रियंका
नारायण
अपनी
इस
पुस्तक
में
न केवल
किन्नर
विमर्श
पर
विस्तारपूर्वक
बात
करती
हैं
बल्कि
इनके
अस्तित्व
का
ऐतिहासिक,
जीववैज्ञानिक
और
वर्तमान
संदर्भों
को
संजोते
हुए
सामाजिक
अध्ययन
भी
प्रमाण
सहित
प्रस्तुत
करती
हैं।
जो
सबसे
महत्त्वपूर्ण
बात
इस
पुस्तक
के
अध्ययन
में
उभरकर
हमारे
सामने
आती
है,
वह
है
किन्नर
समुदाय
को
एक
‘संस्कृति’
के
रूप
में
जानना-समझना
और
इस
समुदाय
की
सांस्कृतिक
प्रक्रिया
पर
पुस्तक
के
रूप
में
शाब्दिक
सम्वाद
का
आयोजन
किया
जाना।
इसे
किन्नर
विमर्श
की
सामाजिक
स्वीकार्यता
को
स्थापित
करने
के
संतुलित
व संगठित
प्रयास
और
संकल्पित
संस्तुति
के
रूप
में
देखा
जाना
चाहिए।
________________
सन्दर्भ सूची-
1. तेजेन्द्र
शर्मा
(अभी
बहुत
कुछ
समझना
बाक़ी
है),पृ.12
2. प्रियंका
नारायण,
‘किन्नर:
सेक्स
और
सामाजिक
स्वीकार्यता’(वाणी
प्रकाशन,
नयी
दिल्ली,
प्र.
सं.
2021),पृ.30
3. पृ.39
4. पृ.47
5. पृ.52
6. पृ.74
7. पृ.89
8. पृ.113
9. पृ.136
°°°°°°°°°°°
-
डॉ.
नितिन
सेठी
सी
231,शाहदाना
कॉलोनी
बरेली
(243005)
मो.
9027422306