यदि मैं आम-पाठक मात्र होता तो कवि की कविताओं का समय समय पर पाठ करके ‘आनंद और शिक्षा’ प्राप्त करके ही कृतार्थ हो जाता । कवि की सर्जनात्मकता , उसकी भाषिक कुशलता और विशेष तथा सामान्य घटनाओं को कविता के शिल्प में ढालने की कला के सहारे जीवन की व्याख्या करना (लिटरेचर इज़ द क्रिटिसिज़्म ऑफ लाइफ) और अर्थ विस्तार करना कोई आसान काम नहीं। कविताएं आदि से अंत तक कविताएं हैं और रणजीत कवि ( इसलिए अपना नाम ‘रणजीत’ लिखता हूँ) । इसलिए मैं ‘सहृदय पाठक अधिक’ और ‘समीक्षक कम’ की भूमिका का निर्वहन करते हुए इन प्रतिनिधि कविताओं का पाठ करने बैठा हूँ । फिर भी समीक्षको के वक्तव्य से प्रारम्भ करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ क्योंकि मैंने रणजीत को अभी पढ़ा कहाँ है ? डॉ रामशंकर द्विवेदी के शब्द हैं -रणजीत की ये कविताएं उनके रक्तमांस से बनी हुई हैं। इन कविताओं में रणजीत का पूरा व्यक्तित्व आप देख सकते हैं।उसके कवि की आसक्ति,उसकी चाह, उसकी उत्कृष्टता, उसका औघडपन, उसकी दरियादिली, संघर्ष करने की क्षमता और प्यार करने की शिद्धत सभी इन कविताओं में विद्यमान है।राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से डॉ रणजीत के कविता-कर्म पर मोनोग्राफ लिखने वाले डॉ रमाकान्त शर्मा पुरोवाक में लिखते हैं -‘डॉ रणजीत मनुष्य विमर्श के कवि हैं-जिसके स्वाभाविक हिस्से हैं – दलित विमर्श और स्त्री विमर्श। मार्क्सवाद से अनुप्रेरित हिन्दी के प्रगतिशील- जनवादी कवि कहकर रणजीत को इस संकलन में डॉ रमाकान्त शर्मा ने पाठक को संकेत रूप में बहुत कुछ कह दिया है। यही नहीं डॉ गणपति चंद्र गुप्त ने भी ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’, (भाग दो) में लिख छोड़ा है – डॉ रणजीत का काव्य एक ईमानदार प्रगतिशील कवि की यात्रा के विभिन्न पड़ावों की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है। ...
वस्तुतः पुरोवाक और ब्लर्ब पर दी गयी सभी जानकारी ही नहीं शीर्षक के साथ ‘प्रतिनिधि’ पद भी कविता के पाठक के अधिकार को सीमित कर रहा है।
ये सब सूचनात्मक, प्रशंसात्मक, और सैद्धांतिक बातें कवि का एक प्रतिबिम्ब पाठक के मन-मस्तिष्क पर अंकित अवश्य करते हैं किन्तु पाठक क्या कवि में दिलचस्पी रखने
के लिए इन कविताओं के पास जाता है ? मैं तो नहीं गया
। किसी रचनाकार और वह भी बड़े रचनाकार को समझने में समय लगता है, कभी कभी तो शताब्दियाँ लग जाती हैं। पर मुझे अभिज्ञान के लिए समय सीमा का पालन
करने के लिए बाध्य कर दिया गया है। समय सीमा के साथ ही अनेक दूसरी सीमाएं हैं, मेरी अनभिज्ञता तो है ही। इसलिए मैं चाहता हूँ कि कविता को देखूँ , कवि को नहीं ।
कवि कविता की प्रत्येक पंक्ति में विद्यमान प्रतीत होता है। अनेक कविताओं में वह ‘मैं’है और या ‘हम’ है। इन सौ से अधिक
कविताओं के पाठ के दौरान एक प्रश्न बार बार आ खड़ा होता है – यह ‘मैं’कौन हैं? इस ‘मैं’ के पीछे कौन है? ’हम’ कौन लोग हैं? पाठक भी सम्मिलित हैं क्या ? संज्ञा से अधिक सर्वनाम पर भरोसा करने वालों में गालिब ( तुम मेरे पास होते हो गोया, कोई दूसरा नहीं
होता) से लेकर शमशेर ( वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा रहा) तक रहें हैं । रणजीत में भी ‘मैं ‘है – पास मत आओ मेरे, मुझसे न पूछो बात कोई। ‘मैं’की आप्लावित करती उपस्थिति-अनुपस्थिति को
बाँचता एक दूसरा ‘मैं’ जब अंतिम पृष्ठ
तक पहुंचता है तो वह खुद को कवि के करीब पाता है और सोचने लगता है कि इस कवि से फोन करके
बात की जाए । पाठक और रचनाकार का यह स्नेह बंधन कौन सी कविता/कविताओं की बदौलत है?
यह एक ऐसी साहित्यिक कृति(काव्य संग्रह) है जो अनायास ही पाठक को उसके रचनाकार से बांधती है।
वास्तव में यही तो किसी टैक्स्ट का लक्ष्य होता है कि वह तादात्म्य की भावना को उत्पन्न करे। पाठक
सोचने लगता है कि इन कविताओं से वह ठीक वही समझ रहा है जो कवि का मंतव्य है और कवि
वही लिख रहा है जो उसका विचार रहा है। पर पाठक जानता है कि यह मित्रता एकतरफा है और
कवि उससे दूर है । उसके समक्ष कविताएं हैं जो प्रतिनिधि के रूप में विद्यमान हैं ।
कवि जब बंगलोर में अपने बच्चों के साथ है, तब उसका एक पाठक दूर किसी देश में इन पंक्तियों के साथ उससे मुखातिब है। यह
इकतरफा प्यार कुछ ऐसा है –
तुम नहीं हो पर तुम्हारे शरीर की ऊष्मा
अब भी मेरे बिस्तर में बसी हुई है
अब भी बिछा हुआ है मेरी किताबों पर तुम्हारा स्पर्श
बिखरी हुई गुलाब की ताज़ा पंखुरियों की तरह
ये शब्द संस्कार और अनुभूति की वास्तविकता किसी प्रगतिवादी कवि की नहीं हो सकती । इसके लिए अनुभूति की गहनता
और शिल्प के प्रति जागरूकता के बीच संतुलन की जरूरत होती है।
दूसरे शब्दों में कवि रणजीत उतना वास्तविक रणजीत नहीं है, वह तो ‘पाठक’ का ‘कविता-पाठ’ से निर्मित रणजीत
है। और यदि मैं समकालीन समीक्षा की शब्दावली में कहूँ तो वह पाठक /पाठकों की ‘पाठ-फेंटसी’ का अंग है। व्यक्ति रणजीत होते हुए भी नहीं है और रससिध्द कवि पाठक के समक्ष कभी ‘प्यार बेचता’ है और कभी ‘विष-पुरुष’ हो जाता है। इस
अर्धनारी या अर्धपुरुष शरीर को अशरीरी हो जाना पड़ा है । क्या इसी को पिछले पचास वर्षों
से ‘डैथ ऑफ दी ओथर’ कहकर समझाया जाता
रहा है? फ्रांसीसी उत्तरसंरचनावादी विचारक रोला बार्थ्स 1967 में रचनाकार के अधिनायकत्व को चुनौती देते हैं जिसे 1946 में विमसेट और ब्रेडले ने ‘ईंटेंशनल फैलसी’ कहकर अमेरिकी नव-समीक्षा का प्रमुख
उपकरण माना था। ( ‘The
design or intention of the author is neither available nor desirable as a
standard for judging the success of a literary work’ (Wimsatt and Beardsley।)जो कुछ है वह ‘पाठ’है, ‘टैक्स्ट’है , ‘कविता’है। इस दृष्टि
से ‘नयी साधना’ कविता में कवि रणजीत जो कहते हैं , उससे पाठक भी यह कहने को उत्सुक होता है कि ‘हमने भी सोचा है, मनन किया है...’। जो कवि कह रहा है या जो उसके उद्वेलित मन-मस्तिष्क से एक अवसर पर शब्दबद्ध हुआ, कविता वह नहीं है। कविता वह है जो पाठक के मन में अंकित होती है और जो कविता-पाठ के बाद की अव्यक्त स्थिति है। जब कवि रणजीत अपनी बात कह चुकते हैं, तब पाठक उनके मर्म से मर्माहत होने के बावजूद भविष्य के सपने देखता है।
‘कवि का मंतव्य’ रहा है, रहता है, किन्तु जब हर कविता में वह कुछ भिन्न स्वर से उपस्थित हो जाता है और राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, आदि बाँचते हुए भू से लेकर ख तक को समाहित करके ‘भूख’तक चला जाता है तो पाठक समझ जाता है कि कवि रणजीत
किसी एक ‘पवित्र अर्थ’ की ओर नहीं ले जा रहा । वह ‘अनर्थ’ को भी रेखांकित करते हुए उसमें ‘अर्थ’ का संधान करता है –
इतना पवित्र शब्द और होठ मेरे जूठे
कैसे कहूँ कि मैं
तुम्हें प्यार ....
और इस तरह ‘शब्दों के पुल’ कभी ‘अधर’ में लटके रह जाते
हैं और कभी ‘अधर’ तक जा पहुँचते
हैं। गत शताब्दी के भाषाशास्त्री सस्यूर, पिंकर, और चोम्सकी यही तो कहते रहे कि कवि समझता है वह भाषा का प्रयोक्ता है ( देखें – शब्द सैनिकों से ) पर उसे पता ही नहीं चलता और भाषा उससे ‘बिना सोचे समझे’ कुछ ऐसा लिखवा
लेती है – मेरी हर लड़ाई निकलती है आखिर किसी न किसी स्त्रीलिंग संज्ञा के लिए । और फिर कवि के मंतव्य को मनोविश्लेषक की दृष्टि
से देखने की जरूरत हो जाती है। रणजीत की कविताओं में अभी ‘रणजीत’लिखने की एक आग सी है जो सर्वनामों से होकर विशेषणों
तक जाती है किन्तु संज्ञा शून्य नहीं होती, ‘विवेक संगत’ रहती है। अज्ञेय के अनुसार “काव्य के जो भी गुण बताए जाते या बताए जा सकते हैं अंततोगत्वा भाषा के ही गुण हैं।” इस पंक्ति की दिशा में इन पंक्तियों के पाठकों ले जाते हुए मैं यह कहना चाहूँगा
कि रणजीत की काव्य भाषा समकालीन हिन्दी काव्यभाषा का प्रसन्न प्रयोग है। इसमें एक ओर
तो भवानी भाई की सी ‘गीत फ़रोशी’ है , दूसरी ओर रघुवीर सहाय की ‘ मुहल्लेदारी वृत्ति’। शहर के चौराहे
पर सुकरात और कबीर से खड़े कवि ‘प्रतिश्रुति का
गीत’ गाते हैं और सावधान करते हैं।
देखने की जरूरत यह भी है कि कवि रणजीत ( ओथर-पोएट) जो कविताई करता
है या जो कहता है वह किस अधिकार (ओथरटी) से करता है । क्या वह कोई समाज सुधारक, दार्शनिक,नेता, अभिनेता या अजेंडाधारी है ? कहीं वह तथाकथित ‘अर्बन नक्सल’ तो नहीं? राधिका कन्हाई सुमिरन के बहाने कई भिखारीदास पहले
भी ‘नितांत ऐहिक कामनाओं से प्रेरित सौंदर्यवादी और शृंगारवादी
नितांत भौतिक(फिजिकल) कविता से युक्त’ ( सुधीश पचौरी- रीतिकाल सेक्सुअलिटी का समारोह ) रीतिकाल में वर्चस्वशाली हुए हैं।कौन है वह? कोई नहीं कवि है। (Who is that? Nobody, he is the author.) ‘शेक्सपीयर इन लव’ फिल्म का यह कथन कवि, रचनाकार और लेखक
को कोई खास ‘भाव’ नहीं देता किन्तु ‘कोई नहीं’ से ‘कवि’ के बीच की दूरी तय करते हुए जब रणजीत ‘बिना कुदाल उठाए’ कलम पर विश्वास
कर ‘दीवारें गिराने’ की बात करता है तो वह वो सब हो जाता है जो वह नहीं है। वह ‘तुम नहीं हो’ जो रूमानी रेशमी कविताओं की ‘एक नयी पुस्तक’ को ‘एक ही बैठक’ में अंत तक पढ़ डालता है और ‘एक अनिर्वचनीय
सुख में निमग्न’ हो जाता है।
वाद नहीं
संवाद
एक पाठ निरंतर पाठक के साथ चला है । मार्क्सवाद की बात नहीं।‘अस्ति- नास्ति’संवाद भी नहीं।
यहाँ कविता अपने युगीन संदर्भों से तो जुड़ी ही है, पश्चिम के विविध युगों, मिथकों, कवि-उक्तियों द्वारा प्रदत्त सूचना और अध्ययन-मनन के बाद उकेरी गई पंक्तियों में इस प्रकार प्रतिफलित है कि समग्रता का भाव दृष्टिगोचर
होता है। ‘प्रमथ्यु’, ‘फाउस्ट के कन्फ़ेंशन’, ‘ मेरेलिन मनरो का
अंतिम पत्र’, ‘सखरोव के निर्वासन पर’ , ‘ आम्रकुंजों में उभरता वियतनाम’,’ पोलेंड के बारे
में’, ‘गोदो का इंतजार’ आदि कविताओं का पाठ करने पर यह अनुभव होता है कि कवि पूर्व संचित और नयी-समकालीन कथा सामग्री को भी कविता के शिल्प में ढालकर इस प्रकार प्रस्तुत करने में समर्थ है कि काव्य समीक्षक
का बाना धारण करता पाठक इसे एक नए विधान की सृष्टि मान लेता है। अपनी उपर्युक्त वृत्तियों
और विशेषताओं के कारण रणजीत इस अर्थ में प्रवर्तक कवि हैं। कवि की प्रसिद्ध पंक्तियाँ
हैं-
बेचारा इतिहास
किस किस को माफ़ करेगा ?
रणजीत के कवि-कर्म के बीच कई मुश्किलें (द्वंदात्मक स्थिति) हैं –एक तो वाद विशेष है (मार्क्सवाद का
रचनात्मक विकास/ जूझ रहा है मार्क्सवाद के ‘वैज्ञानिक विकास’से ), दूसरे ‘मेरे आसपास के लोग हैं जो ‘पानी को तो कई-कई बार छानते हैं’ पर ‘जहरीली परम्पराओं को आँखें मीच कर पी जाते हैं।’ कवि का विद्रोह कभी शांत है ओर वह बस ‘माध्यम’भर है। कभी वह सविनय अवज्ञा पर उतर आता है। ‘सिरफिरों के साथ’ उठता बैठता है।
कभी उग्र रूप धारण कर लेता है-
हाँ,मैं बाग़ी हूँ
मुझे अपने देश , अपने धर्म और अपनी
सरकार से नफरत है।
किन्तु इन कथन भंगिमाओं में अंतर्निहित जो तत्व पाठक सहज ही ग्रहण कर लेता
है वह है कवि की आम- जन के प्रति आसक्ति ।
मैं बाग़ी हूँ क्योंकि मुझे अपने लोगों से प्यार है
मैं इनके चेहरों पर बहार, इनके आँगनों में
त्योहार देखना चाहता हूँ।
कवि की कविता में जनवादी, प्रगतिवादी और
मार्क्सवादी लहर कभी इधर से और कभी उधर से आती दिखाई देती है ;अनुप्रेरित करती है किन्तु एक हद तक। समय के साथ उसमें परिवर्तन आया है। वह
गांधी और भगत सिंह ही नहीं शंकराचार्य और प्रमथ्यु तक भी हो आता है। मनुष्य और मनुष्यता
को केंद्र में रखकर की गई कविताओं में इन्सानों की खोज करती कविताओं के साथ मार्क्सवाद
से मोहभंग को रेखांकित करते चुभते चौपदे भी हैं –
वृद्ध चेहरा, धँसी आँखें टिकी हैं अदृष्ट पर
औ पड़ी है थकी ऐनक ‘कैपिटल’के पृष्ठ पर
अनगिनत बलिदानियों के लहू से लिक्खी किताबे-इंकलाब
आह ! सत्तर साल में ही आ गयी परिशिष्ट पर ।
‘मार्क्सवाद का
प्रेत’पुस्तक के लेखक उत्तरसंरचनावादी जाक देरिदा ने मार्क्स
को नहीं उसके वाद को अपनाने वालों के अवसान पर क्षोभ व्यक्त किया था। रणजीत की कविताओं
में वाद के स्थान पर व्यक्ति मार्क्स है। मनुष्य है जो जीवन की आपाधापी में पड़कर भी
कभी ‘क्रांति’की बात करता है और कभी कभी उस वियतनाम की जो आम्र कुंजों में से उभरता है।
प्रकृति और
पर्यावरण
शायद जब से कविता जन्मी है तब से प्रकृति और कविता में बहनापा रहा है। दोनों
एक दूसरे का साथ कभी कभार ही छोड़ती हैं। कभी वह उपमा के रूप में साथ होती है और कभी
रूपक हो जाती है। वाल्मीकि को कोहरे से ढका चंद्रमा निश्वासांध दर्पण सा प्रतीत होता है। प्रसाद को उषा अंबर पनघट
पर जल भरने वाली नागरी के समान दिखाई देती है।
इसलिए जब तक तुम्हारे स्पर्श में शिरीष के फूल खिले हुए हैं
तुम्हारे केशों में रातरानी की खुशबू है
तुम्हारी साँसों में इंसानियत की गर्मी है
तब तक ठहरी रहो
इस परंपरा को साहित्य अध्ययन की नवीनतम विमर्शवादी दृष्टियों में ‘हरित विमर्श’ने खंडित किया है । अब प्रकृति को युगीन सम्बन्धों
के साथ जोड़कर देखने के साथ ही नए संदर्भों और शब्दावलियों के द्वारा प्रकृति चित्रण में यथार्थ के बिम्ब उकेरे जाते हैं ।
सड़क के मोड पर आ जाता है अचानक
शिरीष का एक खिला हुआ पेड़
और सारा संदर्भ बदल देता है।
वे प्रकृति को अपने भीतर समोए हैं इसलिए कोई बाहरी
वस्तु प्रतीत नहीं होती। कई कविताओं में जब प्रकृति चित्रण लगाव से अलगाव की ओर बढ़ता
है तो विलग दृष्टि से विचित्र रूप की प्रस्तुति होती है। ‘पानी’, ‘पेड़’, ‘पृथ्वी’ ‘ आकाश’ , ‘भूकंप’ की कवितायें ‘ शिरीष का पेड़’ पर भारी पड़तीं हैं। पर्यावरण को बचाने की उत्कट आकांक्षा
और ललक पाठक को तब आप्लावित करती है जब वह ‘पृथ्वी के लिए’ का पाठ करते करते
उद्विग्न हो जाता है, संज्ञा शून्य सा होकर गिलहरी, मछ्ली, खरगोश, पैंगविन की तरह इस भू को धारण करना चाहता है। इसलिए ऐसी तमाम कविताओं
में प्रकृति ‘सुकुमार’रूप में न होकर कभी निरुपाय सी होती है और कभी चीख कर कहती है – बचाओ!
बचाओ इसे अपने आणविक और जैविक हथियारों से
युद्धों से,
और उनके जन्मदाता राष्ट्र-राज्यों से
जनसंख्या विस्फोट से ...
एनिमल स्टडीज़ या मानवेतर अध्ययन की दृष्टि से जब ‘काकरोच’ जैसी कविता एक गतिशील बिम्ब के साथ कुछ अलग सा अर्थ
और अनुभव प्रस्तुत करती है तो पाठक की कल्पना ठहर जाती है, ठिठक जाती है। यह जो अनुभव अद्वितीय इन कविताओं में है और जो सरोकार हैं उनका
शब्दांकन करना कठिन है । क्या एलियट बता सकते हैं कि निम्नलिखित पंक्तियों में अनुभव
क्या है , और ‘ओब्जेक्टिव कोरिलेटिव’ क्या है?क्या ‘बिना-शीर्षक’ के काव्य-पंक्तियों का मर्म उद्घाटित हो सकेगा ?
हमारी खानपान की सारी आदतें बदल कर रख दीं
तुम्हारे सहवास ने
इन कविताओं में मनुष्य और जीव जंतुओं –प्रकृति का संश्लिस्ट रूप है,कविता के अर्थ
की कई परतें हैं। आलोचक या समीक्षक द्वारा कोई विवेचन और पाठ पूर्ण नहीं हो सकता ।
कि यह मेमना मैं ही हूँ
और यह बाघ ?
इस मासूम मेमने को निगलने वाला यह बाघ ?
मैं सही शब्द चुनना नहीं जानती ।
‘मर्लिन मनरो का
अंतिम पत्र’ कविता की उपरोक्त पंक्तियों में कपड़े के दो खिलौने
जिस ‘घनीभूत पीड़ा’ की ओर संकेत करते हैं वह कविता में चित्र-विचित्र का संगुंफन या ‘सिंफनी’ है।
परिवार और
समाज
एक सूचना पाठक के कई बार काम आ जाती है । ‘कवि को जीविका के कारण बहुत समय तक अपने परिवार से
अलग रहना पड़ा है।’ ‘हाय हाय ये मजबूरी’ से लेकर ‘ मा निषाद’ तक की अनुभूति कराती कई कविताएं कभी ‘दर्द की गांठ’ को कसती हैं, कभी ‘सपने’ दिखाती हैं । ‘पृष्ठभूमि’ में ‘चाँद का मायूस चेहरा’ होता है । जिंदगी इतनी सपाट होती है कि –
मेरे दिल पर अवसाद का इतना बोझ रख जाता है
कि मैं घंटों तक किसी से बात भी नहीं कर पाता। ( संवेदनाओं के क्षितिज)
और फिर ‘तुम नहीं हो’ की अंतिम पंक्तियाँ आ मिलती हैं –
तुम नहीं हो पर तुम्हारे शरीर की ऊष्मा
अब भी मेरे बिस्तर में बसी हुई है
अब भी बिछा हुआ है मेरी किताबों पर तुम्हारा स्पर्श
बिखरी हुई गुलाब की ताजा पंखुरियों की तरह
ये पंक्तियाँ पाठक के मन में एक ऐसी मधुर अनुभूति जगाती हैं मानो वह स्पर्श
उन्हे भी छू गया हो। प्रवासी का उत्साह प्रबल हो जाता है। पाठक अनुभव करता है कि कवि
ने जो सिर्फ व्यंजित किया था वह उपस्थित हो गया । निराकार का साकार होना कुछ ऐसा ही होता होगा। कुछ ऐसा ही कवि-कुल गुरु कालिदास ने भी तो कहा था- रम्यानि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान... । यह दर्शन तभी
संभव है जब ‘चक्षु’ हों।
तुम खुश रहो बेटी , मैं बिलकुल तटस्थ
हूँ ।
सारी परस्थता छोड़ कर अब स्वस्थ हूँ। ( प्रवासिनी बिटिया के प्रति )
‘गुड्डन’जैसी कविताओं में कवि की मनस्थिति का अनुमान लगाना कठिन नहीं।यहाँ ‘वाद’ नहीं ‘संवाद’ है। लेखन, कविताई और जीवन एकाकार हो गया है। यहाँ जोड़ना होगा
कि इन कविताओं में मानसिक अस्त-व्यस्तता की बीच
भी रणजीत अपने समय को बाँच रहें हैं।
तुम्हें भूलने के लिए यह मकान ही छोड़ना होगा, बेटी !
विरह और वात्सल्य की मौन संयमित अभिव्यक्ति के द्वारा जीवन के जो चित्र दृष्टिगोचर
होते हैं वे नायाब हैं।
‘सरोज स्मृति’ का कवि अचानक आ धमकता है । बड़े रचनाकार को समझने में वक्त लगता है, जनाब ! कुछ रचनाओं से तो बस ‘घूँघट की आड़’ से दीदार ही हो पाएगा। फिर भी इन कविताओं का एक प्रमुख
स्वर ‘घर परिवार’ से आलोड़ित है। इसमें अनुकूल पत्नी, पुत्री, और समूचा गाँव है। एक लंबी कविता ‘गाँव’ का व्यापक फ़लक और रिश्ते नाते , मित्र, न जाने क्या-क्या जब पाठक के सामने फिल्म की पटकथा सा रु- ब-रु होता है तो एक ‘फुरहरी भरा दयाभाव’ तन मन पर छा जाता
है। ‘मीरा’ का सुबह साढ़े तीन बजे उठकर मुंगोड़ों के लिए दाल पीसने
से लेकर रात तक खटना , फिर भी पिटना , तो भी मुस्कराते रहना क्या किसी के कहने मात्र से दस दिन के लिए भी कहीं भाग
सकती है ? यही नियति है।
वास्तव में हिन्दी साहित्य में ‘उसने कहा था’ से लेकर आज तक संस्कृत साहित्य से प्राप्त इस करुण रस ने सहृदय पाठक
को सदा भाव विभोर किया है। ‘नहाकर नेकर निचोड़ने
लगा मैं’ जैसी पंक्ति में काव्यत्व कैसे अनायास ही आ गया,लिखना मेरे बस की बात नहीं। अभिभूत हूँ।अगाध स्वाभाविकता, प्रगाढ़ परिचय, और निर्मल सहजता के बावजूद भी कवि की अनबूझ सजावट
से कोई भी कह उठेगा कि ये सहज और सफल कविताएं हैं। अनुभूति के रस में पगी हैं और काव्य गुण युक्त हैं।
गद्य की
लय
इन कविताओं में परंपरागत पद्यात्मकता के स्थान पर गद्यात्मकता है किन्तु इससे
काव्यात्मकता का निर्वाह न हुआ हो, ऐसी बात नहीं है।
कवितायें उन्ही भावों और विचारों को अभिव्यक्त कर रही हैं जो कवि की अनुभूति के माध्यम
से आए हैं। इस दृष्टि से कवि शब्द के संस्कार से युक्त है। वह पुराने शब्दों को नये
अर्थ देता है और नए शब्दों में प्रयोगशील हो जाता । है। उदाहरण के लिए ‘जूझती प्रतिमा’ कविता में विशेषण विशेष्य के ऐसे युग्म आते हैं - विकल स्वप्न, धधकते वर्तमान , पाषाणी बंध, अजन्मी दुनिया, आदि। ‘भाषिक भृष्टाचार’ को रेखांकित करती
कविता में संकेत स्वरूप ही सही किन्तु यह बता अवश्य दिया गया है कि विश्व भर में भाषा
और शब्दों का अवमूल्यन लगातार बढ़ रहा है और अशोभन कार्यों को शोभन नाम देने की परिपाटी
चल निकली है। ‘उपमान मैले’ होने की प्रयोगवादी परंपरा से भी दो चार कदम आगे जाकर कवि रणजीत ‘विवेक संगत’ की तलाश में है; भाषा और व्यवहार दोनों में उसे असंगति दिखाई देती है। ‘अमल पताशा’सी भाषा और भाषिक व्यवहार अब ढूँढने से भी नहीं मिल रहा। इन पंक्तियों का कोई
सानी नहीं –
आंवले के अचार के साथ खाये गए
भुने हुए होलों में
और न जाने कितनी-कितनी चीजों में
मेरे देश मैं तुम्हें पीता हूँ खाता हूँ
जीवित जागृत भरा पूरा पाता हूँ ।
दिशा और
द्वंद
शायद कवि का ‘सोचना’ ‘एक बेहतर दुनिया के बारे में सोचना’ दुनिया को बेहतर बनाने के लिए है। कहना न होगा कि इन कविताओं में कथ्य और शैली
दोनों के द्वारा एक ऐसे भविष्य की ओर संकेत है जो भयावह नहीं । इस दृष्टि से कवि उत्तर
आधुनिक ,उत्तर संरचनावादी और उत्तर मानवतावादी सोच से परे
जाकर ‘ दो हजार पच्चीस में’ संसार को एक परिवार के रूप में हिलमिल कर देखता है। यहाँ यह वर्ष प्रतीक मात्र
है, भविष्य का, उस भविष्य का जिसका भूत और वर्तमान एक ही पंक्ति में अभिव्यक्ति पा गया है – अरे यह कौन सी दुनिया है भाई !
पाठ के माध्यम से पाठक कविता के मर्म तक जा पहुंचता है । कविता के माध्यम से
कवि की ओर पहुंचता पाठक अपने आप कवि को जान जाता है। इस आलेख में प्रस्तुत कुछ उदाहरण
या उद्धरण बड़े प्रयास से ढूंढकर प्रस्तुत नहीं किए गए हैं। इस प्रकार के सहज भावों से युक्त शतशः उदाहरण प्रस्तुत
करना कोई कठिन कार्य नहीं। कवि ने जीवन के व्यापक विस्तृत क्षेत्र में वर्षों निरंतर अवगाहन किया है।
गहराइयों में उतरकर जीवन-कमल पर दृष्टिपात
किया है। उसकी दृष्टि दसों दिशाओं में गयी है और जो भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान, और अनुभूति उसकी
सूक्ष्म अनी से बिंधी है, उसे उसने कविता
के शिल्प में पिरोया है। यह कह देना भी जरूरी है कि ‘वाद’ की कुंजी से कविता का ताला न तो खोलना चाहिए और न
यहाँ खोलने की कोशिश की गयी है। क्योंकि जो कुंजी, बक़ौल देरिदा, ताला खोलती है वही कुंजी उसे बंद भी करती है। कविता
मानव मी अक्षय जिजीविषा में से प्रस्फुटित होती है। जीवन की समग्रता में पनपती है।
असीम उड़ती है । फिर भी ‘सूरज का ध्यान’ रखे जाने को कहती है।
- प्रोफेसर, अँग्रेजी विभाग
अरबा मींच विश्वविद्यालय, इथियोपिया ( अफ्रीका)
प्रकाशन के लिए धन्यवाद, श्रम सार्थक हुआ । डॉ रंजीत की कविता से साक्षात्कार हुआ यह भी मेरे लिए गर्व की बात रही।
ReplyDeleteसुन्दर आलेख।
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नूतन वर्ष 2021 की हार्दिक शुभकामनाएँ।