कांशीराम के उदय के बाद से बहुजन जिन महानायकों का जन्मदिन जोर-शोर से मनाते हैं, उनमे से एक हैं कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहू जी महाराज. 26 जून 1874 को कोल्हापुर राजमहल में जन्मे शाहू जी छत्रपति शिवाजी के पौत्र तथा आपासाहब घाटगे कागलकर के पुत्र थे. उनके बचपन का नाम यशवंत राव था. तीन वर्ष की उम्र में अपनी माता को खोने वाले यशवंत राव को 17 मार्च 1884 को कोल्हापुर की रानी आनंदी बाई ने गोंद लिया तथा उन्हें छत्रपति की उपाधि से विभूषित किया गया. बाद में 2 जुलाई 1894 को उन्होंने कोल्हापुर का शासन सूत्र अपने हाथों में लिया और 28 साल तक वहां का शासन किये. 19-21 अप्रैल, 1919 को कानपुर में आयोजित अखिल भारतीय कुर्मी महासभा के 13 वें राष्ट्रीय सम्मलेन में ‘राजर्षि’ के ख़िताब से नवाजे जाने वाले शाहू जी की शिक्षा विदेश में हुई तथा जून 1902 में उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से एल.एल.डी. की मानद उपाधि प्राप्त हुई थी, जिसे पानेवाले वे पहले भारतीय थे. इसके अतिरिक्त उन्हें जी.सी.एस.आई., जी.सी.वी.ओ., एम्.आर.इ.एस. की उपाधियाँ भी मिलीं.एक तेंदुए को पलभर में ही खाली हाथ मार गिराने वाले शाहू जी असाधारण रूप से मजबूत थे. उन्हें रोजाना दो पहलवानों से लड़े बिना चैन नहीं आता था.
शाहू
जी ने जब कोल्हापुर रियासत की बागडोर अपने हाथों में ली उस समय एक तरफ ब्रिटिश
साम्राज्यवाद तो दूसरी तरफ ब्राह्मणशाही जोर - शोर से क्रियाशील थी. उस समय भारतीय
नवजागरण के नायकों के समाज सुधार कार्य तथा अंग्रेजी कानूनों के बावजूद बहुजन समाज वर्ण-व्यवस्था
सृष्ट विषमता की चक्की में पिस रहा था. इनमें दलितों की स्थिति जानवरों से भी बदतर
थी. शाहू जी ने उनकी दशा में बदलाव लाने के लिए चार स्तरों पर काम करने का मन
बनाया. पहला, उनकी शिक्षा की व्यवस्था तथा दूसरा, उनसे सीधा संपर्क
करना. तीसरा, प्रशासनिक पदों पर उन्हें नियुक्त करना एवं चौथा उनके हित में
कानून बनाकर उनकी हिफाजत करना. अछूतों की शिक्षा के लिए एक ओर जहाँ उन्होंने ढेरों पाठशालाएं
खुलवायीं, वहीँ दूसरी ओर अपने प्रचार माध्यमों द्वारा घर-घर जाकर उनको
शिक्षा का महत्व समझाया. उन्होंने उनमें
शिक्षा के प्रति लगाव पैदा करने के लिए
एक ओर जहाँ उनकी फीस माफ़ कर दी, वहीँ दूसरी ओर स्कालरशिप देने की व्यवस्था कराया. उन्होंने
राज्यादेश से अस्पृश्यों को सार्वजनिक स्थलों पर आने-जाने की छूट दी तथा इसका
विरोध करने वालों को अपराधी घोषित कर डाला.
दलितों की दशा में बदलाव लाने के लिए उन्होंने दो ऐसी विशेष
प्रथाओं का अंत किया जो युगांतरकारी साबित हुईं. पहला,1917 में
उन्होंने उस ‘बलूतदारी-प्रथा’
का अंत किया,जिसके तहत एक अछूत को
थोड़ी सी जमीन देकर बदले में उससे और उसके परिवार वालों से पूरे गाँव के लिए मुफ्त
सेवाएं ली जाती थीं. इसी तरह 1918 में उन्होंने कानून बनाकर राज्य की एक और पुरानी प्रथा ‘वतनदारी’ का अंत किया तथा भूमि
सुधार लागू कर महारों को भू-स्वामी बनने का हक़ दिलाया. इस आदेश से महारों की
आर्थिक गुलामी काफी हद तक दूर हो गई. दलित हितैषी उसी कोल्हापुर नरेश ने 1920 में
मनमाड में दलितों की विशाल सभा में सगर्व घोषणा करते हुए कहा था-‘मुझे लगता है आंबेडकर
के रूप में तुम्हे तुम्हारा मुक्तिदाता मिल गया है. मुझे उम्मीद है वो तुम्हारी
गुलामी की बेड़ियाँ काट डालेंगे.’ उन्होंने दलितों के मुक्तिदाता की महज जुबानी प्रशंसा नहीं की
बल्कि उनकी अधूरी पड़ी विदेशी शिक्षा पूरी
करने तथा दलित-मुक्ति के लिए राजनीति को
हथियार बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान किया. काफी हद तक उन्होंने डॉ.
आंबेडकर के लिए वही भूमिका अदा किया,
जो फ्रेडरिक एंगेल ने कार्ल मार्क्स के
लिए किया था. किन्तु वर्ण-व्यवस्था में शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत तबकों के हित
में किये गए ढेरों कार्यों के बावजूद इतिहास में उन्हें जिस बात के लिए खासतौर से
याद किया जाता है, वह है उनके द्वारा शुरू किया गया आरक्षण का प्रावधान.
शाहू
जी महाराज ने चित्तपावन ब्राह्मणों के प्रबल विरोध के मध्य 26 जुलाई, 1902 को
अपने राज्य कोल्हापुर की शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों में दलित-पिछड़ों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण लागू
किया. यह आधुनिक भारत में जाति के आधार मिला पहला आरक्षण था. इस कारण
शाहू जी आधुनिक आरक्षण के जनक कहलाये. ढेरों लोग मानते हैं कि परवर्तीकाल में
बाबासाहेब डॉ.आंबेडकर ने शाहू जी द्वारा लागू किये गए आरक्षण का ही विस्तार भारतीय
संविधान में किया. लेकिन भारी अफ़सोस की बात है कि जिस आरक्षण की शुरुआत शाहूजी जी
ने किया एवं जिसे बाबा साहब में विस्तार दिया,
वह आरक्षण आज वर्ग संघर्ष का शिकार होकर
सुविधाभोगी वर्ग द्वारा लगभग कागजों की कागजों की शोभा बनाया जा चुका है और आरक्षण
का लाभ उठाने के अपराध में आरक्षित वर्गों को
उस दशा में पहुँचाया जा चुका है, जिस दशा में पहुचने
पर वंचितों को दुनिया में तमाम जगह शासकों के खिलाफ मुक्ति-संग्राम संगठित करना
पड़ा. इसे समझने के लिए लिए जरा मार्क्स के वर्ग संघर्ष का एक बार
सिंहावलोकन कर लेना होगा.
मार्क्स ने कहा है अब तक के विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास
वर्ग-संघर्ष का इतिहास है.एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व
है अर्थात दूसरे शब्दों में जिसका शक्ति के स्रोतों-आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक – पर कब्ज़ा है और दूसरा
वह है, जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है अर्थात शक्ति के स्रोतों से दूर
व बहिष्कृत है. पहला वर्ग सदैव ही दूसरे का शोषण करता रहा है. मार्क्स के अनुसार
समाज के शोषक और शोषित : ये दो वर्ग सदा ही आपस में संघर्षरत रहे और इनमें कभी भी
समझौता नहीं हो सकता. नागर समाज में विभिन्न व्यक्तियों और वर्गों के बीच होने
वाली होड़ का विस्तार राज्य तक होता है. प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने
और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है.’
मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के इतिहास की यह व्याख्या एक मानव जाति
के सम्पूर्ण इतिहास की निर्भूल व अकाट्य सचाई है,
जिससे कोई देश या समाज न तो अछूता रहा
है और न आगे रहेगा. जबतक धरती पर मानव जाति का वजूद रहेगा, वर्ग-संघर्ष किसी न
किसी रूप में कायम रहेगा. बहरहाल मार्क्स ने इतिहास में वर्ग-संघर्ष की जो
व्याख्या की, उसका सर्वाधिक बलिष्ठ चरित्र हिन्दू धर्म का प्राणाधार उस
वर्ण-व्यवस्था में क्रियाशील रहा है,
जो मूलतः शक्ति के स्रोतों अर्थात
उत्पादन के साधनों के बंटवारे की व्यवस्था रही है एवं जिसके द्वारा ही भारत समाज
सदियों से परिचालित होता रहा है. जी हाँ,
वर्ण-व्यवस्था मूलतः संपदा-संसाधनों, मार्क्स की भाषा में
कहा जाय तो उत्पादन के साधनों के बटवारे की व्यवस्था रही. चूँकि वर्ण-व्यवस्था में
विविध वर्णों(सामाजिक समूहों) के पेशे/कर्म तय रहे तथा इन तयशुदा पेशे/कर्मों की
विचलनशीलता(professional mobility ) धर्मशास्त्रों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध (prohibited) रही, इसलिए वर्ण-व्यवस्था
एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले ली, जिसे हिन्दू आरक्षण कहा जा सकता है. वर्ण-व्यवस्था के विदेशागत
प्रवर्तकों द्वारा हिन्दू आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत सुपरिकल्पित रूप से तीन
अल्पजन विशेषाधिकारयुक्त तबकों के मध्य आरक्षित कर दिए गए. इस आरक्षण में बहुजनों
के हिस्से में संपदा-संसाधन नहीं, मात्र तीन उच्च वर्णों की सेवा आई, वह भी
पारिश्रमिक-रहित. वर्ण-व्यवस्था के इस आरक्षणवादी चरित्र के कारण दो वर्गों का
निर्माण हुआ: एक विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न अल्पजन और दूसरा वंचित बहुजन
वर्ण-व्यवस्था में वर्ग-संघर्ष की विद्यमानता को देखते हुए ही 19 वीं सदी में महामना
फुले ने वर्ण-व्यवस्था के वंचित शूद्र-अतिशूद्रों को ‘बहुजन वर्ग’ के रूप में जोड़ने की
संकल्पना की, जिसे 20वीं सदी में मान्यवर कांशीराम ने बहुजन-समाज का एक स्वरूप
प्रदान किया. बहरहाल प्राचीन काल में शुरू हुए ‘देवासुर –संग्राम’ से लेकर आज तक बहुजनों की ओर से जो संग्राम चलाये गए हैं, उसका प्रधान लक्ष्य
शक्ति के स्रोतों में वंचित बहुजनों की वाजिब हिस्सेदारी रही है. वर्ग संघर्ष में
यही लक्ष्य दुनिया के दूसरे शोषित-वंचित समुदायों का भी रहा है. भारत के मध्य युग
में जहां संत रैदास, कबीर, चोखामेला, तुकाराम इत्यादि संतों ने तो आधुनिक भारत में इस संघर्ष को
नेतृत्व दिया फुले-शाहू जी-पेरियार–नारायणा गुरु-संत गाडगे और सर्वोपरी उस आंबेडकर ने, जिनके प्रयासों से
वर्णवादी-आरक्षण टूटा और संविधान में आधुनिक आरक्षण का प्रावधान संयोजित हुआ. इसके
फलस्वरूप सदियों से बंद शक्ति के स्रोत सर्वस्वहांराओं(एससी/एसटी) के लिए खुल गए.
हजारों साल से भारत के विशेषाधिकारयुक्त जन्मजात सुविधाभोगी और
वंचित बहुजन समाज: दो वर्गों के मध्य आरक्षण पर जो अनवरत संघर्ष जारी रहा, उसमें 7 अगस्त, 1990 को
मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद एक नया मोड़ आ गया. इसके बाद शुरू हुआ आरक्षण
पर संघर्ष का एक नया दौर. मंडलवादी आरक्षण ने परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग को सरकारी
नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित एवं राजनीतिक रूप से लाचार समूह में
तब्दील कर दिया. मंडलवादी आरक्षण से हुई इस क्षति की भरपाई ही दरअसल मंडल उत्तरकाल
में सुविधाभोगी वर्ग के संघर्ष का प्रधान लक्ष्य था. कहना न होगा 24 जुलाई ,1991 को
गृहित नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर भारत के शासक वर्ग ने, जो हिन्दू आरक्षण के
सुविधाभोगी वर्ग से रहे, मंडल से हुई क्षति का भरपाई कर लिया. मंडलवादी आरक्षण लागू
होते समय कोई कल्पना नहीं कर सकता था,
पर यह अप्रिय सचाई है कि आज की तारीख
में हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग का धन-दौलत सहित राज-सत्ता, धर्म-सत्ता, ज्ञान-सत्ता पर 90 प्रतिशत से ज्यादा
कब्ज़ा हो गया है, सबसे बड़ी बात तो यह हुई है कि जो आरक्षण आरक्षित वर्गों, विशेषकर दलितों के
धनार्जन का एकमात्र स्रोत था, वह मोदी राज में लगभग शेष कर दिया गया है, जिससे वे बड़ी तेजी से
विशुद्ध गुलाम में तब्दील होने जा रहे हैं. आरक्षण पर संघर्ष के इतिहास में आज के
लोकतांत्रिक युग में परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग की इससे बड़ी विजय और क्या हो सकती
है!
बहरहाल
बहुजनों को गुलामों की स्थिति में पहुंचाकर भी हिन्दू आरक्षणवादी वर्ग संतुष्ट
नहीं हुआ है, वह अपने वर्ग शत्रुओं को पूरी तरह फिनिश करने के लिए
विनिवेशीकरण, निजीकरण, लैटरल इंट्री को हथियार बनाकर जोर-शोर से आगे बढ़ रहा है. ऐसे
में बहुजन अगर वर्तमान में चल रहे वर्ग संघर्ष में हिन्दू आरक्षणवादियों को योग्य
जवाब देना चाहते हैं तो आज आरक्षण के जनक के जन्मदिन पर निम्न क्षेत्रों में
सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने का संकल्प लें.
1-सेना व न्यायालयों
सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार नौकरियों एवं पौरोहित्य ; 2- सरकारी
और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जाने वाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप; 3- सरकारी
और निजी क्षेत्रों द्वारा की जाने वाली खरीदारी;
4 - सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन; 5 – सरकारी
और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जाने वाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकी-व्यवसायिक
शिक्षण संस्थानों के संचालन, प्रवेश व अध्यापन;
6 - सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी
नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जाने
वाली धनराशि; 7- देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं(एनजीओ ) को
दी जाने वाली धनराशि; 8 - प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं फिल्म के सभी प्रभागों; 9 - रेल-राष्ट्रीय
राजमार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की जमीन व्यवसायिक इस्तेमाल
के लिए एससी/एसटी के मध्य वितरित हो एवं 10-
ग्राम पंचायत, शहरी निकाय, सांसद-विधानसभा, राज्यसभा की सीटों
एवं केंद्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों ,राष्ट्रपति- राज्यपाल, प्रधानमंत्री-
मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल में...
उपरोक्त क्षेत्र क्षेत्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू
करवाने की लड़ाई जीत लेने पर बहुजन भारत में हजारों साल से जारी वर्ग संघर्ष में
निर्णायक बढ़त बना लेंगे !
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