कविता का वास्तविक प्रभाव उसकी शाब्दिक अभिव्यक्ति के साथसाथ उसके प्रभाव से स्फूर्त वैचारिक और सामाजिक गतिविधियों में भी निहित होता है। इस दृष्टि से यदि आज की हिन्दी कविता की पड़ताल की जाये तो समग्रतः सामाजिक सरोकारों की कविता होने के बावजूद मनुष्य और उसके परिवेश के समक्ष उभर रही नई और गम्भीर चुनौतियों के सापेक्ष कविता के प्रांगण में होने वाले विमर्श अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रहे हैं। अनपेक्षित कहीं अधिक घट रहा है। समाज में कुछ अच्छी चीजों के लिए हो रहे प्रयासों के बावजूद विघटन की प्रक्रिया तेज हो रही है, नए मानवीय मूल्यों के साथ मनुष्यता के विकास की कुछ कोशिशों के बावजूद मनुष्य और मनुष्य के बीच की दूरी बढ़ रही है। काफी सीमा तक यह सत्य है कि समाज में सामान्य और वैयक्तिक जीवन मूल्यों के क्षरण, जीवन के सामाजिक अनुशासन भंग होने जैसी स्थितियाँ पैदा होने पर समय समय पर कविता ने करवट बदली है और अपनी भूमिका का निर्वाह किया है। बहुत सारे परिवर्तनों को रेखांकित और रचनात्मक परिवर्द्धनों को प्रणीत किया है। लेकिन विचारधाराओं और सामाजिक व शासकीय व्यवस्थाओं की संरचना के अनुरूप इतर चीजें भी घटती रही हैं। दरअसल जब व्यवस्थाओं के अंगोंउपांगों के अहं से मनुष्य और मनुष्य के बीच का संघर्ष प्रेरित होता है तो एक प्रक्रिया के तहत विचारधाराएँ अतिवाद और संकीर्णता से प्रभावित होने लगती हैं। अनेक विचारधाराएँ तो प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष रूप से आतंकी जामा तक पहनने से परहेज नहीं करतीं। ऐसी स्थितियों और निर्मित परिवेश में सामान्यतः सकारात्मक और मानवीय विचार व चिंतन की घोर उपेक्षा होने लग जाती है। मनुष्यता के संरक्षण और विकास के साथ वास्तविक सामाजिक सरोकारों की पहचान, स्थापन और पोषण का कार्य विचाराधाराओं की भूलभुलैयों में खो जाता है। इस बिन्दु पर कविता अपनी तमाम शक्ति और उत्साह के बावजूद असहाय खड़ी दिखाई देती है।
आज
हम जिस काल खण्ड में खड़े हैं, वह भी काफी कुछ ऐसी ही स्थिति का
शिकार है। आज कविता मुखरित है लेकिन उसकी दिशा दुराग्रही विचार और यथार्थ की
भूलभुलैयों में खोई हुई है। वास्तविक अपेक्षित यथार्थ का निर्धारण विवादों के
द्वारा घेर लिया गया है। इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण यह है कि एक लम्बे संघर्ष से
प्राप्त आजादी के बाद हमने जिस ‘लोकतंत्र’ को
हासिल किया, स्वीकार किया, उसे
उसके वास्तविक स्वरूप में विकसित नहीं होने दिया। व्यवस्था के एक यंत्र के तौर पर
हमने उसे अपनाया, वह भी आधाअधूरा। लेकिन मानवीयता पर
आधारित जीवन की निर्वाधता के विचारचिंतन की दिशा और समृद्धि का यंत्र हम उसे नहीं
बना पाये। वह ऐसा यंत्र बन सकता है,
इस तथ्य को ही हम
स्वीकार नहीं कर पाये हैं। इस सन्दर्भ में अपने समय के परिवेश के बारे में सोचते
हुए मुझे तो आश्चर्य होता है कि लोकतंत्र की उपस्थिति में भी उससे इतर विचारधाराओं
की आवश्यकता होती है। ठीक है कि लोकतंत्र स्वयं इसकी अनुमति देता है। लेकिन इसका
यह अर्थ कैसे हो सकता है कि उसी लोकतंत्र को अक्षम बनाकर अपनी अपूर्ण और अतिवादी
चीजों से हम उसे ही प्रतिस्थापित करने लग जायें,
प्रदूषित करने लग
जायें! क्या ‘लोकतंत्र’ के
प्रति हमारी समझ का यही स्तर है? निसन्देह लोकतंत्र बहुत सारी चीजों
की अनुमति देता है, बहुत सारे यंत्रों और अस्त्रों से
मनुष्य को सम्पन्न बनाता है, लेकिन वह ऐसे उपायों की ओर भी
निर्देश करता है, जिनसे इनमें से किसी यंत्र, किसी
अस्त्र के उपयोग की आवश्यकता ही न पड़े। हमें यह समझना होगा कि मनुष्यता के इतिहास
में ‘लोकतंत्र’
अब तक की सबसे बड़ी
खोज तो है ही, सबसे व्यापक विचार और दृष्टि भी है।
इसमें हर समस्या का समाधान मिल सकता है,
यह हर तरह के
अनुशासन और जरूरी नियंत्रण के तत्वों और तकनीक से परिपूर्ण है। सबसे बड़ी बात, मनुष्य
होने की भरपूर आजादी देता है। लोकतंत्र अधिकारों और कर्तव्यों को एकदूसरे का पूरक
मानकर मानव मात्र को अधिकारों से सम्पन्न बनाता है तो कर्तव्यों का पाठ भी पढ़ाता
है। यदि इसे इतर विचारधाराओं के प्रदूषण से बचाया जा सके, समकालीन
मनुष्य की आवश्यकताओं और सर्वहिताय के मंत्र को केन्द्र में रखकर संरक्षित किया जा
सके, लोकतंत्र हर विचारधारा से श्रेष्ठतर और उनकी
खामियों का श्रेष्ठतम उत्तर है। मनुष्यता का सर्वोपरि मार्गदर्शक और संरक्षक है।
तमाम मानवीय सरोकारों के साथ समाज का जैसा विकास और प्रगति लोकतंत्र के दायरे में
संभव है, वैसा किसी अन्य विचारधारा के साथ
नहीं। लेकिन हमारे अपने समय में हो क्या रहा है?
तमाम
किन्तुओंपरन्तुओं के साथ निरंतर लोकतंत्र को आहत किया जा रहा है। अनेकानेक
स्वार्थों और अहं के वशीभूत मनुष्यता के विकास में व्यवधान डालने, बल्कि
कहना उचित होगा कि मनुष्यता को प्रताड़ित करने वाली विचारधाराओं के साथ जश्न मनाया
जा रहा है।
चूंकि
समाज और उसके विकास से जुड़ा हर पहलू कहीं न कहीं विचारधाराओं से नियंत्रित होता है, इसलिए
दो बातों पर गौर करना जरूरी हैपहली बात विचारधारा समग्रतः मनुष्यता के विकास की
प्रेरक और पक्षधर हो और पूर्ण या पूर्णता के यथाधिक समीप हो। दूसरी बात वह
व्यवस्था की अनुगामिनी न होकर व्यवस्था के प्रत्येक अंग को मार्गदर्शन देने में
सक्षम हो। उसमें हर व्यवस्था के समक्ष खड़े होने का साहस हो। ये चीजें जिस विचार के
साथ नहीं होंगी, वह न समाज का भला कर पायेगा, न
ही मनुष्यता का संरक्षण। ये बातें हमें ‘लोकतंत्र’ की
आवश्यकता और महत्ता का अहसास कराती हैं और साहित्य व चिन्तन से जुड़े वर्ग की
वास्तविक और लोकतंत्र के पक्ष में सकारात्मक जागरूकता, सक्रियता
व साहस की आवश्यकता की ओर भी संकेत करती हैं। सकारात्मकता से मेरा सीधा आशय आलोचना
और उत्साहवर्द्धन के संपृक्त प्रवाह से है। विरोध के नशे में अच्छी चीजें
हतोत्साहित और समर्थन के व्यामोह में गलत चीजें स्थापित नहीं होनी चाहिए। साहित्य, विशेषतः
कविता और उससे जुड़े लोगों का यह विशेष दायित्व है। व्यापक सामाजिक सरोकार इसी
रास्ते से आगे बढ़ते हैं, उन्हें इसी रास्ते से जोड़कर चलना
उचित होगा। लेकिन उन्हें इतर संकुचित विचारधाराओं के जाल में उलझाया जायेगा तो वे
सामूहिक स्वार्थों से अधिक कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकेंगे। चूँकि हो ऐसा ही रहा है
इसलिए आज की हिन्दी कविता सकारात्मक चीजों को समझती तो है, लेकिन
उन्हें आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं हो पा रही है।
मेरे मन में अक्सर प्रश्न उठता है कि अनेक
महत्वपूर्ण परिवर्तनों और समस्याओं के समाधान के अनेक यंत्रों की खोज के बावजूद
हड़ताल जैसी चीज का विकल्प हम क्यों नहीं खोज पाये! चुनी हुई जन सरकारों के समक्ष
भी विध्वंशक आन्दोलनों का उत्तर हमारे पास क्यों नहीं है! इस तरह के अस्त्र यदाकदा
आपातकालीन समायोजन के लिए तो उचित हो सकते हैं,
लेकिन परम्परा
बनाए जाने पर मनुष्यता और सामाजिकता- दोनों के लिए विध्वंसक होते हैं। इनका विकल्प
खोजना बहुत जरूरी है। लोकतंत्र का विचार ऐसी चीजों के समाधान के लिए कई
सूत्र-संकेत देता है, जिनके व्यापक उपयोग से नई, अच्छी
व प्रभावशाली चीजें खोजी जा सकती हैं और मनुष्यता को क्षत-विक्षत होने से बचाया जा
सकता है। लेकिन उनका या तो इतर अनैतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा रहा है या
फिर उन्हें उपेक्षित किया जा रहा है। बहुत बार कविता से निकलते स्वर और उससे जुड़े
लोग समूहबद्ध होकर जब नकारात्मक चीजों का समर्थन और उत्साहवर्द्धन करते दिखाई देते
हैं, तो कम से कम मुझे तो हमारे परिवेश में एक व्यापक
बौद्धिक दिवालियापन दिखाई देता है। मनुष्य और उसकी समाजिकता से जुड़ी बहुत सारी
समस्याएँ हैं, जिनके स्थाई, सर्वग्राह्य
और प्रभावशाली समाधान की प्रक्रिया को दीर्घकालिक स्वतः स्फूर्त व्यवस्था के तहत
लाया जा सकता है। हम बहुत बार लोकतंत्र की असफलता का रोना रोते हैं, लेकिन
उसकी वास्तविकता का विश्लेषण नहीं करते। हम गुब्बारे के अन्दर गुब्बारे फुलाये जा
रहे हैं। धुएँ के बीच खड़े होकर हम धुएँ की चर्चा करते हैं, धुएँ
के दुष्परिणामों की चर्चा करते हैं,
लेकिन धुआँ के
वास्तविक स्रोत पर हम विचार नहीं करते। कविता से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह
चीजों को वास्तविक रूप में पहचाने भी और उनके समुचित समाधान की बात भी करे। चिंतन
और अतिउत्साह में समर्थन के झण्डे पकड़ने के मध्य का अन्तर समझा जाना चाहिए।
हिन्दी कविता ने निसन्देह अपने परिवेश
में सामाजिकता को समेटा है, लेकिन उसे सही दिशा में ले जाने की
आवश्यकता है। व्यक्तिगत अपेक्षाओं और अहं के व्यामोह से मुक्त होकर चीजों को
लोकतांत्रिक विचार से सम्पन्न परिवेश में समग्र मनुष्यता को केन्द्र में रखकर
चिंतन करे, प्रतिबद्धताओं के दायरों की सामयिक
और व्यापक न्यायसंगतता की परिधि में समीक्षा करके आगे बढ़े, यह
समय की आवश्यकता भी है और आज की कविता के समक्ष वास्तविक चुनौती भी। आज मनुष्यता
एक तरह के घमासान के परिवेश में अपने बचाव के लिए छटपटा रही है। कविता को उसकी
छटपटाहट को अभिव्यक्ति देने के साथ उसे संकट से उबारने में भी अपनी भूमिका को
स्पष्टतः निर्धारित करना चाहिए।
-उमेश महादोषी, बरेली
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बिन पानी सब सून - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteDhanyvad.
ReplyDeleteधन्यवाद,राहुल जी!
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