हिंदी भाषा के
सन्दर्भ में समाज, संस्कृति और भाषा तीनों को साथ लेकर चलने वाले सुप्रसिद्ध समाज
भाषा वैज्ञानिक डॉ. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव का जन्म 1 जुलाई 1936 को उत्तर प्रदेश
के बलिया जनपद में हुआ था ।
प्रस्तुत
पुस्तक ‘हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र’ में उनकी दृष्टि हिंदी भाषा के सामाजिक धर्म
की ओर पहले गई । भाषा और धर्म पर विमर्श करनेवाला उस समय विश्व पटल पर अवस्थित दो
दृष्टियाँ भाषा का समाजशास्त्र तथा समाजोन्मुख भाषा-विज्ञान की अध्यनरत प्रकृति
एवं भाषागत अवधारणा पर भी उन्होंने भारत में संभवतः पहली बार दृष्टिपात किया ।
डॉ. श्रीवास्तव की
यह दृष्टि उनकी पुस्तकों में साफ दिखती है जिसमें उन्होंने हिंदी को समाजशास्त्रीय
परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया हिया । वस्तुत: हिंदी भाषाई समाज की
वास्तविकता यह है कि उसका हर सदस्य अपने घरेलू जीवन एवं व्यवहार के आत्मीय सन्दर्भ
में अपनी बोलियों का प्रयोग करता है, तो शिक्षा एवं व्यवहार के औपचारिक सन्दर्भ
में किसी न किसी अंश में खड़ीबोली का प्रयोग करता हैं । यह बात भी कम महत्वपूर्ण
नहीं है कि हिंदी साहित्य का मूलाधार भी उस हिंदी भाषाई समाज की सांस्कृतिक चेतना
और काव्यात्मक संवेदना हैं जिसे हम बोली समुच्य की अंतरंग शक्ति के रूप में पाते
हैं । अत: समाजभाषाविज्ञान के सन्दर्भ में डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव लिखते हैं,
“इसके अध्ययन क्षेत्र के भीतर विभिन्न सामाजिक वर्गों की सामाजिक शैलियाँ,
बहुभाषिकता का सामाजिक आधार, भाषा-नियोजन आदि भाषा अध्ययन के सभी सन्दर्भों में आ
जाते हैं जिनका संबंध सामाजिक संस्थान से रहता है ।”
इस पुस्तक के पहले खण्ड में भाषा और समाज का
अन्तःसंबंध सैद्धानतिक परिप्रेक्ष्य्के रूप में बताया गया है । उन्होंने अपनी भाषा
संबंधी विचारधारा को लांग (भाषा व्यवस्था) और पेरोल (भाषा व्यवहार) द्वारा
प्रस्तुत किया है । आज व्यवस्था व्यक्ति की अपनी स्वेच्छा से परे जाकर समूहगत
अनुबंधन के रूप में मिलती है तो भाषा-व्यवहार व्यक्तिजन्य प्रयोग होने के कारण
विशामृपी है । इन्हीं दोनों के सदस्य एक दूसरे से बंधे हुए हैं और उनमें सम्प्रेषण
भी हो पाता है । समाज भाषाविज्ञान के स्वरुप एवं प्रकृति को स्पस्ट रूप में
प्रस्तुत करते हैं –जहाँ समाजविज्ञान समाज के समस्त व्यवहारों का निरिक्षण-परिक्षण
करता है, वहीं भाषा भी एक प्रमुख सामाजिक व्यवहार है । इसलिए अन्य सामाजिक
व्यवहारों की भांति ही वह भाषा- व्यवहार को भी नियंत्रित एवं सुविकसित करता है |
अध्ययन क्षेत्र के भीतर विभिन्न सामाजिक आधार भाषा- नियोजन जैसे भाषा-अध्ययन के वे
सारे सन्दर्भ आ जाती हैं जिनका संबंध संस्थान से रहता है ।
इसी प्रकार कैम्पवेल
और वेल्स (1970) का मत है- “समाज भाषाविज्ञान की यह मान्यता है कि भाषा को इस
सामाजिक बोध अथवा उसके सामाजिक प्रयोजन से अलग कर देखना असंगत है ।”
शुद्ध भाषावैज्ञानिकों और समाज भाषावैज्ञानिकों
के बीच का अंतर भाषा को भिन्न ढंग से देखने की दृष्टी का परिणाम कहा जा सकता है | समाज और भाषा कभी एक दूसरे से अलग हो ही नहीं
सकते क्योंकि न ही भाषाविज्ञान का अध्ययन
सामाजिक परिप्रेक्ष्य के बिना संभव है आर न ही समाज भाषाविज्ञान को भाषा के
सामाजिक पक्ष को जाने बिना समझा जा सकता है । अतः इस सन्दर्भ में भी आर.ए. हडसन का
मानना है कि- “चाहे कोई भी भाषा पर कार्य कर रहा हो और चाहे किसी भी दृष्टिकोण से
कर रहा हो । उसके लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि वह उस विषयवस्तु के सामाजिक पक्ष के
बारे में पहले जाने ।”
समाज भाषाविज्ञान हो या भाषाविज्ञान दोनों का
संबंध भाषा और समाज से है । और किसी एक के अभाव में दूसरा कार्य नहीं कर सकता
क्योंकि एक का अस्तित्व ही दूसरे में निहित है । आर.ए. हडसन का कथन है कि- “समाज
भाषाविज्ञान से भाषाविज्ञान केवल इसलिए अलग है क्योंकि वह भाषिक संरचना का अध्ययन
सामाजिक परिप्रेक्ष्य के बहार करता है ।” इस तरह उन्होंने भाषा को एक सामाजिक
प्रक्रिया (social function) भी माना है क्योंकि समाज में
सम्प्रेषण के माध्यम से और समूह को पहचानने के माध्यम से यह कई सामाजिक कार्य करती
है ।
इस तरह यह बातें
स्पस्ट हो गई है कि शुद्ध भाषाविज्ञान अगर भाषा का अध्ययन भाषा के लिए करता है तो
समाज भाषाविज्ञान समाज के माध्यम से भाषा अध्ययन करता है । अगर शुद्ध भाषाविज्ञान
अपने अध्ययन का संदर्भ भाषा को मानता है तो समाज भाषाविज्ञान आपसी भाषिक व्यवहार
को मानता है |
पुस्तक के खण्ड (ख)
में श्रीवास्तव जी ने हिंदी भाषा की सामाजिक अस्मिता पर बात करते हुए हिंदी-उर्दू के विवाद पर ज्यादा बल दिया है । उनके अनुसार
हिंदी और उर्दू को अलग होने के लिए किसी प्रकार की सांप्रदायिक या जातीय आधार की
आवश्यकता नहीं है क्योंकि इनकी चेतना एक है जो समाज के हर स्तर पर महसूस की जा
सकती है ।
हिंदी और उर्दू का न
तो कोई जातीय आधार है और न तो कोई सांप्रदायिक आधार । वास्तव में हिंदी और उर्दू
एक ही भाषा है जो समाज के हर स्तर पर महसूस की जा सकती है । हिंदी उर्दू से कोई
स्वतंत्र भाषा नहीं है जबकि फारसी लिपि में लिखी जाने वाली खड़ीबोली हिंदी का ही एक
रूप है जिसने इन शब्दावलियों को और काव्य रुढ़ियों का किसी खास ऐतिहासिक परिस्थिति
में अपना लिया था । अतः हिंदी और उर्दू की हस्ती एक है । पर जिन कारणों से इन
दोनों में अलगाव को देखा गया है वह उर्दू काव्य का ही सामंतवादी आधार था जो आम
जनता की भाषा से दूर था और सामंतों एवं शासक वर्ग की भाषा थी । पर यही उर्दू फिर
जब देश की आजादी से जुड़ी आम जनता के दुःख-दर्द से बंधी तो अपने और हिंदी के बीच की
दरार को पाटने लगी । आखिर में इस एक जवान को बोलने वालों में न कोई भेदभाव है और न
सामाजिक अस्मिता के धरातल पर कोई दुराव।
हिंदी का जनपदीय,
रास्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सन्दर्भ भी कुछ इस तरह है । हिंदी अपने जनपदीय
सन्दर्भ में छह प्रादेशिक राज्यों-उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान,
हिमाचल प्रदेश और हरियाणा तथा दो संघ राज्यों-दिल्ली और चंडीगढ़ की राजभाषा के रूप
में स्वीकृत है । इस तरह राष्ट्रिय सन्दर्भों में प्रयुक्त होने वाली हिंदी जनभाषा
और राजभाषा के दो निश्चित भाषारूप में उभरकर हमारे सामने आती है । जनभाषा के रूप
में हिंदी अहिन्दी क्षेत्रों में प्लेटफोर्म, अंतरराष्ट्रीय बस अड्डे, सांस्कृतिक
स्थलों पर प्रयोग होती दिखती है तथा फिल्मों के माध्यम से अहिन्दी भाषी लोगों के
लिए संपर्क का कार्य करती हुई दिखती है । इस भारतवर्ष में बहुभाषिकता यहाँ की
संचार-व्यवस्था की अपनी आवश्यकताओं के सहज और प्राकृतिक लक्षण के रूप में उभरी है ।
भारतवर्ष में पारिवारिक व्यवहार, सम्प्रेशानियता, दैनिक आचरण आदि के सन्दर्भ में
एक से अधिक भाषाओं के प्रयोग होने के कारण यहाँ की बहुभाषिक स्थिति व्यक्तिपरक न रहकर
समुदायपरक हो गई है । इस सन्दर्भ में डॉ. श्रीवास्तव ने बिहार के संथाली समाज का
उदहारण देते हुए कहा है कि- “अपने जीवन के पारिवारिक सन्दर्भों में वे संथाली का
प्रयोग करते हैं । पर अपने वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन के दायरे से बहार आकर वे
स्थानीय बोलियों (भोजपुरी, मैथिली, और मगही) को अपनाते हुए देखे जाते हैं ।”
इस समुदायपरक
बहुभाषिकता की मुख्य विशेषता है लगभग प्रत्येक भारतीय का द्विभाषिक होना जबकि यह
उसके व्यक्तित्व को बिना खण्डित किए और भी विकसित और पुष्ट बनाना है । इस सन्दर्भ
में डॉ.श्रीवास्तव का मानना है कि- “ बहुभाषिकता की भाषाई स्थिति में उसका
मानकीकृत रूप बहुमुखी हो सकता है और मानक हिंदी में लचीली स्थिरता रह सकती है ।”
आधुनिकीकरण की
संकल्पना को स्पस्ट करते हुए उन्होंने मालोशिया के सुप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक
आलिसजबाना के विचारों की व्याख्या की । उनके अनुसार-“आधुनिकीकरण की परिभाषा है
अभिव्यक्तिपरक संस्कृति का प्रगतिपरक संस्कृति में रूपांतरण ।”
बहुभाषिक और सामाजिक
अस्मिता : व्यक्ति समाज से पनपने वाला प्राणी है और समाज
में उसे अपने विचारों का आदान-प्रदान करना होता है । इसलिए वह उसी समाज की भाषा का
प्रयोग भी करता है । व्यक्ति अपने विभिन्न प्रयोजनों के लिए एक ही समय में विभिन्न
उपयुक्त भाषाओं का प्रयोग कर सकता है जिसे आम भाषा में व्यक्ति की बहुभाषिक स्थिति
कहा जाता है । अर्थात् जब किसी भाषाई समाज में एक भाषा से इतर किसी अन्य भाषा का
सम्प्रेषण के लिए प्रयोग होता है तो उसे बहुभाषिक स्थति कहा जाता है ।
इस सन्दर्भ में डॉ.
कुसुम अग्रवाल का मानना है कि- “ अधुनातन समाज भाषावैज्ञानिक अध्ययन इस बात की ओर
करते हैं कि भाषाई समाज का वास्तविक स्वरुप प्रयोक्ताओं के अस्मिता ऐक्य पर भी
आधारित है । अर्थात् किसी भी भाषाई समाज में वे सब लीग सम्मिलित होंगे जो इस समाज
में व्यक्त भाषा के प्रयोग द्वारा अपनी पहचान भी स्थापित करना चाहते हैं ।”
इसके अतिरिक्त इस
पुस्तक के खण्ड (ग) में श्रीवास्तव जी ने हिंदी और मानकीकरण के विविध सन्दर्भों में
साथ-साथ नियोजन और भाषा नियोजन हिंदी और आधुनिकीकरण पर अपने विचार व्यक्त किए हैं ।
किसी भी राष्ट्र या देश में एक ऐसी भाषा की आवश्यकता रहती है जो विभिन्न
व्यवहार-क्षेत्र में सम्प्रेषण साधन की महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सके ।
इसके लिए ज़रूरी है कि वह भाषा क्षेत्रीय तथा सामाजिक विविधताओं से उठकर
सर्वग्राह्य तथा सामाजिक हो । ऐसे तो कोई भी समाज भाषा के सर्वमान्य रूप को ही
अपनाता है पर इसके सम्यक विकास के लिए इसके नियोजिन की आवश्यकता होती है जो वास्तव
में दो दिशाओं में किया जाता है-
1. मानकीकरण
2. आधुनिकीकरण
डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार- “मानकीकरण मान्य
प्रयोगों को निर्धारित करने के लिए नियोमों का कोडीकरण है ।”
कृष्णकुमार गोस्वामी के अनुसार- “मानकीकरण
रूपात्मक एकीकरण की प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत व्याकरणिक रूपों को अनेकता में
एकता के आधार पर मानक बनाया जाता है ।”
आधुनिकीकरण वास्तव में एक सतत प्रक्रिया है जिसमें दिशा, दृष्टि और मूल्य
का बहुत महत्व होता है । भाषा के इसी आधुनिकीकरण के सन्दर्भ में डॉ.श्रीवास्तव का
यह कथन है कि- “प्रसिद्ध भाषाविद अलिस हबाना ने पाश्चात्य देशों में प्रचलित आधुनिकीकरण
की इन सभी संकल्पनाओं का विरोध करते हुए स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि
पश्चिमीकरण की धारणा से यूरोप की संस्कृति में प्रभुता की गंध आती है ।... उनकी यह
मान्यता रही है कि मूलतः हमें दो प्रकार की संस्कृति देखने को मिलती हैं -
अभिव्यक्तिपरक संस्कृति (एक्स्प्रेसिक) और प्रगतिपरक (प्रोग्रेसिव) संस्कृति ।”
अतः अंत में हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भाषा के आधुनिकीकरण और
मानकीकरण के विषय में आलोचना और आत्मालोचना से समन्वित दृष्टि लेकर ही आगे बढ़ना
चाहिए । कारण सरल और स्पस्ट भाषा रूपों को ही व्यापक सामाजिक स्वीकृति प्राप्त
होती है । चुकि भारतीय समाज एक बहुभाषी समाज है । इसलिए हिंदी की मानकीकरण
प्रक्रिया की कोई एक निशित दिशा नहीं बन पाई है ।
भाषा-नियोजन : नियोजन का अर्थ है
मानव-समस्या-समाधान या नीति निर्माण के क्षेत्र का क्रिया-कलाप । इस सन्दर्भ में
डॉ. श्रीवास्तव का मानना है कि- “यह एक ऐसी गतिविधि है जिसमें लक्ष्य को निर्धारित
किया जाता है, साधनों का चयन होता है और परिणामों का पूर्वानुमान व्यवस्थित तथा
स्पस्ट ढंग से किया जाता है ।” डॉ. दिलीप सिंह का कथन है- “ सहज ढंग से कहें तो
भाषा-नियोजन का कार्य और तात्पर्य है किसी देश और समाज की भाषा विषयक समस्याओं के
लिए समुचित योजना बनाना तथा उसे क्रियान्वित करना ।”
विशेषताएँ : ‘हिंदी भाषा का समाजशास्त्र’ सन् 1994 में प्रकाशित हुई ।
उन्होंने हिंदी को समाजशास्त्रिय परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया है । भाषा
के समाजशास्त्र से संबंध प्रमुख बिंदु हिंदी भाषा के मानकीकरण तथा आधुनिकीकरण
द्वारा इस पुस्तक के प्रत्येक आलेख में प्रकट हुए हैं । श्रीवास्तव जी ने इस
पुस्तक में समाज संदर्भित भाषा अध्ययन के महत्व को ही उजागर नहीं किया है बल्कि
हिंदी भाषा की वास्तविकता पर भी बल दिया है । हिंदी जैसी भाषा का समाजशास्त्रिय
व्यापक अध्ययन करना संभव नहीं होता है । इस पुस्तक के द्वारा श्रीवास्तव जी ने
हिंदी भाषा के समाजशास्त्रिय अध्ययन को सहज संभव बनाया ।
निष्कर्ष : ‘हिंदी भाषा का समाजशास्त्र’ में भाषा अध्ययन के माध्यम से हम
सामाजिक संरचना की तहों तक पहुँच सके हैं । अल्पसंख्यक भाषा समुदायों की भाषाओं का
मिश्रण स्थिर बहुभाषिकता का विकास, भाषा का मानकीकरण और आधुनिकीकरण, भाषा-विकास
में भाषा-नियोजन की भूमिका आदि इस पुस्तक में विश्लेषित किया गया है । हिंदी भाषा
का समाजशास्त्रिय अध्ययन के अलावा भाषा के विविध सन्दर्भों एवं अनेक प्रयोजनों का
स्पष्ट विश्लेषण डॉ. श्रीवास्तव ने किया है।
हमारा मत : डॉ. श्रीवास्तव ने बड़ी ही सटीक तरीके से हिंदी भाषा का समाजशास्त्रिय
अध्ययन किया है | हमारे सामने हिंदी भाषा का मानकीकरण, आधुनिकीकरण के उनके विभिन्न
प्रयोजन स्पष्ट होते हैं । डॉ. दिलीप सिंह की पुस्तक ‘भाषा का संसार’ में उन्होंने
कई भाषाविदों के विचारों का आकलन किया है । उन्होंने सस्यूर का प्रतिक सिद्धांत से
लेकर डेल हाइम्स के विचारों को भी प्रकट किया है ।
प्रो. श्रीवास्तव ने
हिंदी भाषा के सन्दर्भ में समाज, संस्कृति और भाषा तीनों को साथ लेकर चलने की
कोशिश की है । इस दृष्टि से ‘हिंदी भाषा का समाजशास्त्र’ एक महत्वपूर्ण पुस्तक
सिद्ध होता है ।
संदर्भ-ग्रंथ सूचि :
1. ‘हिंदी भाषा का समाजशास्त्र’ – प्रो. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव
(राधाकृष्ण प्रकाशन-1994)
2. ‘भाषा का संसार’ (आधुनिक भाषाविज्ञान की सुगम भूमिका) – प्रो. दिलीप
सिंह (वाणी प्रकाशन- 2008)
3. ‘हिंदी भाषा की सामाजिक भूमिका’ – भोलानाथ तिवारी
4. “I shall refer throughout to ‘sociolinguistic’ and ‘linguistics’ as
though they were separate individuals but these terms can
simply be used to reflect the social side of the language without taking the
distinction too seriously.” R.A.Hudson, Sociolinguistic Pg-3
--
बहुत उपयोगी लेख है।
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