आजकल सोशियल नेटवर्किंग का प्रचलन जोरों पर है। जिसे देखो वही सोशियल नेटवर्किंग के सहारे अपनी पहचान का दायरा बढाने पर लगा है। अब तो ऑफिसों में सब जगह कम्प्यूटर और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। इन स्थानों पर पहले यह गणन मशीन ताश खेलने के काम आती थी पर अब यह फेसबुक के माध्यम से अपने परायों का मिलन कराने लगी है। अब समाजशास्त्रियों को समाज की नई परिभाषा बनानी होगी। क्योंकि अब समाज सिर्फ एक साथ रहने वालों का समूह मात्र नहीं वरन फेसबुक सरीखी इन सोशियल नेटवर्किंग की साईटों ने इसे भी ग्लोबल बना दिया है। क्या बड़े, क्या छोटे सभी इस गोरखधंधे में लिप्त नजर आते है। हमें लगा कि खाली ठाली बैठे हम भारतीय लोगों को मार्क जुकरबर्ग ने अच्छा धंधा पकड़वा दिया है।
हमारे इस समय की अति उपलब्धता वाले देश के कोने कोने में इस फेसबुक का ऐसा नशा छाया है कि पूछो मत। पहले हमने इसका उपहास उड़ाया था पर वक्त का फेर देखो आज इस विधा में हमारी अज्ञानता के कारण हम उपहास के पात्र बन गए हैं। हालांकि हम शुरू-शुरू में तो कम्प्यूटर के भी विरोधी थे पर जैसे जैसे हमारी संतानें बड़ी होती गई हमारा ये विरोध हमें वापस लेना पड़ा। बहरहाल हम कार्य की सुविधाओं को देखते हुए इस मशीन के प्रबल समर्थक हो गए हैं। वाकई इस अद्भुत मशीन ने जीवन की कई परेशानियों को कम कर दिया है। खैर हमने अपने बच्चों की खातिर एक अदद कम्प्यूटर मय ब्रॉडबैंड कनेक्शन घर पर रख दिया था। इतनी सुविधा होने के बावजूद भी हमारी अज्ञानता का आलम तो देखिए की सोशियल नेटवर्किंग के बारे में जरा सा भी ज्ञान नहीं था। जहाँ देखो वहाँ इसके चर्चा चलती पर हम चुपचाप बैठ कर बस सुनते ही थे। हर कोई हमें कहता यार फेसबुक पर नहीं हो! हमें बड़ा अफसोस होता। हमें लगता कि ये लोग भी कमाल हैं फेस टू फेस की जगह फेसबुक को महत्व दे रहें हैं। हम अपने मित्रों को फेस टू फेस का तर्क दे देकर समझाते पर हमारी बात फेसबुक के तूफान में तिनके की भांति उड़ा दी जाती। हम उपहास का पात्र बन कर रह जाते । हद तो तब हो गई जब हमारे परममित्र अनोखे लाल भी फेसबुक से जुड़ गए और उन्होंने हमारी फेसबुक के बारे की अज्ञानता का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। हमें लगा अब पानी सर के उपर से गुजरने लगा है। हमने अपनी इस कमजोरी पर विजय पाने की गरज से एक कम्प्यूटर सेन्टर पर जाकर चुपचाप इंटरनेट चलाने की इस रहस्यमय विद्या को सीख ही लिया।
तो भैया अब हम भी हो गए फेसबुक वाले। हमने अपना एक एकाउंट फेसबुक पर बना ही डाला। कई दिनों तक हमें ज्यादा कुछ तो आता नहीं था सो हमने दोस्त बनाने के लिए रिक्वेस्ट भेजना प्रारम्भ कर दिया। हांलाकि हमें ये रिक्वेस्ट भेजना बहुत अखर रहा था। अरे! भाई जो हमारे पहले से ही दोस्त हैं उन्हें फिर दोस्ती के लिए रिक्वेस्ट भेजना हमें किसी भी तरह से जायज नहीं लग रहा था। पर भैया शादी होगी तो गीत भी गाने पड़ेंगे और फिर हमें तो जल्दी से जल्दी अपनी इस कमजोरी पर विजय प्राप्त करनी थी। हमें भी लोगों की तरह ये दिखाना था कि देखो बड़े बड़े लोग फेसबुक पर हमारे भी मित्र हैं। खैर कुछ ही दिनों में हमने फेसबुक पर कमांड कर ली थी। हमने मित्रों की संख्या के मामले में सैंकड़ा लगा लिया था। अब हमारे लिए परेशानी ये थी कि उस पर करें क्या? हमने कई दिनों तक तो लोगों के स्टेटस को पर कुछ भी लिखा हो लाईक का बटन दबाकर अपनी उपस्थिति का अहसास करवाया । फिर हमें अपना स्टेटस अपडेट करना आ गया पर और हमने लगातार कई दिनों तक स्वनिर्मित पंक्तियों के माध्यम से फेसबुक के इस महत्वपूर्ण कार्य को किया। परन्तु कुछ दिनों में हमारा खजाना खाली हो गया अब हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था पर ऐसी विकट घड़ी में फेसबुक के कुछ पुराने जानकारों से पूछा कि भाई आप अपने स्टेटस के लिए इतनी अच्छी पंक्तियाँ कहाँ से लाते हैं। मित्रों हमें निराशा हाथ लगी सभी ने हमें यही कही कि हम खुद बनाते हैं भाई ! बात हमें कुछ हजम नहीं हो रही थी क्योंकि हमें अपने इन रोज स्टेटस अपडेट करने वाले मित्रों की मानसिक क्षमताओं का कुछकुछ अनुमान तो था ही। खैर जब हमनें इस अंतरजाल के सूचना सागर में गोता लगाया तब हमें यह राज समझ आया । बस फिर क्या था हम रोजाना अपना स्टेटस इधर उधर से चोरी करके लगा रहे थे।
फिर भी परेशानी ये थी कि हमारे स्टेटस पर कमेन्ट नहीं आ रहे थे। जानकारों से पता किया तो मालुम चला कि जब तक हम लोगों के लिए कमेन्ट नहीं करेंगें हमारे लिए कौन करेगा। सो हमने लोगों के स्टेटस पर सही सही कमेन्टों की झड़ी लगा दी पर फिर भी ढाक के तीन पात हमारे स्टेटस पर कमेन्टों की संख्या में कोई खास इजाफा नहीं हुआ। हाँ इतना जरूर हुआ कि कमेन्ट के जरिये सही सही बात कहने के चक्कर में कुछ लोगों ने हमें मित्रता की अपनी सूची से बेदखल कर दिया। हमारी परेशानी का कोई हल नहीं निकला तो हमने शोध किया और पाया कि उन्हीं लोगों के स्टेटस पर ज्यादा कमेन्ट आते हैं जो किसी को कोई लाभ पहुँचा सकते हैं मसलन साहित्यकार लोग संपादकों के लिए, कर्मचारी अफसरों के, विद्यार्थी अपने शिक्षकों के,स्टेटस पर कमेन्ट के रूप में तारीफों की रेवड़ियां बांट रहे थे और स्टेटस लिखने वाले उनका धन्यवाद कर आत्ममुग्ध हो रहे थे। हमें हमारे शोध से यह भी ज्ञात हुआ कि महिलाओं के स्टेटस पर भी कमेन्ट करने वालों की विशेष मेहरबानी रहती है।
हमें यह समझ आ गया कि हम जैसे खालिश कलम घिस्सुओं को यहाँ कोई तवज्जों देने वाला है नहीं। हमने लोगों के मनोविज्ञान को पकड़ा और महिला के नाम से एक फेक आई.डी. फेसबुक पर बना डाली। अब कमाल देखिए कि इस आई.डी. पर हमें रोजाना दसियों फ्रेंडरिक्वेस्ट आने लगी। थोड़े ही दिनों में हमारी इस फेक आई.डी. पर मित्रों की संख्या हजारों में पहुँच गयी। हमारी इस फेक आई.डी. के प्रत्येक स्टेटस पर सैकड़ों कमेन्ट आने लगे। एक बार हुआ यों कि हमने अपनी इन दोनो आई.डी. पर एक ही स्टेटस डाला कि ‘रात हमें नींद नहीं आयी।' मित्रों हमारी असली आई.डी. पर तो कोई कमेन्ट नहीं आया पर फेक आई.डी. पर कमेन्टों की भरमार थी। हमारे एक मित्र ने तो यह पेशकश भी की थी कि वे लोरी बहुत अच्छी गाते हैं अगर आप कहें तो रोजाना लोरी सुनाने आ सकता हूँ। बस फिर क्या था हमने अपना पता छाप दिया। इस फेक आई.डी. का रहस्य खुलने पर अब हमारे कुछ मित्र हैरान थे कुछ मित्र परेशान थे,कुछ ने इसे सोशियल नेटवर्किंग की नैतिकता के विरूध माना एक लम्बी बहस इस पर छिड़ गई थी। हमने इस फेक आई.डी. को इस बहस के साथ समाप्त कर दिया था। पर नतीजा हमारे अनोखे लाल सरीखे कई मित्रों हमसे महीनों नाराज रहे।
खैर हमने हिम्मत नहीं हारी उनको धीरे धीरे मना ही लिया अपनी इस हरकत का कारण भी उन्हें समझा दिया फिलहाल वे लोग मुझसे नाराज नहीं हैं। खैर मेरे इन मित्रों ने अब हमने फेसबुक के मनोविज्ञान को समझाया कि भैया तुम दूसरों के अच्छे बुरे जैसे भी स्टेटस हों उन पर वाह वाह करते रहो अपनी तल्ख टिप्पणीयां देनी बंद करो तब तुम्हारे स्टेटस पर अपने आप ज्यादा से ज्यादा कमेन्ट आने लगेंगें। बस फिर क्या था, हमने भी लोगों के स्टेटस पर वाह वाह करना शुरू कर दिया और हमारी तो चल निकली । हमारे स्टेटस पर भी लोगों के कमेन्ट आने शुरू हो गए।
हमारी छोटी सी समझदानी में ये बात फिट हो गयी कि दरअसल ये सोशियल नेटवर्किंग भी साहित्य की दुनिया की तरह आत्ममुग्ध लोगों का समूह है। इसमें भी हम जो कर रहें हैं वो ही अच्छा है। उसकी सभी वाह वाह करो। यदि आप ने सच कहा तो आप बेकार हो। खैर रोटी की भूख जैसी ही ये प्रशंसा पाने की भूख है। ये सभी में समान रूप से पाई जाती है। हमने ये पाया कि जब से हमने फेसबुक को अपनाया है हमारी प्रशंसा पाने की ग्रंथी शांत है।
अब हमें प्रशंसा सुनने के लिए किसी के पास नहीं जाना पड़ता। हमारी कम्प्यूटर स्क्रीन अब हमारा सबसे सच्चा साथी हो गई है। अब हमारा अधिकांश समय अब कम्प्यूटर की स्क्रीन के आगे गुजरता है। पहले गप्प गोष्ठियों के कारण घर पर लेट आने की शिकायत अब घरवालों को नहीं रही। मित्रों इससे घर में रद्दी भी कम होने लगी अब हम न तो पढ़ते हैं और नहीं लिखते हैं बस फेसबुक पर बिजी रहते हैं। हाँ और अब हमें किसी से मिलने भी नहीं जाना पड़ता और ना ही कोई हमसे मिलने आता है क्योंकि हम फेसबुक पर सभी से मिल लेते हैं। वो तो हमारी मजबूरी है की हमारा घर ही छोटा सा है मुहँ उठाते ही घर के किसी न किसी सदस्य की शक्ल दिख जाती है नहीं तो हम इन लोगों से भी फेसबुक के माध्यम से ही मिलते। सच मानिए हम मित्रों की इस वर्चुअल दुनिया को पाकर बेहद खुश हैं।
Sabhaar:रचनाकार
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