Friday 20 November 2015

तीन कवि : तीन कवितायेँ – 16


गगन गिल, आकाँक्षा पारे और शहनाज़ इमरानी
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एक उम्र के बाद माँएँ / गगन गिल

एक उम्र के बाद माँएँ
खुला छोड़ देती हैं लड़कियों को
उदास होने के लिए...

माँएँ सोचती हैं
इस तरह करने से
लड़कियाँ उदास नहीं रहेंगी,
कम-से-कम उन बातो के लिए तो नहीं
जिनके लिए रही थीं वे
या उनकी माँ
या उनकी माँ की माँ

मसलन माँएँ ले जाती हैं उन्हें
अपनी छाया में छुपाकर
उनके मनचाहे आदमी के पास,

मसलन माँएँ पूछ लेती हैं कभी-कभार
उन स्याह कोनों की बाबत
जिनसे डर लगता है
हर उम्र की लड़कियों को,
लेकिन अंदेशा हो अगर
कि कुरेदने-भर से बढ़ जाएगा बेटियों का वहम
छोड़ भी देती हैं वे उन्हें अकेला
अपने हाल पर !

अक्सर उन्हें हिम्म्त देतीं
कहती हैं माँएँ,
बीत जाएँगे, जैसे भी होंगे
स्याह काले दिन
हम हैं न तुम्हारे साथ !

कहती हैं माएँ
और बुदबुदाती हैं ख़ुद से
कैसे बीतेंगे ये दिन, हे ईश्वर!

बुदबुदाती हैं माँएँ
और डरती हैं
सुन न लें कहीं लड़कियाँ
उदास न हो जाएँ कहीं लड़कियाँ

माँएँ खुला छोड़ देती हैं उन्हें
एक उम्र के बाद...
और लड़कियाँ
डरती-झिझकती आ खड़ी होती हैं
अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू

अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू लड़कियाँ
भरती हैं संशय से
डरती हैं सुख से

पूछती हैं अपने फ़ैसलों से,
तुम्हीं सुख हो
और घबराकर उतर आती हैं
सुख की सीढियाँ
बदहवास भागती हैं लड़कियाँ
बड़ी मुश्किल लगती है उन्हें
सुख की ज़िंदगी

बदहवास ढूँढ़ती हैं माँ को
ख़ुशी के अँधेरे में
जो कहीं नहीं है

बदहवास पकड़ना चाहती हैं वे माँ को
जो नहीं रहेगी उनके साथ
सुख के किसी भी क्षण में !

माँएँ क्या जानती थीं?
जहाँ छोड़ा था उन्होंने
उन्हें बचाने को,
वहीं हो जाएँगी उदास लड़कियाँ
एकाएक
अचानक
बिल्कुल नए सिरे से...

लाँघ जाती हैं वह उम्र भी
उदास होकर लड़कियाँ
जहाँ खुला छोड़ देती थीं माँएँ.
उदास होने के लिए


चिंता / आकाँक्षा पारे

किसी भी आने-जाने वाले के हाथ
माँ भेजती रहती है कुछ न कुछ
आज भी घर से आई हैं ढेर सौगात

प्यार में पगे शकरपारे
लाड़ की झिड़की जैसी नमकीन मठरियाँ
भेज दी हैं कुछ किताबें भी
जो छूट गई थीं पिछली दफ़ा

काग़ज़ के छोटे टुकड़े पर 
पिता ने लिख भेजी हैं कुछ नसीहतें
जल्दबाज़ी में जो बताना भूल गए थे वे
लिख दिया है उन्होंने
बड़े शहर में रहने का सलीका

शब्दों के बीच
करीने से छुपाई गई चिंता भी 
उभर आई है बार-बार।


 मेरा शहर / शहनाज़ इमरानी

शहर में भीड़ है 
शहर में शोर है 
शहर को ख़ूबसूरत बनाया जा रहा है 

सरों पर धूप है 
खुरदरी, पथरीली, नुकीली,
बदहवास, हताश
परछाइयाँ.....

तमाम जुर्म, क़त्ल, ख़ुदकशी 
सवाल लगा रहे हैं ठहाके 
क़ानून उड़ने लगा है वर्कों से 
घुल रही हैं कड़वाहट हवाओं में 
एक बेआवाज़ ग़ाली जुबाँ पर है 
मर चुकी सम्वेदनाओं के साथ जी रहा है शहर 
अब बहुत तेज़ भाग रहा है मेरा शहर !

1 comment:

  1. मर चुकी सम्वेदनाओं के साथ जी रहा है शहर
    अब बहुत तेज़ भाग रहा है मेरा शहर !

    बहुत सुंदर

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