तीन कवि : तीन कवितायेँ – 15 में
कात्यायनी, विपिन चौधरी और बाबुशा कोहली
----------------------------------------------------------------
भाषा में छिप जाना स्त्री का / कात्यायनी
न जाने क्या सूझा
एक दिन स्त्री को
खेल-खेल में भागती हुई
भाषा में समा गई
छिपकर बैठ गई।
उस दिन
तानाशाहों को
नींद नहीं आई रात भर।
उस दिन
खेल न सके कविगण
अग्निपिण्ड के मानिंद
तपते शब्दों से।
भाषा चुप रही सारी रात।
रुद्रवीणा पर
कोई प्रचण्ड राग बजता रहा।
केवल बच्चे
निर्भीक
गलियों में खेलते रहे।
एक दिन स्त्री को
खेल-खेल में भागती हुई
भाषा में समा गई
छिपकर बैठ गई।
उस दिन
तानाशाहों को
नींद नहीं आई रात भर।
उस दिन
खेल न सके कविगण
अग्निपिण्ड के मानिंद
तपते शब्दों से।
भाषा चुप रही सारी रात।
रुद्रवीणा पर
कोई प्रचण्ड राग बजता रहा।
केवल बच्चे
निर्भीक
गलियों में खेलते रहे।
आइडेंटिटी क्राइसिस / विपिन चौधरी
यह सिर्फ स्त्रियों के साथ ही है
वर्ना यहाँ तो लिपस्टिकों और नेलपालिश
के भी शेड्स और नंबर है
रागों के नाम है रंगों की अलग पहचान
है
सड़कों के
चौराहों के
देश और देशों को अलग करने वाली
...विभाजन रेखाओं के भी नाम हैं
हम ही हैं
जिन्हें अपनी पहचान जताने के लिए
अपने नाम के आगे- पीछे एक पूँछ
लगानी पड़ती है
बीज अंकुरित होते ही
अपने साथ नयी पहचान ले आता है
काले बादल
साफ़-सुथरे आकाश पर दस्तक दे कर
उसकी पहचान स्थिर कर देता है
सिर्फ हमीं है
जो वाकई पहचान के संकट से गुजर रही
हैं
और संकट भी ऐसा कि
इस संकट के हल की चाबियाँ
हमारे ही बगलगीरों ने कहीं गुमा दी है
श्वास-श्वास झंकार / बाबुशा
कोहली
वे दुबके पड़े रहते अपनी उबासियों में
पर उनकी कट्टर निराशाएं चमचमाती
और हम फटेहाल सड़कों पर नृत्य करते
हमारे पाँव की थाप से पृथ्वी थरथराती है
वे पीड़ा से बिलबिलाते हैं
कि जैसे उनकी आत्मा पर ठोंकी गयी हो गहरी कील
जिस पर टंगी है उनकी देह
हमारी आत्माओं में भी कम नहीं गरम चिमटे से पड़े चकत्ते
जले निशानों को पिरो कर हमने बाँध लिए अपने पाँव में घुँघरू
कि जैसे उनकी आत्मा पर ठोंकी गयी हो गहरी कील
जिस पर टंगी है उनकी देह
हमारी आत्माओं में भी कम नहीं गरम चिमटे से पड़े चकत्ते
जले निशानों को पिरो कर हमने बाँध लिए अपने पाँव में घुँघरू
अनंतकाल के गले पर फंसी
सुबक हैं उनके भारी कदम
हम पानी में निरंतर फैलते अमीबा अपने भूत-भविष्य से बेख़बर
थिरकते झरने की लय पर
हम पानी में निरंतर फैलते अमीबा अपने भूत-भविष्य से बेख़बर
थिरकते झरने की लय पर
उनके पेट में कुलबुलाता है
नृत्य
वे कस कर बांधते हैं कमरबंद
उनकी जम्हाइयों से बनी हवा की दीवार
सीलन भरी उनके सामने खड़ी
वे कस कर बांधते हैं कमरबंद
उनकी जम्हाइयों से बनी हवा की दीवार
सीलन भरी उनके सामने खड़ी
हम चिन्दीचोर - से नाचते
हैं सड़क पर यूँ कि नाचता है आलम
नाचती है पृथ्वी गोल- गोल दरवेश सी
हम नृत्य से ढंक लेते हैं अपनी देह की नग्नता
हमारी आत्माएं नाचती हैं निर्वस्त्र
नाचती है पृथ्वी गोल- गोल दरवेश सी
हम नृत्य से ढंक लेते हैं अपनी देह की नग्नता
हमारी आत्माएं नाचती हैं निर्वस्त्र
हमारे नृत्य पर करते हैं वे
विलाप
हम कर सकते हैं उनके विलाप पर दो मिनट का मौन नृत्य
कि विलाप के नृत्य की मुद्राएं भी आती हैं हमें
हम कर सकते हैं उनके विलाप पर दो मिनट का मौन नृत्य
कि विलाप के नृत्य की मुद्राएं भी आती हैं हमें
हम रूमी की बौरायी सी
चकरघिन्नियाँ हैं
नटराज की नाभि से फूटा झन-झन करता नाद हैं
नटराज की नाभि से फूटा झन-झन करता नाद हैं
बहुत अच्छी कवितायेँ
ReplyDeleteतीन कवयित्री :तीन कविताएँ तीनों की रचनाएँ बहुत गहराई तक उतर प्रभावित करती है |
ReplyDelete