व्यंग्य
इन दिनों कस्बे में जब साहित्यिक सम्मान
की बात आई, तो
पता नहीं कुछ मित्रों ने मेरा भी नाम डाल दिया। मुझे लगता है कि पुरस्कार या
सम्मान भी किसी फल के कुछ कम या ज्यादा पके हो जाने का प्रमाण-पत्र है। वरिष्ठता
का सर्टिफिकेट है। सृजन के बुझते ज्वालामुखी का साक्ष्य है। कुछ मालाओं का गौरव।
शाल-श्रीफल से चुकता होने की स्मृतिजीवी फोटोग्राफी। अखबारी संसार में एक दिन का
छपास-सुख। और कुछ करने के इतिहास की पूर्णाहुति का प्रशंसाधर्मी मूल्यांकन। घर की
दीवारें आबाद हो जाती हैं, अभिनन्दनों-स्मृतिचिह्नों से। अलग
बात है कि इन तस्वीरों के पीछे कीड़े-मकौड़े अपनी कॉलोनी बसाते जाते हैं।
पता
नहीं, इस बार मेरे मन में इस ‘साहित्य मार्तण्ड’ सम्मान को पाने की लालसा मचलने
लगी। कुछ दिन बाद लोग मिलने भी आये। बोले - ”साहित्य
मार्तण्ड सम्मान के लिए कुछ लोगों ने आप के नाम का प्रस्ताव दिया है। पर साहित्यिक
वृत्त नहीं भेजा है। आपका नाम तो अखबारो में रोज ही दिख जाता है।“ मैंने कहा - ”अब लीजिये, हमें
भी यह सब भिजवाने की जरूरत होगी। हमने तो कितने ही प्रोग्राम करवाये हैं। कितनी ही
अध्यक्षताएँ की हैं। कितने आन्दोलन खड़े किये हैं। क्या आप ये सब पढ़ते नहीं हैं?“
मुझे
मालूम है कि मेहमानों के आने पर लोग उन्हें समारोहों की ‘एल्बम-संस्कृति’ में उलझा लेते हैं। फिर एक-एक प्रसंग की सन्दर्भ सहित व्याख्या करते हुए
तारीफाने को विवश कर देते हैं। मैंने कहा - ”ये देखिये,
हमारी साहित्यिक भागीदारियों का एल्बल। और आप अब भी दस्तावेज माँग
रहे हैं।“
एल्बम
को चालू मिजाज से देखने से बचाते हुए मैंने उन्हें पीएच.डी. के थीसिस की तरह चेप्टरवाइज
बताना शुरु कर दिया। मैंने कहा - ”हमने इस एल्बम को अलग-अलग अध्यायों में बाँट दिया है।
शुरु के फोटोयुक्त समाचार हमारी डबल-कॉलम अध्यक्षताओं के हैं। देखिए न, बोल्ड-लेटर्स में हमारी हेडलाइन छपी है। इन विचारों को पढ़िये, हमारी तकरीर को पढ़िये। ये भी उस वक्त की हैं जब अखबारों में बड़ी मुश्किल
से जगह मिला करती थी।“
इनमें
से एक ने कहा - ”हाँ साहब, हम भी देखते थे कि जिस दिन आप समाचार
पहुँचाते थे, उसकी अगली सुबह 8-10 समाचार पत्र आपकी बाँहों
में हुआ करते थे। साथियों के सामने अखबार पड़े रहते थे। पर आपने उनका संकलन भी बड़ी
तरतीब से कर रखा है।“
मैंने
कहा - ”अरे भाई साहित्यकार तो
स्मृतिजीवी होता है। संस्मरण उसकी रसीली दुनिया है। और ये कतरने ही इन संस्मरणों
के एल्बम हैं।“ उन्हें पटरी पर लाते हुए मैंने कहा - ”ये दूसरा खण्ड है - इसमें अखबारों में फोटो तो नहीं छपे हैं, पर बोल्ड न्यूज है। काफी बड़ा कवरेज है। और सभी अखबारों ने इसे छापा है।“
उनमें से एक ने कनखियों से घूरते हुए कहा - ”ये
तो एक ही समाचार की फोटोकॉपी लगते हैं।“ उनकी तीखी नजर को
टोकते हुए मैंने कहा - ”समाचार में ही दम है तो उसे बदलना मुश्किल होता है। और ये लीजिये हमारे
मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि वाले कार्यक्रमों का समाचार-खण्ड। इनके भी फोटो नहीं
हैं। एक-दो अखबारों में जरूर छपे हैं। अगला खण्ड उन कतरनों का है, जिनमें हम शरीक तो थे मगर अध्यक्ष और मुख्य अतिथि बड़े ऊँचे दर्जे के थे।
ये उस जमाने के राजनेता थे। जाने माने गीतकार थे। हमने इन कार्यक्रमों का संचालन
किया था। बड़ा हुजूम हुआ करता था और संचालन का काम आसान तो होता नहीं, पर मैंने बखूबी उसे भी निभाया। उस समय हम जिन कविताओं और शेअरों को संचालन
की कड़ी में डाल देते थे तो तालियाँ शोर मचाती थीं।“
”और अगला खण्ड देखिए - ये
कतरने उन लोगों के साथ हैं, जो अपने जमाने के स्वनामधन्य हुआ
करते थे। उनके फोटो छपे थे और समाचार भी पाँच कॉलम में। हमारा नाम तो नहीं है पर
देखिये यहाँ हम उनके साथ इस कोने में खड़े हैं।“
तभी
एक दूसरे सज्जन ने टोका - ”तब तो आपने एक अध्याय उन कतरनों का भी रखा होगा, जिनमें
लिखा रहता है - ‘ये भी उपस्थित थे’।“
मेरा खून खौल गया। मेरे घर में और मुझ पर ही ताना। पर सम्मान की
लालसा में व्यंग्य को विटामिन की तरह गटकते हुए मैंने कहा - ”हाँ, वह भी है। अब बताइये न कि इतने बड़े कार्यक्रमों
में हमारी उपस्थिति को रेखांकित किया जा रहा है। अपना वजूद तो समाज को नजर आता ही
है न? फिर उनके महान् विचारों के साक्षी हम तो हैं ही न?“
वे
मेरी पाचक-शक्ति को देखकर ठंडे हो गये। मगर पूछ बैठे - ”आपकी कौन-सी किताबें छपी
हैं? आपकी रचनाएँ कहाँ छपी हैं? उनकी
समीक्षाएँ किसने लिखी हैं? किन पत्र-पत्रिकाओं ने छापा है?“
मैंने कहा - ”आप लेखन को ही सम्मान के लिए
इतना अहम् क्यों मानते हैं? आपको पता होना चाहिए कि प्राचीन
यूनान में रेह्टॉरिक यानी वक्तृत्व कला को भी साहित्य में शुमार किया जाता था।
प्लेटो और अरस्तू ने रेह्टॉरिक के गुण ही नहीं बताए, उनका शास्त्रीय
विवेचन भी किया है। पश्चिम में तो बड़े लोगों के स्पीच ऑफ आर्ट पर ही पीएचडीयाँ हुई
हैं। और आप हैं कि कहानी-कविता में ही उलझे हैं।“
थोड़ा
कमजोर पड़ते हुए उन्होंने कहा - ”तो आपने अपने स्पीच को लिपिबद्ध नहीं किये हैं क्या?“ मैंने कहा - ”अरे भाई, कार्यक्रमों
से फुर्सत ही कहाँ मिल पाती है? फिर भी अब कर रहा हूँ। सभी
भाषण टेप थोड़े ही हो पाते हैं?“
”फिर भी आपके जेहन में
कविता-कहानी के आइडिया-एहसास तो आते ही होंगे।“ उन्होंने नया
सवाल दाग दिया। मैंने कहा - ”हाँ भाई, ये
तो हमारे भाषणों में तैरते रहते हैं। फिर आपको यह भी बता दूँ कि छप जाना रचना की
कसौटी नहीं है। इटली का एक काव्यशास्त्री हुआ है वेनिदाते क्रोचे। उसका मानना है
कि कविता तो स्वयं प्रकाश्य है, उसकी बाहर अभिव्यंजना जरूरी
नहीं है। वह तो सहज अनुभूति है, कभी-कभी एकान्त में न जाने
कितने बिम्ब झलक जाते हैं। प्रकाशन तो बहुत बाद की चीज है। कल्पनाएँ भीतरी संसार
में ही झलक दिखा जाए, यही सृजन की परम अभिव्यक्ति है।“
आज
क्रोचे को भी दाँव पर लगा दिया, तो वे अचकचा गये। हतप्रभ हो जाने के बावजूद उन्होंने सवाल दाग दिया - ”हम वाकई आपका सम्मान करना चाहते हैं। पर ब्रोशर छपवाने के लिए कुछ तो
चाहिए।“ मैंने कहा - ”अरे भाई, सम्मान वगैरह की कोई बात नहीं है। पर हमारा यह ‘कतरनों
का रचना संसार’ सामने है। और अभी तो हमारे चित्रों का एल्बम
अलग से है। आपने ध्यान दिया होगा कि बड़े-बड़े राजनेताओं, साहित्यकारों,
संगीतज्ञों, स्वामियों के अलग-अलग मुद्राओं
वाले फोटो छापे जाते हैं। ये विशिष्ट मुद्राएँ हैं, विशिष्ट
क्षण हैं। ये मुद्राएँ अभिव्यक्तिमय हैं, वाणी को
नाट्यमुद्रा बना देती हैं। शब्दों को अभिनय में ढाल देती हैं।“
वे
सभी चुप्पा गये। सम्मान के लिए मेरा साहित्यिक भौतिक सत्यापन करना चाहते थे। और
मैं उन्हें अपनी कतरनों के एल्बम से अपने जीवन का सत्यापन करवा रहा था। उन्होंने
चाय पी। चेहरे पर अनपाई-सी सन्तुष्टि लिये उन्होंने सकारात्मक अभिवादन किया। अब
मैं हूँ और कतरनों का मेरा यह रचना संसार। सम्मान अब भी मेरे जेहन में बसा है।
25, स्टेट बैंक कॉलोनी
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