संस्मरण
मखनियां कुंआ रोड़…
पटना में इतवार की एक सुबह इस रोड़ को मैं ऐसे तलाश रहा था जैसे
कोई बच्चा दूसरे के बस्ते में अपने लिए कलम खोज रहा हो. काफ़ी पूछताछ के बाद कुंआ
तो नहीं, रोड़ जरूर मिल गयी थी.
पटना के पते में तब मकान नंबर नहीं होते थे. वहां मकान नंबर से आदमी की पहचान नहीं,
निवासी से मकान की पहचान होती थी. मुझे मखनियां कुंआ रोड़ पर अरुण
कमल का डेरा खोजना था. हर मकान की खिड़की को मैं ऐसे देखता जैसे उससे झांकता चेहरा
देखकर अरुण कमल को पहचान लूँगा. हालांकि मैंने उन्हें
कुछ साल पहले सिर्फ़ एक बार दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में देखा था जब उन्हें भारत
भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उन्होंने उस अवसर पर अपनी चर्चित कविता ‘उर्वर प्रदेश’ पढ़ी थी. उस भव्य आयोजन में कवि अशोक
वाजपेयी द्वारा संपादित ‘पूर्वग्रह’ पत्रिका
के कलात्मक रूप से सुसज्जित भारी भरकम अंक का विमोचन हुआ था जिसमें कविता की वापसी
जैसे नारे की घोषणा की गई थी. अरुण कमल की कद-काठी की एक हल्की सी स्मृति मेरे मन
में ठहरी हुई थी. दुबली-पतली काया. गोरा-चिट्टा रंग. आँखों
पर चश्मा. कुछ नाम होते हैं, जो उनके चेहरे-मोहरे की गवाही
देते हैं. अरुण कमल का नाम भी कुछ ऐसे ही था. उनका नाम ध्यान आते ही सुंदर खिले
हुए कमल की छवि हमारे मस्तिष्क में कौंध जाती है.
दरअसल पटना में रहते हुए एक साल से अधिक हो गया था लेकिन वहां
साहित्यिक संवाद के लिए कोई साथी नहीं बना था. अकेलापन मुझे रोज़ थोड़ा-थोड़ा कुतर
रहा था. उस सुबह मेरे भीतर की दुनिया
ने सलाह दी कि अरुण कमल जी से मिलना चाहिए. अरुण कमल का बस इतना ही पता मेरे पास
था. मखनियां कुंआ रोड़ पटना.
पोस्टमैन को उनका घर जरूर मालूम रहा होगा लेकिन मुझ सरीखे एक
प्रवासी के लिए उनका घर खोजना
एक चुनौती थी. लग रहा था जैसे घर से आये हैं, वैसे ही बैरंग
लौट जायेंगे. इस ख्याल से मन डूबने लगा. थक हार कर मैं वापस लौटने ही वाला था कि
एक संकरी गली के मोड़ पर थैला लिए हुए आदमी से पूछने पर उसने साइंस कॉलेज में
अंग्रेजी पढ़ाने वाले अध्यापक का जिक्र किया जो कविताएँ भी लिखते हैं. कुछ तसल्ली
हुई और आँखों में उम्मीद की लौ जग गयी. गली ऐसी संकरी थी जिसमें घर की दीवारें एक
दूसरे की पीठ छीलती थीं. उनकी कविता ‘छोटी दुनिया’ में ऐसी ही संकरी गली का चित्रण है.
आपकी कोठरी दूसरे की कोठरी से सटी
अगर बगल में कोई कुर्सी खिसकाये
दीवार में कांटी ठोके
यहाँ तक कि करवट भी बदले
तो लगेगा कि यह आपके ही कमरे में हो रहा है.
ऐसी संकरी गली के एक दरवाज़े के सामने वह रुके और बोले, ”आवाज़ दीजिये, ऊपर वह
रहते हैं”. घर के सामने नाम पट्टी भी नहीं थी. थैले वाले
सज्जन आगे एक मकान में गायब हो गये. मैं आवाज़ देने में सकपका रहा था. बहरहाल
दरवाज़ा खटखटाया.ऊपर से एक सुकोमल चेहरा झाँका और तेज आवाज़ आयी “कौन”? मैंने कहा, ”अरुण कमल जी
से मिलना है”. ”रुकिए”. इस शब्द से
मुझे सांत्वना मिली. खटका जाता रहा. मुझे लगा कि मैं सही जगह पहुंच गया. कहना न
होगा कि यह बात उस दिन ही नहीं, आज भी सही लगती है.
नीम अँधेरे में सीढ़ियाँ चढ़कर कमरे में पहुंचने से पहले बरामदे
में तख्त पर किताब बांचते हुए श्वेतकेशी बुज़ुर्ग पर नजर पड़ी. अरुण कमल जी ने परिचय
कराया, ”बाबू जी” मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया. ऊपर से नीचे गौर से मुआइना करते हुए
उन्होंने मूक इशारे से आशीर्वाद दिया.
छोटा सा कमरा था. किताबों और पत्र-पत्रिकाओं से भरा. ऊपर टांड
पर भी किताबें ही किताबें थीं. परिचय हुआ. अरुण जी पानी लाये. फिर भीतर चाय के लिए
भी बोल आये. कमरा ऐसा था जहाँ से घर के भीतर का हिस्सा दिखायी नहीं देता था लेकिन
छोटे-छोटे ध्वनि दृश्यों से पूरी
गृहस्थी का ऑर्केस्ट्रा सुनायी देता था. तथाकथित सुसंस्कृत परिवारों की तरह वहां
ख़ामोशी कीं कब्र नहीं थी. घरेलू आवाज़ों की ओट में कई लोग थे. माँ थीं. दो बहनें
थीं. सलज सुंदर पत्नी थीं. बेटा और बेटी थी. भारतीय परिवार का एक छोटा प्रतिरूप
था. मैंने अपने बारे में उन्हें बताया कि एकाध कहानी लिखी हैं. कुछ लेखकों से
इंटरव्यू किये हैं. कुछ विदेशी कहानियों के अनुवाद ‘सारिका’ में छपे हैं. अरुण जी चाय लाये और उसके साथ चौके की खुशबू भी आ गयी. चलते
समय अरुण जी ने अपनी ओर से पढ़ने के लिए एक पत्रिका भेंट की. मैंने एक किताब पढ़ने
के लिए उधार मांग ली.
वह बाहर छोड़ने आये. घर से कुछ कदम निकलते ही हम मुख्य सड़क पर आ
गये. लगा कि उनके घर पहुंचना कितना आसान था जिसके लिए मैं इतनी देर इधर-उधर भटकता
रहा. सफलता की कहानी भी कुछ ऐसी ही लगती है. जब हम वांछित पा जाते हैं तो उसके
पाने के संघर्ष की यात्रा को विस्मृत करने लगते हैं. सड़क पर थोड़ा आगे बढ़ते ही एक
मिठाई की दुकान थी. मिठाइयाँ खरीदो या नहीं, कांच में सजी हुई मिठाइयाँ जिह्वा को हमेशा ललचाती रहती हैं. अरुण जी वहां
रुके और अपनी प्रिय मिठाई खिलाई. मैंने भुगतान के लिए पर्स खोला लेकिन उन्होंने
देने नहीं दिया. इस तरह किताब और मिठाई से हमारे मैत्री की नींव पड़ी. जब भी मैं
उनसे मिलने जाता तो लौटते समय कोई नयी किताब मेरे साथ होती और जीभ पर स्वादिष्ट
मिठाई का स्वाद तैरता रहता.
उन दिनों अरुण कमल से मेरी आत्मीयता बढ़ने के पीछे उनका सामान्य
जीवन था. वह पारिवारिक थे. उनके यहाँ अतार्किक विचारों का उलझाव नहीं था. झूठी ओढ़ी
कवि मुद्राएँ नहीं थीं. सत्ता के स्रोतों को समझने की समझ थी. आम आदमी की पीड़ा के
निकट जाने की बैचैनी थी. पढ़ने-लिखने के प्रति अनुराग था.अपने समकालीनों के प्रति
प्रतिस्पर्धा थी लेकिन उठाने-गिराने की दुरभिसंधि के नक़्शे नहीं थे. मुझ जैसे
नवागतों के प्रति कमतरी का भाव भी नहीं था.
पटना के साहित्यिक परिदृश्य को समझने की खिड़की अरुण कमल थे. मेरे
साहित्यिक जीवन में एक नयी गहमागहमी शुरू हुई. आलोचक डॉक्टर नंदकिशोर नवल उन दिनों
‘आलोचना’ पत्रिका के संपादक थे. अरुण कमल जी उनके बेहद करीब थे. अरुण जी ने उनसे
मिलने की सलाह दी. उनसे मिला. उन्होंने दूसरी मुलाक़ात में ही इब्बार रब्बी के
कविता संग्रह “लोग बाग़” पर लिखने
के लिए पुस्तक थमा दी. पहली बार ‘आलोचना पत्रिका’ में छपा. मेरी समीक्षा क्रिटिकल थी. रब्बी जी के दिल्लीवासी मित्रों ने मिलने पर कुछ नाखुशी जाहिर की. फिर नवल जी का मुझ
पर कुछ विश्वास बढ़ा. उन्होंने विजय देव नारायण साही के कविता संग्रह ‘साखी’ पर समीक्षा लिखने के लिए जोर डाला. नवल जी
हमारे पारिवारिक संबंध भी बने. मैं तो उनके डेरे जाता ही था, मेरे वैवाहिक वर्षगाँठ पर वह भी मेरे यहाँ आये थे और नेमिचंद्र जैन की
आलोचना पुस्तक भेंट में दी थी.
डॉक्टर खगेन्द्र ठाकुर प्रगतिशील लेखक संघ बिहार के अध्यक्ष
थे. अरुण कमल जी उनके अत्यंत प्रिय थे. बिहार में प्रगतिशील लेखक संघ के
कार्यक्रमों में अरुण कमल को ले जाने के लिए वह हमेशा तत्पर रहते थे. अरुण कमल कुछ
आयोजनों में जाते थे और कुछ में कॉलेज से अवकाश न मिलने या व्यस्तता के चलते नहीं
जाते थे. डॉ खगेन्द्र ठाकुर सीपीआई के पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता थे. वह एक कॉलेज
में हिंदी पढ़ाते थे. अपना पूरा वेतन पार्टी के कोष में देते थे. पार्टी ने उन्हें रहने
के लिए विधायक क्लब में एक कमरे का फ्लैट दे रखा था और घर खर्च के लिए कुछ एकमुश्त
राशि भी देती थी. अरुण कमल का संदर्भ उनसे संपर्क करने में सहायक बना. बाद में
डॉक्टर खगेन्द्र ठाकुर से हमारे पारिवारिक सम्बन्ध बन गये. उनका फ्लैट मेरे दफ़्तर
के निकट था. मेरी पत्नी विनीता प्रेम में बेटी अंतरा को बिठाकर पैदल उनके घर ले
आती थी. खगेन्द्र जी के परिवार के लिए वह उन दिनों एक खिलौना सी थी. विनीता की
मैत्री उनकी दो बेटियों निशी और प्रीति से ज्यादा हो गयी थी. बाबा नागार्जुन अक्सर
उनके उस फ्लैट में रहने के लिए आ जाते थे. फ्लैट में जगह कम होने के कारण बरामदे
में एक तख़्त पर पढ़ते-सोते रहते थे. खगेन्द्र जी के यहाँ की चाय का स्वाद कुछ अलग
होता था. कभी-कभी तले हुए चूडे-मूंगफली के भूजे का नाश्ता भी मिलता था.
इन दोनों के अलावा अरुण कमल ने पटनावासी कवियों मसलन आलोक
धन्वा, ज्ञानेंद्रपति और
कुमारेंद्रू पारसनाथ सिंह के बारे में बताया. हालांकि अरुण जी इन तीनों के करीब
नहीं थे. आलोक धन्वा उनके घर के कुछ आगे रहते थे. ज्ञानेंद्रपति जेल विभाग में
अधिकारी थे और बोरिंग कैनाल रोड पर रहते थे. कुमारेंद्रू पारसनाथ सिंह एक कॉलेज
में पढ़ाते थे. नाटककार-कथाकार हृषिकेश सुलभ की भी उन्होंने चर्चा की जो उन दिनों
रेडियो में कार्यक्रम अधिशासी थे. इप्टा का कोई नाटक या नुक्कड़ नाटक हो या कोई
साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन हो या कोई बाहर से अतिथि साहित्यकार आया हो, इसकी सूचना वह एक कर्मठ सांस्कृतिक कार्यकर्ता की तरह मुझे देते थे. सही
अर्थों में मेरे जैसे प्रवासी के लिए वह पटना साहित्यिक परिदृश्य के एक धड़कते
कुतुबनुमा की तरह थे.
कुछ महीने उत्तरी श्रीकृष्णपुरी से आकर मैं पुनई चक में रहा
था. अरुण कमल जी ने बताया कि पुनई चक में कथाकार आलोचक कर्मेंदु शिशिर और भृगुनंदन
त्रिपाठी भी रहते हैं. उनसे मिलने जब कभी मैं आऊंगा तो आपके घर भी आऊंगा. संयोग से
कुछ दिन बाद ऐसा अवसर आ गया. संयोग अच्छा रहा कि उन्हें खोजने पर मेरा घर मिल गया.
उन दिनों मैं अकेला था. विनीता अपने घर गयी हुईं थीं. हम दोनों ने मोड़ पर जाकर चाय
पी. फिर घर आये. अरुण कमल ने मेरी अलमारी में रखी पुस्तकें देखी. फिर चार्ली
चैपलिन की आत्मकथा पढने के लिए ले ली. उन्होंने बाद में मुझसे मेरी कुछ कविताएँ
सुनाने के लिए आग्रह किया. मुझे संकोच था. हिचकिचाते हुए कुछ सुनायीं. उनके चेहरे
के भाव से लग रहा था कि उन्हें अच्छा लग रहा है. सुनने के बाद उन्होंने कहा कि आप
कविताएँ छपने के लिए क्यों नहीं भेजते. मैंने अपनी कविताओं की गुणवत्ता पर अपनी
दुविधा जाहिर की. वह बोले आप निःसंकोच भेजिए.ज्यादा से ज्यादा लौट आयेंगी, ” यह मेरे लिए मूलमन्त्र
था.
पत्र-पत्रिकाओं को रचनाएँ भेजने का सिलसिला शुरू हो गया. ‘पहल’
पत्रिका में एक साथ मेरी पांच कविताएँ
छपीं. पहल पत्रिका में छपने से अचानक पटना के साहित्यिक जगत में मेरे बारे में
जानने की उत्सुकता बढ़ गयी. सबसे अधिक प्रसन्न अरुण जी थे. वसुधा-आवेग-उत्तरशती में
कविता छपी. उन दिनों जनसत्ता और नवभारत टाइम्स के रविवारीय परिशिष्टों की
प्रतिष्ठा और लोकप्रियता उरूज़ पर थी. इनमें मेरी कविताएँ प्रकाशित होने से मुझे
बहुत बल मिला. इस सिलसिले की परिणति ‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’ काव्य संग्रह के
रूप में हुई जब मैंने कविता संग्रह की अपनी पाण्डुलिपि भारतीय ज्ञानपीठ के युवा
पुरस्कार के लिए भेजी और और पुरुस्कृत हुई. अरुण कमल जी के लिए जहाँ यह खुशी की बात थी. वहीं वह इतनी जल्दी मिली मेरी सफलता को लेकर विस्मित
भी थे.
यह कहना संकीर्णता होगी कि उन्होंने सिर्फ़ मुझे ही प्रेरित
किया था. उनके पास तमाम युवा संभावनाशील लेखक आते और वह उन्हें इसी तरह
प्रोत्साहित करते रहते. अरुण जी के पास जादुई भाषा और विलक्षण आँखें हैं. वह लोगों
की नाड़ियों को बहुत जल्दी और सटीकता से पकड़ और समझ लेते हैं. वह आमतौर से किसी को
अपनी वाणी से आहत नहीं करते. कई लोगों का मानना है कि वह साहित्यकार कुंवर नारायण-
केदार नाथ सिंह के बाद हिंदी कविता की अपनी पीढ़ी के एकमात्र अजातशत्रु कवि हैं. संबंधों
के संतुलन बनाने में वह अतुल्य हैं. शायद संयुक्त परिवार में रहने और भिन्न-भिन्न
प्रकृति के लोगी के साथ सामजंस्य बनाने के अभ्यास से यह गुण उनके भीतर स्वतः आ गया
होगा. चाहे ज्ञानरंजन-अशोक वाजपेयी अथवा ज्ञानरंजन-कमला प्रसाद की तनातनी रही हो
या नामवर सिंह-अशोक वाजपेयी के बीच वैचारिक मतभेद रहे हों, वे दोनों पक्षों के प्रिय रहे हैं. यहाँ तक कि
एक समय में साहित्य परिसर में यह भी कनफूसी होती थी कि वह साहित्य अकादमी के
अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के निकट हो गये हैं. वह अक्सर साहित्य के अप्रिय
पचड़ों से बचते हुए निरपेक्ष रहते हैं.
लेकिन एक समय ऐसा आया कि वह भी हिंदी साहित्य की राजनीति की
दलदल में लिपटे नज़र आये. यह वह समय था जब अपूर्वानंद युवा और पढ़ रहे थे. उन्होंने
बाबा नागार्जुन की कविता पर एक छोटी पुस्तिका प्रकाशित की थी जिसमें उनके राजनीतिक
विचलनों को भी प्रखरता से रेखांकित किया गया था. अपूर्वानंद उन दिनों प्रगतिशील
लेखक संघ से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे. यही नहीं ,नंदकिशोर नवल के परिवार के सदस्य सरीखे थे. खगेन्द्र ठाकुर प्रगतिशील लेखक
संघ बिहार के कर्ता-धर्ता थे. वह बाबा नागार्जुन के निकट थे. खगेन्द्र ठाकुर ने इस
पुस्तिका का प्रबल विरोध किया. अरुण कमल भी उनके साथ हो गये. नवल जी को यह बात दिल
में लग गयी. अरुण कमल और नवल जी के बीच अबोला हो गया.
एक वह दौर था जब मैंने देखा था कि किसी साहित्यिक आयोजन में
नवल जी और अरुण कमल दोनों एक जैसा कुर्ता-पैजामा पहनते थे जिनकी बाहों पर एक जैसी
चुन्नटें होती थीं. उनकी उपस्थित्ति चाचा-भतीजे का नयनाभिराम दृश्य रचती थी. एक
साथ वे दोनों अनेक कार्यक्रमों में जाते थे. अरुण कमल भले ही उन्हें अपना गॉड फादर
न मानते रहे हों लेकिन नवल जी उन्हें अपना मानस पुत्र समझते थे. बाबा नागार्जुन
पुस्तिका प्रसंग से पटना में उस समय दो शिविर बन गये थे. एक की अगुवाई डॉ नंदकिशोर
नवल कर रहे थे और दूसरी तरफ़ डॉ खगेन्द्र ठाकुर थे. बाहरी होने के कारण मेरी दोनों
शिविरों में आवाजाही थी. नंदकिशोर नवल मिलने पर अरुण कमल की कविता कर्म के अंत की
घोषणा करते थे और अरुण कमल कहते थे, ‘विनोद जी. साहित्य की दुनिया में कोई स्थायी मित्र नहीं होता. मेरा और
नवल जी का साथ यहीं तक था. अब हमारे रास्ते अलग हैं. जहाँ तक साथ रहे, उसे ही याद रखना चाहिए.”
यहाँ एक प्रसंग का उल्लेख करना अवांछित न होगा. भारतीय
ज्ञानपीठ से युवा प्रतियोगिता के तहत मेरा कविता संग्रह प्रकाशित होने के बाद अरुण
कमल के आग्रह पर पटना प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव अपूर्वानन्द ने मेरे कविता पाठ का आयोजन किया था. अरुण कमल को
इस बात का भान था कि डॉ नन्दकिशोर नवल जी इस आयोजन में आयेंगे. अरुण कमल जी ने
आयोजन के पूर्व ही मुझे सूचित कर दिया कि वह पटना में रहने के बावजूद इसमें शरीक
नहीं होंगें. उनका कहना था कि नवल जी से उनके सम्बन्ध आत्मीय रहे हैं. सामने पड़ने
से बातचीत होने पर कुछ अप्रीतिकर घट जाने का अंदेशा है. नवल जी आये. उन दिनों कम
निकलने वाले आलोक धन्वा भी आये. आलोक धन्वा ने कार्यक्रम के बाद चुटकी भी ली कि मैं
तो आपके कविता पाठ में आ गया लेकिन आपके मित्र अरुण कमल नहीं आये. मैं मुस्कराकर
रह गया. मुझे उनके न आने का राज़ पता था.
उन दिनों फ़ोन घरों में इतने सुलभ नहीं थे कि पहले सूचित करके
मित्र के घर जाया जाय. मैंने साइकिल खरीद ली थी. जिसके कारण उनके घर की दूरी अब
दूरी नहीं लगती थी. मैं औचक खासतौर से
शनिवार की शाम या रविवार की सुबह अरुण जी के घर पहुँच जाता था. दरअसल उनके घर जाने
के रास्ते में एल पी रिकार्ड्स की एक दुकान थी. उनके यहाँ जाने पर उस दुकान में
झाँकने और मुद्रा जेब में होने पर रिकॉर्ड खरीदने का मौका भी मिल जाता था. एक शाम
अचानक सपरिवार पहली बार अकस्मात हम उनके यहाँ पहुँच गये. सुखद था कि अरुण जी मौजूद
थे. उन्होंने उत्साह से स्वागत किया. विनीता और बेटी अंतरा भीतरखाने चली गईं. उस
दिन उनके बेटे गुलाल का परीक्षा परिणाम आया था. पास होने के उत्सव में उनके घर में
समोसे बन रहे थे. छोटे-छोटे सुर्ख तले हुए सुस्वाद समोसों की एक धुंधली याद मन में
आज भी बसी हुई है.
विनीता को उनका भरा-पूरा परिवार बहुत रास आया. देहरादून के
अपने आठ जन वाले परिवार से सुदूर पटने में लम्बे समय से अकेले युगल के रूप में
रहने की एकरसता से वह ऊबी हुई थी. कुछ अलग छोटी-छोटी खुशियों से भरे उस परिवार में
आकर विनीता को एक नई स्फूर्ति मिली थी जहाँ न कोई झूठा आडम्बर था और न ही कोई दिखावे
की चाहत थी.
कम अंतरालों पर मिलने के कारण हम एक दूसरे से खुलने लगे थे. सड़क
पर पैदल घूमते हुए अरुण जी अक्सर किसी न किसी विषय पर चर्चा छेड़ देते थे. मैंने यह
नोट किया था कि वह प्रायः उसी विषय पर बात करते थे जिस पर वह उन दिनों कुछ लिख रहे
होते थे या जिस पर उन्हें कहीं साहित्यिक सभा या संगोष्ठी में बोलना होता था. इस
तरह वह बातचीत में उस विषय के विभिन्न पहलुओं को खोलने की प्रक्रिया में बिन्दुवार
उसकी पूर्व तैयारी कर लेते थे. काव्य पंक्तियों को बार-बार दोहराते थे जिससे वे
कंठस्थ हो जाती थीं. भाषण में उन्हें इसका लाभ मिलता था. उनकी प्रस्तुति में एक
प्रवाह होता था. उनको पिछली बार गोरखपुर आकाशवाणी के तत्वावधान में आयोजित शमशेर
शताब्दी समारोह में सुना था और तब भी उनकी इस भाषण कला से प्रभावित हुआ था.
अरुण कमल और मेरे बीच उम्र का फासला कम होने के कारण हम दोनों
के बीच हास-परिहास भी होने लगा था. वह कई बार मीठी चुटकियाँ लेते थे. मैं भी
शालीनता के दायरे में उसमें रस लेता था. सिनेमा के बारे में भी बातें होती थीं. उन
दिनों ऋषि कपूर और डिंपल कपाड़िया की जोड़ी सिने परदे पर लगभग एक दशक के बाद ‘सागर’ फिल्म
मे एक साथ आयी थी. डिंपल कपाड़िया हमारे उस समय की अभिनेत्री थी जब हम किशोरावस्था
की दहलीज़ लांघकर युवावस्था के तप्त मैदान में प्रवेश कर रहे थे. डिंपल कापड़िया के
अनिंद्य और निष्कपट सौन्दर्य के जादू से उस दौर के युवा अभिभूत थे. इसके पीछे एक
सहज कारण था. डिंपल कपाडिया के रजत परदे पर आने के पहले जितनी भी अभिनेत्रियाँ
सिनेमा में थीं, वे प्रायः उम्रदराज़
होती थीं. वे किशोरी का अभिनय करती थीं लेकिन लगती भरी-पूरी औरतें थीं. ओस में
भीगे हुए ताज़े फूल की तरह ‘बॅाबी’ फिल्म में ऋषि कपूर और डिंपल कपाड़िया के
सौन्दर्य ने उस समय के युवक-युवतियों को उनका दीवाना बना दिया था. मैं भी उनमें एक
था. अरुण कमल जी से बात चली तो यह रहस्य खुला कि वह भी उसी दीवानों के समूह में
हैं. दरअसल एक दशक बीत जाने के बाद भी उन दोनों का सौंदर्य हमारी स्मृति में वहीं
ठहरा हुआ था जबकि समय का पहिया आगे बढ़ चुका था. मैंने अरुण कमल जी को उस फिल्म को
देखने का प्रस्ताव दिया. अरुण कमल जी ने तरंग में आकर हामी भर दी. मैंने दो टिकट
रविवार की मैटनी शो के लिए अग्रिम खरीद लिए. जब मैं टिकट लेकर उनके घर पहुंचा तो
अरुण कमल फिल्म देखने को लेकर आनाकानी करने लगे. उनकी मुसीबत उनका पेशा था. मेरे
साथ ऐसा कोई संकट नही था. अपनी छवि को लेकर वह चिंतित थे कि उनका कोई छात्र उन्हें
फिल्म देखते हुए देख लेगा तो कॉलेज में उनके बारे में क्या-क्या गुल गपाड़ा होगा. मेरे
टिकट खरीद कर लाने से अरुण जी कुछ नैतिक संकट में फंस गये थे. आख़िरकार जोर देने पर
वह सिनेमा हाल आने को राज़ी हुए. तय यह हुआ कि अगर कोई छात्र दिख जाएगा तो हम हाल
में प्रवेश नहीं करेंगे. फिल्म शुरू हो जाने के बाद अँधेरे हाल में जायेंगे. शुक्र
था कि कोई छात्र नहीं दिखायी दिया. अरुण कमल इतने अधिक सतर्क थे कि इंटरवल में
स्नैक्स के लिए भी बाहर नहीं निकले. मैं उनके लिए पॉपकॉर्न का पैकेट ले आया. कोई
उन्हें देख न ले,इस डर से फिल्म समाप्त होने के पहले हम
दोनों बाहर आ गये. फिर नीचे रेस्तरां में चाय पीकर फिल्म पर चर्चा करने लगे. अरुण
कमल की इस पेशेवर बेबसी को लेकर जहाँ मेरा मन खट्टा हो रहा था,वहीं उनकी बेचैनी और धुकधुकी को देखकर कुछ हंसी भी आ रही थी. फिल्म को
लेकर यह मानसिकता दरअसल हमारे अभिभावकों ने पैदा की थी जैसे फिल्म देखना कोई
सामाजिक अपराध हो.
मित्रता की एक मीठी याद और है. एक बार अरुण जी किसी साहित्यिक
संदर्भ में सोवियत संघ गये थे. वहां से मेरे लिए उपहार के रूप में रूस से एक
गुलाबी-सफ़ेद चारखाने की टोपी लाये थे. बेहद मुलायम कपड़े की टोपी पहनने पर उसका कोई
भार नहीं महसूस होता था और मुझे लगता था कि मित्रता भी ऐसी होनी चाहिए जिसका कोई
भार न महसूस हो. वह मेरी प्रिय टोपी थी जो जाड़ों में ही नहीं, सूती होने के कारण सख्त धूप में भी शिरस्त्राण
की तरह मेरी रक्षा करती थी.
अरुण कमल अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाते थे. शायद एम.ए में आपातकाल के
दौरान पटना विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त करने के फलस्वरूप उनको कॉलेज
में तुरंत अध्यापक की नौकरी भी मिल गयी थी. उनको पढ़ाने में आनंद आता था. उनके कई
छात्रों ने मुझे बताया था कि वह मूल पाठ के साथ उससे जुड़े अनेक रोचक प्रसंगों को
भी बताते थे जिससे उनके लेक्चर रूखे-सूखे नहीं, सरस होते थे. लेकिन कई बार वह उन लोगों से त्रस्त दीखते थे जो प्रतियोगी
परीक्षाओं में अंग्रेज़ी के लिए उनसे मदद मांगने आ जाते थे. उन्होंने अंग्रेज़ी से
हिंदी में अनेक कवियों के अनुवाद किये हैं. मुझे याद है कि दिल्ली में आयोजित
एफ्रो एशियाई युवा सम्मेलन के लिए उन्होंने हिंदी के कुछ कवियों की कविताओं के
अंग्रेज़ी अनुवाद भी किये थे जिसे एक छोटी पुस्तिका ‘वॉइसेस’ के नाम से प्रकाशित भी
किया गया था. इस अवसर पर इस पुस्तिका में उनकी कविताओं के अनुवाद भी छपने थे. वह
संपादकीय नैतिकता के चलते अपनी कविताओं का अनुवाद नहीं करना चाहते थे. उन्होंने
कुछ संकोच और झिझक से एक दिन मुझसे अपनी दो कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद करने के
लिए प्रस्ताव किया. मुझे अपने अंग्रेज़ी ज्ञान पर न तब भरोसा था और न अब है. फिर भी
मैंने कोशिश करने का वायदा इस शर्त पर कर लिया कि अच्छा न लगने पर न तो वह इसका
उपयोग करेंगे और न ही इसकी कोई चर्चा किसी से करेंगे. बहरहाल ‘दुस्वप्न’ और ‘कथावाचक’
नामक उनकी दो कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद मैने किसी तरह से किया. अनुवाद उन्हें
ठीक-ठाक लगा. उस पुस्तिका में उसी रूप में छपा. किसी हिंदी कविता का अंग्रेज़ी में
अनुवाद करने का मेरा यह पहला अनुभव था. हालाँकि वह पुस्तिका आज मेरे पास नहीं है.
अरुण कमल यात्रा प्रेमी हैं. शायद बाबा नागार्जुन की यायावरी
का कुछ असर उन पर पड़ा है बाबा ने तो अपना उपनाम ही ‘यात्री’ रख लिया था. बाबा
नागार्जुन या डॉ नामवर सिंह की ही तरह देश का शायद ही ऐसा कोना होगा जहाँ किसी
आयोजन में वह न गये हों. इन यात्राओं का उन्होंने अनन्य रचनात्मक उपयोग किया है. हिंदी
में वह विरल कवियों में से हैं जिनकी कविताओं में यात्रा अनुभव के सघन मानवीय
दृश्य मिलते हैं. विस्थापित मजदूरों का दर्द मिलता है. वह अपनी एक कविता में लिखते
है:
कौन नहीं चाहता जहाँ जिस जमीन उगे
मिट्टी बन जाय वहीं पर दोमट नहीं
तपता हुआ रेत ही है घर तरबूज का
जहाँ निभे ज़िन्दगी
वही है घर गाँव.
वह अपनी यात्रा संबंधी कविताओं में उन मनुष्यों की संवेदनाओं
तक पहुंचते हैं जिन पर खाते-पीते अघाये लोगों की आँखें नहीं पड़तीं. एक बार मैं भी
पटना से भारत भवन देखने उनके साथ जाने वाला था लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद
भड़के सिख दंगों के कारण मेरा जाना टल गया. हालांकि उन विपरीत परिस्थितियों में भी
डॉ नंदकिशोर नवल के साथ वह भारत भवन के आयोजन में गये थे. उनके यात्रा प्रेम का
इससे सबल उदाहरण नहीं मिल सकता.
अरुण कमल की आलोचकीय प्रतिभा की अनदेखी नहीं की जा सकती. आलोचना
उनके काव्य व्यक्तित्व का
अनुषंग नहीं, उसका सहचर है. मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं
कि व्यक्तिगत बातचीत में उनकी जितनी आलोचकीय विदग्धता, पारदर्शी
समझ और विवेचन क्षमता झलकती है, उतनी उनकी काव्यालोचना में
प्रकट नहीं होती. साहित्यिक परिदृश्य में यह धारणा व्याप्त है कि कुछ अपने मीठे
व्यक्तित्व और कुछ अपनी अन्य प्राथमिकताओं के कारण वह अपनी आलोचकीय विवेक को सेंसर
करते रहते हैं.
दरअसल वह कविता के सकारात्मक पक्ष को उभारने में अधिक रूचि
लेते हैं. एक कवि की दृष्टि से यह एक मानवीय और उदार रुख है लेकिन कविता की सीमाओं
की अनदेखी करने से सिर्फ़ काव्यालोचना की ही क्षति नहीं होती है, कविता के भविष्य की राह भी अपारदर्शी होती
जाती हैं. डॉ नंदकिशोर नवल ने अरुण कमल की आलोचकीय प्रतिभा को बहुत पहले ही भांप
लिया था. आलोचना पत्रिका के लिए वह उनसे अक्सर आग्रह करके लिखवाते थे. मलयज की
आलोचकीय सीमाओं को रेखांकित करते हुए आलोचना में उन्होंने एक महत्वपूर्ण लेख लिखा
था. फैज़ अहमद फैज़ की शायरी पर उनके लेख को पढ़कर कोई भी पाठक फैज़ की किताब खरीदने
के लिए ललक सकता है. इसी कड़ी में मुझे विष्णु खरे की आलोचना पुस्तक ‘आलोचना की
पहली किताब’ पर लिखी उनकी समीक्षा की याद भी आ रही है जो काफ़ी तीखी थी. आलोचना
पत्रिका में इस तीखी आलोचना को शायद संतुलित करने की दृष्टि से उसी अंक में मृणाल
पाण्डेय और विजय मोहन सिंह की दो समीक्षाएं भी दी गयीं थीं. लेकिन उनका यह लेख
मैंने उनकी दोनों आलोचना पुस्तकों में नहीं देखा. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि डॉ
नामवर सिंह सरीखे प्रख्यात आलोचक ने अरुण कमल को कवि होने के बावजूद ‘आलोचना’ पत्रिका
के संपादक के रूप में उनका चयन किया था. यह बात भी सच है कि अरुण कमल का कवि मन उस
पत्रिका के संपादन में ज्यादा नहीं रमता था.
कई बार यह पाया जाता है कि साहित्यकार अपने साहित्य कर्म में
इतने डूबे रहते हैं कि अपने पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन में चूक जाते हैं. पहले
यह प्रवृति देखने को अधिक मिलती थी. अधिकांश उन संवेदनशील साहित्यकारों को छोड़ दे
जिन्हें तंत्र अपना शिकार बनाकर दिमाग़ी संतुलन खोने के लिए विवश कर देता है, कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपने जीवन की अराजकता
को मेडल की तरह महिमामंडित करते रहते हैं. अरुण कमल इसके सुखद अपवाद हैं. वह अच्छे
सद्गृहस्थ रहे हैं.
इनके पिता रिटायर्ड अध्यापक थे.अरुण कमल के निकट के मित्र इस
तथ्य से परिचित होंगे कि वह कविताएँ लिखते थे. अपने जीवनकाल की सांध्यबेला में
उन्होंने अपना एक कविता संग्रह भी प्रकाशित किया था. मुझे भी भेजा था. वह धुरंधर
पाठक थे. अरुण कमल के यहाँ आने वाली सभी पत्र-पत्रिकाओं और किताबों को अत्यंत चाव से पढ़ते थे. कई बार
किसी रचनाकार के बारे में अरुण कमल से उनकी राय भिन्न होती थी. वैचारिक बहस में
उनको आनन्द आता था. अरुण कमल ने अपने माँ-पिता को हमेशा साथ रखा. कभी उनको बोझ
नहीं माना.एक अच्छे भाई की तरह अपनी दोनों बहनों की शादी की. मुझे याद है कि वह
अपनी बहन की शादी तय करने के सिलसिले में कई बार लखनऊ भी आये थे. मुझे उनकी एक
कविता ‘कल्याणी’ की क्षीण याद आ रही है जिसमें कल्याणी से मज़ाक में भाई शादी करने
के सिलसिले में परिहास करता है. उसमें नायिका के चित्त को दर्शाने वाला एक बिम्ब
शमशेर की याद दिलाता है
”धूल भरे पत्तों के बीच खीरे का पीला फूल
ताकता एकटक आकाश.”
एक और कविता में गृहस्थ जीवन के बारे में अरुण कमल लिखते हैं:
“जिन्हें कभी जीवन में मिला नहीं
सुख से भोजन दो जून
वे औरतें गाती हैं छप्पन व्यंजनों के गीत.
वह इसी कविता में आगे मध्य वर्ग परवार की कामना के बारे में
लिखते हैं “
पढ़े लिखे दामाद और सुख भरा जीवन
कभी नहीं बदली यह छोटी इच्छाएं.
गृहस्थ जीवन की कई मार्मिक कविताएँ उनकी काव्य दुनिया में
मिलती हैं. मसलन उनकी एक कविता ‘एक बार
बोलती’ जिसमे नायक अपनी पत्नी के प्रति जीवन भर किये गये अपमान को
लेकर उसकी मृत्यु के बाद आत्म ग्लानि में कहता है कि वह कभी अत्याचारों के ख़िलाफ़
बोली क्यों नहीं.
अरुण कमल ने साहित्यिक कर्म के साथ अपना पारिवारिक दायित्व भी
अच्छी तरह निभाया जिसके कारण उनके बेटा-बेटी दोनों सुव्यस्थित ज़िन्दगी जी रहे हैं.
आज अरुण जी अपनी पत्नी के साथ अपने सुव्यवस्थित फ्लैट में रह रहे हैं लेकिन खाली
क्षणों में उनको उस किराये के मकान की उन आत्मीय आवाज़ों की कमी जरूर महसूस होती
होगी जो उस घर को अपनी खटमीठी उपस्थिति से गुलज़ार बनाये रखती थी.
कुछ अच्छी चीज़ें मिलते ही जल्दी हाथ से फिसल जाती हैं. हम एक
दूसरे के घर सपरिवार आने जाने लगे थे. कई बार एक दूसरे के घर जूठन भी गिराते थे. हालांकि
तब अरुण कमल सपरिवार किसी के घर कम ही जाते थे. हालांकि ऐसे अवसर भी आये थे जब आने
के लिए वह वायदा करते फिर उनके न आने पर ग़ालिब का वह शेर मैं गुनगुनाता था, ”तिरे वादे पर जिए हम तो
जान झूठ जाना कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतिबार होता.”
लखनऊ तबादले की कारण पटना का सुखद प्रवास छूट गया. अपने पैतृक
स्थान के निकट लखनऊ जाने का उत्साह था लेकिन मन में पटना छोड़ने का कोहराम भी था. अपनी
स्मृति के उजाले में जब मैं देखता हूँ तो वह दृश्य याद आता है जब पंजाब मेल से
सुबह पांच बजे पटना स्टेशन से लखनऊ बिदा करने के लिए पटना के अनेक युवा साथियों के
अलावा डॉ खगेन्द्र ठाकुर और अरुण कमल भी आये थे. उस दिन हमारी आँखों में अनकही
कृतज्ञता का जल था. मन में प्रेम की गीली मिट्टी थी. लगा था कि अपना एक ऐसा
प्रेमिल सौर मंडल छोड़कर जा रहा हूँ जहाँ मैं भी कभी बसता था.
पटना से आने की बाद पोस्टकार्ड-लिफ़ाफ़े ही हमारे बीच पुल थे. मुझे
दिलचस्प लगता था कि अरुण कमल जी कई दफे अपने पोस्टकार्ड में अपने नाम की जगह चेहरे
का स्केच बनाकर भेजते थे. चश्मा और उनकी मूंछें स्केच की मूल रेखाएं होती थीं. किसी
कार्यक्रम में आते तो अकाल बेला में अन्न की तरह मुलाक़ात होती. उनसे हमेशा मिलने
की उत्कंठा बनी रहती है. इस सिलसिले में एक प्रसंग साझा करने का लोभ मैं संवरण
नहीं कर पा रहा हूँ.
एक पारिवारिक सिलसिले में हम सपरिवार कोलकाता से लखनऊ एयर
इंडिया की फ्लाइट से जा रहे थे. जाड़ों के दिन थे. आकाश में कोहरा घना था. हवाई
जहाज को कोहरे के चलते पटना में रातभर रुकना पड़ा. हमें मौर्या होटल में ठहराया
गया. अगली फ्लाइट सुबह नौ बजे चलनी थी. हम सोच रहे थे कि पटना में होते हुए भी हम
मित्रों से नहीं मिल पा रहे हैं. अचानक विनीता ने सुझाया कि भोर बेला का उपयोग हम
कम से कम उन आत्मीयों से मिलने में कर सकते हैं जो निकट हैं और जिनके यहाँ बिना
किसी औपचारिकता के हम जा सकते हैं. हमने एक ऑटो भाड़े पर ले लिया. हम सब होटल में
स्नान करके सबसे पहले सुबह ठिठुरती ठण्ड में पांच बजे खगेन्द्र जी के यहाँ हम गये.
इतनी सुबह घंटी बजाने का साहस नहीं हो रहा था. हिचकिचाते हुए घंटी बजायी. अधमुंदी
आँखे मलती घबरायी हुई भाभी जी निकली. हमें देखकर चौंक गयी. खगेन्द्र जी डेरे पर
नहीं थे. उनके यहाँ हम लगभग आध घंटे रुके. अरुण जी के मैत्री शांति भवन स्थिति नये
फ्लैट का लोकेशन मुझे पता नहीं था. खगेंद्र जी के बेटे भास्कर ने हमें समझाया. हम
छह बजे सुबह अरुण कमल जी के यहाँ पहुंच गये. ठण्ड में पूरा परिवार रजाई में सुख की
नींद सो रहा था. हमारे अनायास पहुँचने से पूरे घर में खलबली मच गयी. दोनों परिवारों
के बच्चे एक दूसरे को विस्मित देख रहे थे कि यह कैसी मित्रता है. बस हमारी आँखें
जुड़ा गईं. हम चाय पीकर जल्दी होटल लौट आये.
अब कभी कभार मोबाइल पर अरुण जी से बात होती है लेकिन अतृप्ति बनी रहती है. मुझे वे दिन याद आते हैं जब मेरे एक हाथ में साइकिल का हैंडल होता था और हम दोनों पैदल पटना की सड़क पर दुनिया के तमाम विषयों पर गुफ्तुगू करते रहते थे. हम सब जानते हैं कि समय कभी लौटता नहीं, लेकिन यह सिर्फ़ स्मृति है जो उसे संभव करती है.
-विनोद दास
विनोद जी यह अद्भुत संस्मरण मैंने अभी पढ़ना शुरू ही किया है कि टिप्पणी करने का मोह संवरण नहीं कर पाया पूरा पढ़कर इसके बारे में विस्तार से लिखता हूं । एक कवि की लेखनी से दूसरे कवि की तलाश कितना सुखद है यह :शरद कोकास
ReplyDeleteधन्यवाद शरद जी। 'अभिप्राय' को आपका भी रचनात्मक सहयोग चाहिए होगा।
ReplyDeleteNyc
ReplyDelete