अरे वाह! क्या बात करते हैं आप भी, भला सुधरने की कौन सी बात हुई इसमें। सुधरने की बात तो तब हो जब हम बिगड़े हों। अगर आप सुधरने की जिद करेंगे तो पहले हमें बिगड़ना पड़ेगा और फिर उसके बाद सुधरने का प्रयास करेंगे।
ये उत्तर था, हमारे प्रश्न के जवाब में श्री छैलविहारी जी का, छैलविहारी यानि हमारे मुहल्ले का डाकिया, मुहल्ले का माने, हमारे मुहल्ले में रहने वाला नहीं बल्कि हमारे मुहल्ले में डाक बाँटने वाले से है।
छैल विहारी, यानि एक ऐसी शख्सियत जिसपर किसी की हुकूमत नहीं चल सकती, वह चाहे तो आपकी चिट्ठी-पत्री आप तक पहुँचाने रात के आठ बजे भी चला आये और न चाहे तो सारी की सारी चिटि्ठयाँ जमुना मैया की गोद में प्रवाहित होने में देर नहीं।
ये सारी बात मैं ऐसे ही, सोते-लेटे नहीं कह रहा हूँ बल्कि पूरे होशो हवास में आपके सुपुर्द कर रहा हूँ।
हुआ यूँ कि एक दिन श्री छैलाविहारी डाक विभाग के एक बड़े से थैले में लगभग 15 किलो वजनी चिट्ठी-पत्रियों को कंधे पर लटकाये, चुपके से जमुना मैया के सीने पर बने बैराज पर जाकर जमुना मैया को समर्पित कर ही रहे थे कि पीछे से हमने उनके इस शुभकर्म को देख लिया। हमारा देखना था कि अचानक ही छैलबिहारी की नजर भी हम पर पड़ गई, फिर क्या था, नैना चार होते ही छैलविहारी सकपकाये और उन्होंने आव देखा न ताव, डाकतार विभाग के उस थैले को भी जमुना भैया को समर्पित कर दिया, और फिर इस तरह हड़बड़ाने का नाटक किया कि हम समझें- छैल बिहारी ने उस थैले की जानबूझ कर बलि नहीं चढ़ाई बल्कि अनजाने में ही वह थैला अचानक आत्महत्या के मूढ़ में आकर, छैलविहारी से फन्दा छुड़ा कर जमुना मैया में कूद पड़ा हो।
खैर साहब, हमने तुरन्त गोताखोरों को बुलवाया, खोजी नावों को उस स्थान पर चलवाया और कुल मिलाकर नतीजा ये निकला कि कुछ लोगों के महत्वपूर्ण पत्रों एवं नियुक्ति पत्रों की जान बचाने में हम सफल हो गये। जिसमें छैलविहारी के 4 साल से चप्पल चटका रहे बेटे का नियुक्ति पत्र भी था। उस दिन के बाद से छैलविहारी ने जमुना मैया की गोदी में, पत्रों को समर्पित करने के पुनीत कार्य को तो छोड़ दिया पर वो कहावत है न कि ‘‘चोर चोरी से जाये हेरा फेरी से न जाये'' अब छैलविहारी पत्र बांटने आते तो हैं पर आते तभी हैं जब मेरा किसी पत्रिका से किसी रचना का पारिश्रमिक आया हो। पारिश्रमिक की राशि देते समय वे कुछ बड़े नोटों के साथ कुछ छोटे-नोट जैसे 10 का नोट, 5 का नोट देना नहीं भूलते ताकि मुझे उनके कुछ टिप देने में छूटे पैसे जुटाने के चक्कर में परेशानी न करनी पड़े। इस प्रकार वे पारिश्रमिक के साथ-साथ मेरे 10-15 दिन से इकट्ठे किए जा रहे पत्रों को भी मुझे थमाकर, मुझ पर कृपाशील रहते हैं तथा दुआ करते हैं कि जल्दी से मेरा फिर किसी पत्रिका से पारिश्रमिक आये और उसी के साथ मेरी डाक भी मेरे पास तक पहुँचायें वो।
इसके अलावा भी छैलविहारी जी के किस्से तो बहुत हैं, एक आदत से और लाचार हैं वे, वह ये कि अपने भुलक्कड़पन से बेखबर हैं, वे किसी चीज को ऐसे सहज भाव से भूलते हैं कि उनकी इस अदा पर बलिहारी जाना पड़ता है। कभी-कभी तो वे अपने दफ्तर से सारी चिट्ठी-पत्री को अपने घर लाकर पटक देते हैं और फिर भूल जाते हैं कि इन्हें इनके असली हकदारों के पास पहुँचाना भी है, यानि इनके असली हकदारों के पास न पहुँचाने पर कोई किसी शादी-व्याह के उत्सव में समय से शामिल होने से वंचित रह जायेगा, या कि किसी के दुःखभरे क्षणों में शामिल नहीं हो पायेगा, याकि किसी की रोजी-रोटी यानि नौकरी, इण्टरव्यू के लिए जाने की तारीख निकल जायेगी वगैरा, वगैरा।
हुआ यूँ कि जब मैं अपना पुराना मकान छोड़कर इस नई वसी कॉलोनी में रहने लगा तो स्वाभाविक था कि पहले मुझे डाकिया को खोजना था क्योंकि लेखन, पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तियों को भले ही खाने को रोटी न मिले पर यदि प्रतिदिन डाक से दो चार अखबार, पत्रिका और 4-6 सम्पादकों के पत्र, रचना की स्वीकृतियाँ आदि न मिलें तो समझो कि उसको सारा दिन सूना-सूना और निरर्थक सा लगने लगता है।
तो बस हमने भी एक दिन डाकिया जी को धर दबोचा। अपने नवनिर्मित घर में उन्हें बुलाकर, आदर के साथ सोफा पर बिठाया, चाय पिलाई, कुछ मिष्ठान वगैरा से मुँह मीठा भी कराया और फिर उन्हें अपना नाम और पता लिखा कागज थमाते हुए, अपनी प्रतिदिन आने वाली महत्वपूर्ण डाक के बारे में भी जानकारी दी। परोक्ष रूप से उसे यह भी अहसास दिला दिया कि पिछले 30 साल से वे पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं अतः ज्यादा बदमाशी की तो अखबार में निकलवा देंगे।
खैर साहब, छैल बिहारी ने सभी मिष्ठान, नमकीन और चाय आदि पूरे इत्मीनान के साथ भक्षण किया और चलते-चलते वायदा किया कि वह आपकी डाक पहुँचायेगा जरूर, भले ही थोड़ी देर हो जाये।
उसकी बात का विश्वास कर लेना अब हमारा फर्ज था या मजबूरी, सो किया और उसे दरवाजे के बाहर तक विदा कर आये। मेन गेट का दरवाजा बन्द कर जब ड्राइंग रूम में प्रवेश किया तो क्या देखते हैं कि छैलविहारी, हमारी डाक तो देकर गया ही था, साथ में अन्य चिटि्ठयों के बण्डल को भी हमारे सोफा पर रखा छोड़ गया है। हमने दौड़कर दरवाजा खोला कि शायद आमने-सामने किसी की डाक देने के लिए वह गया हो और लौट कर आये, पर कहाँ? वह तो अपनी साइकिल उठाकर उड़न छू हो चुका था। अब क्या करें, जाने किसकी, कौन सी महत्वपूर्ण डाक इसमें शामिल हों।
हमने सोचा कल जब उसे याद आयेगी तो वह हमारे पास भागा आयेगा और डाक का बण्डल बाँटने के लिए उठाकर ले जायेगा लेकिन ये क्या, एक दिन बीता, दो दिन बीते, बीतते-बीतते 5 दिन बीत गये तो हमारी संवेदन शीलता ने जोर पकड़ा, पता नहीं किसकी कौन सी महत्वपूर्ण डाक इसमें छुपी हो, सोचकर हमने डाक के बण्डल को खोला और पास-पड़ोस में पूछ-पूछ कर जैसे-तैसे स्वयं ही कुछ महत्वपूर्ण पत्रों को उनके मालिकों तक पहुँचाया।
सातवें दिन जब छैलविहारी हमारे यहाँ प्रकट हुआ तो हमने उसे डाक के बण्डल के बारे में बताया। सुनकर, चाय की चुस्की लेते हुए उसने अपनी बत्तीसी दिखाई- ‘‘अरे, साब, वह बण्डल आपके यहाँ रह गया था मैंने समझा जाने कहाँ गिर गया।'' कहकर अब वह बर्फी का टुकड़ा अपने मुँह में प्रविष्ट कर रहा था।
हमने अपनी 30 साल पुरानी पत्रकारिता सम्बन्धी बात का स्मरण एक बार फिर से उसे कराकर रौब झाड़ना चाहा- ‘‘देखो भाई, छैलविहारी, अगर तुमने इस बण्डल की तरह ही, हमारी डाक भी कहीं गुम कर दी तो फिर समझ लेना..........।''
‘‘अरे साब, मैंने कहा न आपसे, आपकी डाक गुम नहीं होगी, हाँ लाने में देरी जरूर हो सकती है। देखो न कितना बड़ा क्षेत्र है और ले-दे के मैं अकेला डाकिया हूँ इस सारे क्षेत्र का, आप तो देख ही रहे हैं, रात के आठ-आठ बज जाते हैं डाक बांटते-बांटते।''
उसकी बात सुनकर हमें भी तरस आया। वास्तव में वह अक्सर रात के आठ बजे ही हमारी डाक का बण्डल पहुँचाने आता था। इसके पीछे वास्तव में ही उसकी कार्य व्यस्तता थी कि अक्सर दिन में हमारे दफ्तर में होने के कारण, दिन में आने पर बच्चों द्वारा इतनी खातिरदारी और टिप से वंचित रह जाने का कारण था या फिर अन्य मोहल्ला वासियों से नजर बचाना।
खैर साहब, छैलविहारी ने अपने वायदे के अनुसार 7-7 दिन, 10-10 दिन तक हमारी डाक को इकट्ठा करके पूरे बण्डल को 9-10 दिन में एक बार पहुँचाना शुरु कर दिया। पूरी ईमानदारी के साथ कि साब आपकी एक भी चिट्ठी गुम नहीं की है। और जब छैलविहारी के जाने के बाद हमने उस डाक के बण्डल को खोलकर देखा तो उसमें कई ऐसी डाक निकली जिसे पढ़कर हमने अपना माथा ठोक लिया, उस डाक में आकाशवाणी का अनुबन्ध पत्र था जिसमें रिकार्डिंग की तारीख 4 दिन पहले ही बीत चुकी थी। एक चैक निकला जिसकी जमा करने की तारीख भी निकल चुकी थी, एक ऐसा भी पत्र निकला जिसमें चैन्नै से हिन्दी अधिकारी ने हमारी सभी पुस्तकों की 10-10 प्रतियाँ हमसे बिल पर मांगी थी। किन्तु पुस्तकें भेजने की तारीख को निकले पूरे 10 दिन बीत चुके थे। यानि कई हजार का एक साथ झटका।
हमें झटका लगा सो लगा, अपनी इस भूलने की आदत के कारण छैलविहारी ने खुद ही एक बार ऐसा झटका खाया था कि आज तक नहीं सुधर पाया है। बहुत पुरानी बात है तब तक आज जैसी फोन की सुविधा नहीं हुई थी। हुआ यूँ कि छैलविहारी की सास सुरग सिधार गईं। ससुराल से जो सूचना की चिट्ठी आई इसे छैलविहारी ने अपनी आदत के मुताबिक डाक के गट्ठर से खोलकर ही नहीं देखा और रखकर भूल गया। काफी समय बाद जब ससुर जी का उलाहना आया तो छैलविहारी की पत्नी को अपनी माँ के सुरग सिधार जाने की खबर मिली। फिर क्या था, छैलविहारी की पत्नी ने राते-रोते ही छैलविहारी का कुर्ता एक ही झटके में दो कर दिया और छैल विहारी की छाती पर (दोनों हाथों से) हत्थड़ पेले सो अलग। छैलविहारी कुछ माजरा समझ पाते तब तक तो पत्नी उसके कुर्ता-पाजामा को तार-तार कर चुकी थी। वो तो गनीमत थी कि छैलविहारी मजबूत अण्डर गारमेण्ट पहने हुए थे। आज तक भी पत्नी छैलविहारी से खपा है जिसका इलाज छैलविहारी खोजते-फिरते हैं।
तो ये थी श्री छैलविहारी यानि हमारे मुहल्ले के डाकिया की भूलने की आदत से लाचार होने की कहानी। हो सकता है आपका वास्ता भी कभी ऐसे डाकिया से पड़ा हो। छैलविहारी के अलावा भी बहुत सी विभूतियाँ ऐसी हैं तो आदत से लाचार होती हैं, जैसे चुनावों में किये गये वायदों को भूलने की आदत से लाचार हमारे जन प्रतिनिधि। यात्रा करते समय पान की जुगाली करते-करते बस या रेलगाड़ी की खिड़की से पिच्च से बाहर थूक देने की आदत से लाचारी भले ही सड़क पर चल रहे रिक्शा, स्कूटर, मोटर साइकिल या पैदल सवार के सारे कपड़े खराब हो जायें। इसी सन्दर्भ में एक सज्जन की आदत की आचारी की याद आ गई। मैं एक समारोह में सम्मिलित होने हेतु सजधज कर जा रहा था। एक गली से जैसे ही गुजरा कि बराबर की खिड़की से किसी ने पान के पीक की ऐसी पिचकारी चलाई कि बस्स और मुझे लौटकर घर आना पड़ा।
ट्रक वाले पहिये में पंचर हो जाने पर सड़क पर ही चारों ओर ईंट पत्थर फैला देते हैं और फिर पंचर ठीक हो जाने के बाद ईंट-पत्थरों को यूं ही सड़क पर पड़ा छोड़ जाने की आदत से लाचार होते हैं।
अध्यापिकाएं पूरे साल क्लास में बच्चों को पढ़ाने की बजाय स्वैटर बुनने की आदत से लाचार होती हैं। हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता की भाँति बहुत सारे उदाहरण हैं आदत से लाचारी के। अभी इतना ही, बाकी के फिर कभी।
---
डॉ. दिनेश पाठक शशि
ये उत्तर था, हमारे प्रश्न के जवाब में श्री छैलविहारी जी का, छैलविहारी यानि हमारे मुहल्ले का डाकिया, मुहल्ले का माने, हमारे मुहल्ले में रहने वाला नहीं बल्कि हमारे मुहल्ले में डाक बाँटने वाले से है।
छैल विहारी, यानि एक ऐसी शख्सियत जिसपर किसी की हुकूमत नहीं चल सकती, वह चाहे तो आपकी चिट्ठी-पत्री आप तक पहुँचाने रात के आठ बजे भी चला आये और न चाहे तो सारी की सारी चिटि्ठयाँ जमुना मैया की गोद में प्रवाहित होने में देर नहीं।
ये सारी बात मैं ऐसे ही, सोते-लेटे नहीं कह रहा हूँ बल्कि पूरे होशो हवास में आपके सुपुर्द कर रहा हूँ।
हुआ यूँ कि एक दिन श्री छैलाविहारी डाक विभाग के एक बड़े से थैले में लगभग 15 किलो वजनी चिट्ठी-पत्रियों को कंधे पर लटकाये, चुपके से जमुना मैया के सीने पर बने बैराज पर जाकर जमुना मैया को समर्पित कर ही रहे थे कि पीछे से हमने उनके इस शुभकर्म को देख लिया। हमारा देखना था कि अचानक ही छैलबिहारी की नजर भी हम पर पड़ गई, फिर क्या था, नैना चार होते ही छैलविहारी सकपकाये और उन्होंने आव देखा न ताव, डाकतार विभाग के उस थैले को भी जमुना भैया को समर्पित कर दिया, और फिर इस तरह हड़बड़ाने का नाटक किया कि हम समझें- छैल बिहारी ने उस थैले की जानबूझ कर बलि नहीं चढ़ाई बल्कि अनजाने में ही वह थैला अचानक आत्महत्या के मूढ़ में आकर, छैलविहारी से फन्दा छुड़ा कर जमुना मैया में कूद पड़ा हो।
खैर साहब, हमने तुरन्त गोताखोरों को बुलवाया, खोजी नावों को उस स्थान पर चलवाया और कुल मिलाकर नतीजा ये निकला कि कुछ लोगों के महत्वपूर्ण पत्रों एवं नियुक्ति पत्रों की जान बचाने में हम सफल हो गये। जिसमें छैलविहारी के 4 साल से चप्पल चटका रहे बेटे का नियुक्ति पत्र भी था। उस दिन के बाद से छैलविहारी ने जमुना मैया की गोदी में, पत्रों को समर्पित करने के पुनीत कार्य को तो छोड़ दिया पर वो कहावत है न कि ‘‘चोर चोरी से जाये हेरा फेरी से न जाये'' अब छैलविहारी पत्र बांटने आते तो हैं पर आते तभी हैं जब मेरा किसी पत्रिका से किसी रचना का पारिश्रमिक आया हो। पारिश्रमिक की राशि देते समय वे कुछ बड़े नोटों के साथ कुछ छोटे-नोट जैसे 10 का नोट, 5 का नोट देना नहीं भूलते ताकि मुझे उनके कुछ टिप देने में छूटे पैसे जुटाने के चक्कर में परेशानी न करनी पड़े। इस प्रकार वे पारिश्रमिक के साथ-साथ मेरे 10-15 दिन से इकट्ठे किए जा रहे पत्रों को भी मुझे थमाकर, मुझ पर कृपाशील रहते हैं तथा दुआ करते हैं कि जल्दी से मेरा फिर किसी पत्रिका से पारिश्रमिक आये और उसी के साथ मेरी डाक भी मेरे पास तक पहुँचायें वो।
इसके अलावा भी छैलविहारी जी के किस्से तो बहुत हैं, एक आदत से और लाचार हैं वे, वह ये कि अपने भुलक्कड़पन से बेखबर हैं, वे किसी चीज को ऐसे सहज भाव से भूलते हैं कि उनकी इस अदा पर बलिहारी जाना पड़ता है। कभी-कभी तो वे अपने दफ्तर से सारी चिट्ठी-पत्री को अपने घर लाकर पटक देते हैं और फिर भूल जाते हैं कि इन्हें इनके असली हकदारों के पास पहुँचाना भी है, यानि इनके असली हकदारों के पास न पहुँचाने पर कोई किसी शादी-व्याह के उत्सव में समय से शामिल होने से वंचित रह जायेगा, या कि किसी के दुःखभरे क्षणों में शामिल नहीं हो पायेगा, याकि किसी की रोजी-रोटी यानि नौकरी, इण्टरव्यू के लिए जाने की तारीख निकल जायेगी वगैरा, वगैरा।
हुआ यूँ कि जब मैं अपना पुराना मकान छोड़कर इस नई वसी कॉलोनी में रहने लगा तो स्वाभाविक था कि पहले मुझे डाकिया को खोजना था क्योंकि लेखन, पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तियों को भले ही खाने को रोटी न मिले पर यदि प्रतिदिन डाक से दो चार अखबार, पत्रिका और 4-6 सम्पादकों के पत्र, रचना की स्वीकृतियाँ आदि न मिलें तो समझो कि उसको सारा दिन सूना-सूना और निरर्थक सा लगने लगता है।
तो बस हमने भी एक दिन डाकिया जी को धर दबोचा। अपने नवनिर्मित घर में उन्हें बुलाकर, आदर के साथ सोफा पर बिठाया, चाय पिलाई, कुछ मिष्ठान वगैरा से मुँह मीठा भी कराया और फिर उन्हें अपना नाम और पता लिखा कागज थमाते हुए, अपनी प्रतिदिन आने वाली महत्वपूर्ण डाक के बारे में भी जानकारी दी। परोक्ष रूप से उसे यह भी अहसास दिला दिया कि पिछले 30 साल से वे पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं अतः ज्यादा बदमाशी की तो अखबार में निकलवा देंगे।
खैर साहब, छैल बिहारी ने सभी मिष्ठान, नमकीन और चाय आदि पूरे इत्मीनान के साथ भक्षण किया और चलते-चलते वायदा किया कि वह आपकी डाक पहुँचायेगा जरूर, भले ही थोड़ी देर हो जाये।
उसकी बात का विश्वास कर लेना अब हमारा फर्ज था या मजबूरी, सो किया और उसे दरवाजे के बाहर तक विदा कर आये। मेन गेट का दरवाजा बन्द कर जब ड्राइंग रूम में प्रवेश किया तो क्या देखते हैं कि छैलविहारी, हमारी डाक तो देकर गया ही था, साथ में अन्य चिटि्ठयों के बण्डल को भी हमारे सोफा पर रखा छोड़ गया है। हमने दौड़कर दरवाजा खोला कि शायद आमने-सामने किसी की डाक देने के लिए वह गया हो और लौट कर आये, पर कहाँ? वह तो अपनी साइकिल उठाकर उड़न छू हो चुका था। अब क्या करें, जाने किसकी, कौन सी महत्वपूर्ण डाक इसमें शामिल हों।
हमने सोचा कल जब उसे याद आयेगी तो वह हमारे पास भागा आयेगा और डाक का बण्डल बाँटने के लिए उठाकर ले जायेगा लेकिन ये क्या, एक दिन बीता, दो दिन बीते, बीतते-बीतते 5 दिन बीत गये तो हमारी संवेदन शीलता ने जोर पकड़ा, पता नहीं किसकी कौन सी महत्वपूर्ण डाक इसमें छुपी हो, सोचकर हमने डाक के बण्डल को खोला और पास-पड़ोस में पूछ-पूछ कर जैसे-तैसे स्वयं ही कुछ महत्वपूर्ण पत्रों को उनके मालिकों तक पहुँचाया।
सातवें दिन जब छैलविहारी हमारे यहाँ प्रकट हुआ तो हमने उसे डाक के बण्डल के बारे में बताया। सुनकर, चाय की चुस्की लेते हुए उसने अपनी बत्तीसी दिखाई- ‘‘अरे, साब, वह बण्डल आपके यहाँ रह गया था मैंने समझा जाने कहाँ गिर गया।'' कहकर अब वह बर्फी का टुकड़ा अपने मुँह में प्रविष्ट कर रहा था।
हमने अपनी 30 साल पुरानी पत्रकारिता सम्बन्धी बात का स्मरण एक बार फिर से उसे कराकर रौब झाड़ना चाहा- ‘‘देखो भाई, छैलविहारी, अगर तुमने इस बण्डल की तरह ही, हमारी डाक भी कहीं गुम कर दी तो फिर समझ लेना..........।''
‘‘अरे साब, मैंने कहा न आपसे, आपकी डाक गुम नहीं होगी, हाँ लाने में देरी जरूर हो सकती है। देखो न कितना बड़ा क्षेत्र है और ले-दे के मैं अकेला डाकिया हूँ इस सारे क्षेत्र का, आप तो देख ही रहे हैं, रात के आठ-आठ बज जाते हैं डाक बांटते-बांटते।''
उसकी बात सुनकर हमें भी तरस आया। वास्तव में वह अक्सर रात के आठ बजे ही हमारी डाक का बण्डल पहुँचाने आता था। इसके पीछे वास्तव में ही उसकी कार्य व्यस्तता थी कि अक्सर दिन में हमारे दफ्तर में होने के कारण, दिन में आने पर बच्चों द्वारा इतनी खातिरदारी और टिप से वंचित रह जाने का कारण था या फिर अन्य मोहल्ला वासियों से नजर बचाना।
खैर साहब, छैलविहारी ने अपने वायदे के अनुसार 7-7 दिन, 10-10 दिन तक हमारी डाक को इकट्ठा करके पूरे बण्डल को 9-10 दिन में एक बार पहुँचाना शुरु कर दिया। पूरी ईमानदारी के साथ कि साब आपकी एक भी चिट्ठी गुम नहीं की है। और जब छैलविहारी के जाने के बाद हमने उस डाक के बण्डल को खोलकर देखा तो उसमें कई ऐसी डाक निकली जिसे पढ़कर हमने अपना माथा ठोक लिया, उस डाक में आकाशवाणी का अनुबन्ध पत्र था जिसमें रिकार्डिंग की तारीख 4 दिन पहले ही बीत चुकी थी। एक चैक निकला जिसकी जमा करने की तारीख भी निकल चुकी थी, एक ऐसा भी पत्र निकला जिसमें चैन्नै से हिन्दी अधिकारी ने हमारी सभी पुस्तकों की 10-10 प्रतियाँ हमसे बिल पर मांगी थी। किन्तु पुस्तकें भेजने की तारीख को निकले पूरे 10 दिन बीत चुके थे। यानि कई हजार का एक साथ झटका।
हमें झटका लगा सो लगा, अपनी इस भूलने की आदत के कारण छैलविहारी ने खुद ही एक बार ऐसा झटका खाया था कि आज तक नहीं सुधर पाया है। बहुत पुरानी बात है तब तक आज जैसी फोन की सुविधा नहीं हुई थी। हुआ यूँ कि छैलविहारी की सास सुरग सिधार गईं। ससुराल से जो सूचना की चिट्ठी आई इसे छैलविहारी ने अपनी आदत के मुताबिक डाक के गट्ठर से खोलकर ही नहीं देखा और रखकर भूल गया। काफी समय बाद जब ससुर जी का उलाहना आया तो छैलविहारी की पत्नी को अपनी माँ के सुरग सिधार जाने की खबर मिली। फिर क्या था, छैलविहारी की पत्नी ने राते-रोते ही छैलविहारी का कुर्ता एक ही झटके में दो कर दिया और छैल विहारी की छाती पर (दोनों हाथों से) हत्थड़ पेले सो अलग। छैलविहारी कुछ माजरा समझ पाते तब तक तो पत्नी उसके कुर्ता-पाजामा को तार-तार कर चुकी थी। वो तो गनीमत थी कि छैलविहारी मजबूत अण्डर गारमेण्ट पहने हुए थे। आज तक भी पत्नी छैलविहारी से खपा है जिसका इलाज छैलविहारी खोजते-फिरते हैं।
तो ये थी श्री छैलविहारी यानि हमारे मुहल्ले के डाकिया की भूलने की आदत से लाचार होने की कहानी। हो सकता है आपका वास्ता भी कभी ऐसे डाकिया से पड़ा हो। छैलविहारी के अलावा भी बहुत सी विभूतियाँ ऐसी हैं तो आदत से लाचार होती हैं, जैसे चुनावों में किये गये वायदों को भूलने की आदत से लाचार हमारे जन प्रतिनिधि। यात्रा करते समय पान की जुगाली करते-करते बस या रेलगाड़ी की खिड़की से पिच्च से बाहर थूक देने की आदत से लाचारी भले ही सड़क पर चल रहे रिक्शा, स्कूटर, मोटर साइकिल या पैदल सवार के सारे कपड़े खराब हो जायें। इसी सन्दर्भ में एक सज्जन की आदत की आचारी की याद आ गई। मैं एक समारोह में सम्मिलित होने हेतु सजधज कर जा रहा था। एक गली से जैसे ही गुजरा कि बराबर की खिड़की से किसी ने पान के पीक की ऐसी पिचकारी चलाई कि बस्स और मुझे लौटकर घर आना पड़ा।
ट्रक वाले पहिये में पंचर हो जाने पर सड़क पर ही चारों ओर ईंट पत्थर फैला देते हैं और फिर पंचर ठीक हो जाने के बाद ईंट-पत्थरों को यूं ही सड़क पर पड़ा छोड़ जाने की आदत से लाचार होते हैं।
अध्यापिकाएं पूरे साल क्लास में बच्चों को पढ़ाने की बजाय स्वैटर बुनने की आदत से लाचार होती हैं। हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता की भाँति बहुत सारे उदाहरण हैं आदत से लाचारी के। अभी इतना ही, बाकी के फिर कभी।
---
डॉ. दिनेश पाठक शशि
"हम नहीं सुधरेंगे" बहुत बढ़िया -
ReplyDeleteआप का बलाँग मूझे पढ कर आच्चछा लगा , मैं बी एक बलाँग खोली हू
ReplyDeleteलिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
मै नइ हु आप सब का सपोट chheya
joint my follower