नई सदी की कविता की वर्त्तमान दशा और दिशा को
लेकर ‘स्पर्श’
के इस विशिष्ट आयोजन के प्रथम भाग में आप कई प्रमुख युवा कवि और
आलोचकों के विचार जान चुके हैं | अब इस परिचर्चा के द्वितीय
भाग में हम कुछ प्रमुख कवयित्रियों और लेखिकाओं के विचार आप के समक्ष प्रस्तुत कर रहे
हैं | इन विचारों की समग्रता में इधर के कविता में मौजूद
तमाम आलोचकीय सूत्र तो मिलते ही हैं साथ ही इसके भविष्य के प्रति एक सजग दृष्टि भी
देखी जा सकती है | हाँ इसे सम्पूर्ण परिदृश्य की कोई गहन
पड़ताल नहीं बल्कि एक विहंगावलोकन कहना ज्यादा उचित प्रतीत होगा | रुचियों, संवेदना-भाव और विचार के विभिन्न स्तरों पर
आज कविता कहाँ तक जा पा रही है यह देखना एक दिलचस्प पाठकीय अनुभव भी है ख़ासकर उनके
लिए जो आज भी कविता को एक गंभीर साहित्यिक विधा मानते हैं उसे लिखते हैं, पढ़ते हैं, जीते हैं और दिलोजान से चाहते भी हैं |
इस पूरे आयोजन को लेकर हमें आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी...
1
पाठकों को अक्सर वे कवितायेँ याद रह जाती हैं जो
पाठकों को भीतर तक संवेदित कर जाती हैं। सरल, संपृक्त, जीवन से जुड़ी, जीवन के कोलाहल में जो कुछ अनकहा, अनसुना, अव्यक्त सा बचा रहता है उसी का कहन ही कविता होती
है और वह सहज ही मन में घर बनाती चलती है । जब हम कविता करते या पाठ करते हैं तो
वह ऐसा होना चाहिए की बेरंग जीवन की परतें तो खोलें पर उसके वीभत्स रूप से बचाकर
रखें यह कहना तो यहाँ गलत होगा पर यह गुजारिश तो कर ही सकते हैं कि वीभत्सता को
लादें नहीं । कविता एक आनंदमयी रूप में सम्प्रेषित करे तो बेहतर महसूस होता है, जीवन सरल हो जाता है । जीवन के कुत्सित पहलुओं से हर रोज मनुष्य दो
चार होता ही रहता है, कविता में उस वीभत्सता की वर्णना जरूरी है पर शब्द
कैसे हों, भाषा कैसे हों यह एक जरूरी सवाल है । कविता कोमल
स्वभाव की विधा है, कविता में शब्दों का उत्तेजक या नंगई लिए हुए होना
हमें भाव विव्हल कम करता है वरण एक वितृष्णा से भर देता है । कविता का मूल
उद्देश्य है देश, काल और दशा को रेखांकित करना पर हम आज के दौर में
कविताओं के जिस रूप को पढ़ रहें हैं उसमे देश, काल और
दशा तो दर्ज हो ही रहा है पर एक वीभत्स रूप में दर्ज हो रहा है । और वह कवितायेँ
हम में एक वितृष्णा भर देती है, जिससे हम संवेदित कम उत्तेजित ज्यादा होने लगते हैं
। क्या हम अपने प्रजन्म के लिए ऐसी ही वीभत्सता से भरी कवितायें रख जाएँगे ? यह एक
गंभीरता से सोचने का विषय है ।
आज के दौर में जिस तरह की कवितायेँ लिखी जा रही
हैं या जिस तरह की कविताओं की बढ़ावा दिया जा रहा है या जिस तरह की कविताओं को
योजना बद्ध तरीके से प्रोत्साहन दिया जा रहा है क्या ये कविता के व्याकरणों में
खरी उतरती दिखती हैं, यह भी एक प्रश्न सामने है। ये कुकरमुत्तों से उग
आये और हम सब हाई प्रोटीन की खुराक समझ झपट पड़े हैं क्या हम यह भी जानते समझते हैं
की हाई प्रोटीन हमारे जीवन के लिए सिर्फ खतरा ही नहीं जान लेवा भी ही।
कविता मन की गलियों में सचेत होकर आवाजाही करने
वाले तंतुओं में रक्त प्रवाह करती है। हमें उद्वेलित करती है, संवेदित करती है इसलिए कविता में कवित्त का होना जरूरी है। वरना
कविता खासकर हिंदी कविता के पाठक या तो खुद कवि है या कवि के यार - दोस्त और कुछ
हिंदी विभाग के चुनिंदा लोग। ऐसे में कविता का जहाँ जिन्दा रहना ही मुश्किल नजर
आता है वहां आज लिखी जा रही कवितायेँ क्या कविता के पाठकों को बाँध कर रख पाएंगी ? अब तो
जैसा दौर चल निकला है कविताओं का लगता है जिन कविताओं को हम आईसीयू में भर्ती कर
आये थे उन्हें अब वेंटिलेटर में रखने की जरूरत है। और
बेहतर होगा पाठकों को कुनैन की गोलियां थमा दें ।
कविता लिखकर या पढ़कर एक सदी पहले तक कवियों और
पाठकों को लगता था कि मन का कोई कोना जो पत्थर होने से बच गया था वह अब बेचैन है
और पत्थर होने को था जो कभी - कभी कसक उठता है अब वहां सिर्फ और सिर्फ धुआँ उठता
है हर रोज नई कविता की चादर लपेटे नई - नई कवितायेँ पेटीकोट, नया अफसर { पाखाना गिनने को अफसर लगा है } मिस वीणा वादिनी, तुम्हारी
जय हो, उसी की तर्ज पर चानू देसाई की कविता एक वामी कविता
ओ सिगरेट फ़ूंकनी, वात्सल्य रस की कविता, मिस पोएट्री मैनेजमेंट की कविता, सेनेटरी
नैपकिन की कविता कभी - कभी ऐसा
नहीं लगता की हम कविता नहीं किसी ब्लू फिल्म की रील को नीली स्याही से पन्नों में
उतार कर घर के टी वी या लेपटॉप पर नहीं सफ़ेद 70 एम एम के परदे पर चॉकलेट फ्लेवर
वाले पॉपकार्न के पैकेट के संग विजुअल दर्शन का मजा ले रहे हैं । इनमे कविता कहाँ
है ? कवित्त कहाँ है ?
जो लोग सच में कविता रच रहे हैं आज के दौर में बड़े
जोखम का काम कर रहे हैं । कविता एक जिद की तरह कवि के मन के कोटरों में भटकता रहता
है जब तक न वो पन्नों में न उतर आये । कुछ कह - कुछ सुन लेने या सुना लेने को आतुर
शब्द जब लय में या दार्शनिक की भूमिका में आकर रुकता है तब कविता जन्म लेकर कवि को
उसकी प्रसव वेदना से मुक्त करता है । मुझे नहीं लगता की पोएट्री मैनेजनेंट , वीणादायनी
जैसी कविता के लिए कवि को कोई प्रसव वेदना ने परेशान किया हो ।
एक अनुगूंज की तरह गूंजती रहती है कविता, याद रह जाती है उम्र के आखरी पड़ाव तक पर आज के दौर में लिखी गई कविता
की उम्र बेहद छोटी दिखती है । ठीक बाजार में लॉन्च हुए किसी नए प्रोडक्ट के
विज्ञापन की ही तरह , जैसे हम जब तक उस प्रोडक्ट का विज्ञापन चलता रहता है हमे वह याद रहता
है और जैसे ही वही कंपनी जब कोई और उत्पाद को लॉन्च करता है और उसका विज्ञापन जारी
कर देता है और हम उस नए विज्ञापन पर मोहित हो जाते हैं और पुराने विज्ञापन को करीब
- करीब भूल सा जाते हैं । किसीके पूछने पर बगले झाँकने लगते हैं । ऐसी कविताओं हाल भी वही होगा । अगर कवि
को कविता बीच की चार पंक्तियाँ सुनाने को कहा जाये तो वे भी बगले ही झाकेंगे ।
संवेदनहीन होते दौर में हम सिर्फ बाहरी तौर पर ही
नही आतंरिक तौर पर आहत हो रहे हैं । हमारी चेतना भी भाव शून्य होती चली जा रही है
यह एक वीभत्स दौर है और इस वीभत्स दौर में लिखी जाने वाली कवितायेँ भी वीभत्स हैं
। भाषा भी वीभत्स, जंजालों से भरा जहाँ सिर्फ कुत्सित कुंठा से लबालब
कवि जहर या कुंठा ही उगल रहा है ।
उपभोक्तावाद, बाजारवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवाद और भी इस तरह के कई वादों ने कविता से ही
नही जीवन से सौन्दर्य बोध को चलता कर दिया है।यहाँ सभी चीजों को प्रायोजित तरीके
से पेश करने की प्रथा सी चल पड़ी है ।
यह भी सच है कि भोगा हुआ यथार्थ अगर कलम से उतरे
तो उसकी तासीर ज्यादा होती है, और खयाली चीजों में वो बात कहाँ ? कविता
को निजता से बचना चाहिए वरना कविता को ऑब्जेक्टिविटी का खतरा उठाना पड़ता है ।
दूसरी तरफ शायर मिर्ज़ा ग़ालिब कहते हैं ..... "दर्द को दिल में जगह दे ग़ालिब, इल्म से शायरी नही होती" । अच्छी कविता जो सीधे दिल में उतरती
है और बुरी कविता सिर्फ उलझन और थकान या उकताहट पैदा करती है । और हाँ कविता अच्छी
हो पर दुरूह हों तो भी वे कवितायेँ भी पढ़ी नही जाती ।
अब कुछ लोग ऐसे है जो समसामयिक विषयों पर कविता
लिख रहे हैं जैसे लड़की बचाओ या बेटी बचाओ और भ्रूण हत्या या दहेज़ प्रताड़णा या ऐसे
ही अपने जीवन की नितांत निजी समस्याओं पर लिखी गई रचनायें जब सारा जग जागरूक हो
जायेगा तब ऐसी रचनायें अप्रासंगिक हो जाएँगी । इसलिए कविता का विषय ऐसा होना चाहिए
जो हर काल में प्रासंगिक हो और जिन्दा रहे । यह हर लेखक की अपनी काबिलियत होती है
की वह कैसा विषय चुनता है कि विषय तात्कालिक होते हुए भी हर समय हर काल में
समकालीन लगे ।
छायावाद को हिंदी साहित्य का आंदोलन का काल कहा
गया है जहाँ निराला कहते हैं जैसे मनुष्यों को भी मुक्ति की चाह होती है ठीक उसी
के मानिंद कविता को भी मुक्त करना चाहिए । छंदों से मुक्त कवितायेँ मुक्त कवितायेँ
हैं । इस तरह किसी फॉर्मेट को तोड़ने की प्रक्रिया ही मुक्त करने की प्रक्रिया है ।
तोड़ने और गढ़ने के मध्य एक महीन रेख होती है इसे समझना बेहद जरूरी है वरना कविता
गद्य की तरह पाठक के सामने पटकी जाएगी और हम अवाक् कविता की कवित्त ढूढने में पूरी
कविता को ही ख़ारिज करते चलेंगे । एक समय ऐसा आएगा जब हिंदी साहित्य कविता मुक्त हो
जाएगी । कुछ समकालीन कवि अभी भी उत्कृष्ठ रचनाओं को रचने में मशगूल हैं । कई
रेखांकित हुए हैं और कई गुमनामी की मार झेल रहे हैं । कुछ लोगों को इस पर ऐतराज़ है
और कुछ लोगों को यह साज़िश छूकर भी नहीं जाती । ऐसे ही लोगों पर टिकी हुई है नई सदी
की बची हुई कविता ।
-मीता दास
कवयित्री एवं अनुवादक
2
किसी भी सदी की कविता में कई पीढ़ियों का समावेश
होता है। एक सदी बहुत लम्बा समय है और साहित्य की दृष्टि से एक सम्पूर्ण काल।
वर्तमान सदी की कविता में यदि हम वर्ष 2000 के बाद की कविता की बात करें, तो भी इसमें दो से अधिक पीढ़ियों की कविताएँ बही
चली आ रही हैं.. जिनमें निराला, पंत, महादेवी वर्मा, दिनकर, अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, धूमिल, रघुवीर
सहाय, श्रीकांत वर्मा से लेकर वर्तमान कवि केदारनाथ सिंह, चंद्रकांत देवताले, नरेश सक्सेना, वीरेन
डंगवाल, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, मदन कश्यप, पंकज
चतुर्वेदी, अनामिका, सविता
सिंह, कात्यायनी आदि से लेकर आज के नवीनतम कवियों में
अनुराधा सिंह, लीना मल्होत्रा, अनुज
लुगुन, अशोक कुमार पाण्डेय, मनोज कुमार झा, मोनिका कुमार, मोहन
कुमार नागर, रश्मि भारद्वाज, निखिल
आनंद गिरी, सुधांशु फ़िरदौस, अविनाश मिश्र, नताशा, महेश दर्पण, शायक आलोक, नीतीश मिश्र, नित्यानंद गयेन, बाबूशा
कोहली और कई नाम हैं, जो मुझसे छूट रहे हैं।
यदि इन कवियों की कविताओं में दिशा की बात करें, तो छायावाद के बाद की कविताएँ प्रकृति - सौंदर्य, प्रेम, लोकजीवन, व्यवस्था पर प्रहार आदि जैसे विषयों को लेकर आगे बढ़ीं, जिनमें समय के साथ - साथ वैश्विक चेतना व प्रतिरोध
का स्वर उत्तरोत्तर मुखर होता चला गया। कविता समय के साथ दुस्साहसी होती चली गई, वर्जनाएँ टूटीं, कलात्मकता और शिल्प का स्थान शनैः शनैः बेबाक़ अभिव्यक्ति ने ले
लिया। यद्यपि इनका अपना सौन्दर्य है, अपना रसास्वादन है, भाषा शुद्ध न होते हुए भी आकर्षित करती है। भाषा
की जटिलता की अपेक्षा भाव की जटिलता बढ़ी है, जो कि
पुनः नई कविता में बढ़ी बौद्धिकता का चिन्ह है।
छायावाद के पश्चात नागार्जुन के समय से कविता में
चिंतन की जो प्रवृत्ति प्रारंभ हुई, वह निरंतर तीक्ष्ण हुई है। आज की कविता कोरी भावुकता के मुलायम
हर्फ़ों से बाहर आकर, यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ी होकर पाठक से दो टूक
संवाद करती है, सत्ता की आँख में आँख डालकर सवाल पूछती है, पीड़ितों की चीत्कार उसमें गुंजायमान है। आज की कविता में आज का समय
लिखा जा रहा है, चाहे वह राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे हों या
अन्तरराष्ट्रीय। दलित
विमर्श, स्त्री -चेतना, आदिवासी विमर्श, आतंकवाद, युद्ध, वैश्विक असंतोष, पर्यावरण- समस्या आदि की विषय - वस्तुएँ नई कविता के स्तंभ हैं और यह
बहुत संतोषजनक स्थिति है कि नई कविता सामाजिक चेतना जागृत करने में अपना दायित्व
बख़ूबी निभा रही है। स्त्री विमर्श की कविताएँ बेचारगी के भाव से उबर कर बुलंद और
निर्भीक स्वर में अपनी बात रख रहीं हैं। बानगी के तौर पर अनुराधा सिंह की दो
कविताओं की कुछ पंक्तियाँ देखिए -
(1) ' रक्तहीन क्रांति'
*सबसे लड़ीं
कभी सर पर पल्लू, नज़रें नीची कर
पैर के अंगूठे से
ज़मीन पर 'बिटिया' लिखते हुए
कभी वही पल्लू कमर में बाँध
आमने सामने
* बहुत बाद में
टूटी फूटी अंग्रेज़ी
में हमारे नियुक्ति पत्र बार बार पढ़ कर
सुखी होती रहीं
तब उनके हाथों और पैरों की सब दरारें भर गईं थीं
ज़िल्लत और कमतरी के घाव भी
हमारी माँएं अपने समय की बेहतरीन सिपाही थीं
हमारी माँएं ये जंग जीत चुकी हैं.
(2) 'वृंदावन
की विधवाएँ'
* प्रभु की प्रभुताई नहीं
पराभव देखती हूँ
जब जब देखती हूँ वृन्दावन की प्रेतात्माओं को
रगड़ते
घुटे हुए शीश उनके पाषाण चरणों पर
माँगते निशब्द क्षमा अहर्निश
गायें क्यों न मीराबाई अनथक
प्रभु तुम कैसे दीनदयाल॥
मथुरा नगरीमों राज करत हैं बैठे, नंद के लाल।
पहली कविता 'रक्तहीन क्रांति' में
सदियों से परंपरा के आवरण में छिपे रूढ़ियों के बोझ को बहुत कुशलता से आने वाली
पीढ़ियों के सर से हटा लिया है पिछली पीढ़ी ने। एक मूक और अनियोजित क्रांति की लहक
है इस कविता में। वहीं दूसरी ओर 'वृंदावन की विधवाएँ' में ईश्वरीय सत्ता के समक्ष विधवाओं के समर्पण की
विवशता को चुनौती देता कवयित्री का कटाक्ष मर्म करता है। उनकी 'शेडकार्ड' व अन्य कविताओं में भी यही धार देखने को मिलती है। अनुराधा की
कविताएँ स्त्री - विमर्श के अभूतपूर्व मुहावरे गढ़ रही हैं, यद्यपि अन्य विषयों पर भी उनकी पकड़ मज़बूत और अभिव्यक्ति तीक्ष्ण
है।
नई कविता की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी रेंज बहुत व्यापक है। एक
ओर बहुत सहज सरल शब्दों में सुनीता जैसी युवा कवयित्री की रचनाएँ हैं, वहीं दूसरी ओर तेज़ाबी आक्रोश से छलकती अविनाश
मिश्र की कविताएँ; व्यंग्य की धार निरंतर पैनी करती शायक और वीरू
सोनकर की कविताएँ हैं, तो एक शांत परिपक्वता के साथ अपनी बात रखती लीना
मल्होत्रा और निखिल आनंद की; मीर की ख़ुश्बू की महक फ़िरदौस की कविता और शायरी
में महसूस होती है, तो नए बिम्बों से लुभाती मनोज कुमार झा की रचनाएँ
हैं। मुझे विश्वास है कि आज किसी भी आस्वाद की कविता के पाठक को यह शिक़ायत नहीं
है कि उसकी पसंद की कविताएँ नहीं लिखी जा रहीं। बेशक़ सोशल मीडिया ने उसकी खोज को
और आसान कर दिया है और नई कविता के वृहद् रेंज को सामने लाने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई है। इसका प्रभाव भी रचना -प्रक्रिया पर पड़ा है। अब रचनाकार को
प्रकाशित होने के लिए संपादक के मनमाफ़िक लिखने की विवशता नहीं रही। वह अपनी
अभिव्यक्ति पूर्ण स्वच्छंदता से कर रहा है, बिना किसी प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष दबाव के, बिना किसी सीमा या दायरे की परवाह किए बग़ैर।
इस रेंज के एक सिरे पर
नज़र डालें, जहाँ बहुत सहजता से उदीयमान कवयित्री सुनीता अपने
ज़ख़्म शब्दों में ढालती हैं --
'हम लड़कियाँ'
* पहली बार जब मुझे आई थी माहवारी
अम्मा ने कहा
बच्चा रुकने का खतरा है
मन में एक सवाल आया था
माहवारी का बच्चा रुकने से क्या सम्बन्ध ?
* मेरी दुनिया से लड़के गायब कर दिए गये
और कुछ ‘मनचली’ लड़कियाँ भी
मेरी सुबहें जल्दी और जल्दी होती जा रही थी
मैं अम्मा की जगह लेने लगी थी
* गाँव वाले कहते थे कि
पढ़ने वाली लड़कियाँ होती हैं रंडी
(2) 'हमें डर
लगता है'
* हमें डर लगता है किराये के कमरों में
अंबेडकर की फोटो लगाने से
घुलने मिलने में डर लगता है
पास पड़ोस के लोगों से
कहीं पूछ न लें हमारा पूरा नाम
गावों में डर लगता है
हिन्दुओं के खेतों में हगने से
खेत से सटी सड़कें भी होती हैं उन्हीं की
देखकर देते हैं
गालियाँ धड़ल्ले से
* हमें डर लगता है
जिन्दा जलाये जाने से
बलात्कार और फांसी पर चढ़ाये जाने से
हमें नहीं चाहिए ऐसा समाज
जो पीछा करता है हमारे नाम और काम से.
उपरोक्त दोनों की काव्यांशों में भाषा बहुत सुगम
होते हुए भी मारक है। सीधा प्रहार करती है... और यही नई कविता की सफलता है।
इसी शैली का एक और उदाहरण है युवा कवि, पत्रकार नीतीश मिश्र की कविता, जो बहुत सरलता के साथ गहन अनुभूति व्यक्त करने में
सफल होती है....
(1)
* रात में जब कुछ लोग
ईश्वर की कहानियां सुना रहे थे
पंडित पश्चाताप से बाहर निकलने के लिए
अँधेरे में लालटेन खोज रहा था
* भिखारियों के लिए जरूरी होता है ईश्वर का होना
।
शायद !
भिखारियों के चलते ही ईश्वर
आज भी पत्थर में जीवित है
भिखारियों ने भी देश को बचाया है ।
(2) शाम उदास हो रही थी
बच्चे मैदान से वापस जा रहे थे
फूल अपनी गन्ध बटोरने में लगे हुए थे
सड़के आदमियों के वजन का मूल्यांकन कर रही थी
चूल्हें अपना मुंह फैलाये जा रहे थे
अस्पताल में शवों का इतिहास लिखा जा रहा था
शहर से कुछ ट्रेनें उदास होकर जा रही थी
कुछ कबूतर पेड़ पर आसमान को रंग रहे थे
कुछ कुत्ते रिक्त जगह शब्द भर रहे थे
मैं अपने हिस्से के अँधेरे में
दूब जैसी मुलायम आत्मा में एक खिड़की बना रहा था
ताकि कमरे में
चाँद की आत्मा से कुछ रोशनी आ सके।।
अब इस
स्पैक्ट्रम के दूसरे सिरे पर भी एक दृष्टि डालते हैं...
* वर्षा की कोई संभावना नहीं
है तुम्हारे नगर में
रेनकोट अपनी निरर्थकता में निर्वासित हैं
और तरलता के सारे स्रोत सूख चुके हैं
बहना स्थितिग्रस्त हो जाने का पर्याय है
और एक गंदलेपन का सारी नदियों से अपनापा है
लेकिन मैं नदियों में एक अपनापन पाता रहा हूं वर्षा
मृत नगरों और व्यर्थ हो चुके इतिहास-सा अपनापन
जहां मेरे निर्दोष पूर्वज आततायियों से अंत तक
लड़ते रहे
आततायियों में अपनापन नहीं था
वह उनके वंशजों में भी नहीं था
जो नदियों और सभ्यताओं को मलिन करते रहे
और अब भी रक्तपात का परिदृश्य संभव कर रहे हैं
लेकिन मैं युद्ध नहीं करूंगा
क्योंकि घृणा में असमर्थ हूं
और प्रेम करते-करते अकेला पड़ गया हूं
तुम्हारे नगर जैसे सारे समय में
( 'मनु' / अविनाश
मिश्र)
उपरोक्त उदाहरण सरीखी जटिल शब्दों के ताने -बाने
से बुनी सघन कविताएँ भी नई सदी की कविता में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति और
लोकप्रियता दर्ज़ करा रही हैं।
अतः नई कविता अपनी नई परिभाषा रच रही है, अपनी अभिव्यक्ति में आश्वस्त कर रही है।
किन्तु दूसरी ओर अच्छी कविताओं की भीड़ में लीक से
हटकर दीखने के लिए कहीं-कहीं वीभत्सता का आश्रय भी लिया जा रहा है --
(1) 'माहवारी'
* आज मेरी माहवारी का
दूसरा दिन है।
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियां
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई
जबड़ों की सख़्ती में भिंची हुई है।
* कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नजरों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज
लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
__________________________________
(2)
* मेरे हॉस्टल के सफ़ाई कर्मचारी ने सेनिटरी
नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अख़बार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं ज़रा भी उनकी सूरत..
उपरोक्त दोनों अभिव्यक्तियाँ दो भिन्न रचनाकारों
की हैं और माहवारी जैसे विषय पर लिखी गयी हैं, जो कि सैंकड़ों वर्षों तक चर्चा के लिहाज़ से एक वर्जित विषय रहा, पर अब महिलाएँ इस पर खुलकर बोलने, लिखने की पहल कर रही हैं। यह एक सकारात्मक
परिवर्तन है। लेकिन हम यहाँ बात नई कविता की कर रहे हैं, तो इन दोनों ही रचनाओं में कविता के गुण / लक्षण कहीं नज़र नहीं आते।
यह केवल एक सपाट बयानी है और माहवारी की प्रक्रिया को सनसनीखेज़ विषय बनाकर सस्ती
लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश भर प्रतीत होती है। इससे पहले अपने इसी लेख में
मैंने माहवारी की एक अन्य कविता उद्धृत की थी, जो कि एक सार्थक संदेश लिए हुए है। माहवारी पर अनामिका जैसी वरिष्ठ
कवयित्री की भी एक कविता है, जिसकी कलात्मकता देखते ही बनती है। निश्चित रूप से
विषय के साथ -साथ रचना का उद्देश्य और प्रस्तुतिकरण बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है, जो उपरोक्त रचनाओं में नदारद है। बहुत संभव है कि
आने वाला समय ऐसी रचनाओं को याद न रखे या इन्हें रचना की श्रेणी में ही न रखा जाए।
पर संतुष्टि की बात है कि ऐसे निरर्थक प्रयासों की गिनती नए रचनाकारों की एक सशक्त, सार्थक और अपने नए प्रतिमान गढ़ती जमात के
मुक़ाबले नगण्य है।
नई सदी की कविता न
भाषा की किसी नियमावली में बँधी है, न पारंपरिक शिल्प और बिम्बों के दायरे में सिमटी है फिर भी वह एक
दमदार कन्टेन्ट चुनकर उसके अनुसार अपना शिल्प स्वयं बुन रही है और पूरी स्वच्छंदता
से अपने वेग के साथ, अपने बेबाक़ तेवर लिए हुए आगे बढ़ रही है।
-रचना त्यागी
कवयित्री एवं लेखिका
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इस क्रांति ने निःसंदेह कविता को नए आयाम दिए कवि
अपनी बात पन्ने पर उतार कर गदगद हुआ, भाव
विभोर हुआ, संतुष्ट हुआ मगर उसमे तुकांत की धमक न होने से और
उसे कहने का सलीका न होने से वो केवल पत्रिकाओं तक सिमट कर रह गयी या फिर एक विशेष
वर्ग के श्रोताओं के इर्द गिर्द घूमती रह गयी और आम पाठक के स्मृति पटल पर अंकित नही हो पायी | अपवाद स्वरूप कुछ गिने चुने कवियों ने मुक्त कविता की प्रस्तुति के
शिखर पर परचम फहराया और आम आदमी के दिल तक पहुंचे अन्यथा इस आज़ादी ने एक बाँध तोड़
कर टूटे सैलाब का काम किया जिसमें कविता के सारे मापदंड बह गए | नए प्रयोग के नाम पर खुरदुरापन इतना हावी हुआ कि
चुभते हुए शब्द, कर्कश शैली, गाली की
जुबान और स्त्री विमर्श और सामाजिक सरोकार के नाम पर कविता बोल्ड होते होते सारी हरियाली तज कर बबूल का जंगल
हो गयी | आज कविता अपने इस सफ़र में निराला ,अज्ञेय , केदारनाथ से हो कर नरेश सक्सेना , कुमार अम्बुज , रघुवीर सहाय और अनामिका से गुज़रते हुए आज दोपदी और शुभम श्री
जैसे वीभत्स पड़ाव पर आ गयी इस अनुशासनहीन कविता की मूसलाधार बारिश में इतनी सीलन
हुई कि हर चट्टान पर मशरूम की छतरियों के झुण्ड उग आये | बेशक ये क्रान्ति है मगर बेलगाम क्रांति | बहुत ज़रूरी है कि इसके पक्षधर इसकी लगाम
अपने हाथ में लें और इससे पहले कि ये उग्र भीड़ कविता की ह्त्या कर दे उसे बचाने की
मुहीम में भी ढाल बन कर आगे आयें और मत भूलें कि कविता के प्राण उसकी लय और गति
में बसते हैं |
अब
रही छंदबद्ध कविता की दशा और दिशा पर दृष्टि | इस सदी
के आरम्भ होने से पहले ही छंद विद्वत्ता के स्तर पर खारिज होने लगे थे मगर इस सदी
का आरम्भ होते होते ये संकट गहरा गया | इसका एक मात्र कारण नयी कविता का पांव पसारना नहीं
था वरन छंद के सिद्ध रचनाकार आगे अपनी पीढ़ियों को अपना वो हुनर हस्तांतरित नहीं कर
पाए | छंदबद्ध विधा को उन साधकों का अभाव हो गया जो बिना भाव से समझौता
किये साहित्य को गीत और
छंद दे सकें | छंद यात्रा अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, श्याम नारायण पांडे, निराला, दिनकर से होकर हरिवंश राय बच्चन और नीरज से होती हुई आज एक अंधे मोड़
पर ठहर गयी है |अधिकतर छंद और गीत सांचे फिट शब्दों का समूह मात्र
हो कर रह गए | रचनाकार की हडबडी और जल्दबाजी इसका मूल कारण है | भाव और शब्द संयोजन का संतुलित मिश्रण बिना तपस्या और साधना के संभव
नहीं | भाव जिसे रस कहा जाता है वो गीतों से बूँद बूँद रिसने लगा और छंद
काव्य संसार भी एक ऊबाऊ और शुष्क शब्द विन्यास हो कर रह गया | और
परिणाम स्वरूप मंच पर तुकबंदी एवं लय का कोरा नाटक और शुद्ध स्वांग का एक दुखद दौर
आ गया |
अन्ततः इस नयी सदी में कविता
अपने किसी भी रूप में हो , उतावलेपन
का शिकार हुई है | और हर विधा को अपनी जगह महत्वपूर्ण मानते हुए मैं
इतना ही कहूंगी कि नयी कविता खेमेबाजी का शिकार नहीं हुई उसमे एक जुटता दिखाई देती
है जो उसे लम्बी दूरी तक ले जा सकती है |लेकिन छंद विधा आपस में ही टुकड़ों में बंट कर
कमज़ोर हुई है | गीत , नवगीत आपस में आरोप प्रत्यारोप करते हुए सांप नेवले का युद्ध लड़ रहे
हैं | इससे पहले कि
ये टुकड़ा टुकड़ा ख़त्म हों सचमुच इसे भी कोई खेवनहार चाहिए जो नयी सदी में गीत को इस
आत्मघाती हमलों से बचाकर नयी दिशा दे सके, साधक दे
सके और स्तर की ऊंचाइयां दे सके |
-संध्या
सिंह
कवयित्री
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आज की कविता पर इस परिचर्चा के पहले भाग में जिन कवियों और आलोचकों ने अपने विचार प्रस्तुत किये लगभग उन सभी से
मैं सहमत हूँ। कुछ नया जोड़ना भी चाहती हूँ। समकालीन कविता को मोटे तौर पर एक तयशुदा टाइमफ्रेम
में लिखी जा रही कविता के रूप में ही
परिभाषित करना होगा। कविता हमेशा से लिखी जा रही है और लिखी जाती रहेगी लेकिन कुछ
भाग्यशाली लोग हैं जिनकी कविता कायदे से पढ़ी जा रही और सान पर चढ़ाई भी जा रही है। वरना
लिखने वाले तो कई गुमशुदा नाम भी हैं जो हमसे बेहतर हैं। दूसरी
ओर, जब बहुत लिखा जा रहा है तो लुगदी भी लिखा जायेगा, आशाजनक बात है कि उनमें से ज़मीनी और ठोस बात कहते हुए कवि पहचान ही
लिए जाते हैं, देर सबेर। समकालीन कविता जन अस्मिता और सरोकारों की कविता है, होनी ही चाहिए। मुक्तिबोध के शब्दों में, "यदि साहित्य जीवन का उद्घाटन है तो समीक्षक को यह जानना ही पड़ेगा कि
उद्घाटित जीवन वास्तविक है या नहीं। असल में कसौटी वास्तविक जीवन का संवेदनात्मक ज्ञान
ही है जो ना केवल लेखक और समीक्षक में होता है, वरन
पाठक में भी रहता है।" (नई कविता का आत्मसंघर्ष, पृष्ठ
१००) इसे समझने, आत्मसात
करने और लिखने के लिए एक हद तक यह माकूल पाया गया है कि कवि उस शोषित वर्ग की उपज
ही हो जिसके लिए आवाज़ उठा रहा है। साथ ही, कवि का
आरम्भ उन्माद और उद्वेग से भले ही हो उपसंहार सतत गुणवत्ता और शिल्प पर ही होता
रहा है ।
इसी क्रम में, स्त्री
विमर्श अच्छा खासा मुद्दा रहा है इस दौर में। खास तौर
पर अनामिका, सविता सिंह, नीलेश
रघुवंशी और कात्यायनी जैसी कवियत्रियों के उभरने और टिके रहने के बाद। इन बड़े
फलक की और इनकी अनुगामी कवियत्रियों की कविताओं में स्त्री सरोकार बरसात में
हरियाली सा सर्वगोचर है। यह विषय है ही इतना विस्तृत कि जल्द संतृप्त नहीं होगा। पहले के
बरक्स अधिक संख्या में सशक्त कवियत्रियों की खेप का पुरजोर स्वागत हुआ है। ये
स्थापित कवियत्रियाँ आने वाली पीढ़ी को भी स्थापित पुरुष साहित्यकारों की अतिमानवीय
छवि से बाहर निकल अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने की सीख दे गयीं हैं। यह सवाल
दीगर है कि कितनी रचनाकार बस अपने बल बूते पर पहचान बना पा रही हैं। उनका अधैर्य
यदि उन्हें इंस्टेंट सफलता और पहचान दिला भी रहा है तो कितने स्थायित्व के साथ।
इसमें ज़रूरी बात यह है कि नयी पीढ़ी की कुछ स्त्री रचनाकारों ने भी स्वायत्तता और
स्वावलंबन का महत्त्व ही नहीं समझा है, धीरज से
उसकी कीमत चुकाने को भी तैयार हैं। स्त्री कवियों को आप कितने ही खाँचों में
विभाजित कर दें लेकिन उनके आभिजात्य या साधन सामर्थ्य के बहाने उनके नियमित लेखन
में आने वाली चुनौतियों को नकारा नहीं जा सकता। सबसे
बड़ी समस्या लिखने के समय और स्थान की होती है, जिसे अब
भी स्त्री का सहज अधिकार नहीं माना जाता। लेकिन जैसे पहले की बंदिशें टूटी हैं
उम्मीद है कि लेखन में स्त्रियाँ अपनी वैचारिकता और अलहदा टोन के लिए जानी जाती
रहेंगी। दलित विमर्श की कविता में जो बड़ा और सकारात्मक
बदलाव आया है वह यह कि अब कई समर्थ दलित कवि भी अन्दर से देख और लिख
रहे है। यही बात आदिवासी विमर्श पर आधारित कविताओं पर भी लागू होती है। मलखान
सिंह, असंग घोष, मुसाफिर
बैठा, अनीता भारती, कर्मानंद
आर्य, वंदना टेटे, जेसिंता
केरकेट्टा और प्रभात मिलिंद इस सुखद
बदलाव के कुछ उदहारण हैं।
अंग्रेजी, अरबी और
इतर भाषाओं का अवांछित अनावश्यक प्रत्यारोपण, कविता
से कविताई का घट जाना, और विभिन्न गुटों द्वारा अपने साधारण कवियों को
विलक्षण सिद्ध करने की कवायद ने समकालीन कविता का बहुत नुकसान किया है। किसी भी
भाषा के क्रमिक वैज्ञानिक विस्तार के तहत शब्दकोष में इतर भाषाओं के शब्दों का
समावेश होता ही है। लेकिन कई बार कविताओं में अंग्रेजी भाषा के शब्द, भौगोलिक और वैज्ञानिक शब्दावली जबरन थोपी हुई प्रतीत होती है। जब कवि
के पास वैचारिक मौलिकता का अभाव हो जाता है तब अपनी कविता की त्वरित सफलता
के लिए वह ऐसे चमत्कारों और भाषाई छद्म का सहारा लेता है। ऐसी
चमकदार कविताओं की सराहना भी तुरंत हो जाती है और भुला भी तुरंत दी जातीं हैं ये
कविताएँ। कविता पिछले कई दशकों से अतुकांत है, लेकिन
फिर भी वह कविता है गद्य नहीं, क्योंकि अतुकांत कविता में भी लय होती है। शब्दों
का संयोजन ऐसा होता है, भाषा का गठन ऐसा होता है कि उसे हम कविता कहते हैं। हाल में
कविताएँ बहुत गद्यात्मक होने लगी हैं। लिखने वाले प्रति पंद्रह कैरेक्टर बाद एंटर दबा कर
गद्य को कविता बनाने में लगे हैं। इस अति गद्यात्मकता ने कविता केन्द्रित पाठकों में
आज की कविता के लिए अरुचि उत्पन्न कर दी है। दूसरी ओर हाल में कुछ अच्छे कवियों की
छंदबद्ध ताज़ा कविताओं से सुखद साक्षात्कार भी हुआ। जब कवि
राजनैतिक हो जाते हैं तो कविता क्षेत्रीय गुटों के हाथ का खिलौना हो जाती है। बहुधा
आलोचक अपने उन्हीं तयशुदा ५-६ कवि मित्रों
के नाम दोहराता है हर जगह । जो मित्र नहीं वे अच्छे लेखक या कवि भी नहीं यह
मापदंड है प्रतिभा के आंकलन का। यही आज की कविता की दुर्बलता है, क्षति है। ज़रूरत है नजरिया बदलने की, पारदर्शी
होने की।
इधर कविता कुछ अधिक व्यक्तिनिष्ठ हुई है और बहुत
बेबाक भी। कवियों ने ऐसी कविताएँ लिख डालीं हैं जो उनके निजी जीवन की
विसंगतियों को बहुत दुस्साहसिक रूप से सार्वजनिक कर रही हैं. यह प्रयोग सफल है या
असफल, दीर्घायु सिद्ध होगा या
अकालमृत्युग्रस्त होगा यह आने वाला वक़्त तय करेगा। फिलहाल
तो तालियाँ बज रही हैं। यह कविता का संक्रमण काल है।
-अनुराधा
सिंह
कवयित्री/ अनुवादक
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नयी सदी की कविता क्या है या कहा जाए नयी सदी में
किस तरह की कविताओं ने स्थान बनाया है. इसके लिए जरूरी है सबसे पहले नयी सदी को
परिभाषित करना. आज के दौर में नयी सदी का अर्थ फिलहाल सन २००० के बाद की कविताओं
से लिया जा रहा है. तो हम भी इसी दौर को ध्यान में रखते हुए बात कर सकते हैं |
सबसे जरूरी बात है नयी सदी के दौर की कि ये दौर एक
बेहद क्रियाशील और सक्रियता का दौर है. आज की इस नयी सदी में जहाँ इन्टरनेट ने
अपने पाँव पसारे हैं वहां एक नयी पीढ़ी का भी साथ साथ जन्म हुआ . इस नयी पीढ़ी को हम
उम्र के दायरे में रख कर नहीं बाँध सकते क्योंकि इसमें हर उम्र वर्ग के कवि और
कवयित्रियाँ शामिल हैं . ऐसे में यहाँ हम इन्हें दो श्रेणी में बाँट सकते हैं . एक
वो जो कागज़ कलम तक ही सिमित हैं तो दूसरे जिन्होंने सोशल मीडिया को अपना माध्यम
बनाया . आज जब हर तरफ सोशल मीडिया की गूँज है ऐसे में बहुत से प्रथम श्रेणी के कवि
भी इसकी महत्ता को समझने लगे और यहाँ जुड़ने लगे . इस तरह एक बेहद वृहद् संसार बन
गया . जहाँ पल प्रतिपल बदलती रहती हैं संवेदनाएं . जहाँ हर पल एक नयी रचना का उदय
हो जाता है . ऐसे में कैसे संभव है किसी के भी लेखन पर पूरी तरह दृष्टिपात करना .
न आलोचक सबको पढ़ सकता है और न ही हर कवि के लिए संभव है वो सब तक पहुँच सके . ऐसे
दौर में रुई में से सुईं ढूँढने सरीखा काम है नयी सदी की कविता की दशा और दिशा पर
अपनी राय व्यक्त करना . लेकिन जितना पढ़ते हो उतना ही आप समझते हो कि आज का हर कवि
खासतौर से जो सोशल मीडिया के माध्यम से आया है वो अपने समय को परिभाषित कर रहा है
. यहाँ आप हर तरह की कविता का आस्वादन कर सकते हैं . फिर वो चाहे वर्तमान की
समस्या हो या राजनीति , देश या
समाज . या फिर हो स्त्री स्वर की वेदना . दलित विमर्श हो या आदिवासी जीवन
अपने समय के यथार्थ को जो जिस तरह से देख रहा है लिख रहा है . किसी
को कविता में सौन्दर्य दिखाई देता है तो किसी को निजी वेदना . मगर आज के दौर की
कविता में कोई ऐसा तथ्य नहीं जो अनुपस्थित हो . सबसे बड़ी बात आज के दौर की ये है
कि इसमें स्त्री सहभागिता बहुत बढ़ी है . स्त्री जिसके लिए चूल्हे चौके तक ही जीवन
था उस के लिए इन्टरनेट ने नए द्वार खोले हैं . उसे वो आकाश दिया है जिस में वो
मनचाही उड़ान भर सकती है . अपने पंखों को विस्तार दे सकती है . और इसी का प्रमाण है
ये कि आज ये प्रश्न उठने लगा है ‘स्त्री होकर सवाल करती है’
. हाँ , ये ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर उस की
कविताओं के माध्यम से मिल रहा है .
स्त्री ने एक नए युग की स्थापना की है . कल तक
जहाँ पुरुष वर्चस्व था वहां स्त्रियों ने दस्तक दे दी है तो पितृ सत्तात्मक सोच को
ये हजम नहीं होता जिसका ताजा उदाहरण एक आदिवासी क्षेत्र की महिला द्वारा कुछ
सच्चाइयाँ प्रस्तुत की गयीं जिनके बारे में हम सब सुनते तो रहते हैं लेकिन उनकी
गहराई महसूस नहीं कर पाते . लेकिन जब कोई अपने दर्द को अपनी भोगी हुई पीड़ा को अनगढ़
रूप में भी प्रस्तुत करता है तो भी वो सबकी पीड़ा बन जाती है जिसका प्रमाण ये
फेसबुक रहा . जिसे कोई जानता तक नहीं था उस स्त्री की कविताओं ने जाने कितने सोये
हुओं को जगा दिया . साहित्य जगत में तहलका मच गया आखिर ये है कौन जो तीन दिन में
तीन हजार उसकी फ्रेंड लिस्ट में शामिल हो गए और सबसे बड़ी बात जानकार हो या अनजान
सभी उसकी कविताओं को पढ़ अन्दर तक हिल गए और इतना शेयर किया जैसा आज तक कभी नहीं
हुआ . क्या सिद्ध होता है इससे ? यही कि स्त्री जब अपनी बात रखती है तो वो पितृ सत्ता की जड़ें खोद देती है
जो उन्हें हजम नही होता तो उसी पर इलज़ाम का दौर शुरू हो जाता है . और ये वो दौर
होता है जिसमे सिर्फ धैर्यवान ही खड़े रह पाते हैं बाकी इनके बहाव में बह जाते हैं
. पितृ सत्ता से टक्कर लेना आसान नहीं . इस छोटे से वाकये ने ये समझा दिया . ये है
नयी सदी की कविता और उसकी दशा . जहाँ सच को सच कहने पर उसका कैसे दोहन होता है .
कैसे उसकी अकाल मृत्यु होती है . जैसा उसके साथ हुआ कि सिर्फ पांच दिन में तहलका
मचा कर उसने अपनी आई डी डिलीट कर दी . कुछ ने उसे फेक आई डी कहा तो कुछ ने इसके
पीछे कोई पुरुष है , आदि जितने मुंह उतनी बातें . और वो चली
गयी . अब सब तरफ शांति है नहीं तो एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था .
ये तो महज एक चार दिन पहले का उदाहरण भर है . ऐसा
यहाँ अक्सर होता है और होता रहेगा . तो सवाल उठता है ऐसे में कविता की दशा और दिशा
कौन तय करेगा ? क्या वो
जो अपना एकाधिकार समझते हैं ? या कवि जो या तो भोगा हुआ
यथार्थ लिखता है या फिर जो आसपास घटित हो रहा है जिससे उसकी संवेदनशीलता प्रभावित
हो रही है . आज के दौर में काफी उठापटक है कविता के क्षेत्र में . कुछ स्थापित कवि
हैं तो आलोचक भी सिर्फ उन्ही पर लिखकर खुद को सुरक्षित रखना चाहते हैं . नए कवियों
पर लिखने का साहस उनमे भी नहीं हैं . नया कवि अपनी सोच के अनुसार लिखे जा रहा है .
उसे नहीं परवाह कोई आलोचक उस पर कुछ कहता है या नहीं . ये बेपरवाही भी हजम नहीं
होती इसलिए आज के दौर के नए कवियों को वो आलोचक क्षण भर में ख़ारिज कर देते हैं
बिना पढ़े बिना जाने . ये एक ऐसा दौर है जहाँ कविता अपना वजूद ढूंढ रही है .
हालाँकि की गणेश पाण्डेय जी जैसे कुछ लोग नयी सदी के कवियों पर ध्यान दे रहे हैं
जिसकी वजह से यात्रा १०-११ अंक निकाला और उसमे इस दौर के नए कवियों का आकलन न केवल
खुद किया बल्कि अन्य आलोचकों से भी करवाया . उन्होंने एक प्लेटफार्म उपलब्ध करवाया
ताकि आलोचना की आंच पर पकने के बाद उन कवियों को अपने लेखन को सही दिशा में ले
जाने में सहायता मिले . मगर ऐसा सब नहीं कर रहे . कोई एक आध ही ऐसा कर रहे हैं जो
नाकाफी प्रयास है .
आज की कविता अपने बेहद जटिल दौर से गुजर रही है .
जब तक कविता को उसकी दिशा नहीं मिलेगी तब तक उसकी दशा नहीं सुधर सकती . अभी भारत
भूषण पुरस्कार शुभम श्री की कविता को मिला तो एक हंगामा मच गया . किसी को सही लगी
किसी को गलत . किसी को लगा ये एक बेहतरीन प्रयास है जहाँ व्यंग्य के माध्यम से एक
युवा लड़की ने कुछ कहने की हिम्मत की और शायद यही वजह रही हो इस पुरस्कार को देने
की ताकि उसके प्रयासों को प्रोत्साहन मिले . लेकिन दूसरी ओर उससे भी बेहतरीन युवा
लिखने वाले बैठे हैं . उनकी एक से बढ़कर एक कवितायें हैं और सब छोड़ा जाये तो शुभम
श्री की ही अन्य कुछ कवितायेँ इससे बेहतर बताई जा रही हैं और सबका कहना है इस
कविता की जगह उसकी कोई और कविता होती तो अलग बात होती . ऐसे दौर में सोचने वाली
बात सिर्फ ये है कि किस तरह की कविता को प्रोत्साहन मिलना चाहिए ? धीर गंभीर या खिलंदड़ी या फिर टाइम
पास ? संदेशपरक या सन्देशविहीन ? जब तक
ये तय नहीं होता कैसे संभव है कविता की दशा और दिशा तय करना या उस पर कुछ कहना .
नयी सदी की कविता को अभी अपने समय से जूझना है और
अपनी एक पहचान बनानी है. जिस दिन ऐसा हो जायेगा कविता स्वयं अपना आकाश निर्मित कर
लेगी. तब कटाव छंटाव और अलगाव के दौर से गुजरना होगा क्योंकि उसी के बाद
पुनर्स्थापना होती है किसी भी नयी सभ्यता की. हम ये नहीं कह सकते आज के कवि के पास
भाषा शिल्प या बिम्ब नहीं हैं. बल्कि आज के कवि के पास पहले से बेहतर है सब कुछ.
बस ये उसके परिष्कृत होने का समय है. समय अपने आप शोधन कर अलग कर देगा बेहतरीन.
-वंदना गुप्ता
युवा लेखिका एवं कवयित्री
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कार्लाइस का एक कथन याद आ रहा है-’’जब छोटे और ठिगने लोगों की लम्बी छाया पड़ने लगती है, तब ऐसा मानना चाहिए कि सूर्यास्त नजदीक आ गया है’’ यह सभ्यता विमर्श की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है, पर कविता पर भी लागू होती है। सभ्यता के पड़ावों में कविता की क्या
भूमिका रही है या होनी चाहिए। कविताओं का समाजशास्त्रीय विमर्श उसके धुर साहित्य
शास्त्रीय विमर्श के मुकाबले उसे कहाँ और कैसे खड़ा करता है और उसके पेंच-ओ-ख़म को
कैसे देखता है। रीतिकाल किसी न किसी रूप में कविता पर हमेशा हावी रहा है और विराट
तटस्थ प्रकृति को भी आलम्बन-उद्दीपन की ज़द जल्दी-जल्दा लाँघने नहीं देता है। क तरफ
फूल, बादल, प्रेम
की रूमानी सपाटबयानी (अर्थगर्भित सपाटबयानी नहीं) तो दूसरी तरफ ‘‘बूझो तो जानें’’ वाली कविताएं (कि मुक्तिबोध भी पीछे खडे़ हो जायें।) एक तरफ विचार
धारा और प्रतिबद्धता का मेनिफेस्टो लादे वक्तव्य सरीखे गद्य अंश-वक्तव्य तो दूसरी
तरफ अश्रुविगलित प्रलाप, एकालाप, वायवी
रूमानियत पर नहीं इनके बीच एक तीसरी धारा हमेशा प्रवहेमान रही कमोबेस,जिसने कविता के आदिम प्राणधारक तत्व को कभी छोड़ा नहीं। तब भी नहीं जब
उसके भू्रण हत्या का प्रयास हुआ और घोषणा हुई कि कविता की मृत्यु हो चुकी है, पर उसकी प्रसव पीड़ा लम्बी खिंची और कविता मौजूद रही। घोषणा हुई कि
कविता के दिन लद गये, वह नाकाफी है जटिल और र्दुदान्त स्थितियों के सही
सही चित्रण में। पर कविता ने इस घोषणा को भी ग़लत साबित किया। आखिर कविता है क्या!
कविता शास्त्र नहीं है, वह संवेगों की अभिव्यक्ति है और मानव है तो संवेग
हैं। संवेग निजी सम्पदा हैं, तो इस नाते कविता एकालाप है। एकालाप शब्द को हमारे
साहित्य जगत में बड़ी नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता है जबकि साहित्य सृजन एकालाप
ही होता है। सृजन की पूरी प्रक्रिया नितान्त एकांगी और एकाकी होती है, पर व्यष्टि की यह रचना धर्मिता सार्थक, सामयिक-प्रासंगिक
और शाश्वत तभी हो पाती है जब वह समष्टि से जुडे़। अपने सरोकारों के प्रति सजग कवि
सचेत रहते हैं कि उनका एकालाप कहीं पलायनवादी करूणा का अश्रुविगलित प्रलाप मात्र
बनकर ना रह जाए, कि उनका एकालाप कहीं फैंटेसी की कृत्रिम दुनिया
में विचरने की आत्मरति ना लगे, कि उनका एकालाप व्यक्तिगत परिस्थितियों से उत्पन्न
कुण्ठा को युग सत्य बनाने पर ना तुल जाए। (छायावादी कविताओं पर आरोप अधिक पीछे की
घटना नहीं जबकि छायावाद ने हमें रूमानियत का एक विस्तृत फलक भी दिया था, सिर्फ वायवीय एकालाप नहीं और निराला तो हैं हीं)।
इस
सत्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि वहीं कविताएं सार्थक होती है जो समयगत यथार्थ
की परिधि से जुड़कर भी अन्तर्विषयी (इन्टरसब्जेक्टिव) होती हैं। जाहिर है आज का कवि
विषय चुनने भक्तिकाल में तो जाएगा नहीं, अपने
इर्दगिर्द से हीं लेगा। अब सारा दारोमदार इस बात पर होता है कि उसकी संवेदना का
धरातल क्या है? उसके उद्वेग कितने निजी, कितने व्यक्तिगत हैं! और उसकी सम्प्रेषण क्षमता क्या है? थोड़ा पीछे चलते हैं अकादमिक काल विभाजन में गए बिना, जब कंधे पर झोला लटकाए बढ़ी दाढ़ी और चश्में के पीछे से झांकती जीवन्त
आँखें जो कविता रचती थी, उनमें विद्रोह के तेवर थे, सड़ी गली व्यवस्था को बदल डालने की ऊर्जा थी और थी अच्छाई के जीत की
आस्था। या फिर थोड़ा और पीछे जाकर देखते हैं असफलताओं के महिमामण्डन के देवदासीय
(शरतचन्द) युग में। जब निराश हताश आत्मघाती व्यक्तित्व भी नायक हो सकते थे। वह
भावुकता अपने हिस्से का इतिहास रचकर नेपथ्य में चली गई और फिर उस विद्रोह का शमन
भी चुपचाप हो गया। व्यवस्था का आॅक्टोपस तब भी केन्द्र में था। फिर युग आया जब
कविता ने खुद को उस घरातल पर पाया जहाँ मापदण्ड खुलेआम बदल रहे थे। समाज भयावह
सीमा तक संवेदनहीन होता चला गया और एक मशीनी स्वीकृति का भाव आ गया हर विरूपता के
प्रति। सभ्यता व्यक्ति केन्द्रित और व्यक्ति आत्म केन्द्रित और दोनों बाजार की
कठपुतली। जाहिर है मोह भंग का युग लम्बा खिंच रहा है, ऐसे में कविता का दायित्व बढ़ जाता है, उसे इसी
मोहभंग के बीच जीवन की पुर्नरचना की तरफ कदम बढ़ाना है, फीनिक्स पक्षी की भांति। यहाँ एक पुराना प्रश्न फिर आ खड़ा होता है ‘‘सत्य से तिहरी दूरी’’ का। सशरीर अपने नग्न यथार्थ को लिए खड़ी कविताएं भी विलुप्त हो जाती
हैं और विचार और भोगे सत्य के बीच के अन्तराल को छोड़ जाती हंै। यहां पाठक खड़ा है, जो कवि, प्रकाशक/सम्पादक, आलोचक
की त्रयी से दूर है बल्कि पूरे परिदृश्य पर वह है ही नहीं, जबकि होना उसे केन्द्र में चाहिए।
बहुत
कुछ है आज कविता के परिदृश्य पर बहस के लिये एक तरफ भाषिक संरचना के विखण्डन
(पुराने को नाकाफी मानते हुए) तो दूसरी तरफ कथ्य में सभी सीमाएं तोड़ती जड़
सौन्दर्याभिरूचि पर दस्तक देने का दावा। आज सारे वाद घुल मिल गए हैं। अकविता और
एब्सर्ड कविता भी अपने दावे लेकर हाज़िर है। सभ्यता-व्यवस्था के क्रूर निर्मम, निरपेक्ष संघात ने सिंह और हिरण का रूपक बदल दिया है दोनों अगर एक ही
झरने का जल पी रहे हैं तो दोनों तीसरे के वश में है। पूंजी और सफलता की ताकत ने
यही दृश्य साहित्य और कविता में भी ला खड़ा किया है। नकली जनपक्षधर कविता के
मुकाबिल असली रूमानी और प्रकृति प्रेम की कविताएं भी अपना दावा प्रस्तुत कर रही
हैं। कविता का पर्यवसान अर्थ में होता है पर आज की कुछ कविताएं बोल अधिक रही हैं, सोचने का अवकाश, अन्तराल कम दे रही है। आस्वाद के घरातल पर आज
बहुतेरी कविताएं कठिन कविताएं हैं, और जो
कठिन नहीं है और बहुतायत में लगातार सामने आ रही हैं उनके लिये ‘‘एरिश फ्रीड’’ की कविता का एक अंश (उपाध्याय प्रतिभा की वाॅल से साभार)
‘‘मैने एक घंटा बर्बाद किया है
उस कविता को सुधारने में जो मैने लिखी है
एक घंटा
जिसका अर्थ है इस अवधि में
1400 छोटे बच्चे, भूख से
मर गए
चूंकि हर र्ढा सकेण्ड में मर जाता है
पांच वर्ष से कम उम्र का बच्चा भूख से हमारी
दुनिया में। ........... क्या कविता लिखने का कोई
अर्थ है यदि उसमें बच्चों और शान्ति के बारे में कुछ नहीं है।’’
अन्त में बस इतना कि अच्छे लेखक और कवि हीं लेखन
की निरर्थकता का बोध कर पाते हैं।
-डा0 संध्या सिंह
आलोचक एवं लेखिका
सभी के विचार पढ़े और सभी के दृष्टिकोण जाने ...........ऐसे प्रयासों की निरंतर जरूरत है ताकि सभी उससे न केवल लाभान्वित हों बल्कि इस दिशा में सोचना शुरू करें और कविता को उसके मुकाम तक पहुंचाएं ........आभार राहुल देव
ReplyDeleteरचना त्यागी , अनुराधा सिंह और संध्या सिंह ने काफी विस्तार से और डूबकर लिखा है । राहुल देव का एक सराहनीय कदम ।
ReplyDeleteवंदना गुप्ता के विचार पढ़ना अभी बाकी है । पढ़ती हूँ ।जरा रूककर ।
ReplyDeleteवंदना गुप्ता के विचार पढ़ना अभी बाकी है । पढ़ती हूँ ।जरा रूककर ।
ReplyDeleteरचना त्यागी , अनुराधा सिंह और संध्या सिंह ने काफी विस्तार से और डूबकर लिखा है । राहुल देव का एक सराहनीय कदम ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक पहल प्रस्तुति हेतु आभार!
ReplyDeleteकाफी कुछ पढ़ा सजग ,कुछ संयत कुछ असंयत(भी) विचारों की हलचल मिली अच्छा होगा की संयत ,सजग और सर्जक विचरों सर्जनात्मक क्रांति की ओर बढ़े, ऐसा लिखे की समय और समाज से खुशबु आने लगे आयोजक, प्रस्तुत करता , लेखक विचारक एवं पाठक सभी का आभार अच्छी शुरुवाद के लिए बधाई और शुभ कामनाएँ विद्या गुप्ता
ReplyDeleteडा.आलोचक लेखक डा.संध्या सिंह के विचारों से मैं एक सीमा तक सहमत हूँ उन्होंने न केवल कविता बल्कि समग्र लेखन, समय,बदलते मूल्य एवं लेखन के अतिवाद पर बहुत गम्भीरता,संतुलन एवं जिम्मेदारी से लिखा बधाई विद्या गुप्ता
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