औसत भारतीय की तरह मैं भी आर्थिक संकटों से गिरा रहता हूँ। अक्सर मैं हर गली चौराहे पर बनी बैक बिल्डिंगों को बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखता हूँ क्योंकि मैं जानता हँ कि इन बैंकों में जिन लोगों के लॉकर्स, करेन्ट एकाउन्ट्स आदि हैं, वे बड़े सौभाग्यशाली लोग हैं। दीपावली के तुरन्त बाद बैंकों की याद आना स्वाभाविक है, असल में होता यह है कि जब कभी भी मैं किसी भी चौराहे पर कोई नई बिल्डिंग बनती देखता हूँ तो सोचने लगता हूँ कि शायद कोई बैंक खुलने वाला है और अक्सर मेरा यह अनुमान सत्य होता है। कुछ ही दिनों के बाद वहां पर किसी राष्ट्रीयकृत बैंक का एक बोर्ड टंग जाता है, बाहर एक वर्दीधारी सिपाही टूटी राईफल लिए पहरा देने लग जाता है और अन्दर बैंक का मैनेजर और बाबू लोन बांटने के लिए नये-नये ग्राहकों को फांसने के लिए शानदार नेकटाई लगाकर, दाढ़ी बनाकर कुर्सियों पर बैठ जाते हैं। लेकिन होता क्या है ? कोई सरपंच, कोई एम․एल․ए․, कोई एम․पी․ कोई मन्त्री या कोई अवर्ण, सवर्ण, ठाकुर अपनी भैंस, बैल, गाय, मुर्गियों के नाम पर लोन लेता है और कुछ ही समय बाद उस व्यक्ति की वह भैंस, बैल, गाय, मुर्गियां मर जाती है। बाबू, बीमा कराने वाले नेता और अफसर सब मिलकर उस जानवर के नाम पर स्यापा करते हैं, लोन का लेन-देन रफा-दफा करते हैं और लोन लेने वाला व्यक्ति फिर किसी नये खुले राष्ट्रीयकृत बैंक की किसी नई शाखा की तलाश में निकल पड़ता है और हकीकत में जो जरूरतमंद है, उसे कर्ज नहीं मिलता। भारतीय आर्थिक संस्कृति का आवश्यकत कर्म-कांड हो गया है, बैंको से कर्ज लेना। जो जितना बड़ा कर्म-कांडी उसे उतना ही बड़ा कर्ज। बड़े व्यापारी, बड़े अफसर, उनके रिश्तेदार, छुट-भैये नेता उनके अमचे-चमचे, अरजी-गरजी, हर ऐरा-गैरा नत्थू खैरा जो बैंक मैनेजर का परिचित हैं, लोन पा जाता है। कहो भाई तुम पा गये । हां भैया हम तो पा गये पान की दुकान के नाम पर और तुम। हम तो चाय के होटल के नाम से ले आये है कर्जा और तुम, कुछ न पूछो भाई हम तो बैंक से पार साल मुर्गियों के लिए लाये थे सो सब इस साल मर गई, कुछ बाढ़ में बह गई, सोचते हैं इस साल भैंस के नाम पर कर्जा निकलवा लें। ये कुछ वाक्यांश है जो अक्सर आपको हर गांव, गली के चौराहे, चौपाल पर सुनने को मिल जाते हैं। आजकल गांवों में बैंक-कर्जा-कर्म-कांड को खूँटा-लोन कहते हैं, मवेशी मेरे खूंटे पर बांधा तो मेरा लोन पास, फिर खोल पर तुम्हारे खूंटे पर बांध देंगे तो तुम्हार लोन पास, है कोई इस लोन इतिहास की खोजबीन करने वाला। बैंको की हालत यह है कि आप जाओ तो घास नहीं डालता कोई, लेकिन जैसे ही कोई करेट अकाउन्ट का मालिक या लोनाकांक्षी व्यक्ति चला जाता है तो मैनेजर सर के बल खड़ा होकर उसका स्वागत करता है, आखिर क्यों ? क्योंकि ये मुर्गियां सोने के अण्डे देती हैं जबकि आप या मेरे जैसे लोग अपने तीस रुपये के चैक से बैंक का समय खराब करने के लिए जाते हैं। एक बार बैंक मैं मेरे साथ बड़ी नम्रता का व्यवहार हुआ। मुझे आश्चर्य हुआ, मैनेजर से पूछा-उसने मुस्कराकर मेरे से हाथ मिलाते हुए कहा-‘‘भाई साहब ये नम्रता सप्ताह चल रहा है न इसलिए, नहीं तो मैं आपको अन्दर ही नहीं आने देता।'' मैं अपने मूल कर्ज-कर्म कांड से भटक रहा हूं। कृपया क्षमा करे। मैं बहस को इस मूल विषय पर पुनः ला रहा हूं और इसका कारण है रिजर्व बैंक द्वारा इस प्रकार के कर्जों में हुई व्यापक धांधली का चर्चा। हर व्यक्ति यही चाहता है कि वह बैंको से पैसा लें, काम करे। इज्जत से रहे। लेकिन क्या ऐसा हुआ। नही। कर्ज के इन कार्यक्रमों के प्रति सामान्य व्यक्ति के मन में शुरू से ही सन्देह था, फिर शुरू हुआ कर्ज-मेला, लेकिन बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मिया सुभान अल्लाह। याने कर्ज मेले तो सामान्य कर्ज कार्यक्रमों से भी दो कदम आगे। बेचारे जरूरतमन्द तो कहीं रास्ते में ही रह गये और सम्पन्न लोग हाथ मार गये। हड़बड़ी में यह पता लगाना मुश्किल हो गया कि सचमुच हकदार को हक मिल रहा है या नहीं। कर्ज का उपयोग सही हो रहा है या नहीं, यह भी जांच करना सम्भव नहीं रहा। गांवों, ढाणियों, रेवडों और रोड़ों के गरीब अनपढ़ लोग, बैंकों की जटिल प्रक्रियाओं को नहीं समझ पाये, सत्ता के दलालों ने पूरा काम अपने हाथों में ले लिया, प्रभावशाली लोगों ने सरकारी खैरात का जी भरकर उपयोग किया। अधिकतर राशि गलत लोगों ने हथिया ली। राजस्थान में 40 से 50 प्रतिशत कर्जे कर्म-कांड की तरह हो गये और हम देखते रह गये। कर्ज मेलों की घोर असफलता में किसका हिस्सा भारी है, शायद उसी का जिसने सबसे ज्यादा लाभ उठाया। आखिर कर्म का सही उपयोग क्या अगली सदी में शुरू होगा। हमें उस सुबह का इन्तजार है, जबकि गांव का मोची भी बैंक का कर्जदार हो और हरिजन भी। 0 0 0 |
Friday, 17 June 2011
यशवन्त कोठारी का व्यंग्य - कर्ज का कर्म-कांड
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