Monday, 9 November 2015

मनीष कुमार सिंह की कहानी ‘प्रोजेक्ट वर्क’


प्रोजेक्‍ट वर्क
मनीष कुमार सिंह

क ने ख को सम्‍बोधित करते हुए कहा,''प्रिय मित्र अगर पढ़ाई-लिखाई से तुम्‍हारा मन उचट गया हो तो मदिरा-पान प्रारम्‍भ किया जाए। पीते हुए हम भूने काजू खाएगें और सुन्‍दर कन्‍याओं के विषय में वार्तालाप करेगें।'' ख अपने सामने दो-तीन किताबें खोलकर बैठा था। एक बड़ी सी सुव्‍यवस्थित फाइल में नोट्स बना रहा था। ''मन क्‍यों उचाट होने लगा। इतनी दूर मॉ-बाप ने पढ़ने को भेजा है। तुम्‍हारी तरह बड़े बाप की कोई बिगड़ी औलाद नहीं कि बेकार में टाइम और पैसा जाया करु। मुझे पढ़-लिख कर कुछ बनना है। आवारागर्दी करनी हो तो अपने इस रुममेट को शामिल कर लो।'' उसने लिखते हुए ऑंखों से ग की ओर संकेत किया। ग ताव खा गया। कुछ देर तक ख को को घूरता रहा। लेकिन इससे बेखबर ख अपना काम करता रहा। जब ऐसे बात न बनी तो ग ने मुह खोला,''वत्‍स दुर्योधन, तुम अपने को आइंसटाइन समझो या न्‍यूटन। पर हो एक नम्‍बर के घोंचू। पढ़ने वाले पढ़-लिख कर तफरीह के लिए दो-चार घंटे बचा लेते हैं। जो चौबीसों घंटे पढ़ता है वह अत्‍यन्‍त मूर्ख माना जाता है।'' फिर क की ओर उन्‍मुख होकर बोला,''उठो पार्थ हम दोनों बाहर चलते हैं। इसे अपने हाल पर छोड़ दो।'' वे दोनों वास्‍तव में उठने का उपक्रम करने लगे।
ख ने काम रोककर दोनों से कहा। ''हें..हें..प्रभु नाराज होकर कहॉ चल दिए। ठहरो मैं भी तुम्‍हारे साथ चलता हॅू। तुम्‍हारी तरह मैं भी पक्‍का आवारा हॅू। बस प्रोजेक्‍ट में फॅसा हुआ हॅू इसलिए  रुकने को बोल रहा था। गुस्‍ताखी के लिए माफी चाहता हॅू। गॉव की जिन्‍दगी पर कुछ तैयार कर रहा हॅू। अब इतना तो तुम जैसे निपट मूर्खो को भी पता है कि भारत माता ग्राम्‍यवासिनी है। सो प्रोफेसरों को इम्‍प्रेस करने के लिए इस प्रोजेक्‍ट को मैंने चुना। अगले हफ्ते इस चक्‍कर में गॉव जाना तय कर लिया है। तुम लोग चलना चाहो तो साथ चलो। थोड़ा चेंज हो जाएगा वरना मैं अकेले बोर हो जाऊगॉ।''
इस पर क और ग ने एक दूसरे की ओर देखा। चलने का फैसला करने में उन्‍होंने ज्‍यादा समझ नहीं लिया।
गॉव के भूतपूर्व जमींदार की पुरानी हवेली को तीनों ने बाह्य उपेक्षा और आंतरिक जिज्ञासा से निहारा। ''थोड़े दिन ही रहना है नवाब साहब।'' ग ने क को टहोका मारा। ''पहले आप लोग यह यह देखिए कि यह हवेली अपने में पूरी कहानी छिपाए हुई है।'' ख सहसा गंभीर चिंतक लगने लगा था। हवेली के स्‍वामी ने उन्‍हें एक बड़े हॉलनुमा कक्ष में ठहराया। तीनों शहरियों ने उन्‍हें अपने आने के महान उद्देश्‍य की जानकारी दी। वह मॅूछों ही मॅूछों में मुस्‍कराया। प्रकट तौर पर कहा। ''बड़ी अच्‍छी बात है। आप जैसे कद्रदानों के कारण गॉव की भी पूछ हो जाती है। आज आराम कर लीजिए। थके होगें। कल यहॉ के बांशिंदों से मिलवाने का इंतजाम करवाता हॅू। वे आपको यहॉ का दर्शन करवाएगें।''
उस टोले के सामने आकर भूतपूर्व जमींदार के आदमी ने आवाज दी। चंद पलों में एक आदमी हाथ जोड़े सामने आया। वह कमर से ऊपर कुछ भी नहीं पहने हुआ था। कृशकाय व्‍यक्ति अपनी अवस्‍था से अधिक वृद्व व रुग्‍न भी दिख रहा था। ''देखो ये लोग गॉव में हमारे मेहमान हैं। किसी काम को लेकर इन्‍हें जंगल-देहात देखना है। तुम दिखा दो। खुश हुए तो अच्‍छा-खासा ईनाम मिलेगा।'' वृद्व जरा और झुक गया। ''सरकार आपके लिए जान हाजिर है। मैं तो शरीर से लाचार हॅू। अपने बेटे को हजूर के साथ कर देता हॅू। यह चप्‍पे-चप्‍पे की जानकारी रखता है।‍''
पूरे माहौल में सूअर,मुर्गी और बकरियों के मल-मूत्र की मिली जुली अप्रिय गन्‍ध व्‍याप्‍त थी। तीनों मित्र तनिक दूर हट के खड़े थे। कारिंदा उनके मनोभाव भॉप कर अदब से बोला। ''गलती हुई। इन लोगों को हवेली के दरवाजे पर बुला लेना था। नाहक आपको तकलीफ हुई।''

''कोई बात नहीं।'' क ने भेद खुल जाने पर भी बात छिपाने की कोशिश की। ''जब धूल-मिट्टी में हमलोग घूमेगें तो क्‍या परेशानी नहीं होगी। आखिर आए किस लिए हैं।'' बाकी दोनों ने भी सर हिलाकर इसका समर्थन किया।
सर्वप्रथम टोले के मुखिया का बेटा गया उन्‍हें नजदीक स्थित पोखरा पर ले गया। गंदले पानी से दूर उसने एक साफ-सुथरा किनारा खोजा। ''बाबूजी इधर आइए। यहॉ दर्जन किस्‍म की मछलियॉ मिल जाएगीं। ऐसी भी हैं जिनका वजन कई किलो है। दो लोग थामेगें तब काबू आएगीं।''
''ऐसी क्‍या खास बात है भई?'' ग ने उपेक्षा से उस साधारण से पोखरे का निरीक्षण किया। गर्मी में शायद सूख जाता होगा। बिना क्रॉस एक्‍जामिनेशन के तथ्‍यों को ज्‍यों का त्‍यों स्‍वीकार नहीं किया जा सकता है। उनका गवई गाइड क्‍या बोलता। क ने इस अवसर पर अपने साथी को समझाते हुए कहा,''महान आत्‍मा जब यहॉ तक आए हो तो जरा इनकी नजर से देखो। ....देखो घोंघे-सीप, यहॉ देखो। पूरे इको सिस्‍टम को यह छोटा सा पॉन्‍ड सस्‍टेन करता है। देखो जरा बगुलों को...कितना ध्‍यान मछली पकड़ने में लगा रहे हैं। यार हमें प्रेजेन्‍ट को इन्‍जॉय करना है।''
''ठीक है प्रभु।'' ग ने कृत्रिम सम्‍मान दर्शाते हुए हाथ जोड़े।
इन दोनों के वार्तालाप से दूर ख नोटबुक में कुछ दर्ज कर रहा था। दोनों ने ध्‍यान दिया कि वह प्रोजेक्‍ट वर्क को गंभीरता से ले रहा है। आखिर इन दोनों को यहॉ आने के लिए प्रेरित करने वाला वही था।
गया पोखरा में कमर भर पानी में उतर गया। शरीर पर बंधे गमछे नुमा कपड़े को खोलकर एक सॉप जैसा जीव पकड़ लाया। ''साहब यह एक तरह की मछली है।'' उसने उसका स्‍थानीय नाम बताया जिसे ग ने तत्‍काल नोट कर लिया। दरअसल वे लोग गया की इस त्‍वरित कार्यवाही से चकित थे। पोखरे से निवृत होकर वे आगे को गमन कर गए। राह में पेड़ पर चढ़ती उतरती गिलहरियॉ उन शहरियों को ग्राम्‍य जीवन के रोमांटिक पहलू का दर्शन करा रही थी। विपरित दिशा से गया का एक परिचित चला आ रहा था। दोनों ने पल भर रुक कर बात की। परिचित ने सांकेतिक भाषा में उससे ने कुछ कहा। गया ने इशारे से उसे मना कर दिया। ''क्‍या बात है?'' क ने प्रश्‍न किया। ''साहब हमलोग फंदा लगाकर उन गिलहरियों का शिकार करते हैं।'' यह सुनकर तीनों मित्रों को सदमा पहॅुचा। इतने प्‍यारे प्राणियों के साथ यह सलूक! वे वितृष्‍णा से भर गए। ख ने अंग्रेजी में कहा कि हमारे आर.डब्‍लू.ए. के तनेजा साहब ने सड़क पर मैना के घोंसले से अण्‍डा चुराने पर किसी ऐसे ही खानाबदोश समुदाय के आदमी को सरेशाम थप्‍पड़ मारकर रिहायशी इलाके से भगाया था।
खलिहान में फसलों के नमूने इकठ्ठा करने से लेकर खेतों में खड़ी फसल की जानकारी लेने में अब वे लोग पूरी तन्‍मयता दिखा रहे थे। चलते-चलते उनके फैशनेबल व आरामदेह स्‍पोर्ट शू धूल-मिट्टी से सन गए थे। ''साहब वो देखिए।'' सामने खेतों में भरे पानी वाले जमीन पर अनेक मछलीखोर पक्षी बैठे थे। ''हमारे मालिक यही से अपने लिए चिडि़यों का शिकार करते हैं।'' गया ने हवेली के मालिक के बारे में जानकारी दी। ''कभी-कभी हम भी उनके लिए शिकार करते हैं। जो भी फरमाइश करे...तीतर,बटेर,जंगली मुर्गा...। ऐसे-ऐसे पक्षी मिलेगें जिनका मांस इतना गर्म होता है कि नया आदमी दो बोटी से ज्‍यादा खा जाए तो झेल नहीं पाएगा।''
''ऐसी क्‍या बात है?'' ग जरा ताव खा गया था। वैसे इतने प्रकार की चिडि़यों के मांस की कल्‍पना करके उनके मॅुह में पानी आ गया था। यह हुआ ना शरीफ लोगों का भोजन।
दोपहर का सूरज सर पर चढ़ आया था। श्रम के कारण सभी पसीने से लथपथ थे। फ्लाक्‍स से पानी पीकर तीनों ने इधर-उधर निहारा। कहीं-कहीं पेड़ के झुरपुट हरितिमा का आभास दे रहे थे। सामाजिक-सांस्‍कृतिक विषयों में रुचि रखने वाला ग गया से पर्व-त्‍योहार के बारे में पूछने लगा। वह ऐसे अवसरों में होने वाले सामूहिक आयोजन में नृत्‍य-संगीत और विभिन्‍न अनुष्‍ठानों की जानकारी देने लगा। ग ने सारी जानकारी फूर्ती से कागज पर लिपिबद्व कर ली। याददाश्‍त का क्‍या भरोसा। अपने साहब लोगों को क्‍लान्‍त देखकर गया ने उनसे यह निवेदन किया कि पास में उसके किसी परिचित के घर चलकर थोड़ा आराम करके आगे बढ़ा जाए।
एक कच्‍चे घर के आगे वे रुके। इस झोपड़ीनुमा घर के लकड़ी के गठ्ठर और पुआल मौसम की मार से बदरंग हो चुके थे। गया के अनुरोध पर वे लोग बाहर पड़े खाट पर बैठ गए। धैर्य जवाब दे रहा था अत: वे थर्मस से कॉफी निकाल कर चुस्‍की लेने लगे। दरवाजे के करीब एक चक्‍की पड़ी थी। ऐसा लगता था कि इधर उसका प्रयोग नहीं हो रहा था। फिलहाल निष्क्रिय पड़ी चक्‍की जब घूमती होगी तो कुछ गतिशील प्राणियों का पोषण करती होगी। 
गया के आवाज देने पर एक अधेड़ बाहर निकला। कृष्‍ण वर्ण का व्‍यक्ति आगंतुकों को देखकर विस्मित था। खेत में फसल कटने के पश्‍चात् पौधों के अवशिष्‍ट हिस्‍सों की भॉति दाढ़ी वाला इंसान  नमस्‍ते करके भूमि पर बैठ गया। नजरों से उनका परिचय पूछने लगा। गया ने बताया कि ये साहब लोग हैं। शहर से हमारे गॉव और यहॉ के लोगों के बारे में जानने आए हैं। शायद बाद में टी.वी. या अखबार में इसकी खबर भी छपे। वह हकबकाया सा गुड़मुड़ बैठा रहा। क ने प्रत्‍युपन्‍नमतित्‍व से कार्य करते हुए अपने उन्‍नत तकनीक वाले कैमरे से उस व्‍यक्ति तथा उसके घर की कई तस्‍वीरें खींची। उसने झोपड़ी के अन्‍दर तिर्यक द्दष्टि फेंकी। भीतर अंधेरा था यानि छत में कोई छेद नहीं था।  वह उससे नाम पूछने लगा। भाषा समझ में न आने के कारण अधेड़ गया की तरफ देखकर अर्थ पूछने लगा। उसका नाम तीनों की समझ में नहीं आया। उनके लिए यह एक विचित्र नाम था। इससे बेहतर तो कोई फ्रांसीसी या इतालवी नाम उनके पल्‍ले पड़ता। नाम को अप्रासंगिक मान कर वे अन्‍य जानकारी लेने लगे। गया दुभाषिये की भूमिका निभा रहा था। ग अपने हैंडी कैम से इस संवाद का वीडियो तैयार करने लगा। परिवार के सदस्‍यों की संख्‍या, शै‍क्षणिक स्‍तर, खान-पान, रीति-रिवाज को खॅगालकर वे जैसे एक गुरुत्‍तर दायित्‍व से निवृत हुए। एकाएक उन्‍होंने आपस में विचार करके एक नायाब जानकारी लेने का मन बनाया। ''सुनो तुम्‍हारा इलाका नक्‍सलवादियों से भरा है ना?'' वे इस अति सामयिक प्रश्‍न को उछाल कर अत्‍यन्‍त हर्षित हुए। इस पर कुछ देर बाद गया ने कहना शुरु किया कि पिछले साल जरुर कुछ लड़कों को नक्‍सलवादियों द्वारा ले जाने की बात सुनी गयी थी। जहॉ तक पुलिस,सरकार आदि की बात है तो वह यहॉ शायद ही दिखती है। ''बाबू साहब हमारे इलाके में दूर तक कोई पोस्‍टऑफिस,स्‍कूल या अस्‍पताल नहीं मिलेगा।'' उसकी इस जानकारी के आगे नक्‍सलवादियों की कारगुजारी दब कर रह गयी। तीनों थोड़ा निराश हुए। कोई धांसू चीज पाने की इच्‍छा अधूरी रह गयी थी। 
झोपड़ी से एक युवती बाहर निकली। उसका रंग श्‍यामल और कृष्‍ण वर्णो के मध्‍य था। अतिथियों को देखकर तनिक संकुचाई। अधेड़ उसका पिता था। उसके कहने पर कुछ देर में वह तीन कटोरों में एक पेय लेकर आयी। रंगत देखकर लगता था कि शायद चाय है। ''नहीं रहने दो कोई बात नहीं।'' वे समवेत स्‍वर में बोले। ''साहब ले लीजिए। इनको भी अच्‍छा लगेगा।'' गया ने सिफारिश की।
      चाय का अर्क भी तरीके से नहीं आया था। वे उसे पूरा न पी सके। कटोरों को लगभग निराकाश देखकर युवती निराश हुई। अपने पिता से कुछ कहती हुई संभवत: यह बता रही थी कि उसके हाथ से ठीक बनी नहीं है। अन्‍दर जाकर वह उनके लिए गुड़ के चंद टुकड़े लेकर आयी। पास में खड़ी होकर भगिनी भाव से पंखा लेकर मक्खियों को उड़ाने लगी। तीनों से उसे वैसे ही निरखा जैसे एक नारी शरीर को देखा जाता है। वे किसी उच्‍छंखल विश्‍लेषण का प्रयोग करने वाले शोहदे नहीं थे। परंतु इस बात का आकलन करने में कि तंग वस्‍त्रों से झलकता शरीर सौष्‍ठव  न्‍यून वस्‍त्रों से अंगों को अनावृत छोड़ने से कम उद्दीपक नहीं होता इत्‍यादि में पीछे न थे। स्‍थान व काल कोई भी हो रसिकजन अपनी रसग्राहिता का परित्‍याग नहीं करते। 
यह परिवार खाने कमाने के लिए क्‍या करता है? एक मानवीय प्रश्‍न तीनों के जेहन में आया। गया इस पर उस आदमी से बातें करने लगा। उसने जो उत्‍तर दिया उसका सारांश यह था कि रोटी कमाकर खाने का हक वैसे तो सभी को है लेकिन कमाने का जरिया हर किसी को सुलभ नहीं है। उड़ने के लिए किसी परिन्‍दे पर प्रतिबन्‍ध नहीं है लेकिन जब पंख में ताकत ही न रहे तो इस आजादी का क्‍या मतलब।
यहॉ भोजन करके पेट सम्‍बन्‍धी तमाम ज्ञात बी‍मारियों से ग्रस्‍त होना उन्‍हें गवारा नहीं था। इसलिए वे अपने मेजबान का आतिथ्‍य स्‍वीकार करके परेशानी में नहीं पड़ना चाहते थे। अपने साथ लाया टिफिन बाक्‍स खोला गया। जमींदार के यहॉ के घी के परांठे जरा भारी थे। इसलिए वे ब्रेड स्‍लाइस के साथ बटर व जैम लेकर आए थे। मक्‍खन पिघलकर बह रहा था। वे भोजन करने लगे। सलाद के रुप में खीरे व टमाटर के चंद टुकड़े सलीके से मुह में डालते हुए अत्‍यन्‍त सभ्‍य प्रतीत हो रहे थे। युवती उनके उन्‍नत तकनीक वाले उपकरणों को उत्‍सुकता व उछाह से निहार रही थी। शायद कुछ पूछने को व्‍यग्र थी परंतु भाषा की समस्‍या व उनके खान-पान की पूर्व में दिखाई गयी प्रतिक्रिया के कारण मौन रही।
अब चला जाए। हॉ हॉ...। बिल्‍कुल। तीनों ऐसे संवादों के द्वारा एक दूसरे को उठने को प्रेरित करने लगे। गया ने कहा कि इस आदमी को भी साथ ले चलना ठीक रहेगा क्‍यों कि यह इस क्षेत्र के विषय में काफी कुछ बता सकता है। वे राजी हो गए। चलो इसे कुछ दे देगें।
रास्‍ते भर अधेड़ बताता गया और गया उनका अनुवाद तीनों को सुनाता रहा। ग ने उसे सौ का एक नोट निकाल कर दिया। वह शायद थोड़ा घबरा गया था। गया ने उसकी भाषा में उसे इस नजराने की सदाशयता समझायी और नोट की महत्‍ता पर प्रकाश डाला। मसलन इससे कितना चावल,दाल और आटा खरीदा जा सकता है। अंत में फुसफुसाहट भरे स्‍वर में तीनों में से सबसे नजदीक खड़े ख को कहा,''इसके घर में खाने को दाना तक नहीं है। इन पैसों से कुछ खरीदेगा तब घर में जाकर पकेगा।'' इसपर तीनों द्रवित नजर आए। ''ऐसी बात थी तो पहले बताना था वही पर कुछ दे दिला देता।'' क ने एक संवेदनशील शहरी के अनुरुप प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त की। ख बोला,''घबराओ नहीं डियर। ये लोग जंगल की जड़ी-बूटी खाकर रहते हैं। इन पर किसी चीज का असर नहीं पड़ सकता है। यू नो दे डोंट सरवाइव लाइक अस ऑन पिज्‍जा एण्‍ड कोक।''
वे लौटने लगे। चलते-चलते थक गए थे। रास्‍ते में दो-एक दूकानें दिखी। गॉव को छूती हुई मुख्‍य सड़क पर जो दो नगरों को जोड़ती होगी, एक ढ़ाबा था। किनारे चाय की एक दूकान भी थी। तिरपाल के नीचे दस-पन्‍द्रह लोग बारिश और धूप से बचने के लिए शरण ले सकते थे। वे चाय पीते हुए कमर सीधा करने लगे। अधेड़ ने ढ़ाबे से पूड़ी-सब्‍जी खरीदकर बॅधवा ली। ''खा लो बाबा। भूखे होगे।'' ग ने इशारा करते हुए कहा। वह ना की मुद्रा में सर हिलाने लगा। गया ने बताया कि यह सब वह अपने घर ले जाएगा। बेटी और पत्‍नी के साथ खाएगा। धन्‍य हो श्रीमान! अब तक वे लोग सिगरेट सुलगा चुके थे। मोबाइल पर कॉल आया। हवेली से था। शाम में दावत का इंतजाम था। ''फाइव स्‍टार होटल में वह बात कहॉ जो रस्‍टीक स्‍टाइल डिनर में है।'' क के जहन में शुद्व घी में देशी मुर्गे और अन्‍य व्‍यजंनों की खुशबू छा गयी। बाकी दोनों भी इसी तरह की अनुभूति कर रहे थे। ख ने ग ने पूछा,''क्‍या खाओगे वत्‍स?''
 ''वही सोच रहा हू कि क्‍या-क्‍या खा सकता हॅू।'' ग का उत्‍तर था।        
चाय-पान के बाद वे सब उसी रास्‍ते वापस जाने लगे। बीच में उस आदमी की झोपड़ी आयी। तभी वही युवती हाथ में पोटली लिए दौड़ती हुई आयी। वह अपने पिता से कुछ कह रही थी। बदले में उसके पिता ने आश्‍वस्‍त
किया कि वह उसी के पास लौट रहा है। वे लोग न जाने क्‍या सोच कर पुन: उन दोनों के साथ चल दिए। झोपड़ी पर पहॅुचकर युवती ने पोटली खोली। न जाने किस अनाज से बनी दो मोटी रोटियॉ एक प्रकार की चटनी के साथ एक दूसरे से लिपटी हुई थीं। यह देखकर अधेड़ हॅसा लेकिन उसकी हॅसी में रोने जैसी ध्‍वनि शामिल थी। ऐसी बेआवाज रुदन को सुनने का अवकाश किसे था। उसने भी अपने साथ लायी पूड़ी-सब्‍जी का पैकेट अनावृत किया। लड़की की मॉ तब तक पीछे से प्रकट हो चुकी थी। वे तीनों परिजन काफी देर तक बिना खाए खड़े रहे। इस द्दश्‍य की तस्‍वीर लेने में क, ख और ग चूक गए।  
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मनीष कुमार सिंह
पता- एफ-2, 4/273, वैशाली, गाजियाबाद, उत्‍तर प्रदेश, पिन-201010
मोबाइल- 09868140022
ईमेल:manishkumarsingh513@gmail.com
जन्‍म-16 अगस्‍त,1968 को खगौल, जिला पटना, बिहार में हुआ।
शिक्षा-इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय से स्‍नातक।
भारत सरकार के सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी। विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस, कथादेश, समकालीन भारतीय साहित्‍य, साक्षात्‍कार, पाखी, दैनिक भास्‍कर, नयी दुनिया, नवनीत, शुभ तारिका, परिकथा, लमही इत्‍यादि में कहानियॉ प्रकाशित। पॉच कहानी-संग्रह, 'आखिरकार''धर्मसंकट,' 'अतीतजीवी', वामन अवतार और आत्‍मविश्‍वास प्रकाशित।‍

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