दीवारों पर लिखी इबारते उर्फ राइटिंग ऑन वाल्स मुहावरा देश में शिक्षा के मौजूदा परिदृश्य पर सबसे सटीक बैठता है। हाल ही में घोषित 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम पूरे देश के सामने हैं। कुछ बातें हर वर्ष की तरह। फिर लड़कियों ने बाजी मारी! सौ में सौ अंक पाने वाले भी सैकड़ों में 95% से ऊपर अंक लाने वाले दस हजार बच्चे हर वर्ष की तरह नंबरों पर बुद्धिजीवियों की जुगाली।
इन परिणामों को देखकर लगता है जैसे गरीब भारत का डूबता जहाज अब तो
आसमान छू ही लेगा। लेकिन कलई खुलते भी देर नहीं लगती। बुलंदशहर की जिस तान्या सिंह
ने 500 में 500 अंक प्राप्त किए हैं उसका सपना दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने का
है और ऐसा ही सपना बिजनौर की 10वीं की छात्रा का है जिसने पूरे 600 में से 600 अंक प्राप्त किए
हैं। ज्यादातर का सपना दिल्ली जैसे महानगर पहुंचने का है लेकिन क्यों? जब दिल्ली क्षेत्र
इन परिणामों के आधार पर पांचवें छठे नंबर पर आ गया है तो आखिर कॉलेज की शिक्षा के
लिए देश के दूरदराज हिस्सों के बच्चे दिल्ली क्यों आना चाहते हैं।
दो वर्ष पहले 2020
में बुलंदशहर के ही तुषार सिंह ने
सीबीएसई 12वीं में ऑल इंडिया टॉप किया था। पूरे देश और मीडिया में स्वागत हुआ
और तभी उस बच्चे ने बताया था कि उसका सपना दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ने
का है। लेकिन अफसोस सेंट स्टीफन कॉलेज ने उसे दाखिला नहीं दिया। उसने पूछा तो सेंट
स्टीफन कॉलेज के पास कोई जवाब नहीं था। ऑन लाइन के दिनों में मुश्किल से एक मिनट
का टेलीफोन पर उसका इंटरव्यू लिया गया था और उसे फेल कर दिया गया। हारकर उसने
हिंदू कॉलेज में दाखिला लिया। यह लिखते हुए मेरी कलम कांप रही है कि वह दलित छात्र
था लेकिन दिल्ली में बैठे किसी भी दलित या दूसरे बुद्धिजीवी ने इस आवाज को नहीं
उठाया। जबकि दिल्ली जेएनयू, जामिया, अंबेडकर विश्वविद्यालय में
यह गिरोह जाति, वेतन भत्ते, रोस्टर को लेकर सबसे ज्यादा मुखर होता है।
लेकिन यहां प्रश्न दूसरा उभरता है कि हम देश के दूसरे स्कूल
कॉलेजों को बेहतर क्यों नहीं कर पा रहे ? यहां के स्कूल कॉलेजों में पुस्तकालय
और प्रयोगशाला क्यों नहीं हैं?
शिक्षक समय पर क्यों नहीं आते? कई राज्यों के
सरकारी स्कूलों में लाखों रुपए की तनख्वाह ले रहे शिक्षकों की जगह उन्होंने दो चार
हजार में अपने किसी सगे संबंधी को वहां पर कैसे बैठा दिया है? ऐसे कई वीडियो
वायरल हुए हैं। आखिर व्यवस्था की कमजोर कड़ी क्या है?
क्या वाकई दिल्ली विश्वविद्यालय या महानगरों में बेहतर पढ़ाई होती
है? यदि ऐसा होता तो महानगरों के इन अमीरों के आठ लाख बच्चे हर साल
पढ़ने के लिए विदेश क्यों भागते?
सभी का यह भ्रम दिल्ली पहुंचते ही टूट
जाता है या शायद उनको पहले से पता भी होता है कि वे दिल्ली इन कालेजों की पढ़ाई के
लिए नहीं आते। वे आते हैं दिल्ली के कोचिंग संस्थानों में पढ़ने के लिए। जिससे
वहां सिविल सेवा, एमबीए और दूसरे सपनों की सड़क उन्हें बचा ! मिल जाए। बुलंदशहर
मुश्किल से सत्तर किलोमीटर होगा दिल्ली से वहां के कालेजों को क्यों ऐसा नहीं
बनाया जा सकता जिससे दिल्ली भागना ना पड़े। शायद देश के क्रीमी लेयर को यह एहसास
ना हो कि दिल्ली पहुंचने के बाद मुखर्जी नगर से लेकर करोल बाग या कालेजों के आसपास
अनियमित बस्तियों में एक छोटी कोठरी में चार-चार नौजवान कैसे आर्थिक तंगी में दिन
बिताते हैं। इससे एक तरफ दिल्ली से बाहर के कस्बा नगरों का विकास अवरुद्ध हो गया
है तो दिल्ली मुंबई जैसे महानगर कई तरह की समस्याओं के दबाव में आ गए हैं।
संविधान में विकेंद्रीकरण मॉडल की बात बार-बार कही गई है। शायद ही
कोई राजनीतिक दल होगा जिसके मेनिफेस्टो में यह बात नहीं उठाई जाती हो। बावजूद इसके
हर साल ऐसे परिणाम में अव्वल आए हुए बच्चे दिल्ली पहुंचने की लालसा रखते हैं। इसी
का दुष्परिणाम पिछले दिनों सामने आया जब दिल्ली विश्वविद्यालय में केरल भागते हैं।
तेलंगाना या दूसरे राज्यों के बच्चों की ज्यादा संख्या को देखते हुए केंद्रीय
विश्वविद्यालयों में एंट्रेंस परीक्षा की शुरुआत इस बार की गई है। अभी तक के अनुभव
इस परीक्षा के बारे में बहुत अच्छे नहीं लग रहे कुछ बच्चे परीक्षा दे ही नही पाए
तो कुछ अप्लाई करने से वंचित रह गए हैं। क्या शिक्षा का अर्थ सिर्फ परीक्षा दर परीक्षा
है? या देश के सामाजिक आर्थिक विकास में भी उसकी कोई भूमिका है?
दूसरी इबारत पश्चिम बंगाल में शिक्षक भर्ती की है। इस भर्ती में
घोर भ्रष्टाचार सात साल से चल रहा है। पहले राज्य की शिक्षक पात्रता परीक्षा में
घोटाले और उसके बाद शिक्षक आयोग द्वारा सरेआम पिछले दरवाजे से भर्तियां करोड़ों की
हेराफेरी प्रशंसा की जानी चाहिए उन बेरोजगार युवकों की जिन्होंने अपनी योग्यता के
बल पर इस लड़ाई को जीता है और अपराधी पकड़ में आ गए हैं। लेकिन बावजूद इसके वे ऐसी
लड़ाई कोर्ट के हस्तक्षेप से देश के अलग-अलग कोनों में बार-बार जीतते रहे हैं, पूरे देश में
शिक्षक भर्ती घोटाले में कोई कमी नहीं आई।
तीन महीने पहले राजस्थान आयोग में भी ऐसा ही हुआ और ऐसे ही कारणों
से उत्तर प्रदेश शिक्षक भर्ती की परीक्षा कैंसिल करनी पड़ी थी यह हाल तो तब है जब
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री चौटाला अपने आईएएस अधिकारियों सहित तिहाड़ जेल में
शिक्षक भर्ती के मामले में ही बंद हैं। क्या देश के सामाजिक ताने-बाने की नैतिक
गिरावट इस हद तक आ गई है कि
किसी भी सजा का कोई डर नहीं |
एक और मोटे-मोटे अक्षरों की इबारत उत्तर भारत के बुद्धिजीवी पिछले
महीने से मुजफ्फरपुर, बिहार के 1 प्राध्यापक ललन सिंह द्वारा 25 लाख के चेक को लौट आने पर पहले दिन
गदगद हुए तो अगले ही दिन उन सबके सिर लटके हुए थे लेकिन उस पूरी बहस से बिहार के
कॉलेजों की गिरावट की ऐसी झलक मिली जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। बिहार में
सैकड़ों कॉलेज हैं और हजारों विद्यार्थी हैं लेकिन वे कभी खुलते नहीं है। दुख इस
बात पर और होता है कि पिछले दिनों वहां के वाइस चांसलर बनने पर या किसी को
प्रोफेसर का पद मिलने पर बधाई और शुभकामनाएं और आत्मकथा तो सामने आती हैं, ललन सिंह ने जो
तस्वीर दिखाई उसे कोई नहीं बताता । अंजाम बिहार हरियाणा उत्तर प्रदेश के ये बच्चे
जो वहां शिक्षा की हकीकत को जानते हैं वे दिल्ली बनारस, इलाहाबाद, कोलकाता से लेकर
पुणे-मुंबई की तरफ ही क्या राजनीतिक
नेताओं को इस दुर्गति का एहसास नहीं होगा? निश्चित रूप से होगा लेकिन उनकी
पार्टी की तिजोरी ऐसे ही गोरखधंधे से भरी जाती है। क्या डीएम और कमिश्नर को नहीं
पता होगा? जरूर जानते होंगे,
मगर शायद ही किसी ने कभी किसी स्कूल
या कॉलेज का दौरा किया हो और कठोर कदम उठाए हो? माला और पुष्प हार लेने तो जरूर
होंगे। यूपीएससी के इंटरव्यू बोर्ड में जरूर हर पांच में से चार उम्मीदवार यह कहते
हैं कि वे शिक्षा के लिए काम करेंगे। बिल्कुल विश्व सुंदरी के खिताब जीतने वाली
अप्सरा के अंदाज में।
नई शिक्षा नीति को इस जुलाई में दो वर्ष पूरे हो रहे हैं। देशभर के
हजारों विश्वविद्यालय, कॉलेजों में मौजूदा पार्टी के समर्थक राजनेता और तथाकथित
बुद्धिजीवी इस शिक्षा नीति की प्रशंसा में हर रोज दीप जला रहे हैं। शॉल ओढ़ रहे
हैं। क्या महान भारत के इन महान विद्वानों से लेकर सामाजिक क्रांति के मसीहा और
तथाकथित शिक्षाविद इन इमारतों को पढ़ पा रहे हैं? हवाई बातें बहुत हो चुकी । जो बीमारी
साफ दिख रही है, जो स्कूल कॉलेजों की एक एक ईंट पर लिखी हुई है अच्छा हो हम उनके
निदान खोजें । तुरंत उन पर कदम उठाएं जिससे देश के कोने-कोने में बैठे मेधावी
छात्र अपनी अपनी जगह पर शिक्षा पा सके। दिल्ली का बोझ भी नहीं बढ़ेगा और समग्र देश
का विकास भी होगा सबका विकास कहने के पीछे तो कुछ सच्चाई यह भी रही होगी।
- साभार गर्भनाल पत्रिका सितम्बर 2022
शिक्षा बाज़ारीकरण और भाष्टाचार के भीषण दलदल में फँस गया है। अठन्त गम्भीर विवेचना और सत्य का पर्दाफ़ाश करता एक सार्थक आलेख!!!
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