Friday, 17 May 2013

सत्यम शिवम् सुन्दरम्



जो शाश्वत है वही सत्य है और वही सम्पूर्ण सृष्टि के लिए कल्याणकारी है तो निश्चित रूप से सबसे ज्यादा सुन्दर भी वही कहा जा सकता है | यह भारतीय दर्शन की आदि मान्यता रही है | प्रश्न यह है की सत्य है क्या ? गहनता के साथ जब हम विचार करते है कि तो हमें यही दिखाई पड़ता है कि जिसका कभी भी किसी भी काल में क्षरण न हुआ हो अर्थात वह तो अक्षर ही हो सकता है | अक्षरित भाव यानी जो शाश्वत है और जो किसी काल में न तो नष्ट हुआ है और न तो नष्ट होने की सम्भावना ही है | अस्तित्व में बराबर बना रहने वाला, समय की सीमा से परे तब तक वह वर्तमान है अर्थात मैं ही आत्मा से परिबद्ध परमसत्ता हूँ | यहाँ पाठकगण यह कतई न समझ बैठें की मैं उन्हें सांख्य दर्शन की सैर करने ले चल रहा हूँ |
मैं तो सिर्फ तत्व की बात कर रहा हूँ और उसी पर आप सबका ध्यानाकर्षण करना चाहता हूँ | जन चिंतन की आँखों से देखता हूँ तो हमें दो सत्ताएं साफ़-साफ़ दिखाई पड़ती हैं | पदार्थ और तत्व | जैन दर्शानावलम्बियों ने पदार्थ को अस्तित्वहीन बताया तथा बिना तत्व के वह कालजयी हो भी नहीं सकता या यूँ कह लें कि वे एक ही सत्ता के दो पहलू हैं | पदार्थसत्ता निर्धारित समयसीमा के अन्दर ही है | भारतीय साहित्य हमें यह बताता है कि सत्य मिथ्या से अधिक रहस्य समेटे हुए है अर्थात प्रकाश अन्धकार से अधिक प्रभावशाली है, इसीलिए ‘सत्यमेव जयते’ कहा जाता है | जब जहाँ पर अन्धकार होता है वहां पर हम कुछ देख ही नहीं पाते और जब हमें कुछ दिखाई ही नहीं देगा तो हमारी प्रगति स्थिर हो जाएगी | सत्य अर्थात तत्व में ही उजाला है|
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ही लें, यदि भगवान् भाष्कर अपने आलोक की किरणें धरती पर न भेजें तो क्या हमारा मानवजीवन सुरक्षित रह सकेगा ? उत्तर में हमें नहीं ही मिलता है | सम्पूर्ण शून्य  के साथ उसकी सहधर्मिणी प्रकृति सदैव साथ रहकर जीवन की शाश्वत लीला करने वाली, पौराणिक भाषा में महामाया कहकर विद्वानों ने परिभाषित किया है | महामाया अर्थात पराप्रकृति जिसके चिंतन के धरातल पर तीन अंग हो जातें है- रज, तम, सत | तीनों अंग एक महाशक्ति की कृपा हैं |
कुल मिलकर सत्य (तत्व) का भाव अक्षुण्ण है | इस ‘मैं’ की बात जब हम करतें हैं तो अहम् का बोध होता है लेकिन जब ‘मैं’ के साथ आत्मीयता स्थापित कर दी जाती है तो मैं का अहम् भाव नष्ट हो जाता है और परमात्मा उपस्थित हो जाता है क्योंकि ईश्वर अंश जीव अविनाशी.....!! जीव उसी अविनाशी तत्व का एक अंश है |
जो पूर्णतया सत्य है और समस्त सृष्टि का संचालक है | साधक को चाहिए कि वह स्वयं को अपने अन्दर के परमात्मा को समर्पित करके जीवन समुद्र की लहरों को निरखकर आध्यात्मिक आनंद के साथ भौतिकता के रस का पान करें |
यही परमात्मभाव हमारा एवं समाज का कल्याण करने में सक्षम है | संसार की मानव प्रवृत्तियां दो भागों में विभाजित हैं | आध्यात्मवादी और पदार्थवादी | आज का भौतिकवादी समाज, पदार्थ के सौन्दर्य एवं सुख की तलाश करता है जो कि यूरोपीय सभ्यता की देन है | पदार्थ का जब कोई अस्तित्व ही नहीं है तो उसमें शांति कैसे मिल सकती है? और जब शांति नहीं तो सत्य का स्पर्श नहीं | आज के मानव की सबसे बड़ी भूल यही है कि वह शरीर को सत्य मान बैठा है और इन्द्रियों के भोग-विलास में सौन्दर्य की तलाश करता भागा चला जा रहा है |
मेरे कहने का आशय यह नहीं कि भोग-विलास का त्याग कर दिया जाये | यहाँ पर में यह कहना और समझाना चाहता हूँ कि सत्य जो सम्पूर्ण प्रकार से पूर्णता से आबद्ध है; और सनासर भी सभी प्रकार से यथार्थ है फिर उस परमसत्ता से ही यह शरीरसत्ता उत्पन्न है | पूर्ण से पूर्ण घटाने पर पूर्ण ही शेष बचता है ऐसा विद्वानों का मत है | प्रश्न उठता है कि क्या यह दोनों वास्तव में विरोधी हैं? चेतन और अचेतन (जड़) दो भिन्न सत्ताएं जरूर है  परन्तु एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न नहीं हैं | भिन्नता इतनी जरुर है कि परस्पर एक दूसरे से अलग हैं | अतः दोनों के बारे में ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है | ज्ञान प्राप्त होने पर जो करणीय है वह है भेदविज्ञान |
सत्य साधना का महत्त्वपूर्ण सूत्र है भेद रहस्य | मैं पदार्थसत्ता नहीं हूँ या मैं शरीर नहीं हूँ | भौतिक चेतना ने चेतन और अचेतन में अभेद स्थापित कर दिया है | आज का मानव जो पूर्णतया भौतिकवादी हो गया है मानता ही नहीं कि वह शरीर से भिन्न है | वह कहता है जो शरीर है वह मैं हूँ और जो मैं हूँ वह शरीर है | सत्य का रहस्य न जानने के कारण ही शरीर मालिक बन गया है | चेतना (सत्य) दास/पदार्थवादी दृष्टिकोण की जो समस्या है वह यही है कि चेतना को नकारा गया है | प्रतिपक्ष में जो परिणाम सम्मुख देखने को मिला वह यह है कि इन्द्रियों की उच्छ्रखलता बढ़ गयी और हमारी शांति छिन गयी | ब्रह्मवाद या आध्यात्मवाद केवल मुक्ति की साधना ही नहीं वरन मानव समाज के व्यावहारिक जीवन के क्षेत्र में भी उपयोगी है |
ईशावास्यामिदं सर्वं यत किंच जगत्यां जगत |
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद धनं ||
ईशावास्योपनिषद के प्रथम श्लोक का सन्देश भी यही है कि इस ब्रम्हांड में जो कुछ भी जड़ चेतन स्वरुप है वह समस्त ईश्वर से ही व्याप्त है | इस प्रकार उस ईश्वरभाव का साथ रखते हुए त्यागपूर्वक भोगते रहें- उसमे आसक्त मत हों, क्योंकि भोग्य पदार्थ किसका है ? अर्थात किसी का नहीं, इसलिए पदार्थ का भोग करो उसके साथ योग मत हो | अभिन्न मत हो | अभिन्न बनाने वाला तत्व हो | जहाँ राग उत्पन्न होता है वहां भेद ख़त्म हो जाता है | आध्यात्मवाद में चेतनावादी दृष्टि का योग है और भोगवाद में पदार्थों की प्रधानता है | सत्य की उपासना करने वाला व्यक्ति इन दोनों वादों में सक्षम हो सकता है |
सत्य साधक को चिंतन करना चाहिए कि उसका अपना जीवन मंगलमय हो | मंगलमय होने का अर्थ है कि शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य ठीक हो |
प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य को जो वर्तमान में प्राप्त होता है उस पर ध्यान न देकर भविष्य में प्राप्तव्य की कल्पना करने लगता है | ऐसी स्थिति में वह शिवता से पूर्णतया वंचित होकर भाग्य को कोसने का केवल कारण बनकर रह जाता है और वास्तविक सौन्दर्य की प्राप्ति से कोसों दूर चला जाता है | सत्य हमें शिवता तभी प्रदान कर सकता है जब चेतना के सभी स्तरों को समझ लें | सहृदय (चेतना) के तीन स्तर हैं- नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक | नैतिक चेतना का आधार होना चाहिए धर्मचेतना और धर्मचेतना का आधार होना चाहिए आध्यात्मिक चेतना | यही सत्य साधक की साधना के विकास के सोपान हैं | संसार का प्रत्येक मानव दो आयामों में जीता है | वह न तो पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है और न ही पूर्ण रूप से परतंत्र |
सत्य धेय्य का चुनाव करने में व्यक्ति स्वतंत्र है और वाहन या साधन के लिए भी वह पूर्ण तथा स्वतंत्र है | जब वह साधन का प्रयोग करता है तब उसे सम्बंधित वाहन या साधन का अनुशासन मानना पड़ता है | साधन अपनी गति से गतिमान हो और साधक अपनी गति से, यह असंभव है | अनुशासन और कुछ नहीं बल्कि धेय्य की या उद्देश्य की पूर्ति मात्र हो | व्यावहारिक भाषा में अनुशासन का अर्थ है नियंत्रण और आध्यात्मिक भाषा में इसे संयम कह सकते हैं | सत्य साधना के सम्बन्ध में सामान्य प्राणी की मान्यता है की वह उसके वश में कर्त नहीं जिसका कारण शास्त्रों में वर्णित सूत्रों को आधुनिक सन्दर्भ में प्रचारित न करना समझ में आता है | ऐसा विद्वानों का मत है | प्रदूषित मन के साधन के लिए विचारों की शुद्धता स्वयं में औषधि है |
सत्य और उसकी शिवता स्पष्ट करने के पश्चात अब हम सौन्दर्य पर कुछ चर्चा करना चाहेंगे | सत्य का वास्तविक पक्ष ही वास्तविक, कल्याणकारी हो सकता है जो पूर्ण तथा निरपेक्ष होता है और वही हमारे जीवन के कल्याणकारिता करता है और हमें वास्तविक और सौंदर्याभूति करने में सक्षम होता है |
इस प्रकार हम विश्वास के साथ कह सकते है की सत्य ही शिव है और वही सर्वश्रेष्ठ एवं सुन्दर है | इसमें किंचित मात्र का संदेह नहीं है क्योंकि यह हमारे भारतीय दर्शन की परिपक्व मान्यता है |

-श्री प्रकाश 

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