Thursday 22 October 2020

राख होने से बचे स्त्री स्वप्नों का कोलाज रचती कहानियां

पुस्तक समीक्षा


अंधेरा सघन होता है तो उजाले के लिए फिसलन कोई बड़ी बात नहीं है।वह बिछल बिछल पड़ेगा ही।और यह अंधेरा हैं पुरुष सत्ता की बेडियों मे सिसकती स्त्रियों के इर्दगिर्द सघनता वाला। यहां अब काबिलेगौर  तथ्य यह है कि इस बिछलन के बावजूद उजाला अपनी जगह बना पाता है तो यह वाकई सराहनीय ही कहा जाएगा।कुछ ऐसी ही अनुभूति शालिनी सिंह के पहले कहानी संग्रह "बदलते मौसम" की कहानियां कराती सी जान पड़ी हैं।  स्त्री मुक्ति अभियान की पैरोकार कहानियां मानीखेज बन पड़ी है, यह इस तथ्य पर हस्ताक्षर सी करती जान पड़ी कि जब अंधेरा अधिक हो तभी...।   खिडक़ी के उस पार चल रहे जीवन को पहले पूरी तल्लीनता के साथ देखा और गुना गया है और फिर बिना किसी लेखकीय हस्तक्षेप के तटस्थ होकर लिखी गई यह कहानियां महिला पात्रों की बात उठाती है। शायद यही कारण है कि हर कहानी से स्वाभाविकता की बड़ी सहज सी महक आती है।

             पहली कहानी" पालनहार"में नैरेटर कामिनी नाम की जिस महिला के रुतबे रुआब से खासी प्रभावित रही और पति से उनकी तारीफों के पुल बांधती हैं।उस पर पार्टी के दौरान जो मंजर बिजली बनकर गिरा, वह हतप्रभ रह गई तश्वीर का दूसरा रूप देखकर।"आलीना तुम"मे कहानी मध्यम वर्गीय जीवन वाले घरों में अपनी जीविका तलाशने वाली जाने कितनी उन बच्चियों के शोषण की जीवंत,और दुखद दास्तांं का प्रतिनिधित्व सी करती जान पडी है।कितनी ही बार पैर मे पेट देकर अपनी भूख शान्त कर लेने वाले वर्ग से आती अलीना के जीवन के गहन अंधेरे कोनों को टटोलती हैं यह कहानी।नैरेटर के घर कामवाली के रुप मे आई अलीना के जीवन की दुश्वारियों के ग्रे शेड्स को इस कहानी में जगह मिली है।अलीना के साथ हो ली सारी संवेदनाएं चचेरे देवर की आरोप के बाद हाथ छुड़ाकर दूर जा खड़ी हो गई।"काकी"मे सुधा नाम की महिला पात्र की नाजुक मिजाजी और समस्त वैभव के गलियारों से होकर गुजरती यह कहानी अंत तक आकर उनकी असहाय स्थिति की दुखद तश्वीर के बहाने उम्र बढ़ने पर अपनों के ही हाथ छुड़ा लेने के कडुवे यथार्थ को पाठक के आगे रखती है और इस प्रकार से काकी के जीवन के आइने मे बदली हुई बेचारगी भरी तश्वीर,इसे प्रभावी कहानी बना गई।"त्रिकोण का चौथा कोण"कच्ची कहानी लगी जिस पर अभी और काम किए जाने की मुझे आवश्यकता महसूस हुई है।हां अंत जरूर बेहतर कहा जाएगा,"लगता है, सीता का वनवास तो चौदह बर्षों मे खत्म हो गया था,  मेरा कब होगा?वो अहिल्या तो शाप मुक्त हो गई, पर क्या ये अहिल्या कभी शाप मुक्त हो पाएगी?

       " फर्ज "जीवन की बडी ही सहज सी घटनाओं को जोड बटोर कर लिखी गई है।यह कहानी पिंजरे को ही अपना आकाश न समझ लेने वाली रमा की है जिसने अपने बलबूते पर संघर्षों से अपनी इच्छा के अनुरूप पढाई की और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हुई।जीवन की तमाम दुश्वारियों समेत भावनात्मका की प्रबल वेगवान तरंगों को धता बताते हुए अपने लिए ठहराव तलाश लिया ।ठीक तभी तपते रेगिस्तान में उसने खुद के लिए सुकूनदायक झरना बनकर कलीग विशाल मिला जिससे कुछ समय बाद ही नकाब उतर गया ,विशाल समेत उसकी मां रमा से अधिक उसके पैसो मे रूचि रखते रहे।और इन स्थितियों से दो चार रमा के पास मां बाबूजी आए उनके लिए रमा ने कोई कसर नहीं उठा रखी,बावजूद इसके एक महिला से शिकायतों का पुलिंदा खोले बैठी मां को पाकर उसे गहरा क्षोभ हुआ, वह विशाल को दो टूक जवाब देती है, यह कहकर तुम कोई अच्छी सी लड़की तलाश शादी कर लो और मां बाबूजी को भाई-भाभी के घर जाने को टिकट लाकर पकड़ा दिया जो कुछ नहीं करते हुए भी रमा की वनस्पति उनके लिए कही अधिक फिक्रमंद हैं।एक और संवेदनशील कहानी "गृहप्रवेश"दिलपसंद कहानी की श्रेणी मे रखी जा सकने योग्य  हैं।त्योहारों पर किसी का भी मन नास्टेल्जियाई हो आना कोई नई बात नही है।नौकरी से राधेलाल रिटायर हो चुके हैं  ऐसे मे बदलते समय मे बदरंग हो चुकी दिवारोंं के रंग  उनके वर्तमान के कैनवास पर आडी तिरछी लाईने खींचने मे मशगूल हो जाते है ।वह बच्चों द्वारा बाहर जाने के कारण महज सुरक्षा की वजह से वृद्धाआश्रम पत्नी समेत छोडे गए हैं।वही होली के दिन वह अतीत की जीवन यात्रा पर निकल पड़े अपनी स्मृतियों के गढ़ते वितान मे अपने अतीत और वर्तमान के बीच पाठक को आवाजाही कराते राधेलाल जी कभी पत्नी के त्याग समर्पण और अपने ओढे दायित्वों को समझ ही न सके और अहम वश अपनी ही मनवा कर जैसे पत्नी को कृतार्थ करते रहे।वह उसे प्रताड़ित ही करते।पर लक्ष्मी की अद्भुत सूझबूझ ही रही जो सबके आने पर घर में अनायास ही आंखे बरस पड़ने पर स्थिति को संभालने के लिए आंखें की ड्राईनेस की बात रखकर अपने कमरे में चलने की बात कहती है।पिछली पीढ़ी के पति पत्नी के संबन्धों का जीवन्त दस्तावेज बन पड़ी है यह कहानी।।  

           जहां  स्त्री जीवन के एक और बेहद निर्मम यथार्थ को खंगालती"बस अब और नहीं" मृणालिनी पति के व्यवहार से आजिज आकर भावनात्मका की स्नेहिल सी छांव मधुर मे तलाश बैठती है लेकिन उससे भी मिला तो क्या बस छल।आखिरकार वह इस सम्बंध से भी किनारा कर लेती है।वही "एक नई सुबह" भी पारंपरिक पिंजरे वाले अदृश्य सीखचों मे कैद। स्वर्णा की शादी महज दिखावा भर बनकर रह जाती है।पति से पत्नी का सुख चाहने पर प्रताड़ना मिलती सो अलग अल्बत्ता छींका  लपकने की फिराक में लगा देवर पति से मिलाने के बहाने।वह दूसरे घर की चाभी पाकर दूसरे पति की हकीकत से रूबरु होकर उसने ससुराल से हर रिश्ते को गुडबाय कहने मे तनिक भी देर न लगाई।अब बारी आती है मायके की उस ओंर ठहराव और स्थायित्व भी नहीं मिल सका प्रवासी पक्षी की नजर से खुद को देखा जाने पर उसने अपने ही परों पर भरोसा करके संभावना  भरे अनन्त आसमान में अपनी उड़ान तलाशने निकल पड़ी।स्त्री जीवन के खुरदुरे यथार्थ से उगी यह एक महत्वपूर्ण कहानी है|

          आत्ममुग्धता के चरम शिखर पर हो तो वह नितांत ही अकेला हुआ करता है।चमक और चकाचौंध मे साथ कितने दिन का?मुग्धा के बहाने समाज के संवेदन स्तर को बेहद नपे तुले अंदाज में बयां किया है।अपने ढंग से और खुद की शर्तों पर जीने मे यकीन करने वाली मुग्धा की यह कहानी अंंत तक आकर उपेक्षा की खरहरी खाट पर लोटती देखकर पाठक को प्रभावित करती हैं।चमक और चकाचौंध मे साथ देने वालो मे कौन किसका सगा,हां अलबत्ता इस फेर में अपनों से भी दूर हो जाते है हम।

         बेटे के लिए सर्वगुण सम्पन्न बहू किस मां का सपना नहीं होती है।विहान की मां ने बिल्कुल यही तो सपना देख सुकन्या को शादी कर घर ले आई पर नौकरी के बाद उसके रंग इस कदर बदले कि सुकन्या सू बन गई |

विहान के पैसे भी उसी की मरजी से खर्च होते है।कुल मिलाकर दो लोगों के बीच सम्बन्ध के सांस लेने को जिस स्तर तक ऑक्सीजन की आवश्यकता हुआ करती है सब दम तोड़ता गया और जब एक रोज विहान ने अचानक अपना फैसला सुनाया तो इस अपरिचित रूप से सू को यही लगा कि इस विहान को तो वह जानती ही नहीं।सम्बन्धो की विडम्बना से जूझती प्रभा आत्मनिर्णय मे समर्थ हैं।वह मौन प्रतिरोध की राह पर चलकर पुरुष सत्ता से संघर्ष करना जानती है।पति अमन की  बीमारी की स्थिति में जीवन के पन्ने पलटती जिम्मेदारियों के पहाड़ तले दबी ऐसी जाने कितनी ही स्त्रियों के जीवन - संघर्ष को स्वर देती हैं प्रभा।हजार कमियां होकर भी पुरुष आखिरकार पुरूष तो हैं ही और इसी अहम के चलते बच्चों के भूखों मरने की नौबत आने पर पति से छिपाकर प्रभा घरों में खाना बनाती है जब पति अमन पर यह बात खुली तो वह प्रभा की जमकर पिटाई करता है पर औरत करे भी तो क्या वह बच्चों के लिए ही हिम्मत नहीं हारती हैं और फिर काम पर चली जाती है आखिरकार पति उसके योगदान को बीमारी की स्थिति में ही सही स्वीकार करता हैं।आज के समय के ताप से जूझती कहानी को संग्रह के शीर्षक नाम वाली कहानी " बदलते मौसम"को सबसे अंत में स्थान मिला है जो एक और कामवाली की लड़की की बात करती हैं उसकी राम कहानी मे सचमुच बदलते मौसम की आहट सही अर्थो मे सामने आती हैं।सास ने किरण पर कमाई के बाद भी बंदिश लगा दी कि एक रुपया अपनी मर्ज़ी से न खर्च कर सके वह हताश हो गई पर नैरेटर की सीख के बाद उसने गृहस्थी की गाड़ी में अपने अधिकार की चाभी घुमाई वह सुचारू ढंग से दौड़ पड़ी अब पैसे भी किरण के अपने है और घर में सुखद मौसम के बदलाव की आहट भी दस्तक दे गई।

            कुछ मिलाकर देखे तो संग्रह के शीर्षक की सार्थक उपलब्धि के साथ साथ  जीवन की असमाप्त कहानी की बात करती इन कहानियों के रुप मे उस घिनौने यथार्थ पर से पर्दा हटाने का काम हुआ है।  

भाषागत सतर्कता बडी विशेषता कही जाएगी सामान्य पाठक को ठीक ठीक समझ आने वाले शब्दों के सहारे जीवन के समकालीन यथार्थ के जीवन्त दस्तावेज मे लेखिका ने एक और नाम अपने पहले संग्रह का जोड़ दिया।

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समीक्षक- कुसुम लता पाण्डेय

कहानी-संग्रह- बदलते मौसम

लेखिका- शालिनी सिंह

 प्रकाशन- रश्मि प्रकाशन, लखनऊ

प्रकाशन वर्ष- 2019

मूल्य- 150 रु.

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