तुलसीदास ने
रामचरितमानस के बाल काण्ड में कविता के सन्दर्भ में अनेक विचार व्यक्त किए हैं।
उनका एक कथन यह है कि कविता उत्पन्न कहीं होती है और उसकी छवि कहीं अन्यत्र
उद्घाटित होती है। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं। इसका आशाय यह है कि कविता के
सौन्दर्य का उदघाटन सहष्दय आलोचक करता है। जैसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी
आलोचना से जायसी, सूरदास और तुलसीदास के काव्य का मर्मस्पर्शी
सौन्दर्य उद्घाटित किया। और तुलसीदास के समकालीन कवि आचार्य केशवदास के चमत्कारवाद
की तीखी आलोचना की। उन्होंने लिखा है कि केशव को कवि हृदय नहीं मिला था।
ऐसी सर्वसमावेशी
आलोचना आजकल कम लिखी जा रही है। अधिकतर आलोचक राग और द्वेष से प्रेरित होकर अपने
प्रिय और अप्रिय कवि की आलोचना किया करते हैं। ऐसी आलोचना का एक नमूना लहक पत्रिका
के संयुक्तांक (जुलाई-सितम्बर,2016) में छपा है लेखक का नाम श्रीयुत सुशील
कुमार। और उनके आलेख का शीर्षक है- विजेन्द्र और एकान्त से महत्वपूर्ण कवि हैं
शम्भु बादल। आलोचकों ने सुशील कुमार को लोकधर्मी कवि घोषित किया है। अपने
शील-स्वभाव के अनुसार वह हृदयहीन कवि तो नहीं हैं। परन्तु उनकी आलोचनात्मक दृष्टि
कुछ धुँधली है। उनका चित्त निर्मल नहीं है। तभी तो उन्होने शम्भु बादल जैसे सहृदय
कवि के कन्धे पर अपनी लेखनी धरकर विजेन्द्र पर निशाना साधा है। उन्होने विजेन्द्र
के मात्र दो कविता-संकलन पढें है। कवि ने कहा (2008) और भीगे डैनो
वाला गरूण (2010)।
उनका पूरा आलेख
पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि उनकी आलोचना विश्वसनीय कतई नहीं है। विजेन्द्र ने ऐसी
काव्य-भाषा का प्रयोग किया है, जो सहज सम्प्रेषणीय है। और समकालीन कवियों
की भाषा से नितान्त भिन्न है। लेकिन आलेख के लेखक का विचार है कि विजेन्द्र की
काव्य-भाषा आउटडेटेड है। उल्लेखनीय है कि विजेन्द्र ने अपने प्रत्येक संकलन में
भिन्न काव्य-भाषा का प्रयोग किया है। विजेन्द्र तुलसी के समान काव्य की
अन्तर्वस्तु को प्राथमिकता प्रदान करते हैं और उसके अनुरूप भाषा रचतें हैं।
विजेन्द्र के
पहले संकलन त्रास (1966) की कविताओं में तत्सम शब्दों की बहुलता
है। कवि ने तद्भव शब्द भी प्रयुक्त किए हैं। लेकिन अपने दूसरे संकलन ये आकृतियाँ
तुम्हारी (1980) की कविताओं में कथ्य के अनुरूप स्थानीय
बोली के शब्दों के साथ तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक है। पाठकों की सुविधा के लिए
दूसरे संकलन में स्थानीय बोली के शब्दार्थों की सूची भी संलग्न की गई है। इससे यह
बात स्पष्ट हो रही है कि कवि अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्थानीय जन-जीवन से शब्दों का
चयन करता है। सुशील कुमार से अनुरोध है कि वह काव्य-भाषा की दष्ष्टि से विजेन्द्र के
सभी संकलनों आौर काव्य नाटकों का गहरा अध्ययन निर्मल मन से करें। उन्हें ज्ञात हो
जाएगा की विजेन्द्र की काव्य-भाषा के कितने रुप हैं। वह अपने समकालीन कवियों-
कुँवर नारायण, केदारनाथ सिहं, विनोद कुमार
शुक्ल आदि से कितने भिन्न हैं। विजेन्द्र की काव्य-भाषा में आवेगपूर्ण गद्यात्मकता
है। लयात्मकता है। बिम्बात्मकता है। रूपकात्मकता है। मुक्त छन्द का प्रवाह है।
उनकी काव्य भाषा निराला के संकलन नये पत्ते
की भाषा के समान सहज सम्प्रेषणीय है। उन्होंने अन्य वरिष्ठ कवियों- केदारनाथ
अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन की
काव्य-भाषा का विस्तार अपने ढंग से किया है। कबीर और तुलसी ने अपनी-अपनी काव्य-भाषा
में दूसरी अनेक भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार विजेन्द्र ने भी
स्थानीय ब्रजभाषा, राजस्थानी और बदायूँ जनपद की बोली के शब्दों का
प्रयोग किया है और अपनी काव्य-भाषा को नई भंगिमा प्रदान की है। अतएव सुशील कुमार
का यह कथन कतई निराधार है कि विजेन्द्र निराला, मुक्तिबोध और
त्रिलोचन से प्राप्त परम्परा को पुनर्नवा नहीं कर पाए। वास्तविकता यह है कि उनकी
काव्य-भाषा मुक्तिबोध की भाषा के समान दुरुह नहीं है। उन्होंने जानबूझकर मुक्तिबोध
की फैंटेसी शैली का प्रयोग नहीं किया है।
विजेन्द्र ने
परम्परागत छंदों --बरवै, दोहा, चैपाई, रोला, कवित्त
का प्रयोग भी किया है। उन्होंने कवित्त छंद का प्रयोग मुक्त छंद के रुप में किया
है। इस प्रकार छंदों के प्रयोग से उनकी भाषा में नयापन अपने आप आ गया है। लोक-जीवन
से जुडे़ हुए आल्हा काव्य के छंद का प्रयोग भी विजेन्द्र की कविताओं में लक्षित
होता है। इस छंद के प्रयोग में तुकान्त का समावेश नहीं किया गया है। यथा--बादर
गरजै बिजुरी चमकै/थर थर काँपत है किरसान/मुँह की बात कही न जावै/मनपै काई जमी
दिखात। (भीगे डैनों वाला गरूण, पृष्ठ 045) यह छंद समय
कविता से उद्धष्त है। पूरी कविता का सम्बन्ध लोक से है। इसकी भाषा पर ब्रज भाषा का
प्रभाव लक्षित हो रहा है। यहाँ भाषा में पुनर्नवता है |
विजेन्द्र अपने
काव्य-गुरू त्रिलोचन के समान शब्दों का चयन अपने आस-पास के लोक-जीवन से करते हैं।
उनकी भाषा उबाऊ तो कतई नहीं है, जैसा कि सुशील कुमार ने लिखा है। हाँ, इतना
अवश्य है कि उनकी भाषा में कुछ परिचित बिम्ब अनेक बार प्रयुक्त हुए है। समझता हूँ कि यह कोई दोष नहीं है।
सुशील कुमार
पल्लवग्राही लेखक है। वह विजेन्द्र के विपुल काव्य की गहराई में पैठना ही नहीं
चाहते हैं। विजेन्द्र ने मुक्तिबोध को बाद अधिकतम सार्थक लम्बी कविताएँ रची हैं।
उनकी लम्बी कविताओं के बिना हिन्दी की लम्बी कविताओं का इतिहास नहीं लिखा जा सकता
है। लगभग साठ लम्बी कविताओं में विजेन्द्र ने अपने व्यापक अनुभव, जीवन-पर्यवेक्षण, सभ्यता-आलोचन, अन्तरराष्ट्रीय
भाव-बोध के साथ-साथ अग्रगामी चेतना की प्रभाव पूर्ण अभिव्यक्ति की है। परन्तु खेद
की बात यह है कि सुशील कुमार ने उनकी एक भी लम्बी कविता पर एक भी वाक्य नहीं लिखा
है। न जनशक्ति पर। न कठफूला बाँस पर। न गँदला नीर युमना का पर। न मैग्मा पर। न
प्लाजमा पर। न ओ एशिया पर। न पाल राब्सन पर। न मैंने देखा है पृथ्वी को रोते पर।
क्या यह सुशील कुमार का प्रमाद नहीं है। कहा गया है कि स्वाध्याय से प्रमाद नहीं
करना चाहिए। आलोचक को तो विशेष रुप से गम्भीर अध्ययन करना चाहिए। दूसरी बात यह है
कि विजेन्द्र के दोनों काव्य नाटक--अग्निपुरुष और क्रौंचवध अद्वितीय कष्तियाँ हैं।
दोनों में लोकधर्मिता है। और प्रतिरोध की भावना भी। फिर भी सुशील कुमार ने इन पर
अपनी कृपा-दष्ष्टि नहीं की है। और न ही उनकी अनूठी चित्रमय काव्य-कष्ति आधी रात के
रंग पर। सुशील कुमार के विपरीत शम्भु बादल ने आधी रात के रंग देखने-पढ़ने के बाद
लिखा है- रंगों में चित्र/चित्रों में रंग/रंगों-चित्रों में कविता/कविता में
रंग-चित्र/अद्भुत संरचना/ ओ चित्रकार
कवि/रचनाएँ चेतन स्फुलिंग हैं। (ओ
चित्रकार कवि, से उद्धत)
अब आप स्वयं ही
निर्णय करें कि कवि विजेन्द्र के बारे में शम्भु बादल की वाणी अधिक विश्वसनीय है व
अथवा सुशील कुमार की लेखनी ? इसके साथ-साथ यह भी उल्लेखनीय है कि
सुशील कुमार ने विजेन्द्र के साँनेट काव्य की भी चर्चा कहीं नहीं की है। त्रिलोचन
के बाद विजेन्द्र ने ही साँनेट काव्य की परम्परा आगे बढाई है। उनके साँनेट भाव-बोध, विचार-बोध
और सौंन्दर्य-बोध से युक्त हैं। साथ ही साथ काव्यानुशासन से भी संयुक्त है। इसलिए
हमारा अनुरोध है कि सुशील कुमार कवि विजेन्द्र का सम्पूर्ण कृतित्व गभींरता से
पढें। और निष्पक्ष भाव से वस्तुनिष्ठ ढंग से मूल्यांकन करें|
सुशील कुमार यह
बात अच्छी तरह जानते हैं। कि शम्भु बादल की चुनी हुई कविताएँ (2016) के
प्रकाशन से पहले उनके तीनों काव्य-संकलन--पैदल चलने वाले पूछते हैं (1986) मौसम
को हाँक चलो (2007) और सपनों से बनते हैं सपनें (2010) छप
चुके थे। फिर भी उन्होंने शम्भु बादल जैसे महत्वपूर्ण कवि पर तत्काल क्यों नहीं
लिखा। क्या 2016 में ही उन्हें मालूम हुआ कि वह हिन्दी के
महत्वपूर्ण लोकधर्मी कवि हैं। यदि उन्होने तत्काल आलेख लिखा होता तो कृति ओर में
जरूर छपता। लेकिन वह चूक गए। लहक में अपना उपर्युक्त आलेख छपवाकर उन विजेन्द्र पर
आक्रमण किया, जिनके बारे में वह स्वयं वागर्थ के अंक 241 में
लिख चुके हैं- ‘‘हिन्दी काव्याकाश में निराला और त्रिलोचन की
परम्परा के एक अत्यन्त दृष्टि-सम्पन्न कवि के रूप में उनका (विजेन्द्र का) अभ्युदय
हुआ, जो अन्यत्र विरल है।‘‘ (वागर्थ,241,पृ031) यहाँ
सवाल खड़ा होता है कि विजेन्द्र के सन्दर्भ में कौन से सुशील कुमार विश्वसनीय हैं।
वागर्थ वाले ? अथवा लहक वाले ?
कोई भी
उत्कष्ष्ट काव्य-कष्ति भाव-बोध और विचार-बोध से समन्वित होती है। विचार-बोध से ही
कवि का भाव-बोध पुष्ट और प्रभावपूर्ण होता है। यदि तुलसी भक्ति के प्रति के अपने
आस्था बार-बार व्यक्त करतें हैं तो विजेन्द्र अपने युग के अनुरूप मार्क्सवादी
विचारधारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करतें हैं। यही कारण है कि उन्होने
अपने जन-चरित्रों की सृष्टि वर्गीय दृष्टि से की है। और समकालीन भारतीय समाज में
व्याप्त सामन्ती, पूँजीवादी, रूढ़िवादी, सम्प्रदायवादी, साम्राज्यवादी
प्रवृत्तियों का तीखा विरोध किया है। उनके जनचरित्रों में एक चरित्र मुर्दा
सीनेवाले का है, जो हिन्दी कविता में पहली बार रचा गया है इस
चरित्र के माध्यम से कवि ने वर्तमान समाज की अनेक विसंगतियाँ उजागर की हैं।
प्रतिबद्ध कवि
होने के नाते विजेन्द्र ने संगठित जनशक्ति के प्रति अपनी आस्था बार-बार व्यक्त की
है। उन्होने अपने विरोधियों को सम्बोधित करते हुए कहा है- ‘‘तुम
मुझे यातना दे सकते हो / मेरी उपेक्षा कर सकते हो/ खत्म नहीं कर सकते मुझे/
सर्वहारा ही दिलाएगा मुक्ति रक्तपायियों से/ काल
से भी अधिक विकराल है/ भूखे आदमी का क्रोध/ दमित लोगों का जागरण।‘‘ (मैनें
देखा है पृथ्वी को रोते, पृष्ठ 135) विजेन्द्र
वर्तमान व्यवस्था से खिन्न होकर कहते हैं कि मुझे जगाने दो सरस्वती को। वह सरस्वती
से कहतें हैं- ‘‘ओ कविता की देवी/ तुम सोई हो कहीं/ निविड़ अँधेरी
छाँह में/ या कहीं धरती की कोख में/ तुम जागो/ कवि छन्द खो चुका है/ भूखा है झूठे
यश को/ मुठ्ठी भर सिक्को में/ बेचता ईमान को।‘‘ (बेघर का बना देश, पृष्ठ
015)
उपर्युक्त
पंक्तियों में विजेन्द्र की लोकोन्मुखी चिन्ता व्यक्त हुई है और मन की बेचैनी भी।
लेकिन सुशील कुमार ने इसे अनदेखा कर दिया हैं। उन्होने अपने आलेख में ‘त्रास’
संकलन की एक कविता का विश्लेषण करके अपना यह अभिमत व्यक्त किया है- ‘‘बस
श्रम का (अमूर्त) द्वन्द्व ही दिखाना ही कविता में कवि का असली मकसद है, पर
बिम्बों की सधन प्रयुक्ति के बावजूद काव्यफल निष्फल रहा अर्थात श्रमिक के असन्तोष
का कारण-विधान नहीं किया जा सका।‘‘
सुशील कुमार का
यह निष्कर्ष भ्रामक है। उपर्युक्त कविता अब कवि ने कहा में संकलित है। इसका शीर्षक
है ‘उसकी बाँहों के हर जोड़ पर’। इस कविता में कवि ने श्रमिक की शारीरिक संक्रियाओं
का स्वाभावित वर्णन किया है। वर्णन में बिम्बों का समावेश अनायास हुआ है। कविता
पढ़कर पाठक को ज्ञात होता है कि श्रमिक ने चक्की की पाट खोल दिए हैं। वह अपने
हथोडे़ की चोटों से चक्की के पाट दुरूस्त कर रहा है। ऐसा करते समय उसका पूरा शरीर
क्रियाशील हो रहा है। पूरी कविता में स्वभावोक्ति है। इस कविता में कवि ने श्रम के
सौंन्दर्य का चित्र अंकित किया है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि यह कविता कवि
की प्रारम्भिक रचनाओं में से एक है। परन्तु यह सत्य है कि विजेन्द्र के सम्पूर्ण
काव्य में प्रतिरोध-भावना का सौन्दर्य झिलमिला रहा है। यही
सौंन्दर्य शम्भु बादल की कविताओं में भी है। यदि विजेन्द्र के काव्य में
धरमपुर-भरतपुर-चुरू-नोहर-जयपुर-फरीदाबाद का जन-जीवन और परिवेश बोलता है तो शम्भु
बादल के काव्य में हजारी बाग का | दोनों प्रतिरोध सौंन्दर्य के कवि हैं। शम्भु
बादल और एकान्त श्रीवास्तव ने विजेन्द्र की लोकधर्मी काव्य-परम्परा को आगे बढ़ाया
है। इसलिए दोनों ही हमारे लिए महत्वपूर्ण कवि हैं।
-अमीर
चन्द वैश्य
द्वारा
कंप्यूटर क्लिनिक, सितारा बीड़ी एजेंसी के सामने
चूना
मंडी, बदायूं
चलितवार्ता
9897482597
----0----
अमीर चंद जी ने बहुत सटीक, तर्कपूर्ण और उदहारण सहित लिखा है।
ReplyDeleteमैंने दोनों लेख पढ़ें हैं।
अमीरचन्द जी ने ठीक ही लिखा है कि सुशील कुमार पल्लवग्राही लेखक है। वह विजेन्द्र के विपुल काव्य की गहराई में पैठना ही नहीं चाहते हैं।
ReplyDeleteअमीरचंद वैश्य की यह प्रत्यालोचना नहीं , केवल कवि विजेंद्र का महिमामंडन है । तर्क कहीं से वैज्ञानिक नहीं। थोथी दलीलें हैं। वैश्य जी ने आज तक यही किया है। न तो विजेंद्र जी काव्य सौंदर्य में कोई नई बात आज तक कह पाए , न वैश्य जी की समालोचना में कोई जमीन कटती है। सब पहले से कही हुई बात। घिसी पिटी। घिसे हुए सिक्के नहीं चलते। न जाली नोट ही चलते हैं। बस ये दोनों जन दूसरी की बातों को ही दुहराते रहे हैं । जीवन भर पुरानी लकीरें ही पीटते रहे हैं। इसलिए मैं भी फिर दुहराउंगा कि अपने अग्रजों की तरह विजेंद्र जी ने अपनी काव्य भाषा में 'त्रास 1966' से 'लोहा ही सच ही 2015 ' तक कोई बदलाव नहीं किया । मैंने विजेंद्र को अन्य कवियों से अधिक पढ़ा और बहुत उबा भी। बहुत *बोरिंग * कवि हैं। शम्भु बादल विजेंद्र से बहुत आगे के कवि हैं। विजेंद्र का कवि- पात्र विद्रोही नहीं, हर संग्रह में हर कविता में विवश है । हर जगह । विजेंद्र जी अपने काव्य सौंदर्य में श्रम सौंदर्य के आग्रही कवि हैं और जबरन इनका पैठ कराकर केवल मार्क्सवाद विचार अभिकथन को कविता में आगे करते हैं जो कविता की आत्मा को ही मार डालता है। विजेंद्र की लंबी कविताओं की तुलना मुक्तिबोध की लंबी कविताओं से करके वैश्य जी ने मुक्तिबोध के गौरव को गिराने का काम किया है। विजेंद्र जी ने लम्बी कविताओं में लोक सौंदर्य के नाम पर सिर्फ़ अनर्गल प्रलाप किया है जो पाठकों के लिए बेहद उबाऊ और कोई काम की नहीं चीज़ नहीं। इनकी लम्बी कविताएँ बेहद अपठनीय हैं।
ReplyDeleteवागर्थ के अगस्त 2015 में विजेंद्र जी पर केंद्रित अंक पर मेरा 2005 में लिखा गया अनुभवहीन- आलेख बिना मेरी अनुमति से मेरे ब्लॉग www.sushilkumar.net से उठाकर एकांत श्रीवास्तव जी को छापने के लिए दे दिया गया । यह एक अनैतिक है। अपराध भी है । बाद में मुझे बताया गया कि आपका आलेख फलां जगह छपा है। अगर मुझसे पूछा जाता तो मैं कतई इस लेख को छापने की स्वीकृति नहीं देता। विजेंद्र जी बेहद आत्ममुग्ध कवि हैं। इस बात को भी सभी जानते हैं। अपने को निराला और मुक्तिबोध से जोड़ते हैं । पर वे क्या हैं, यह पाठक भलीभांति समझते हैं। मैं विजेंद्र जी को इतने सालों से जानता हूँ । अगर उनकी नीयत सही होती तो आज कविता का लोकधर्मी आंदोलन बहुत आगे जाता । 'कृति ओर' को उन्होंने हथकंडे की तरह उपयोग किया है। उन्हीं कवियों और लेखकों को छापने का यहाँ उपक्रम किया गया , जिसने कवि विजेंद्र का गुणानुवाद किया। शम्भु बादल, योगेंद्र कृष्ना, अशोक सिंह ,राजकिशोर राजन आदि - इन सब की घोर उपेक्षा की गयी। उनका लोक वायवीय और काल्पनिक है। इस कारण उनका काव्य सौंदर्य एक नए तरह के रूपवाद की ओर हमें ले जाता है जिसकी हमनेे लहक पत्रिका के आलेख में विशद चर्चा की है। अमीर चंद जी को ब्लॉग या फेसबुक पर चर्चा करने के बजाए अपनी कथित प्रत्यालोचना लहक पत्रिका को ही भेजने का साहस करना चाहिए । विजेंद्र जी और वैश्य जी, दोनों ने मुझसे पूछा है कि*आपका कौन सा आलेख कूड़ेदान में डालूँ, वागर्थ वाला या लहक वाला?* मेरा उत्तर है - *आपने मेरे 2005 ,(जब मैं कविता लिखना-पढ़ना सीख रहा था ) में लिखे लेख जबरन लेकर वहाँ विजेंद्र जी की वाहवाही के लिए छपवा दिया । आप उसी को कूड़ादान में डाल दीजिए । लहक पत्रिका वाला आलेख एक वयस्क लेखक का लेख है। इसे रहने दीजिए सुधी पाठकों के लिए हुजूर ।नमस्कार।*