'स्पर्श' पर चल रही मूल्यांकन शीर्षक आलोचना श्रृंखला में विजेंद्र और विष्णु नागर के बाद इस क्रम में अब प्रस्तुत है भगवत रावत के कविता कर्म पर ललित सुरजन का आलेख ...
भगवत रावत कविता नहीं लिखते। वे बातचीत करते हैं। वे सुनने या पढऩे वाले को आतंकित नहीं करते, बल्कि साथ लेकर चलते हैं। भगवत जैसे सहज सरल व्यक्तित्व
के धनी थे, वैसे ही वे अपनी कविताओं से सामने आते हैं। उन्हें हमारे बीच से गए लगभग दो साल होने आए, लेकिन उनकी कविताएं एक सच्चे और बहुत प्यारे दोस्त की तरह हमारे साथ चल रही हैं। इस साथ चलने का अर्थ यह भी है कि ये कविताएं पांच, दस या बीस साल पहले लिखी जाने के बावजूद पुरानी नहीं पड़ीं। कहने को तो दुनिया बदल गई है, लेकिन बदलाव के हर मोड़ पर अगर कविता आपके साथ निरंतर बनी हुई है तो इसका मतलब यही है कि वह सच्ची कविता है। मैं उनकी पुस्तकों
के पन्ने पलट रहा हूं और मेरे सामने यह कविता खुलती है- जिसका शीर्षक है- ''गाय’’। इस कविता को पढि़ए और महसूस कीजिए कि भगवत रावत की गाय उस गाय से कितनी अलग है जिसे लेकर राजनीतिक
प्रपंच हो रहा है।
‘और अब यह भी याद नहीं आता
हमने कब किसी गाय की पीठ थपथपाई थी
कब उनकी आंखों में
कृतज्ञता की बे आवाज भाषा को पढ़ा था
हमें सचमुच याद नहीं आता
हमने कब किसी गाय को
उसके नाम से पुकारा था
और उसने अपनी थूथन हमारे कंधे पर
ऐसे टिका दी थी जैसे
अब उसे कोई चिन्ता नहीं’
इसी कविता की आखिरी पंक्तियां
भी पढ़ लेना चाहिए-
‘गाय के सहारे इस समय मां को याद करना
एक तो अतिरिक्त
भावुकता होगी
दूसरे मुझे उन लोगों का प्रवक्ता
समझ लिया जाएगा
जो गाय के नाम पर ही मरने-मारने पर
उतारू हो जाते हैं
वे पृथ्वी पर कोई लुप्त होती प्रजाति नहीं
फिर भी हमारे जीवन से चली गई हैं।‘
एक और कविता है- ''शाकाहारी-मांसाहारी’’।
यह कविता भी बिना किसी प्रयत्न के सीधे-सीधे आज के राजनीतिक
परिदृश्य
को हमारी आंखों के सामने प्रगट कर देती है। कविता की ये पंक्तियां
दृष्टव्य
हैं-
‘क्षमा करें
मैं खाने-पीने की चीजो को लेकर
न तो किसी की निंदा कर रहा हूं
और न कोई सिद्धांत
गढ़ रहा हूं
केवल अपने ही शुद्ध-शाकाहारी
लोगों के बीच
धीरे-धीरे जड़ पकड़ती
असहिष्णुता और हिंसा की ओर
इशारा भर कर रहा हूं
रही मांसाहारियों
की बात
तो सबसे पहले सोचें उनके बारे में
जो मनुष्य और मनुष्यता
को
खड़े-खड़े
कच्चा चबा जाते हैं
और दुनिया के मसीहा कहे जाते हैं
हम उन्हें ऐसा करते केवल देखते रहते हैं
और शायद यह सोचकर खुश होते हैं
कि यह कहर हम पर नहीं टूटा
फिर इसके बाद क्या फ$र्क पड़ता है
कि कौन मांसाहारी
है
कौन शाकाहारी
है।‘
भगवत रावत ने कविता लिखने के लिए ऐसी सरल भाषा कैसे सिद्ध की होगी यह सोचकर विस्मय होता है मुझे। किन्तु कवि स्वयं ही कई जगह पर अपनी कविताओं में इसका खुलासा करता है। एक जगह पर वह लिखते हैं-
‘दिन-रात जो साहित्य से खेलते हैं
उसी को ओढ़ते-बिछाते हैं
उसी का नाम ले-लेकर पीते हैं-खाते हैं
मैं ऐसे दिमागों को हिला देने वाली कविताएं
लिख नहीं पाता
इस कविता का अंत इस प्रकार होता है-
जिसके पन्ने दर पन्ने पढ़ते चले जाओ
कभी अपने घर का पता नहीं बनाती
सुना है वही है जो आजकल
मर्मज्ञों, गुणीजनों के दिमागों को उकसाती है
मैं ऐसी कविता कोशिश करने पर भी
कभी लिख नहीं पाता।‘
बात बहुत साफ है कि भगवत रावत शब्द विलास के लिए कविता नहीं लिखते। अपने कवि होने का उन्हें कोई अहंकार नहीं है और न ही वे कविता से कोई बहुत बड़ी अपेक्षा रखते हैं। कविता लिखना तो है, लेकिन इसलिए कि अपने समय को जैसा देख रहे हैं उसका बयान करना है। यह जानते हुए कि अगर समाज को बदलना है तो उसके लिए कविता की दुनिया से बाहर निकलना होगा। इसलिए वे एक जगह कहते हैं-
‘कविता से, कहानी से हटकर भी लिखा जाना चाहिए
इसलिए नहीं कि लिखकर अमर होना है
इसलिए कि मर-मरकर लिखना है।‘
इन पंक्तियों
से स्पष्ट है कि कवि जैसे दुनिया को देख रहा है उससे उसे मर्मांतक
पीड़ा हो रही है। और वह जानता है कि उसके पास अगर भाषा है तो उसका सार्थक तरीके से इस्तेमाल
होना चाहिए। अगर वह अपने मन की पीड़ा को अभिव्यक्ति
नहीं दे पाया तो फिर उसकी शब्द साधना किस काम की?
भगवत रावत का कवि सिर्फ इतने में ही संतुष्ट नहीं है कि वह अपनी वेदना व्यक्त कर दे। वह तो अपने साथियों का भी आह्वान करता है-
‘क्या कहीं
कभी घर से बाहर नहीं गए
बैठे-बैठे घर में ही
कविता करते रहे?’
कहना न होगा कि कितने ही कवि इस तरह शब्दों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। और जब बाहर निकलकर वृहत्तर समाज से जोडऩे की बात आती है तो वे कभी बादलों पर, कभी चांद-तारों पर, तो कभी पक्षियों
पर कविता लिखकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। हिन्दी कविता में अभी बहुत अधिक समय नहीं बीता है जब ऐसी कविताएं बेशुमार लिखी गईं। ''चिडिय़ों
को पता नहीं’’ शीर्षक
कविता में वे इस प्रवृत्ति
पर करारा व्यंग्य करते हुए चिडिय़ों
से कहते हैं-
‘तुम हमेशा की तरह
कविताओं की परवाह किए बिना उड़ो
न सही कविता में
पर हर रोज
पेड़ से उतरकर
घर में
दो-चार बार
जरूर आओ-जाओ।‘
पता नहीं समकालीन कवियों ने इस व्यंग्य को कितना समझा, लेकिन कविता के पाठक जानते हैं ऐसी कविताएं एक फैशन की तरह आयीं और जल्दी ही चली गईं।
भगवत भाई की जो कविता मुझे बहुत पसंद है वह है- ''तीजन बाई’’ इस रचना में वे छत्तीसगढ़
की लोक गायिका तीजन बाई के अद्भुत पंडवानी गायन की सराहना इन शब्दों में करते हैं-
‘महाभारत गाती है तीजन बाई
दुहराती नहीं
गाती है
गाना दोहराना नहीं होता
हर बार नये सिरे से रचना होता है
हाथ में इकतारा लेकर गाते हुए
जब काल को आवाजो लगाती है तीजन बाई
तो आकाश में देवता
हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं’
लेकिन वे किसी व्यवसायिक
कला मर्मज्ञ की तरह इतने पर रुक नहीं जाते। वे देखते हैं कि तीजन बाई की प्रतिभा देश-विदेश में कैसे उसकी पहचान बनाती है, उसके अपने व्यक्तित्व
का रूपांतरण
कैसे इस प्रक्रिया
में होता है और इस बिन्दु पर वे तीजन बाई के सामने एक चुभता हुआ प्रश्न रख देते हैं;
‘तो कभी पूछना तो अपने मुरारी से
कि प्रभो!
इन शहराती बाबुओं को अचानक क्यों भाई
तीजन बाई?’
तीजन बाई के सामने रखा यह सवाल सिर्फ उसके लिए नहीं है। एक बड़ी मंचसिद्ध
कलाकार महाभारत की पुनर्रचना
कर रही है, लेकिन कवि धीरे से कहता है कि इसके बाद भी कुछ नहीं बदला और अदृश्य चौपड़ पर खेल अभी भी जारी है। यहीं भगवत रावत के व्यक्तित्व
का एक और पहलू स्पष्ट होता है। एक तरफ कवि है, एक तरफ गायिका। वे दो कलाकारों
के बीच एक आत्मीय संबंध जोड़ते हैं और उस अधिकार से तीजन बाई को इन पंक्तियों
में सलाह देते हैं-
‘तुम दुनिया-जहान में घूम आना
गुंजा आना जगह-जगह अपना छत्तीसगढ़ी
गाना
लेकिन उनके बीच जाना मत छोडऩा
जो तुम्हारा
एक-एक बोल सच मानते हैं
जो न्याय और अन्याय
तुम्हारी ही बोली में
पहचानते हैं।‘
आप देखेंगे कि भगवत रावत इस तरह कदम-कदम पर रिश्ते बनाते हुए चलते हैं। वे अपने हृदय के तरल प्रवाह में अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों
और वस्तुओं को बहा ले चलते हैं। जिस तरह वे तीजन बाई के लिए चिंता करते हैं कि कहीं वह अपनी जमीन से कट न जाए, उसी तरह वे कचरा बीनने वाली लड़कियों
के प्रति, गांव से मिलने आए मजदूर समधी-समधिन के प्रति और ऐसे ही तमाम सामान्यजनों
के प्रति भी गहरी सहानुभूति
का परिचय देते हैं।
मैं जब भगवत रावत की कविताओं को पढ़ता हूं तो दो-तीन बातें और समझ में आती हैं। एक तो वे अनेक स्थानों पर रेखांकित
करते हैं कि आज के दौर में मनुष्य कितना असहाय हो चला है और यह असहायता सामूहिकता
के क्षीण होने तथा अकेलेपन से उपजी है। उन्हें यह चिंता बार-बार सताती है कि आज अपने बलबूते पर ही हरेक को लडऩा पड़ रहा है। इसमें कवि की राजनीतिक
दृष्टि बिल्कुल साफ है। विश्व में और देश में जो कुछ घटित हो रहा है उसका वह बखूबी कार्य-कारण विश्लेषण
करता है। देश में बढ़ती हुई धर्मांधता, साम्प्रदायिकता, वैश्विक पूंजीवाद
का बढ़ता प्रभाव, इन सबके संदर्भ उनकी कविताओं में आते हैं। उन्होंने
मेधा पाटकर के संघर्ष पर भी कविता लिखी है और मेधा को अपनी कविता का पात्र बनाने वाले वे शायद पहले कवि हैं।
भगवत भाई ने प्रेम कविताएं भी लिखी हैं। इनमें वे बुंदेलखंड
के पिछली पीढ़ी के कवि केदारनाथ
अग्रवाल का अनजाने में अनुसरण करते प्रतीत होते हैं। दोनों को प्रेम का आलंबन बाहर नहीं ढूंढना पड़ा। केदार जी की तरह भगवत की कविताएं भी स्वकीया प्रेम की कविता हैं जिसका परिचय ''उसकी थकान”,
''बाहर
जाने की जल्दी” आदि
कविताओं में मिलता है। भगवत रावत ने कविता लिखने की शुरूआत गीत से की थी, लेकिन परवर्ती काल में उन्होंने ''कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ आबोहवा” और
''अथ:
रूपकुमार
कथा” और
''सुनो
हीरामन” जैसी
लंबी कविताएं भी लिखी। उनकी कविताओं में चलचित्र की तरह दृश्यबंद
देखने मिलते हैं, जिनसे उनकी पैनी अवलोकन शक्ति का पता चलता है। मैं समझता हूं कि भगवत रावत की कविताएं अपने समय का दस्तावेज
तो है ही, वे एक लंबी दूरी तक हमारे लिए प्रासंगिक
बनी रहेगी।
-ललित सुरजन
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और देशबंधु प्रकाशन समूह में संपादक हैं)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और देशबंधु प्रकाशन समूह में संपादक हैं)
प्रिय राहुल देव,
ReplyDeleteभगवत राव मेरे लिए परिचित नाम नहीं हैं. इनका एक अविस्मरणीय काव्य संकलन मेरे लिए भेजें. मैं उसे मूल्य चुकाकर छुड़ा लूँगा.
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ReplyDeletehttp://www.amazon.in/Bhagwat-Rawat/e/B00JJENREY
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