Thursday 19 December 2019

लेखा-जोखा 2019 / साहित्य में व्यंग्य


व्यंग्य यथार्थ में शामिल विसंगतियों की सुरुचिपूर्ण आलोचना है | एक लोकप्रिय विधा होने के कारण कम प्रतिभा वाले लेखक भी इसकी ओर आकर्षित होते हैं | हिंदी में व्यंग्य लेखन जितना सरल लोगों ने बना रखा है उतना आसान है नही | अन्य विधाओं के बनिस्पत व्यंग्य लिखना अपेक्षाकृत कठिन विधा मानी जाती है लेकिन जिस रफ़्तार से आज व्यंग्य के नाम पर व्यंग्य लिखा जा रहा है उनमे बहुत कम ही रचनाकार पाठकों के दिल में जगह बना पाते हैं | जाहिर है पूर्ववर्ती व्यंग्य लेखन की अपेक्षा वर्तमान व्यंग्य में वह गुणवत्ता मौजूद नही है | इसके और भी तमाम कारण हो सकते हैं जिनका विश्लेषण यहाँ अभीष्ट नही है वह फिर कभी | इधर पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य की स्वीकार्यता बढ़ी है और सोशल मीडिया पर भी उसका स्पेस बढ़ा है | वर्षांत में व्यंग्य साहित्य की जो भी प्रमुख किताबें प्रकाशित हुईं उनका लेखा-जोखा पाठकों के सुलभ सन्दर्भ हेतु इस आलेख में प्रस्तुत किया जा रहा है | 


वर्ष 2019 व्यंग्य साहित्य की दृष्टि से काफी भरापूरा कहा जा सकता है | इसी साल राजकमल प्रकाशन ने हरिशंकर परसाई की चर्चित किताब ‘निठल्ले की डायरी’ और शरद जोशी की अनुपलब्ध पुस्तक ‘वोट ले दरिया में डाल’ के नए संस्करण छापे | किताबघर प्रकाशन से स्मृतिशेष व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ के अंतिम व्यंग्य संग्रह ‘आखेट’ प्रकाशित हुआ | जिसमे उनके द्वारा समय- समय पर लिखित व्यंग्य रचनाओं को शामिल किया गया है | संग्रह की रचनाओं में एक अलग ही भाषाई तासीर और शैलीगत ताजगी है | व्यंग्य के स्त्री स्वरों में जहाँ वरिष्ठ लेखिका स्नेहलता पाठक का व्यंग्य संग्रह ‘सच बोले कौवा काटे’ प्रकाशित हुआ वहीँ दूसरी ओर रुझान पब्लिकेशन से आया उभरती व्यंग्य लेखिका इन्द्रजीत कौर का नया संग्रह ‘पंचरतंत्र की कथाएं’ चर्चा में रहा | व्यंग्य की एकदम युवा लेखिकाओं में ही अंशु प्रधान, समीक्षा तैलंग और अनीता यादव के पहले संग्रह क्रमशः ‘हुक्काम को क्या काम’ (बोधि प्रकाशन), ‘जीभ अनशन पर है’ (भावना प्रकाशन) और ‘बस इतना सा ख्वाब है’ (दिल्ली पुस्तक सदन) से प्रकाशित हुए |


वरिष्ठ व्यंग्यकारों के नए व्यंग्य संग्रहों की बात करें तो उनमे जवाहर चौधरी का 'बाज़ार में नंगे', अरविन्द तिवारी का व्यंग्य संग्रह ‘डोनाल्ड ट्रम्प की नाक’, सुरेश कान्त का व्यंग्य संग्रह ‘मुल्ला तीन प्याजा’, बुलाकी शर्मा के दो संग्रह ‘प्रतिनिधि व्यंग्य’‘टिकाऊ सीढ़ियाँ उठाऊ सीढ़ियाँ’, गिरीश पंकज के दो व्यंग्य संग्रह ‘आन्दोलन की खुजली’ और ‘पूंजीवादी सेल्फी’, कैलाश मंडलेकर का व्यंग्य संग्रह ‘बाबाओं के देश में’, श्रवण कुमार उर्मिलिया का व्यंग्य संग्रह ‘चुगलखोरी का अमृत चापलूसी का चूर्ण’ और पूरन सरमा के व्यंग्य संग्रह ‘श्री घोड़ीवाला का चुनाव अभियान’, राजेन्द्र वर्मा का व्यंग्य संग्रह ‘लक्ष्मी से अनबन’ और हरिशंकर राठी का ‘युधिष्ठिर का कुत्ता’ मुख्य रहे | व्यंग्य उपन्यास की दृष्टि से यह वर्ष उल्लेखनीय नही रहा | कुमार सुरेश का लोकोदय प्रकाशन से आया व्यंग्य उपन्यास ‘तंत्रकथा’ एक अच्छा उपन्यास बन सकता था लेकिन वह अपनी कथावस्तु की सपाटबयानी और चरित्रों के इकहरेपन का शिकार होकर फ्लॉप रहा |


नई पीढ़ी के व्यंग्यकारों में संतोष त्रिवेदी का व्यंग्य संग्रह ‘नकटों के शहर में’, अशोक व्यास का ‘विचारों का टैंकर’, प्रभाशंकर उपाध्याय का ‘प्रतिनिधि व्यंग्य’, संतराम पाण्डेय का ‘अगले जनम मोहे व्यंग्यकार ही कीजो’, विजी श्रीवास्तव का ‘इत्ती सी बात’, अनूपमणि त्रिपाठी का ‘अस मानुष की जात’, सुदर्शन सोनी का ‘अगले जनम मोहे कुत्ता ही कीजो’, सुधीर कुमार चौधरी का ‘विषपायी होता आदमी’, अलंकार रस्तोगी के दो व्यंग्य संग्रह ‘दो टूक’‘डंके की चोट पर’, संजीव निगम का ‘अंगुलिमाल का अहिंसा का नया फंडा’, अमित शर्मा का ‘लानत की होम डिलीवरी’, अजय अनुरागी का ‘एक गधे की उदासी’ और पंकज प्रसून की व्यंग्य कहानियों का संग्रह ‘द लम्पटगंज’ प्रमुख रहे |


युवा लेखक भुवनेश्वर उपाध्याय के सम्पादन में ‘व्यंग्य व्यंग्यकार और जो जरुरी है’ संकलन वनिका पब्लिकेशन से इसी वर्ष आया | उनका खुद का भी एक व्यंग्य संग्रह ‘बस फुंकारते रहिये’ शीर्षक से छपा | विवेक रंजन श्रीवास्तव के सम्पादन में ‘मिलीभगत’ नाम से समकालीन व्यंग्यकारों के व्यंग्यों का एक संकलन भी निकला | व्यंग्य की एकदम प्रारंभिक पीढ़ी को लेकर उनके चुनिन्दा व्यंग्यों का संग्रह राजेन्द्र शर्मा के सम्पादन में ‘हिंदी हास्य-व्यंग्य’ शीर्षक से आया | 300 से 700 शब्दों के मध्य छपने वाले दैनिक पत्रों के व्यंग्य कॉलम्स और स्तंभों में वह धार नज़र नही आयी | छिटपुट को छोड़ दें तो उनमे औसत व्यंग्यों का बोलबाला रहा | पत्रिकाओं में भी ‘व्यंग्य यात्रा’ को छोड़कर बाकियों का ट्रैक अलग ही दिशा में भटकता दिखा | उनमे एक सजग सम्पादन और गंभीर व्यंग्य दृष्टि का अभाव दिखा | नए वर्ष में उम्मीद की जानी चाहिए की लेखक अपनी किताबों को लाते हुए जल्दबाजी न दिखाएँ व उनमे रचनाओं का चयन करते हुए गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दें | व्यंग्यकार अपनी आलोचना को सकारात्मक भाव से ग्रहण करें तभी व्यंग्य विधा साहित्य में अपना सही मुकाम हासिल कर सकेगी |



2 comments:

  1. सच को सबको दिखाने का आसान साधन बन गया है व्यंग्य लेखन। अच्छा भी है इसी बहाने कच्चा-चिट्ठा बाहर निकलता है सबके सामने
    बहुत अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है आपने

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  2. राहुल जी, बधाई. आपने सराहनीय कार्य किया है | शांति

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