1. || आवाज़ ||
हर तरफ एक भीड़ है
हर भीड़ का एक शोर है
और हर शोर के भीतर पसरा है सन्नाटा
उन सन्नाटों के हलचल में
मैं घोलती हूँ अपनी खामोशियाँ
कि बुलंद करना चाहती हूँ
वो आवाज़
जो मूकदर्शक बन
देखती है सब किरदारों को
और चुप रह कर महसूस करती है
हर नकली पात्र का फरेबी प्रेम!!
वो आवाज़
जो तटस्थ रह कर
समझती है
कि जुगाड़ के शतरंजी चालों में
किसको मिल रही है शह
कौन खा रहा है मात
और कौन बिछा रहा है हर बार
नकली अपनेपन का शतरंजी बिसात!!
वो आवाज़
जो चुप रहने के खामियाजे में
सहती है महत्वाकांक्षी होने का आरोप!!
अब तोड़ चुकी है चुनी हुई दीवारें
छोड़ चुकी है ढहती प्राचीरें
और ऊँचे रुतबे की बौनी मीनारें!!
वो आवाज़
तोड़ के चुप्पी की हर एक बाँध
अब करना चाहती है
हर हाल में विवाद!!
हर तरफ एक भीड़ है
हर भीड़ का एक शोर है
और हर शोर के भीतर पसरा है सन्नाटा
उन सन्नाटों के हलचल में
मैं घोलती हूँ अपनी खामोशियाँ
कि बुलंद करना चाहती हूँ
वो आवाज़
जो मूकदर्शक बन
देखती है सब किरदारों को
और चुप रह कर महसूस करती है
हर नकली पात्र का फरेबी प्रेम!!
वो आवाज़
जो तटस्थ रह कर
समझती है
कि जुगाड़ के शतरंजी चालों में
किसको मिल रही है शह
कौन खा रहा है मात
और कौन बिछा रहा है हर बार
नकली अपनेपन का शतरंजी बिसात!!
वो आवाज़
जो चुप रहने के खामियाजे में
सहती है महत्वाकांक्षी होने का आरोप!!
अब तोड़ चुकी है चुनी हुई दीवारें
छोड़ चुकी है ढहती प्राचीरें
और ऊँचे रुतबे की बौनी मीनारें!!
वो आवाज़
तोड़ के चुप्पी की हर एक बाँध
अब करना चाहती है
हर हाल में विवाद!!
2. || फ़िल्टर ||
लोग कहते हैं
मैं क्लिष्ट हूँ
मुझे समझना मुश्किल ही नहीं
नामुमकिन है
वो जान नही पाते
मेरे दिमाग में घट रहे
ओक्सिटोसिन के घटने-बढ़ने की मिस्ट्री
एक पल को प्रेम रचते रचते
अगले ही पल कैसे हो सकती हूँ
इतनी विरक्त
कि लौट आने की कोई गुंजाईश ही नहीं बचती
संबंधों में गहरे उतरते-उतरते
मैं कैसे सब कुछ छोड़ के
उत्पन्न कर लेती हूँ विराग
कि अनुराग की एक कड़ी भी शेष नहीं बचती
जबकि प्रेम की,
संबंधों की,
रिश्तों की,
यहाँ तक कि हर बंधन की
यही नियति है
कि हमें डूब के उतरना होता है पार
मैं कहती हूँ कि
ये मेरे लिए समझा पाना
बिलकुल भी मुश्किल नहीं
कि मैं हूँ समझने में बहुत आसान
भावनाओं की इति में जाना
मेरी नियति नहीं
कि मेरे अंदर पैठी है
एक ऊब,
एक अंतर्विरोध
या कह सकते हैं
लगा है एक फिल्टर
जो ऊबन मचाने वाली भावनाओं से,
आत्माओं से, परम्पराओं से
मुझे कर देता है विरक्त
क्योंकि मैं आकंठ डूबे प्रेम में
पड़े होने पर भी
साँस लेने की गुंजाईश चाहती हूँ!!
लोग कहते हैं
मैं क्लिष्ट हूँ
मुझे समझना मुश्किल ही नहीं
नामुमकिन है
वो जान नही पाते
मेरे दिमाग में घट रहे
ओक्सिटोसिन के घटने-बढ़ने की मिस्ट्री
एक पल को प्रेम रचते रचते
अगले ही पल कैसे हो सकती हूँ
इतनी विरक्त
कि लौट आने की कोई गुंजाईश ही नहीं बचती
संबंधों में गहरे उतरते-उतरते
मैं कैसे सब कुछ छोड़ के
उत्पन्न कर लेती हूँ विराग
कि अनुराग की एक कड़ी भी शेष नहीं बचती
जबकि प्रेम की,
संबंधों की,
रिश्तों की,
यहाँ तक कि हर बंधन की
यही नियति है
कि हमें डूब के उतरना होता है पार
मैं कहती हूँ कि
ये मेरे लिए समझा पाना
बिलकुल भी मुश्किल नहीं
कि मैं हूँ समझने में बहुत आसान
भावनाओं की इति में जाना
मेरी नियति नहीं
कि मेरे अंदर पैठी है
एक ऊब,
एक अंतर्विरोध
या कह सकते हैं
लगा है एक फिल्टर
जो ऊबन मचाने वाली भावनाओं से,
आत्माओं से, परम्पराओं से
मुझे कर देता है विरक्त
क्योंकि मैं आकंठ डूबे प्रेम में
पड़े होने पर भी
साँस लेने की गुंजाईश चाहती हूँ!!
3. || तुम जियो ||
ओ कवि,
तुम जियो...
कि तुम्हे देख के खुश हैं
वो सभी निगाहें
जिसमें छोटी-छोटी आशाएँ पलती हैं
कि तुम उम्मीद की तरह
ज़िन्दा रहते हो
हर अगली धड़कन की आस में
कि तुम्हारी कविता के जुगनू
घोर निराशा से भरे
जीवन के अँधेरे रास्तों को
अपने चकमक से रौशन रखते हैं
कि तुम्हारे होने भर को
खुद में सोच लेने से
हम अपना होना
महसूस कर पाते हैं !!
ओ कवि,
तुम जियो...
कि तुम्हे देख के खुश हैं
वो सभी निगाहें
जिसमें छोटी-छोटी आशाएँ पलती हैं
कि तुम उम्मीद की तरह
ज़िन्दा रहते हो
हर अगली धड़कन की आस में
कि तुम्हारी कविता के जुगनू
घोर निराशा से भरे
जीवन के अँधेरे रास्तों को
अपने चकमक से रौशन रखते हैं
कि तुम्हारे होने भर को
खुद में सोच लेने से
हम अपना होना
महसूस कर पाते हैं !!
एक रात
जब वक़्त की सुइयां
थी दुःख से आहत
और मन था भय से आक्रांत
रात बीत रही थी धीमे-धीमे
और आँखें थी खंडहर-सी वीरान
मैं बेचैनी से खोज रही थी
दुःख की भूल-भुलैया से निकल पाने का रास्ता
उस वक़्त सहसा खुद में महसूस किया
अपने शांत, साहसी पिता का होना
जो ज़िन्दगी के कठिन दौर में
हमेशा बंधाते ढाढ़स
और निराशा से भरे अँधेरी रातों में
खोज लाते उम्मीद के जुगनू
जो हमारी आँखों को
सपनों की चादर से ढांप कर
जागा करते थे रात-भर
और ढूंढ लेते हमारी हँसी के लिए
रोज़ एक नयी निखरी सुबह
जो ठहाकों के रंगीन गिलाफ में
छुपाये रहते धागों-सा महीन दर्द
जो हँसते नील-गगन के विस्तार-सा
और रोते सागर की तरह गहरे-गहरे
कि वो बखूबी जानते थे
कि दुःख कभी पराया नहीं होता
वो होता है अनुवांशिक
उतरता जाता है पीढ़ी-दर-पीढ़ी
इसलिए वो दुःख की परिभाषा से
हमें अनजान रखते हुए सीखा गए थे
दुखों से जूझने का सलीका
ओ पिता
तुम जो छोड़ गए हो मुझ में
अपनी सभी निशानियाँ
उन्हें मैं सहेज कर रहूँगी अपने भीतर
तुम्हारी विरासत की तरह!!
5. || 'हैप्पी वीमेन'स डे' ||
हर दिन सुबह आँख खोलते ही
निहारती हैं हम हथेलियों को
देखती हैं अपने किस्मत की रेखा
जाने रात भर में
क्या बदल गया होगा
बदलता कुछ नहीं
पैरों में वही चकर घिन्नी लगी है
जो पैदा होते वक़्त
धरती माँ से खोइन्छे में मिली थी
रोबोट की तरह
सेट हो चुका है अपना माइंड सेट
अब उसी कण्ट्रोल बटन से चलता है
अपने जीवन का कारोबार
इसलिए कभी कभी याद भी नहीं रहता
अगले दिन इतवार है या सोमवार
तो भला कैसे याद रहेगा
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का त्योहार
जिसमे हमें याद दिलाया जाता है
कि हमें भी हैप्पी होना है
साल के तीन सौ पैंसठ दिनो में से
अब भला कैसे याद रहे
अदना सा 8 मार्च का एक दिन
जबकि इस दिन अपने परिवार में से
किसी का जन्मदिन भी तो नहीं पड़ता
और ना ही होता है
दीवाली, ईद, गुरु-पूरब, ईस्टर
या कोई राष्ट्रीय त्योहार
आज भी
स्कूल की किताबों में नहीं होता
वुमन के हैप्पी होने का कोई चैप्टर
वो मर्दानी झाँसी की रानी हो सकती है,
या हो सकती है
ममता की नदी सी मदर टेरेसा या
करुणा की लौ लिए नाईट-एंगल
बाजू का दम दिखाती मेरीकॉम या
उड़नपरी पी टी उषा हो सकती है
वो हो सकती है
पुचकारने वाली माँ,
लाड दिखाने वाली बहन
प्यार लुटाने वाली पत्नी
और ख़याल रखने वाली बेटी या बहु
लेकिन नहीं हो सकती तो बस
खुल कर आज़ाद ख़यालों से
ज़िन्दगी जी लेने वाली आम लड़की
थोपी हुई सोच की दल-दल से निकल कर
खुली हवा में सांस लेने वाली स्त्री
लिंगानुपात की ही तरह
इसे भी महिला दिवस का नाम देकर
एक दिन में समेट दिया गया है
जहाँ हम उसी रोबोटिक माइंड सेट की तरह
उस दिन खुश हो जाते हैं
रटे-रटाये ज़ुबान से कहते हैं
'हैप्पी वीमेन'स डे'
6. || पिता ||
पिता!!
मेरे जीवन का प्रथम पुरुष
मेरा अहम् मेरा ग़ुरूर
जिस की ऊँगली थमा कर
परिचय तो माँ ने कराया था
लेकिन उसने कभी जताया नहीं,
एक पिता होने का दंभ
मेरी हथेलियों को मजबूती से थामे
जब वो मुझे दिखा रहा होता
और सीखा रहा होता
कि दुनिया की बेमानी गला-काट दौड़ में
ईमानदारी से अपनी राह चुनना,
सपने बुनना और आगे बढ़ना
बेबाकी से अपनी बात कहना,
बेपरवाह रहना और हिम्मती बनना,
तब मैं देख रही होती उसकी आँखों में
एक गर्व से मुस्कुराती लड़की का
इठलाता हुआ चेहरा
7. || रोहित वेमुला की चाह ||
तुम जियो साथियों
फिर चाहे मैं नहीं!!
तुम्हारे जीते रहने से
ज़िन्दा रहेंगे मेरे स्वर
मेरे लिखी हुई चिट्ठियों को
बाँचना इस तरह
कि मेरी झूली हुई गर्दन में
अटकी हुई रूह
खुद को आज़ाद कर सके
इन भेड़ियों के समाज से
जो सदियों से चूसते आ रहे हैं
लहू का क़तरा क़तरा
हर सच बोलने वाली जुबान से
दीमक की तरह
चाट रहे हैं हमारी भाषा
कि शब्द मिट्टी हो जाए
और हम लड़ ना सकें वर्तमान से
लेकिन ध्यान रहे
जब मेरी लिपियाँ
उतरना चाहेंगी आँसू बन के
तुम्हारे आँखों के जीने से
खबरदार!
तुम उन्हें खालिस यूँही
रो कर बर्बाद मत करना
तुम मेरी आवाज़ बनना
कि मैं मरूँगा नहीं
हमेशा ज़िन्दा रहूँगा तुम्हारे भीतर
इसलिए तुम जियो
फिर चाहे मैं नहीं!!
रेणु
मिश्रा
टाइप-IV-203,
एटीपी
कॉलोनी, अनपरा
सोनभद्र –
231225 (उ.प्र)
मो.न. –
9598604369
आत्मानुभूतिक संवेदनाओं के जरिये जगव्यापि मर्म का टोह लेती रेणु मिश्रा की कवितायेँ बड़ी सुस्पष्टता से अपनी बात कहती हैं। कवयित्री को बधाई। ~ मिथिलेश
ReplyDeleteकविताओं पर इतनी सुलझी हुई प्रतिक्रिया देने के लिए आभार मिथिलेश जी। धन्यवाद :)
Deleteसंजिदगी से लिखी बेहतरीन कविताएं।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया पुरवाई जी टिप्पणी के लिए :)
ReplyDeleteवाह! शब्दों के जरिए जीवन को उकेरने की कला
ReplyDeleteशुक्रिया दिवेन्द्र :)
Deleteअप्रतिम कविता. बहुत सुन्दर लिखी है रेनू मिश्रा ने.. बहुत दिनों बाद कुछ अलग पहड़ने को मिला. :)
ReplyDeleteशुक्रिया सत्यजीत इन सुंदर शब्दों के लिए :)
DeleteBahut khoob...��
ReplyDeleteSaari kavitaon ko bahut hi achi tarah se likha hai aapne Renu ji...
Sabhi kavitayen laajavab hai..
Mujhe to sabhi kavitayen pasand hai...������
Saudamini
धन्यवाद सौदामिनी जी :)
Deleteवाह !
ReplyDeleteबहुत अच्छी और आज के समाज की नब्ज को छु जाने वाली कविताएं !
शानदार लेखन !
बधाई !
धन्यवाद आशुतोष मनोबल बढ़ाने के लिए :)
Deleteविभिन्न विषयों पर अर्थपूर्ण कवितायें ,बधाई रेणू जी
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद अजय जी। आपकी प्रतिक्रिया पाना मेरे लिए बड़ी बात :)
Deleteविभिन्न विषयों पर अर्थपूर्ण कवितायें ,बधाई रेणू जी
ReplyDeleteये कविताएँ समकालीन संदर्भो की ईमानदारी से परख करती हैं और भविष्य में और अच्छी कविताओं की उम्मीद जगाती हैं. कवयित्री को बधाई
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया विनय जी।
Deleteअच्छी कवितायेँ हैं कवयित्री की कविताएँ उनकी बेहतर विचारधारा की प्रतिनिधि हैं उन्हें बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद
ReplyDeleteधन्यवाद अरमान :)
Deleteरूह के आर-पार से गुज़रती कविताएँ ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर 😊 😊
शुक्रिया शिवानी कविताएं पसंद करने के लिए :)
Deleteरूह के आर-पार से गुज़रती कविताएँ ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर 😊 😊
Ma'am,
ReplyDeleteकुछ बातें जरूर है आपके शब्दों में, जो हर लम्हा प्रेरित करता हैं मुझे।
बहुत शुक्रिया निशांत। यह मेरे लिए वाक़ई बड़ी बात :)
Delete