Thursday, 3 December 2020

व्यंग्य में कैलाश मण्डलेकर - विनोद साव



‘बाबाओं के देश में’ यह व्यंग्यकार कैलाश मण्डलेकर के नए व्यंग्य संग्रह का नाम है। इसे बोधि प्रकाशन, जयपुर ने छापा है। कैलाश जी मध्यप्रदेश में खंडवा के निवासी हैं। वहॉ बी.एस.एन.एल. की संचार सेवा में अधिकारी रहे हैं लेकिन उससे भी बढ़कर वे हिंदी व्यंग्य के अधिकारी हैं और यहॉ भी वे पूरी तन्मयता और जिम्मेदारी के साथ खड़े हैं। वैसे भी अविभाजित मध्यप्रदेश को व्यंग्य की खूब उर्जावान धरती माना गया है जहां परसाई, शरद जोशी से लेकर आज तक साहित्य की कुछ बंजर धरती पर अपने पैने हल चलाने में जुटे हुए हैं। इनमें कैलाश मण्डलेकर हैं जिनकी व्यंग्य-विनोद से भरी रचनाओं की फसल ऐसे समय में लहलहा रही है जब व्यंग्य साहित्य जगत को सूखे से बचाने के लिए किसी हरेली सहेली योजना की जरुरत हो.

यह लेखक का चौथा संग्रह है। उनका पहला संग्रह ‘सर्किट हाउस में लटका चॉद’ ही उनकी संभावित विकास यात्रा की उम्मीदें जगा गया था। बहुत पहले मैंने व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी को नए लेखकों के बारे में पूछा था तब उन्होंने धीरे से कैलाश मण्डलेकर का नाम लिया था.. और यह धारणा कैलाश जी को मिले प्रथम ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान से और भी पुख्ता हो जाती है. यह सही है आज कैलाश मण्डलेकर की रचनाएँ साहित्य की सभी प्रतिष्ठित बड़ी पत्रिकाओं में छप रही हैं और बिना किसी समीकरणों के अपनी रचनात्मक प्रतिभा के बल पर छप रही हैं।

व्यंग्य लेखन में कैलाश की मुद्रा एक विनम्र प्रहारक की मुद्रा है। स्थितियों पर वे बड़ी विनम्रता से व्यंग्य करते हैं। हौले हौले प्यार से सहलाते हुए वे कब आक्रमण कर दें कहा नहीं जा सकता। उनकी अपनी एक भाषा है कहने की जिसमें वे पूरी तरह मौलिक और अलहदा हैं। शब्दों की सघनता है। विद्रूपताओं के आसपास अपने सघन और कलात्मक भाषायी संसार से वे अपना व्यूह रच लेने में समर्थ हैं और वह भी अपने सरस लेखन के जरिये जिसका आज के अधिकांश लेखकों में अभाव दिखता है। उनकी भाषा में आध्यात्मिकता का आस्वाद है. उन्हें मिथों का भी अच्छा ज्ञान है जिनका समुचित प्रयोग वे वर्तमान सन्दर्भ में कर लेते हैं. जिस तरह मुक्तिबोध की कविता में अनहदनाद गूंजता है कुछ ऐसा अनहदनाद अपनी भाषा साधना से कैलाश जी अपने व्यंग्यों में जन्मा लेते हैं और वह भी विनोदप्रियता के साथ. ऐसे विलक्षण प्रयोग उनकी रचनाओं में पसरे पड़े हैं.

संग्रह की शीर्षक रचना ‘बाबाओं के देश में’ उनका यह अध्यात्मिक स्वर व्यंग्य में और विशेषकर हास्य में देखें “हम जैसे निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों का बचपन तो इस शाश्वत धमकी को बालघुट्टी में पीते हुए ही गुजरा है कि ज्यादा शैतानी की तो बाबा पकड़ ले जाएंगे. इस देश की नौजवान पीढ़ी अपनी पैदाइश से ही बाबाओं से डरी हुई है. अतीत के बालमनोविज्ञान में बाबा की उपस्थिति या तो भयभीत करने वाली रही है या बंधी हुई मुट्ठी से रूपया गायब करने वाली. आज भी बाबा का नाम सुनकर स्मृति में एक ऐसी आकृति उभरती है जो भय और भीख के बीच झोली फैलाए, आंखें तरेरती हुई खड़ी है... कहते हैं पौराणिक काल में ऐसी रक्ताभ आंखें अपने तप के बल पर सैकड़ों मासूमों को भून चुकी हैं.”

प्राचीन कवि केशवदास तो बाबा संबोधन से चिढने लगे थे. उनके बाल क्या सफ़ेद हुए सुघड़ नायिकाएँ उनको बाबा कहने लगीं. ‘चन्द्र बदन मृग लोचनी बाबा कही कही जाय.’ जबकि देखा जाए तो कवि के सौन्दर्य बोध को वार्धक्य ने छुआ तक नहीं था. क्या पता दैहिक तौर पर भी तब पर्याप्त समर्थ रहे हों. कवि लोग वैसे भी कहाँ बूढ़े होते हैं. बाज दफे, बालों की सफेदी आदमी को व्यर्थ बाबा बना देती है.

भंगिमाओं और मुद्राओं के जरिये अपनी धौंस जमाने वाले साहित्य में उपस्थित प्रदर्शन कलाओं पर उनका व्यंग्य है “साहित्य में जब आटे और नमक के सन्दर्भ आने लगें तब घाघ किस्म के लेखक डिनर के बारे में सोचने लगते हैं तथा साहित्य की तरफ पीठ कर के चेलों की ओर मुखातिब हो जाते हैं, ताकि पता चल सके कि डिनर में क्या है. ऐसी नाजुक घड़ी में सबके साथ डिनर नहीं लेना है, क्योंकि आपकी व्यवस्था कमरा नंबर पांच में है. फिर पक्का गुरु एकादशी का बहाना कर के चुपचाप बताए गए कमरे में घुस जाता है. गुरु और शिष्यों के ऐसे अटूट गठबंधन ही समारोहों की जान होते हैं बाकी लोग सिर्फ विद्वान श्रोता की तरह कार्यक्रम की शोभा बढ़ाते हैं.’ (साहित्य में बाजार एक दिलचस्प खुलासा).

इन सबके साथ लेखक की कलम में कहानी कला है। कहन की कला उनमें उनके समकालीन रचनाकारों से भिन्न इसलिए भी है कि वे रंगमंचों में अभिनय भी कर चुके है। उनके वृत्तांतों में कथा रस है क्योंकि वे एक कथाकार भी हैं. वे अपने व्यंग्यों को भाषा के स्तर पर भले ही अलगा लेते हैं पर घटना वृत्तांत में कथारस की परंपरा को बनाए रखते हैं. इस वृत्तांत कथा में उनकी व्यंग्य की भाषा कुछ और भी चमक पैदा कर लेती है. ‘अगस्त में मरने वाले बच्चों के नाम’ रचना में वे हादसे की रामकथा सुनाते हैं “यूपी में भगवान से भी ज्यादा ताकतवर वह गैस वाला है जो अस्पतालों को ऑक्सीजन सप्लाई करता है. वह जिस दिन चाहे सप्लाई रोक कर किसी की भी जान ले सकता है. यह नया दौर है अब जीवन मरण की फिलोसोफी भी बदलनी चाहिए. यूपी में अब भगवान के हाथ कुछ नहीं रहा सब कुछ ठेकेदार और बिचौलियों के हाथ चला गया है. वहां आम आदमी के सांसों की गारंटी कुछ लोगों के कमिशन पर निर्भर है. सरकार कह रही है कि वह इन्सेफेलाटिस से वर्षों से लड़ रही है. ठीक है, लेकिन दिक्कत यह है कि इस लड़ाई में न सरकार हार रही है न इन्सेफेलाइटिस; हार रहा है गाँधी का वह अंतिम आदमी जो फ़िलहाल अस्पताल के गलियारे में अपने बच्चों के शवों के साथ निहत्था बैठा है.”

संस्कृति को लेकर अनावश्यक गौरव गान से हम अभिभूत हैं बजाय यह देखने के कि दूसरों की संस्कृति को जड़ बताकर आरोप लगाना आसान है और अपने जड़ संस्कारों से मुक्त होना कितना कठिन है। अपनी रचनाओं में लेखक आम आदमी के दैनिक जीवन के क्रम में उठे अनेक विरोधाभासों का निरंतर खुलासा करते हुए अपने नागरिक बोध का निरंतर परिचय देते चलते हैं. संस्कृति को लेकर हल्ला करने वाली सरकारें इन नागरिकों के प्रति दायित्व से कैसे मुकर कर किस तरह के ढकोसले करती हैं इन शब्दों में देखें “उनके मन में एक पापी विचार आया ‘सीनियर सिटीजन्स का प्रेम’ – यह वाक्य उन्हें उस वक्त भी सूझा था जब वे बजट भाषण सुन रहे थे, जबकि बजट में सीनियर सिटीजन्स के प्रेम की कोई चर्चा नहीं थी. क्या कोई सरकार इस दिशा में सोचेगी. सरकारें किस कदर शुष्क और प्रेम विरोधी हैं बगैर प्रेम के ही स्मार्ट सिटी बनाने की कल्पना कर लेती हैं. जबकि प्रेम के बिना तो पूरी बस्ती ही रुखी होगी. क्या रुखा होना ही स्मार्ट होना है.” (सीनियर सिटीजन्स का प्रेम).

संग्रह में ४६ रचनाएँ हैं जो अपनी सीमाबद्धता में एक ही आकार की हैं. क्योंकि यह अखबारी व्यंग्य लेखन है अपनी कैफ़ियत में लेखक ने यह खुलासा भी किया है इनकी संख्या अब तक १५० हो चुकी है और लेखन जारी है. इन व्यंग्य लेखों की प्रासंगिकता पर स्वयं लेखक को तो संदेह है ही नहीं बल्कि आलोचक व्यंग्यकार गौतम सान्याल ने भी इनकी दीर्घकालिकता पर इन शब्दों में मुहर भी लगा दी है कि “सार्थक स्तम्भ लेखन क्षण को चिरंतन में बदल देता है, दैनिक को दिनों में, अवसर को अवधि में, अब को पूर्वापर में, क्षणभंगुरता को टिकाऊ में तथा तत्पुरुष को कालपुरुष में. कॉलम लेखन को काल की कालबद्धता से मुक्ति दिलाते हुए कालातीत के उन्मुख परिसर में ले जाना होता है. एक सार्थक स्तम्भ लेखन में रोज की तारीख को तवारिक्ष (इतिहास) में ढालना होता है और स्तम्भ लेखक नियमित प्रतिदिन ऐसा करता है.”

जिन्हें अखबारी लेखन कहकर उड़ाया टरकाया जाता रहा है उन्हीं अखबारी व्यंग्यों ने हिन्दी व्यंग्य के दो दिग्गजों परसाई और शरद जोशी को साहित्य जगत में स्थापित कर दिया... और इनकी देखा देखी में अखबारों में स्तम्भ लिखने की होड़ मच गई. रचना केवल रचना के स्तर पर ही देखी जाए तो उनके निज वैशिष्ट्य के और भी रास्ते खुलते हैं. कैलाश मण्डलेकर ने अपने स्तम्भ लेखन के जरिए कुछ ऐसे ही प्रमाण इन रचनाओं में पुख्ता तौर पर दिए हैं.

यद्यपि अधिकांश व्यंग्यकारों की तरह वे भी समकालीन संदर्भां से अपनी रचनाओं का प्लाट तैयार करते हैं पर उन्हें घोर सामयिक होने से बचाकर रचना को दीर्घकालिक बनाने का कौशल वे दिखला जाते हैं। उनकी लेखन क्षमता में रवीन्द्रनाथ त्यागी, के.पी.सक्सेना और लतीफ़ घोंघी की तरह ‘विट भरपूर है.

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मुक्तनगर, दुर्ग 491001, मो. 9009884014

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