सीढ़ियों पर बैठी वह लड़की...
(अविश्वसनीय थी मां की यातना और सहनशीलता)
- मन्नू भंडारी
अपनी ज़िन्दगी के नब्बे साल पूरे करके 1981 में मेरी माँ ने इस दुनिया से विदा ली थी। आज अगर वे ज़िन्दा होतीं तो पूरे 120 साल की होतीं। आज से सौ-सवा सौ साल पहले की औरतों की ज़िन्दगी की कहानी थोड़े से हेर-फेर के साथ कमोबेश एक जैसी ही तो है। घर-परिवार ही उनकी दुनिया होती थी और उसी के लिए अपने को होम कर देना उनकी ज़िन्दगी की सार्थकता। इस घर-परिवार से यदि उन्हें सुख-सुविधाएँ मिलतीं तो वे निहाल…पर यदि यहाँ से दुख,असह्य कष्ट, तरह-तरह की यातनाएँ मिलतीं तो उसे भी अपनी नियति समझ कर वे सहज भाव से स्वीकार कर लेती थीं। बस, ऐसी ही थी मेरी माँ की ज़िन्दगी भी। पर उनकी यातनाओं का एक पक्ष ऐसा भी था जिसे जब मैंने जाना तब मैं भी उस पर विश्वास नहीं कर पाई थी और अब, जब कोई इसे पढ़ेगा तो उसे भी यह अविश्वसनीय ही लगेगा। कोई कैसे तो बिना किसी गुनाह के ऐसी सज़ा दे सकता है (वह भी कुल साढ़े चौदह-पन्द्रह साल की उम्र में) और कैसे कोई इस तरह की सज़ा भोग सकता है, वह भी दो-चार दिन नहीं , पूरे छः महीने के लिए ! पर माँ ने बिना कोई प्रतिवाद किए उस सज़ा को चुपचाप भोगा ही नहीं, बाद में कभी इसकी चर्चा तक नहीं की। बहुत बरसों बाद जब मैंने इसके बारे में किसी और से सुना तो फिर खोद-खोद कर माँ से पूछना शुरू किया। उन्होंने बताया तो सही और विस्तार से ही बताया पर आश्चर्य कि उसमें दादी के प्रति शिकायत या आरोप का कोई पुट तक न था। इस सज़ा की अविश्वसनीयता के चलते ही मैंने कभी इस पर क़लम नहीं चलाई पर सुधा का यह हाड़-तोड़ आग्रह -- जो न करवा ले सो थोड़ा!
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इस घटना के ब्यौरे तक पहुंचने से पहले मैं उस माहौल की थोड़ी सी पृष्ठभूमि बताना चाहूँगी जहाँ बारह साल की उम्र में शादी करके माँ अपने गाँव पीपाड़ से ससुराल भानपुरा आईं थीं। यह तो मुझे बहुत-बहुत बाद में पता चला कि उम्र में माँ पिताजी से दस महीने बड़ी थीं। उस उम्र में लड़कियों को पति का अर्थ चाहे न समझ में आता हो पर ससुरालका अर्थ ठोंक-ठोंक कर समझा दिया जाता था। वे जब भानपुरा आईं तो पीपाड़ के अपने उस कच्चे, बेढंगे मकान कीतुलना में यहाँ की इस भव्य दुमंज़िला कोठी को भरी आंखों से निहारकर उन्होंने ज़रूर अपने को ख़ुशक़िस्मत समझा होगा। उस हवेली का भारी दरवाज़ा जिसमें बाहर की ओर पीतल के बड़े-बड़े ख्शूबसूरत , नुकीले कुन्दे लगे हुए हैं, जिसकी वजह से आज तो वे दरवाज़े एक एंटीक-पीस की हैसियत रखते हैं। भारी तो इतने कि आज भी मैं शायद ही उन्हें खोल बंद कर सकूं । अन्दर घुसते ही एक चौड़ा-सा लम्बा बरामदा, जिसके दाहिने सिरे पर कोई पाँच फ़ीट ऊँचा एक लम्बा-चौड़ा मंच, जिस पर सफ़ेद चादर में ढँका बड़ा-सा गद्दा और तीन तरफ़ गाव-तकिए लगे रहते हैं। यह थी उस घर की मर्दाना बैठक, जो आज भी वैसी ही है। बरामदे के बायीं तरफ़ बीच में गोल आकार के बड़े दरवाज़े जितनी खुली जगह, जिसमें घर के अन्दर प्रवेश किया जाता है। अन्दर बीच में एक चौक जिसके बीचोबीच एक गोल चबूतरे में नीम का पेड़ लगा है। कहते हैं पिताजी के जन्म के समय जब उनकी नाल यहाँ गाड़ी गई थी तो मिट्टी और खाद के साथ कुछ निम्बौलियाँ भी वहीं गाड़ दी गई थीं। उस समय वहाँ जो नीम उगा वह आज तीसरी मंज़िल की छत तक गया पिताजी की उम्र का एक भरा-पूरा लहलहाता नीम का पेड़ है।
चौक के चारों तरफ़ कोई डेढ़ फ़ीट की ऊँचाई पर बने चौड़े-चौड़े बरामदे। बरामदों का कच्चा फ़र्श जिसे राती (लाल) मिट्टी से मिले गोबर से लीपा जाता और कभी-कभी, विशेषकर तीज-त्यौहारों पर उन पर बड़े-बड़े सफ़ेद माँडने माँडे जाते (जिसे आज हम अल्पना कहते हैं)। आज से कोई साठ साल पहले मैंने एक दीवाली भानपुरा में मनाई थी और तब माँडने के इस दृश्य की कला को देखा था। माँडने वाली औरत बिना पहले से कोई डिज़ाइन बनाए, हाथों में बालों का छोटा-सा गुच्छा लेकर उसे सफ़ेद घोल में डुबोती और शुरू हो जाती और देखते ही देखते उनका वह डिज़ाइन फैलते-फैलते एक बड़े से गोलाकार या चौकोर माँडने का रूप ले लेता। तीन बरामदों में तीन अलग-अलग डिज़ाइन। मैं चकित रह गई थी उनकी उंगलियों की इस महारत पर। पता नहीं आज भी वैसी कलाकार स्त्रियाँ भानपुरा में हैं या नहीं, क्योंकि अधिकतर लोगों ने अपने कच्चे फ़र्श तो अब पक्के करवा लिये हैं।
बरामदे के दूसरे किनारे पर कमरों की क़तार। कच्चे फ़र्श और बिना एक भी खिड़की वाले इन कमरों को मेड़ी कहते हैं। एक ओर की मेड़ियों में दादा का साम्राज्य। एक मेड़ी थी उनका रोकड़ भंडार, जिसमें चाँदी के सिक्कों से भरी थैलियाँ या फिर खुले ढेर यों ही पड़े रहते थे। यहीं से लोगों को ब्याज पर रुपए दिए जाते थे और वापस मिलने पर उलट दिए जाते थे। उस समय शायद नोटों का इतना ज़्यादा प्रचलन नहीं था इसलिये सिक्कों में ही सारा काम होता था । एक मेड़ी में उनके बही-खाते और गिरवी रखी गईं चीज़़ें रहती थीं। दो मेड़ियों में अलग- अलग तरह के अनाज की बोरियाँ रखी जाती थीं। दादा अपने नाना के यहाँ गोद आए थे। उन्हें इस मकान के साथ-साथ ब्याज पर रुपया देने का यह धन्धा भी विरासत में ही मिला था और सारी ज़िन्दगी वे यही करते भी रहे।
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सामने वाले बरामदे की मेड़ियों में काम करने वाली औरतें रहती थीं। इसी बरामदे के एक सिरे पर बाहर जाने का रास्ता, जहाँ दो लैट्रिन बनी हैं और बाक़ी जगह खुली पड़ी है। दूसरे सिरे पर क़रीब एक-एक फ़ीट ऊँची सीढ़ियाँ हैं, जिन्हें चढ़कर पहली मंज़िल पर पहुँचा जाता है। ऊपर फिर वैसे ही बरामदे और मेड़ियाँ। एक ओर केवल बड़ा- सा रसोई घर और उससे जुड़ा भंडार-घर। दो ओर की मेड़ियाँ रहने के काम की....इन मेड़ियों के नाम भी हैं ‘जैसे पेटी वाली मेड़ी’ (यहाँ घर-भर के बक्से रखे हैं) ‘चूने वाली मेड़ी’ (इसमें एक खिड़की भी है और इसका फ़र्श भी पक्का है। ‘नाल (सीढ़ी) वाली मेड़ी (यह छत पर जाने वाली सीढ़ियों की बग़ल में है) ‘बरतन वाली मेड़ी (यहाँ घर के बरतन माँजे जाते हैं और उन दिनों लालटेनों की हंडिया भी चमकाई जाती थी।) ‘केलूड़ी मेड़ी’ (इसकी छत पर लाल रंग केकेलू लगे हुए थे) यह एक तरह से घर का ज़च्चा घर था जहाँ केवल बच्चे पैदा किए जाते थे... मेरा जन्म-स्थान भी यही है। इसी तरह बिस्तरवाली मेड़ी , लकड़ी वाली मेड़ी आदि-आदि।
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धन-धान्य और नौकर-चाकरों से भरी इस कोठी में अपने को ख़ुशक़िस्मत समझने वाली माँ की ज़िन्दगी के कौन से पन्ने यहाँ लिखे गए थे, यह तो माँ उस समय जान ही नहीं पाईं। दादी बेहद दबंग और रोबीले स्वभाव की महिला थीं और उन्होंने कभी कोई काम अपने हाथ से किया ही नहीं। काम करने वालियों की भी कोई कमी नहीं थी। कहते हैं कि कभी एक महिला (नाम मैं भूल रही हूँ) अपनी दो बाल-विधवा बेटियों को लेकर दादी की शरण में आई थी। बड़ी बेटी सीता बाई शायद माँ की उम्र की ही थी और छोटी बेटी मन्नी बाई कुछ छोटी थी । दादी ने उन्हें रख लिया था और खाने और कपड़े के एवज़़ में वे घर का सारा काम करती थीं। एक थी गेंदी बाई। उनकी भी अपनी एक अलग कहानी। छप्पन्या के काल (संवत् 1956 का भयंकर अकाल) में हड्डियों का ढाँचा रह गए एक पति-पत्नी दादा के पास आए और अपनी कोई आठ-दस साल की लड़की को पाँच मन ज्वार में बेच कर चले गए। दादी ने गेंदीनाम की इस लड़की के गले में जब तुलसी माला देखी तो लड़की के बाप ने बताया कि लड़की का ब्याह (विवाह) तोकर दिया था- पर अब पता नहीं कि उसके सासरे के लोग और उसका आदमी हैं कहाँ...ज़िन्दा भी हैं या मर-खप गए। आप तो बस इसे रख लो। आश्चर्य है कि स्थिति सामान्य होने पर भी उस बच्ची को वापस लेने आना तो दूर , कभी कोई देखने तक नहीं आया न माँ-बाप , न ससुराल वाले। वे सारी ज़िन्दगी हमारे घर ही रहीं। जिस पति से उसका कोई परिचय नहीं , जिसका उन्हें चेहरा तक याद नहीं , उसकी याद में भी वे ताउम्र विधवा बनकर ही रहीं। दादा-दादी की मृत्यु के बाद - पिताजी ने गेंदी बाई से बहुत आग्रह किया कि वे दूसरा विवाह कर लें पर वे नहीं मानीं।
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माँ की शादी और मुकलावा (गौना) एक साथ ही हो गया था क्योंकि उस ज़माने के हिसाब से माँ की शादी थोड़ी बड़ी उम्र में हुई थी। एक महीने तक तो दादी ने नई बहू का लाड़-कोड़ किया और फिर रसोई की सारी ज़िम्मेदारी उनके कन्धे पर डाल दी। चार प्राणी घर के और चार करने वाले...दोनों समय आठ प्राणियों का खाना बनाना पड़ता।दादी सिर्फ़ आदेश देती और बीच में एक-दो बार रसोई में झाँक जाती कि सब ठीक हो रहा है या नहीं। यों माँ उस उम्र में भी खाना बनाना सीखकर तो आई थी पर दादी के डर से वे थरथराती रहतीं क्योंकि ज़रा सी कमी रहने पर दादी वो फटकार लगाती कि बस ! हाँ, चटनी पीसने, आटा गूँधने जैसे कामों के लिए एक न एक औरत उनके साथ रहती ज़रूर थी पर आठ प्राणियों की रोटियाँ बेलना, चार सब्ज़ि़याँ बनाने का काम तो उनके ही ज़िम्मे था। ख़ैर, यह सब तो वे जैसे-तैसे निभा ले गईं। यह तो उस ज़माने की हर औरत की नियति ही होती थी। पर शादी के कोई ग्यारह महीने बाद दादी ने अपने दूसरे बेटे को जन्म दिया। मेरे पिताजी और बड़े काकासाहब की उम्र में कोई तेरह साल का अन्तर था। जिसने सुना-देखा उसने यही कहा कि बहू का पग अच्छा पड़ा , परिवार फिर हरा-भरा तो हुआ। पर दादी के मुँह से उन्हें ऐसा श्रेय कभी नहीं मिला। उस ज़माने में बहू की कमियों को बढ़ा-चढ़ा कर कहने और उसे दण्डित करने का प्रचलन तो ख़ूब था पर उसकी ख़ूबियों को सिरे से नज़र-अन्दाज़़़ कर देना भी आम बात थी। बहू और ख़ूबी -- जैसे ये दो विरोधी बातें हों। माँ की परेशानी तो तब बढ़ी जब उन्हें ज़चगी का खाना, जैसे-गोंद के लड्डू, सोंठ के लड्डू, गुड़-अजवायन की राब आदि बनाने को कहा गया। यह सब बनाना तो वे जानती नहीं थीं और दादी का आदेश कि ये सब तुम ख़ुद बनाओगी और सबकी नज़रों से बचाकर मुझे खिला जाया करोगी। माँ ने डरते- डरते दादी से ही पूछा । दादी ने बताया तो , पर मुँह से बताने और हाथ से बताने में बहुत फ़र्क़ होता है। डरते-डरते माँ ने यह सब बनाया और उनके कहे अनुसार सबसे छिपाकर उन्हें खिलाया भी। ख़ैर, काम को लेकर बात-बात पर डाँट-फटकार -- ये सब तो बड़ी सामान्य सी बातें हुईं , जो उस ज़माने की सभी औरतों ने किसी न किसी रूप में अपने ससुराल में झेली होंगी पर असली यातना या कहूँ कि सज़ा, जिसके लिए मैंने अविश्वसनीय शब्द का प्रयोग किया,वह तो उन्हें आगे भोगनी थी। मैं ख़ुद महसूस कर रही हूँ कि पृष्ठभूमि कुछ अनावश्यक रूप से लम्बी हो गई। पर शुरू किया तो बस , लिखती ही चली गई ! अब असली बात।
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दादी दबंग ही नहीं बहुत वहमीले स्वभाव की भी थीं। सबसे बड़ा वहम उन्हें कुत्ते को लेकर था...अगर किसी ने कुत्ते को छू लिया या कुत्ते ने किसी को छू लिया तो वह तो गया काम से। दादी ने माँ को किसी शादी की दावत में भेजा। साथ में दो औरतें तो रहती ही थीं। लम्बा घूँघट और सब तरफ़ से अपने को ख़ूब ढाँप-ढूँप कर जाना पड़ता था। वे गईं पर जब लौटीं तो दादी की नज़र उनके ओढ़ने के पल्ले पर गई...पास बुलाया और पूछा-‘यो काँई...यो पल्लो तो कुत्ता ने मुँह में लियो दिखे।’ माँ सिर हिला-हिला कर (वे दादी से बोलकर बात नहीं करती थीं) और साथ गई औरतें बोल-बोल कर मना करती रहीं कि कुत्ता तो वहाँ दूर-दूर तक नहीं था...पर दादी मानने को तैयार ही नहीं -- ‘क्यूँ म्यारी आख्याँ में धूल झोंको मैं काँई जाणू नी !’ और माथा ठोक-ठाक कर उन्होंने विलाप करना शुरू कर दिया-‘अरे अब काँई करूँ ई पापां से? म्हाराई घर में पलनो थो यो पाप।’’ विलाप से ज़्यादा वे क्रोध से थरथरा रही थीं। किसी काम करने वाली के साथ यह घटा होता तो उसे निकाल कर सीधे सड़क पर खड़ा कर देतीं। पर घर की बहू को तो न निकालते बन रहा था , न रखते। आखि़र उन्होंने इस पाप (?) के प्रायश्चित के तौर पर माँ की सज़ा का ऐलान कर दिया। गोटा-किनारी के कपड़े उतरवा कर एक ओर रखवा दिए , मेहतरानी के ले जाने के लिए...गहने उतरवा कर ख़ूब गरम पानी से धुलवाए और माँ को पुराने कपड़े पहना कर छत पर जाने वाली सीढ़ी पर बैठा दिया औरबता दिया कि अब यहीं बैठना है... ज़रा भी हिलना-डुलना नहीं है यहाँ से। एक सीढ़ी पर उन्हें बैठना था , नीचे वालीसीढ़ी पर पैर रखने थे और रात को ऊपर वाली सीढ़ी पर सिर रख कर सोना था। और यह सज़ा केवल एक-दो दिन के लिए नहीं , पूरे छः महीने तक के लिए दी गई थी , बग़ल में एक घड़ा रख दिया गया था , जिसमें रोज़ सवेरे आठ-दस लोटा पानी डाल दिया जाता। एक थाली, कटोरी और गिलास -- बस ये तीन बरतन पकड़ा दिए गए , जिसमें दोनों समय ऊपर से रोटी-सब्ज़ी पटक दी जाती। असली संकट था लैट्रिन का क्योंकि वह नीचे की मंज़िल में थी सो सवेरे चूने या राख से नीचे तक दो समान्तर लकीरें खींच दी जातीं , जिनके बीच से चलकर वे नीचे लैट्रिन तक जातीं। सवेरे के काम से फ़ारिग़ होकर वहीं वे राख से तीनों बरतनों के साथ-साथ अपने दाँत भी माँज लेतीं और घूँघट हटाकर अपना मुँह भी धो लेतीं। ऊपर आने के बाद लकीरों के बीच की ज़मीन को लीप दिया जाता। शाम को फिर वही प्रक्रिया। छः महीने तक माँ को नहाने को नहीं मिला। बाल धोने तो दूर , कंघा तक करने को नहीं मिला। चौबीस घंटे (सीढ़ियों पर सोने के कारण जहां वह रात को भी घूँघट काढ़कर सोती थीं ) घूँघट के कारण उनके बाल उलझ-उलझ कर गुच्छे बन गए थे...जुएँ तो पड़ी ही होंगी। माँ ने बताया कि और सब की तो उन्हें धीरे-धीरे आदत हो गई पर पानी का घड़ा धुलता तो नहीं था सो उसके बाहर मोटी-मोटी काई जम गई थी..बस, वही देखकर उन्हें घिन आती थी, पर करतीं क्या...पानी तो पीना ही पड़ता था।
विश्वास ही नहीं होता कि बिना नहाए-धोए , एक मिनट को भी कमर सीधी किए बिना , किसी से एक शब्द भी बोले बिना , रात-दिन लम्बा घूँघट काढ़े , सीढ़ियों पर बैठकर एक साढे़-चौदह-पन्द्रह साल की लड़की , पूरे छः महीने गुज़ार सकती है। पर मेरी माँ ने गुज़ारे । कारण मेरी माँ का किसी तरह का कोई गुनाह नहीं, बस, सिर्फ़ दादी का वहम। पूरे छः महीने बाद उन्हें सीढ़ी से उतारकर नहान-घर में भेजा जहाँ पहले से ही सिर धोने के लिए मुल्तानी मिट्टी, साबुन और एक जोड़ी कपड़े रख दिए गए थे। पहले एक औरत ने दो बाल्टी पानी उनके ऊपर उलट दिया और कहा कि ये गीले कपड़े एक ओर सरका देना , मेहतरानी ले जाएगी। जब वे सिर धोने बैठीं तो बालों के गुच्छे-के-गुच्छे उनके हाथ में आ गए। उनके बाल बेहद लम्बे और घने थे। उस दिन ज़रूर उन्हें रोना आ गया और वे घुटनों में सिर देकर फूट-फूट कर रोईं तो जैसे रोती ही रहीं। अपने पीहर जब गईं तो उनकी माँ ने पूछा, तेरे बाल क्या हुए ? तो माँ ने कहा-वहाँ के पानी में ही पता नहीं क्या है कि बाल गिर जाते हैं और यह घटना नहीं बताई। जबकि इस घटना के दो महीने बाद माँ को उनके पीहर भेजा गया था पर आश्चर्य कि उन्होंने वहाँ किसी से इसका ज़िक्र तक नहीं किया। वहाँ जो उस समय चाहे भानपुरा में नहीं थे पर बाद में तो मालूम हुआ ही होगा-उन्होंने भी इसका ज़िक्र नहीं किया। आश्चर्य तो मुझे इस बात पर होता है कि मैंने पिताजी और तीनों काकासाहब के मुँह से अपने माँ-बाप का कभी कोई ज़िक्र तक नहीं सुना। कौन जाने दादी सा के आतंक ने उन सबकी जीभ हमेशा के लिए कुन्द ही कर दी हो।
हमें तो इस घटना के बारे में मालूम पड़ा गेंदी बाई से। छुट्टियों में हम जब कभी भानपुरा जाते तो मैं गेंदी बाई से कुरेद-कुरेद कर उनके बचपन के बारे में पूछती। एक बार उन्होंने बताया कि इस घर में आने के कोई तीन-चार साल बाद दादी ने उन्हें अपनी माँ के यहाँ भेज दिया था। इस घर में उन्होंने डाँट-फटकार तो बहुत सुनी-सही पर मार कभी नहीं खाई। लेकिन नानी तो ज़रा सी ग़लती होने पर उन्हें पीट भी देती थी। और चूमटिये तो (खाना बनाने में प्रयोग किया जानेवाला) बहुत मारती थीं। उस ज़माने में लुगाइयाँ (औरतें) पगरखी (स्लीपर या चप्पल) नहीं पहनती थीं। हम यहाँ भी नहीं पहनते थे और हाट-बाज़ार नंगे पैर ही जाते थे पर भयंकर गर्मी के दिनों में नानी जब उन्हें बकरियाँ चराने के लिए जंगल की तरफ़ भेजतीं तो आग जैसी तपती ज़मीन पर चलने में उनके पैरों में छाले पड़ जाते। डरते-डरते उन्होंने नानी से पगरखी के लिए कहा तो उन्होंने ऐसा फटकारा कि बस। तब वे छिपकर, घर से कोई डोरी ले जातीं और वहाँ पेड़ों से पत्ते तोड़-तोड़ कर पैरों में बाँध लेतीं। नानी के घर बिताए बेहद कष्टप्रद एक साल की और भी कई बातें उन्होंने बताईं तो मेरे मुँह से निकला, ‘कैसी ज़िन्दगी जी है गेंदी बाई आपने..इतने कष्ट, इतनी तक़लीफ़ें ! ’ इस पर वे बोलीं-‘अरे , तुम्हारी माँ ने जो सहा उसके आगे हमरा क्या सहना? तुम्हें का बताया नहीं माँ ने कि कैसे छः महीने उन्होंने नाल (सीढ़ी) पर बैठकर काटे थे?’’ और तब उन्होंने यह सारा क़िस्सा विस्तार से बताया..इस टिप्पणी के साथ कि मेरा और सीता-मन्नी का बड़ा मन करता कि हम कुछ मदद ही कर दें और कुछ भी तो दो बात ही कर लें पर किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी। सुनकर ही मैं तो भन्ना गई। मुझसे दो साल बड़ी बहिन सुशीला शुरू से ही ज़रा शान्त स्वभाव की थी तो वह हैरान और दुखी होकर रह गई , मेरी तरह भन्नाई नहीं !
अजमेर लौटते ही मैंने माँ से पूछा -‘‘दादी साहब ने आपको छः महीनों तक सीढ़ी पर बिठा कर रखा था और आपने यह बात हम लोगों को कभी बताई तक नहीं।’’ माँ मेरा चेहरा ऐसे देखने लगीं जैसे कोई भूली-बिसरीबात याद कर रही हो।
‘‘भानपुरा में सुनकर आई दिखे या बात। बड़ी पुरानी बात हुई या तो और क्या बताती...बताने जैसा इसमें है ही क्या?’’
‘‘पर आप बैठी ही क्यों? क्यों नहीं मना कर दिया आपने कि मैं नहीं बैठ सकती छः महीने के लिए सीढ़ियों पर। ऐसी सज़ा भी कोई दे सकता है भला?’’ मेरा ग़ुस्सा फिर भड़क उठा। माँ हँसकर बोली-
‘‘अरे, जिसने सहा उसे तो कोई ग़ुस्सा नहीं और तु सुनकर ही लाल-पीली हो रही है। तू नी समझेगी...वो ज़माना ही ऐसा था। सासूजी थीं वो मेरी । उन्होंने जो किया वो हक़ था उनका और जो मैंने सहा , फ़र्ज़ था मेरा। और सहा क्या बस, यों समझो कि फ़रज़ पूरा किया अपना।’’
सुना तो मैं हैरान। माँ के लिए यह सब कुछ शायद इतना सहज-सामान्य था कि इसके लिए वे ‘सहना’ शब्द का प्रयोग भी नहीं करना चाहती। नहीं जानती केवल माँ या उस ज़माने की सभी औरतों की हक़ीक़त थी ये-बस सहना और उसे सहज भाव से लेना।
‘‘और पिताजी क्या करते रहे? -वे तो बेटे थे, वे तो कम से कम बोल सकते थे।’’
‘‘वे तो वहाँ थे ही नहीं। शादी के एक साल बाद वे दादा साहब से छिपकर दो लोगों की मदद से आगे पढ़ने के लिए जोधपुर भाग गए थे। भानपुरा में तो चार क्लास तक का स्कूल था ,बस ! सो दादा साहब तो चाहते थे कि उसके बाद वे भी उनके धन्धे में लगें पर तेरे पिताजी तो पढ़ने के पीछे पागल, सो भाग लिए। पहले तो दादा साहब, दादी साहब ख़ूब ग़ुस्सा हुए पर फिर सन्तोष कर लिया। रुपया पैसा भेजने लगे। सन्तोष था कि चलो , पढ़ ही तो रहा है। कोई ग़लत काम तो नहीं कर रहा है।’’
‘‘भाग कर गए, आपको भी नहीं बताया?’’
माँ हँस कर बोलीं-‘‘ये आजकल की लड़कियाँ ऊ ज़माना री बाताँ न जानो न समझो। उस ज़माने में शादी के बाद पति-पत्नी का बोलना तो दूर...चेहरा भी नहीं देखते थे। ब्याह कर आई तब से मेरी कोई बातचीत ही नहीं थी उनसे उस उमर में धणी-लुगाई (पति-पत्नी) कोई बात करते थे क्या? उन्होंने तो तब तक मेरा मुँह भी नहीं देखा था।’ ……
(शुक्रवार पत्रिका के वार्षिक अंक 2013 में
प्रकाशित)
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