'स्पर्श' पर चल रही मूल्यांकन शीर्षक आलोचना श्रृंखला में विजेंद्र, विष्णु नागर, भगवत रावत और वीरेन डंगवाल के बाद इस क्रम में अब प्रस्तुत है वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल के कविता कर्म पर अख्तर अली का आलेख |
विनोद
कुमार शुक्ल – पढ़े जाने का सुख प्रदान करती कविताओ के कवि हैं
जो
युवा घटिया साहित्य के स्वाइन फ्लू की चपेट में आ गये है , उन्हें
बतौर उपचार विनोद जी की रचनाओ का अध्ययन करना चाहिए उन्हें शीघ्र स्वास्थ लाभ होगा
| साहित्य के इस कास्मेटिक युग में विनोद जी का लेखन नई राह दिखाने
वाला लेखन है | गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर का काव्य लेखन जिस
प्रकार लोगो के दिलो दिमाग में नशे की तरह छा गया था, वैसा
ही प्रभाव विनोद जी का काव्य लेखन पैदा कर रहा है | लेखन का एक काल
वह था – लेखन का एक काल यह है |
ऐसे
कवियों की सूची बहुत लम्बी है जो हमको प्रभावित करते है लेकिन विनोद जी तो दीवाना
बना देते है, उनका अंदाज़े बयाँ तो देखिये –
हताशा
से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति
को मै नही जानता था
हताशा
को जानता था /
इसलिए
मै उस व्यक्ति के पास गया
मैंने
हाथ बढाया
मेरा
हाथ पकड़ कर वह खड़ा
हुआ
मुझे
वह नही जानता था
मेरे
हाथ बढ़ाने को जानता था /
हम
दोनों साथ चले
दोनों
एक दुसरे को नही जानते
थे
साथ
चलने को जानते थे |
विनोद
जी कविताओं में गजब का संसार रचते है | इनके शब्द
द्रृश्य,रंग, लय, संगीत
से ओत प्रोत होते है | इनके शब्द कविता में नृत्यांगना की तरह
थिरकते है, अभिनेता की तरह मटकते है, बच्चे
की तरह मचलते है | विनोद जी के शब्द कभी शिशु की तरह घुटने चलते
है तो कभी खिलाडी की तरह उछलते है | कवि कविता में
स्वयं से बात करता है ,खुद से सवाल करता है खुद को जवाब देता
है लेकिन उसका काव्यात्मक हुनर खुद से पूछने को समाज से पूछना और खुद को जवाब देने
को समाज को जवाब देने में की महीन कारीगरी में तब्दील हो जाता है | कहने
सुनने का यह अंदाज़ देखिये –
दूर
से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी
में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी
लौट सकेगे की पूरी आशा से
सात
समंदर पार चले जाना चाहिये
जाते
जाते पलट कर देखना चाहिए
दुसरे
देश से अपना देश
अन्तरिक्ष
से अपनी पृथ्वी
तब
घर में बच्चे क्या करते होगे की याद
पृथ्वी
में बच्चे क्या करते होगे की होगी
घर
में अन्न जल होगा की नहीं की चिंता
पृथ्वी
में अन्न जल की चिंता होगी
पृथ्वी
में कोई भूखा
घर
में भूखा जैसा होंगा
और
पृथ्वी की तरफ लौटना
घर
की तरफ जैसा |
विनोद
जी कविता में जीवन गढ़ते है | जीवन को जीने का सलीका सिखाने वाली
कविताओं के कवि का नाम है विनोद कुमार शुक्ल | आपकी छोटी सी
छोटी कविता में भी बहुत बड़ा उपन्यास समाहित है | भाषा को सरल से
सरलतम बना देना और अर्थ को गहन से गहनतम कर देना ऐसे रचनाकार है विनोद जी | सौम्य
भाषा, सामान्य विषय और कलात्मक शिल्प इन तीन विशेषताओ का यह काव्य शिल्पी
कविता में धीरे से कहता है लेकिन उसकी झंकार दूर तक सुनाई देती है | कवि
रच कर चुप हो जाता है फिर कई दशको तक उसकी रचना बोलती है, उनका
पाठक बोलता है, समीक्षक बोलता है, आलोचक
बोलता है | कवि चुप हो जाता है कविता बोलती रहती है, बानगी
देखिये आप स्वय कह उठेगे वह वह क्या लिखा है –
‘’जो
मेरे घर कभी नहीं आएगे
मै
उनसे मिलने
उनके
पास चला जाउंगा |
एक
उफनती नदी कभी नहीं आऐगी मेरे घर
नदी
जैसे लोगो से मिलने
नदी
किनारे जाऊँगा
कुछ
तैरूँगा और डूब जाउंगा |
पहाड़,टीले
,चट्टानें ,तालाब
असंख्य
पेड़ खेत
कभी
नहीं आयेगे मेरे घर
खेत
खलिहानों जैसे लोगो से मिलने
गाँव
गाँव ,जंगल – गलियाँ जाउंगा |
जो
लगातार काम से लगे है
मै
फुरसत से नहीं
उनसे
एक जरुरी काम की तरह
मिलता
रहूँगा |
इसे
मै अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे
पहली इच्छा रखना चाहूँगा |’’
कविता
की सबसे अच्छी बात यह होती है की कविता कभी खराब नहीं होती है ,वह
या तो बहुत अच्छी होती है या थोड़ी कम अच्छी होती है , क्योकि
कविता में कविता की वजह होती है ,उसकी ज़रूरत होती होती है ,उसके
गर्भ में बेहतर जीवन जीने का संदेश होता है,प्रेम की महत्ता
होती है ,प्रेम को बचाये रखना का निवेदन होता है ,अनहोनी
की चेतावनी होती है , सावधान हो जाने का ऐलान होता है , इंसान
की इंसानियत को बचाये रखने का प्रबंध होता है ,ज़ुल्म के खिलाफ
निडर खड़े हो जाने का आव्हान होता है ,युद्ध का शंखनाद
होता है | कविता निहित विचार के कारण कविता होती है अपने
प्रारूप के कारण नहीं | जिसमे एक उम्दा सोच न हो भले वह कविता
की शैली में लिखी गई कुछ शब्दों का जमावड़ा हो लेकिन हम उसको कविता नही मानते ,हम
तो इसे कविता स्वीकार करते है –
जाते
जाते ही मिलेगे लोग उधर के
जाते
जाते जा सकेगे उस पार
जाकर
ही वहा पहुच जा सकेंगा
जो
बहुत दूर संभव है
पहुच
कर संभव होगा
जाते
जाते छूटता रहेगा पीछे
जाते
जाते बचा रहेगा आगे
जाते
जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब
तब
सब कुछ पीछे बचा रहेगा
और
कुछ भी नहीं में
सब
कुछ होना बचा रहेगा |
विनोद
जी कविता के माध्यम से पाठक को असहिष्णुता के रेगिस्तान से निकाल कर प्रेम और
विश्वास की चांदनी रात में ले आते है | आप समय को भाषा
की रात का समय होने नही देते ,इनके लेखन में सदैव भाषा प्रातः काल के
समय में होती है | इन्होने कविता के सहारे सोच की स्व्च्छत्ता को
खड़ा किया है | विनोद जी के पास कहने का जो लहजा है वह संयमित
लहजा है ,नाराजगी में भी भरपूर नरमी समाहित है ,क्रोध
और उत्तेजना का इनके लहजे में कोई स्थान नहीं ,बावजूद इसके भूख
की चिंता में लिखी गई कविताये शांत स्वरूप की गुस्सैल रचनाये है , कविता
में कवितापन को बचाने के लिये कवि ने कविता में चीखा भी बहुत शांति से है , और
यह शांतिपूर्ण चीख वहां तक पहुची है जहाँ तक उसे पहुचना था या पहुचाना था , देखिये
-
“मै
दीवार के ऊपर
बैठा
थका
हुआ भूखा हूँ
और
पास ही एक कौआ है
जिसकी
चोच में
रोटी
का टुकड़ा
उसका
ही हिस्सा
छीना
हुआ है
सोचता
हूँ की आय
न
मै कौआ हूँ
न
मेरी चोंच है
आखिर
किस नाक नक्शे का आदमी हूँ
जो
अपना हिस्सा छीन नहीं पाता|
विनोद
कुमार शुक्ल काव्य जगत के महानायक है | इन्होने समूचे
काव्य जगत को सम्मानित किया है ,इन्हें पढने के पहले पढने की तैयारी
करनी होनी चाहिए ,कवि पाठक की दृष्टि से नहीं लिखेगा लेकिन पाठक
को उसे कवि की दृष्टि से पढ़ना आना चाहिए , पाठक को कवि की
सोच तक पूरे सौ प्रतिशत पहुचना ही होगा | हमे खुद को
कविता पढने वाले पाठक नही कविता समझने वाले पाठक बनाना होगा , कविता
में सब कुछ स्पष्ट नही होता ये थोड़ी आधी अधूरी भी होती है ,कवि
सिर्फ चिंगारी लगाता है विस्फोट हमे स्वयम होना होता है | विनोद
जी की कविताओ का असर यह है कि ये पाठक को कवि कर देते है ,इनकी
एक कविता पढो तो दस कविताये लिख सकने लायक बुद्धि चार्ज हो जाती है | विनोद
जी की कविताये एक सांस में पढने वाली कविताये नहीं होती है , इन्हें
धैर्य के साथ रुक रुक कर , समझ समझ कर पढना होता है ,इसमें
निहित बिम्ब का आनंद लेना ही इन्हें पढने का सलीका है , पढ़ते
पढ़ते आगे जाने के बाद फिर पीछे आना पड़ेगा तब पढने का सुख मिलेगा ,पहली
बार में यह पंक्तिया स्पष्ट नही होने वाली ,जैसे-
(एक
)
आकाश
की तरफ
अपनी
चाबियों का गुच्छा उछाला
तो
देखा
आकाश
खुल गया है |
( दो
)
यह
चेतावनी है
एक
छोटा बच्चा है |
( तीन
)
अब
पड़ोस के घर जा रहा हूँ
दो
कदम ही चला हूँ
घर
से दूर ,
मै
यात्रा में हूँ
तीर्थयात्रा
में |
( चार
)
बिहार
के बाहर
एक
बिहारी मुझे पूरा बिहार लगता है |
( पांच
)
हाथी
आगे आगे निकलता जाता था और
पीछे
हाथी की खाली जगह छूटती जाती थी ||
(छै)
मैंने
पूर्वजो को कभी नहीं देखा
मै
पूर्वजो के चित्रों को याद करता हूँ |
(सात)
पकडे
गए जन्म से गूंगे का न बोल पाना
उसका
जबान न खोलना बन जाता हो
और
भीड़ को तब तक उसे पीटना है
जब
तक उसकी बोली का पता न चले
तब
बोली भाषा के झगडे में
एक
गूंगे का मरना निश्चित है |
(आठ)
पहाड़
को बुलाने
‘आओ
पहाड़’ मैंने नहीं कहा
कहा
‘पहाड़’मै आ रहा हूँ |
पहाड़
मुझे देखे
इसलिये
उसके सामने खड़ा
उसे
देख रहा हूँ
पहाड़
को घर लाने
पहाड़
पर एक घर बनाउगा |
यह
जरूरी नही होता कि किसी रचनाकार का समूचा लेखन श्रेष्ठ ही हो ,कुछ
रचनाये कमजोर और कुछ अस्वीकार भी होती है ,दृष्टिकोण सिर्फ
रचनाकार का नहीं होता ,पाठको का भी अपना नजरियाँ होता है ,वह
कृति को नकार भी सकता है ,पाठक सदैव नकारने वाली कृति को ही
नकारता है | अनावश्यक नकारना पाठक का स्वभाव कभी नही होता | इंटरनेट
में कविता कोश ब्लॉग में बच्चो की जो चौदह कविताये है वह कवि के कद की उंचाई की
नही है | जिस तरह कुछ कम्पनियों ने तकनीकी खराबी के चलते
अपने प्रोडक्ट को बाज़ार से वापस ले लिया उसी आधार पर रचनाकारों को भी अपनी अपेक्षकृत
कमजोर रचनाओं को वापस मंगा लेने का प्रावधान होना चाहिए |
अखतर
अली
आमानाका, कुकुर बेडा
रायपुर
(छत्तीसगढ़)
मो. 9826126781
ईमेल– akakhterspritwala@yahoo.co.in
No comments:
Post a Comment