क्यों?...इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। जीवन में हम कोई भी काम क्यों करते हैं? हँसते क्यों हैं? रोते क्यों हैं? प्रसन्न, चिन्तित या व्याकुल क्यों होते हैं? इसका एक मात्र उत्तर यही है कि ऐसा होना स्वाभाविक है। जीवन की हर परिस्थिति की हम पर कोई न कोई प्रतिक्रिया होती है। हम कितना भी चाहें उस प्रतिक्रिया से बच नहीं सकते। हवा चलती है तो वृक्ष के पत्ते अवश्य हिलते हैं। यह पूछने से कि भाई इस तरह क्यों हिलते हो, वे क्या उत्तर देंगे? यही कि हम बने ऐसे हैं कि हवा का स्पर्श हमें चंचल कर देता है।
हममें से हर व्यक्ति प्रतिदिन का जीवन जीता हुआ बहुत कुछ महसूस करता है, बहुत कुछ सोचता है। परन्तु हर व्यक्ति की महसूस करने और सोचने की प्रक्रिया अपनी-अपनी होती है और इसलिए परिणाम भी अलग-अलग होता है। कोई केवल घुटकर रह जाता है, कोई हँस-रोकर बात टाल देता है, कोई परिस्थितियों से जूझने के लिए क्षेत्र में उतर आता है और कोई उनके सम्बन्ध में लिखकर सन्तुष्ट हो लेता है। मुझे जीवन के सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रियाओं को लिखकर व्यक्त करना स्वाभविक लगता है इसलिए मैं लिखता हूँ। कहानी क्यों लिखता हूँ, इसका उत्तर देने के लिए अपने आज तक के जीवन के कुछ टुकड़े इकट्ठे करना आवश्यक होगा।
जब हम पाँचवीं या छठी जमात में पढ़ते थे तो बाज़ार से ‘सखी लुटेरा’ और ‘बहराम डाकू’ जैसे उपन्यास घर वालों से चोरी से किराये पर लाकर पढ़ा करते थे। उन दिनों हमें भी अपने पैरों के नीचे की सारी ज़मीन सुरंगों और तहख़ानों से भरी प्रतीत होती थी और हम उन तहख़ानों के रहस्योद्घाटन की बातें सोचा करते थे। हम दो साथी थे। बाज़ार में बहराम डाकू की ज़िन्दगी के जितने उपन्यास मिल सकते थे वे सब पढ़ चुकने पर हम दोनों इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उससे आगे की उसकी ज़िन्दगी का वृत्तान्त लिपिबद्ध करने का दायित्व अब हम पर ही है और हम दोनों ने मिलकर इस काम को कर डालने का निश्चय किया। पहली किस्त लिखकर मैंने अपने उस मित्र को दे दी कि वह दूसरी किस्त लिखे। मगर उसका भविष्य उसे एक साबुन के कारख़ाने की तरफ़ ले जा रहा था, इसलिए वह दूसरी किस्त कभी नहीं लिखी गयी। इस बात पर उससे लड़ाई हो गयी और बहराम डाकू सदा के लिए तहख़ाने में बन्द हो गया।
कॉलेज के दिनों में मुझे कविता लिखने का शौक़ पैदा हुआ। एक तो इसलिए कि कविता ही एक ऐसी चीज़ है जो सुनायी जा सकती है और उन दिनों सुनाना हमारे लिए लिखने से अधिक महत्त्वपूर्ण था, और दूसरे इसलिए कि हमें विश्वास था कि साहित्य का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग कविता ही है। यह विश्वास मैं समझता हूँ कि हिन्दी के बहुत-से आलोचकों को अभी तक बना हुआ है जो साहित्य की चर्चा करते समय वाल्मीकि से आरम्भ करते हैं और नई प्रयोगशील कविता पर आकर दम तोड़ देते हैं। उन दिनों की मेरी कविताएँ या तो उस समय की प्रचलित शैली का अनुकरण-मात्र थीं, या व्यंग्यात्मक। परन्तु शीघ्र ही मुझे महसूस होने लगा कि मैं जब ईमानदारी से लिखता हूँ तो कविता कविता नहीं रहती...उसमें बहुत अंश तक प्रकथन और विवरण आ जाता है। परिणामत: यूनिवर्सिटी के जीवन में मैंने कहानी लिखना आरम्भ किया। उसके बाद ज्यों-ज्यों जीवन और जीवन को प्रभावित करनेवाली परिस्थितियों से अधिक गहरा परिचय हुआ, मैंने यह पाया कि अपने और दूसरों के जीवन के जो सूक्ष्म द्वन्द्व और अन्तर्द्वन्द्व मेरे सामने आते हैं, वे सब बातें जो मुझे दुखी, प्रसन्न या उदास छोड़ जाती हैं, उन्हें मैं कहानी के माध्यम से अधिक सफलतापूर्वक व्यक्त कर पाता हूँ। यूँ तो पिछले दस वर्ष में मैंने कहानी के अतिरिक्त नाटक और निबन्ध भी लिखे हैं, परन्तु किसी भी परिस्थिति को ठीक से पकड़ पाने या अभिव्यक्त कर पाने का जो सन्तोष मुझे कहानी लिखकर मिलता है वह दूसरी रचनाओं में नहीं मिलता। यद्यपि कहानी की कलात्मक सीमाएँ अपना अंकुश लगाये रखती हैं...क्योंकि कहानी ही एक ऐसी चीज़ है जिसके बिखर जाने की बहुत सम्भावना रहती है और कई बार व्यक्ति स्वयं भी नहीं पहचान पाता कि वह जो लिख रहा है वह केवल एक स्केच या रिपोर्ताज ही तो नहीं...फिर भी कहानी लिखने में मैंने यह सुविधा पायी है कि जीवन के किसी भी टुकड़े, किसी भी मूड, किसी भी चरित्र या किसी भी घटना को कहानी के अन्तर्गत ईमानदारी से उतारा जा सकता है। कहानी छोटी भी लिखी जा सकती है और बड़ी भी, मगर बात उस नुक़्ते को पकडऩे की है, जीवन के उस व्यंग्य, संवेद, विरोध या अन्तर्विरोध को शब्दों में उतारने की है जो कई बार अपनी सूक्ष्मता के कारण पकड़ में नहीं आता। बात वही साधारण होती है। वही जीवन हम सब जीते हैं। लगभग एक-सी परिस्थितियों से हम सभी को गुज़रना पड़ता है। कोई भी अच्छी कहानी हम पढ़ें, जीवन का वह खंड-सत्य हमारे लिए अपरिचित नहीं होता। उस सत्य को कैसे उठाना है, कितनी बात कहनी है और किन सार्थक शब्दों में कहनी है...यह जानना ही सम्भवत: कहानी कहने की कला है। हम जानते हैं कि अपरिचित और असाधारण जीवन को चित्रित करनेवाली रचनाएँ उतनी लोकप्रिय नहीं होतीं जितनी साधारण, रोज़मर्रा के जीवन को चित्रित करनेवाली रचनाएँ। मैं साधारण जीवन जीता हूँ और हर दृष्टि से एक बहुत साधारण व्यक्ति हूँ। इसलिए भी कहानी लिखना, अपनी इस साधारणता के वातावरण को कहानी में ढालना, मुझे बहुत स्वाभाविक लगता है।
कुछ ही दिनों की बात है, लखनऊ में मेरे एक मित्र जो एक सुपरिचित कहानीकार हैं, मुझसे कह रहे थे कि बम्बई में रहते हुए वे जब भी दादर के लम्बे पुल पर से गुज़रे हैं तो उनका मन हुआ कि उस पुल के जीवन के एक क्षण को किसी कहानी में ‘कैप्चर’ करें, मगर यह चीज़ अभी तक उनसे बन नहीं पायी। बहुत साधारण-सी बात है लेकिन यह दो बातों पर प्रकाश डालती है। पहली बात तो यह कि कहानी लिखनेवाले को रास्ता चलते कहीं कहानी मिल सकती है...कोई भी साधारण पदार्थ कहानी के नायक के रूप में अपने को उसके सामने प्रस्तुत कर सकता है। और दूसरी बात यह कि उस साधारण पदार्थ की कहानी लिख देना लेखक के लिए उतनी आसान और साधारण बात नहीं होती। साहित्यिक आलोचक तो उसकी प्रताडऩा बाद में करेंगे, सबसे पहले उसे डाँट बतानेवाला और उसकी दिनों की मेहनत पर सिर हिला देनेवाला एक आलोचक उसके अपने अन्दर ही रहता है। साहित्यिक आलोचक तो यही जानता है कि उसने क्या और कितना लिखा है, परन्तु वह अन्दर का आलोचक यह भी जानता है कि वह क्या लिखना चाहता था और नहीं लिख पाया। उससे न वह कुछ छिपा सकता है, और न ही किसी तरह की व्याख्या से उसे सन्तुष्ट कर सकता है। मेरे मन में प्राय: कहानी लिखने के बाद यह असन्तोष उत्पन्न होता है कि वह बात नहीं बनी जो मैं चाहता था, कहीं कुछ कम है या और का और हो गया है। कई बार दो-दो, तीन-तीन दफ़ा लिखकर भी सन्तोष नहीं होता। इस तरह अपने मस्तिष्क से सदा बैर चलता है। जो कुछ बाहर दिखाई देता या जो कुछ महसूस होता है, उसके चित्र या प्रभाव मस्तिष्क आसानी से अपने में समेट लेता है, परन्तु शब्द जब उन्हें व्यक्त करने लगते हैं तो दोष निकालने का बीड़ा उठा लेता है। कहानी लिख चुकने पर जब मुझे महसूस होता है कि बात नहीं बनी तो झुँझलाकर लिखे हुए काग़ज़ों को तो फाड़ ही देता हूँ, साथ चाहता हूँ कि दोष ढूँढऩे में दक्ष अपने इस मस्तिष्क को भी कुछ सजा दूँ। मगर मैंने पाया है कि हर नष्ट की हुई रचना मुझे और परिमार्जित करती है, हर असफल प्रयत्न कहीं से मुझे सँवार देता है। कभी-कभी मन कहता है कि यह सारा झंझट क्यों मोल लेते हो...इस तरह अपने से ही जूझते जाने में क्या रखा है? मगर दूसरे ही क्षण मैं यह पाता हूँ कि मेरी यह झुँझलाहट भी एक कहानी का विषय है...कहानी न कह पाने की असमर्थता पर भी एक सुन्दर कहानी लिखी जा सकती है।
और इसी तरह यह क्रम चलता रहा है और चल रहा है। मैंने बहुत लोगों से सुना है कि सारे जीवन और साहित्य में कुछ थोड़ी-सी ही तो कहानियाँ हैं जिन्हें हर लेखक बार-बार लिखता है...वही प्रेम, वही ममता, वही ईर्ष्या, वही राग-द्वेष...सब कुछ आदिम काल से आज तक वही है। थोड़ी-सी हेर-फेर के साथ हर कहानी किसी न किसी पहले की कहानी की पुनरावृत्ति होती है। मगर मुझे स्थिति आज तक इससे सर्वथा विपरीत प्रतीत हुई है। मुझे सदा यही लगा है कि जीवन ने मुझे इतनी कहानियों की पूँजी दी है कि सारा जीवन लिखता रहूँ तो भी वे सब कहानियाँ नहीं लिखी जाएँगी...केवल समय के अभाव के कारण ही नहीं, बल्कि इसलिए भी कि बहुत सी कहानियाँ हैं जो हज़ार चाहने पर भी नहीं बन पातीं, या वैसी नहीं बनतीं जैसी लिखते समय कल्पना होती है। इसलिए यह अपने जीवन से जीवन-भर की होड़ है। इस होड़ में मैं हारना नहीं चाहता। जब कहानी नहीं भी लिखता तो सोचता अवश्य हूँ कि यह या वह कहानी अभी लिखनी रहती है। बन पड़ता है तो लिख डालता हूँ और नहीं बन पड़ता तो यह विश्वास किये जाता हूँ कि कभी-न-कभी अवश्य लिखूँगा।
-साभार हिंदी समय
हममें से हर व्यक्ति प्रतिदिन का जीवन जीता हुआ बहुत कुछ महसूस करता है, बहुत कुछ सोचता है। परन्तु हर व्यक्ति की महसूस करने और सोचने की प्रक्रिया अपनी-अपनी होती है और इसलिए परिणाम भी अलग-अलग होता है। कोई केवल घुटकर रह जाता है, कोई हँस-रोकर बात टाल देता है, कोई परिस्थितियों से जूझने के लिए क्षेत्र में उतर आता है और कोई उनके सम्बन्ध में लिखकर सन्तुष्ट हो लेता है। मुझे जीवन के सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रियाओं को लिखकर व्यक्त करना स्वाभविक लगता है इसलिए मैं लिखता हूँ। कहानी क्यों लिखता हूँ, इसका उत्तर देने के लिए अपने आज तक के जीवन के कुछ टुकड़े इकट्ठे करना आवश्यक होगा।
जब हम पाँचवीं या छठी जमात में पढ़ते थे तो बाज़ार से ‘सखी लुटेरा’ और ‘बहराम डाकू’ जैसे उपन्यास घर वालों से चोरी से किराये पर लाकर पढ़ा करते थे। उन दिनों हमें भी अपने पैरों के नीचे की सारी ज़मीन सुरंगों और तहख़ानों से भरी प्रतीत होती थी और हम उन तहख़ानों के रहस्योद्घाटन की बातें सोचा करते थे। हम दो साथी थे। बाज़ार में बहराम डाकू की ज़िन्दगी के जितने उपन्यास मिल सकते थे वे सब पढ़ चुकने पर हम दोनों इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उससे आगे की उसकी ज़िन्दगी का वृत्तान्त लिपिबद्ध करने का दायित्व अब हम पर ही है और हम दोनों ने मिलकर इस काम को कर डालने का निश्चय किया। पहली किस्त लिखकर मैंने अपने उस मित्र को दे दी कि वह दूसरी किस्त लिखे। मगर उसका भविष्य उसे एक साबुन के कारख़ाने की तरफ़ ले जा रहा था, इसलिए वह दूसरी किस्त कभी नहीं लिखी गयी। इस बात पर उससे लड़ाई हो गयी और बहराम डाकू सदा के लिए तहख़ाने में बन्द हो गया।
कॉलेज के दिनों में मुझे कविता लिखने का शौक़ पैदा हुआ। एक तो इसलिए कि कविता ही एक ऐसी चीज़ है जो सुनायी जा सकती है और उन दिनों सुनाना हमारे लिए लिखने से अधिक महत्त्वपूर्ण था, और दूसरे इसलिए कि हमें विश्वास था कि साहित्य का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग कविता ही है। यह विश्वास मैं समझता हूँ कि हिन्दी के बहुत-से आलोचकों को अभी तक बना हुआ है जो साहित्य की चर्चा करते समय वाल्मीकि से आरम्भ करते हैं और नई प्रयोगशील कविता पर आकर दम तोड़ देते हैं। उन दिनों की मेरी कविताएँ या तो उस समय की प्रचलित शैली का अनुकरण-मात्र थीं, या व्यंग्यात्मक। परन्तु शीघ्र ही मुझे महसूस होने लगा कि मैं जब ईमानदारी से लिखता हूँ तो कविता कविता नहीं रहती...उसमें बहुत अंश तक प्रकथन और विवरण आ जाता है। परिणामत: यूनिवर्सिटी के जीवन में मैंने कहानी लिखना आरम्भ किया। उसके बाद ज्यों-ज्यों जीवन और जीवन को प्रभावित करनेवाली परिस्थितियों से अधिक गहरा परिचय हुआ, मैंने यह पाया कि अपने और दूसरों के जीवन के जो सूक्ष्म द्वन्द्व और अन्तर्द्वन्द्व मेरे सामने आते हैं, वे सब बातें जो मुझे दुखी, प्रसन्न या उदास छोड़ जाती हैं, उन्हें मैं कहानी के माध्यम से अधिक सफलतापूर्वक व्यक्त कर पाता हूँ। यूँ तो पिछले दस वर्ष में मैंने कहानी के अतिरिक्त नाटक और निबन्ध भी लिखे हैं, परन्तु किसी भी परिस्थिति को ठीक से पकड़ पाने या अभिव्यक्त कर पाने का जो सन्तोष मुझे कहानी लिखकर मिलता है वह दूसरी रचनाओं में नहीं मिलता। यद्यपि कहानी की कलात्मक सीमाएँ अपना अंकुश लगाये रखती हैं...क्योंकि कहानी ही एक ऐसी चीज़ है जिसके बिखर जाने की बहुत सम्भावना रहती है और कई बार व्यक्ति स्वयं भी नहीं पहचान पाता कि वह जो लिख रहा है वह केवल एक स्केच या रिपोर्ताज ही तो नहीं...फिर भी कहानी लिखने में मैंने यह सुविधा पायी है कि जीवन के किसी भी टुकड़े, किसी भी मूड, किसी भी चरित्र या किसी भी घटना को कहानी के अन्तर्गत ईमानदारी से उतारा जा सकता है। कहानी छोटी भी लिखी जा सकती है और बड़ी भी, मगर बात उस नुक़्ते को पकडऩे की है, जीवन के उस व्यंग्य, संवेद, विरोध या अन्तर्विरोध को शब्दों में उतारने की है जो कई बार अपनी सूक्ष्मता के कारण पकड़ में नहीं आता। बात वही साधारण होती है। वही जीवन हम सब जीते हैं। लगभग एक-सी परिस्थितियों से हम सभी को गुज़रना पड़ता है। कोई भी अच्छी कहानी हम पढ़ें, जीवन का वह खंड-सत्य हमारे लिए अपरिचित नहीं होता। उस सत्य को कैसे उठाना है, कितनी बात कहनी है और किन सार्थक शब्दों में कहनी है...यह जानना ही सम्भवत: कहानी कहने की कला है। हम जानते हैं कि अपरिचित और असाधारण जीवन को चित्रित करनेवाली रचनाएँ उतनी लोकप्रिय नहीं होतीं जितनी साधारण, रोज़मर्रा के जीवन को चित्रित करनेवाली रचनाएँ। मैं साधारण जीवन जीता हूँ और हर दृष्टि से एक बहुत साधारण व्यक्ति हूँ। इसलिए भी कहानी लिखना, अपनी इस साधारणता के वातावरण को कहानी में ढालना, मुझे बहुत स्वाभाविक लगता है।
कुछ ही दिनों की बात है, लखनऊ में मेरे एक मित्र जो एक सुपरिचित कहानीकार हैं, मुझसे कह रहे थे कि बम्बई में रहते हुए वे जब भी दादर के लम्बे पुल पर से गुज़रे हैं तो उनका मन हुआ कि उस पुल के जीवन के एक क्षण को किसी कहानी में ‘कैप्चर’ करें, मगर यह चीज़ अभी तक उनसे बन नहीं पायी। बहुत साधारण-सी बात है लेकिन यह दो बातों पर प्रकाश डालती है। पहली बात तो यह कि कहानी लिखनेवाले को रास्ता चलते कहीं कहानी मिल सकती है...कोई भी साधारण पदार्थ कहानी के नायक के रूप में अपने को उसके सामने प्रस्तुत कर सकता है। और दूसरी बात यह कि उस साधारण पदार्थ की कहानी लिख देना लेखक के लिए उतनी आसान और साधारण बात नहीं होती। साहित्यिक आलोचक तो उसकी प्रताडऩा बाद में करेंगे, सबसे पहले उसे डाँट बतानेवाला और उसकी दिनों की मेहनत पर सिर हिला देनेवाला एक आलोचक उसके अपने अन्दर ही रहता है। साहित्यिक आलोचक तो यही जानता है कि उसने क्या और कितना लिखा है, परन्तु वह अन्दर का आलोचक यह भी जानता है कि वह क्या लिखना चाहता था और नहीं लिख पाया। उससे न वह कुछ छिपा सकता है, और न ही किसी तरह की व्याख्या से उसे सन्तुष्ट कर सकता है। मेरे मन में प्राय: कहानी लिखने के बाद यह असन्तोष उत्पन्न होता है कि वह बात नहीं बनी जो मैं चाहता था, कहीं कुछ कम है या और का और हो गया है। कई बार दो-दो, तीन-तीन दफ़ा लिखकर भी सन्तोष नहीं होता। इस तरह अपने मस्तिष्क से सदा बैर चलता है। जो कुछ बाहर दिखाई देता या जो कुछ महसूस होता है, उसके चित्र या प्रभाव मस्तिष्क आसानी से अपने में समेट लेता है, परन्तु शब्द जब उन्हें व्यक्त करने लगते हैं तो दोष निकालने का बीड़ा उठा लेता है। कहानी लिख चुकने पर जब मुझे महसूस होता है कि बात नहीं बनी तो झुँझलाकर लिखे हुए काग़ज़ों को तो फाड़ ही देता हूँ, साथ चाहता हूँ कि दोष ढूँढऩे में दक्ष अपने इस मस्तिष्क को भी कुछ सजा दूँ। मगर मैंने पाया है कि हर नष्ट की हुई रचना मुझे और परिमार्जित करती है, हर असफल प्रयत्न कहीं से मुझे सँवार देता है। कभी-कभी मन कहता है कि यह सारा झंझट क्यों मोल लेते हो...इस तरह अपने से ही जूझते जाने में क्या रखा है? मगर दूसरे ही क्षण मैं यह पाता हूँ कि मेरी यह झुँझलाहट भी एक कहानी का विषय है...कहानी न कह पाने की असमर्थता पर भी एक सुन्दर कहानी लिखी जा सकती है।
और इसी तरह यह क्रम चलता रहा है और चल रहा है। मैंने बहुत लोगों से सुना है कि सारे जीवन और साहित्य में कुछ थोड़ी-सी ही तो कहानियाँ हैं जिन्हें हर लेखक बार-बार लिखता है...वही प्रेम, वही ममता, वही ईर्ष्या, वही राग-द्वेष...सब कुछ आदिम काल से आज तक वही है। थोड़ी-सी हेर-फेर के साथ हर कहानी किसी न किसी पहले की कहानी की पुनरावृत्ति होती है। मगर मुझे स्थिति आज तक इससे सर्वथा विपरीत प्रतीत हुई है। मुझे सदा यही लगा है कि जीवन ने मुझे इतनी कहानियों की पूँजी दी है कि सारा जीवन लिखता रहूँ तो भी वे सब कहानियाँ नहीं लिखी जाएँगी...केवल समय के अभाव के कारण ही नहीं, बल्कि इसलिए भी कि बहुत सी कहानियाँ हैं जो हज़ार चाहने पर भी नहीं बन पातीं, या वैसी नहीं बनतीं जैसी लिखते समय कल्पना होती है। इसलिए यह अपने जीवन से जीवन-भर की होड़ है। इस होड़ में मैं हारना नहीं चाहता। जब कहानी नहीं भी लिखता तो सोचता अवश्य हूँ कि यह या वह कहानी अभी लिखनी रहती है। बन पड़ता है तो लिख डालता हूँ और नहीं बन पड़ता तो यह विश्वास किये जाता हूँ कि कभी-न-कभी अवश्य लिखूँगा।
-साभार हिंदी समय
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