Saturday 23 February 2019

अस्वीकार का साहस / नामवर सिंह



हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम कबीर के साथ उसी तरह जुड़ा है जैसे तुलसीदास के साथ रामचंद्र शुक्‍ल का। हिंदी में द्विवेदीजी पहले आदमी हैं जिन्‍होंने यह घोषणा करने का साहस किया कि ''हिंदी साहित्‍य के हजारों वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्‍यक्तित्‍व लेकर कोई लेखक उत्‍पन्‍न नहीं हुआ। महिमा में यह व्‍यक्तित्‍व केवल एक ही प्रतिद्वन्‍द्वी जानता है, तुलसीदास।'' (कबीर, पृ. 222) यदि हजारीप्रसाद द्विवेदी के ''कबीरदास बहुत कुछ को अस्‍वीकार करने का अपार साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे'' (पृ. 7) तो 'कबीर' के हजारीप्रसाद में भी यह साहस कम नहीं है।

'कबीर' के प्रकाशन-काल (1942) तक हिंदी में न तो कबीर की साहित्यिक प्रतिष्‍ठा थी और न कोई स्‍वतंत्र आलोचना पुस्‍तक ही। 'प्रिय प्रवास' के यशस्‍वी कवि अयोध्‍यासिंह उपाध्‍याय 'हरिऔध' ने इस शताब्‍दी के दूसरे दशक के मध्‍य में 'कबीर वचनावली' (1916) नाम से कबीर के वचनों का एक संक्षिप्‍त संकलन अच्‍छी-खासी भूमिका के साथ संपादित किया था और उसने कबीर की ओर साहित्‍य-प्रेमियों का ध्‍यान भी आकृष्‍ट किया, किंतु वह पुस्‍तक साहित्‍य में कबीर को प्रतिष्ठित करने में समर्थ न हो सकी। तीसरे दशक के अंत में बाबू श्‍यामसुंदर दास ने 'कबीर ग्रंथावली' (1928) नाम से कबीर की समस्‍त उपलब्‍ध रचनाओं का पहली बार संपादन करके निस्संदेह बहुत बड़ा काम किया। उन्‍होंने इस ग्रंथ के आरंभ में अपने शिष्‍य और निर्गुण संप्रदाय के विशेषज्ञ डॉ. पीतांबरदत्त बड़थ्‍वाल की मदद से एक लंबी प्रस्‍तावना जोड़कर कबीर के अध्‍ययन का पथ भी प्रशस्‍त किया । किंतु कबीर के प्रति यथोचित सम्‍मान के बावजूद बाबू साहब भी उन्‍हें साहित्‍य में प्रतिष्ठित न कर पाए क्‍योंकि वे स्‍वयं ही कबीर के कवित्‍व के प्रति आश्‍वस्‍त न थे। 'ग्रंथावली' की भूमिका में उन्होंने लिखा है : ''तिस पर कबीरदास जी स्‍वयं पढ़े-लिखे न थे। उन्‍होंने जो कुछ कहा है, वह अपनी प्रतिभा तथा भावुकता के वशीभूत होकर कहा है। उनमें कवित्‍व उतना नहीं जितनी भक्त्‍िा और भावुकता थी। उनकी वाणी हृदय में चुभनेवाली है।'' (पृ.4) अब कबीर में चाहे जितनी प्रतिभा और भावुकता हो और उनकी वाणी भी चाहे कितनी ही चुभनेवाली क्‍यों न हो, लेकिन यदि वह 'अटपट' है और उसमें 'कवित्‍व' नहीं है तो साहित्‍य में उसे भला प्रतिष्‍ठा क्‍यों मिलने लगी?

किसी कवि को साहित्‍य में प्रतिष्‍ठा दिलानेवाले थे आचार्य शुक्ल; लेकिन उन्‍होंने जहाँ तुलसीदास, सूरदास और जायसी पर स्‍वतंत्र रूप से विस्‍तृत समीक्षाएँ लिखीं, कबीर को इस योग्‍य नहीं समझा। उनके लिए कबीर का महत्त्‍व 'इतिहास' तक ही सीमित रहा; और 'इतिहास' में भी कबीर के प्रति सम्‍मान या सहानुभूति का भाव नहीं दिखता। उनकी दृष्टि में कबीर की भाषा तो पँचमेल है ही, विचार भी पँचमेल है; प्रतिभा उनमें जरूर बड़ी प्रखर थी और उनकी उक्तियों में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्‍कार भी है, लेकिन कवित्‍व भी है - यह शुक्‍लजी ने कहीं नहीं कहा है। 'इतिहास' के संशोधित और प्रवर्धित संस्‍करण (1940) में आगे चलकर शुक्‍लजी ने इतना तो स्‍वीकार किया कि ''मनुष्‍यत्व की सामान्‍य भावना को आगे करके निम्‍न श्रेणी की जनता में उन्‍होंने आत्‍म्‍गौरव का भाव जगाया'' (पृ.65) लेकिन उस बात से 'तुलसीदास' नामक पुस्‍तक (1923) में पहले की लिखी इस बात का परिहार नहीं होता कि कबीर आदि निर्गुणिया संत लोक-विरोधी थे। (पृ.16)

इस प्रकार कबीर की वाणी पर सोचने-विचारने के लिए हिंदी से कोई उत्‍साहवर्धक प्रकाश मिलने की आशा न थी; जो मिल रही थी वह थी चुनौती! प्रकाश की कोई किरण यदि कहीं थी तो शांति निकेतन में। द्विवेदीजी के शांति निकेतन पहुँचने से काफी पहले रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रेरणा से आचार्य क्षितिमोहन सेन वाचिक परंपरा में प्राप्‍त कबीर के वचनों का संग्रह करके 1910 में चार भागों में उनका सटीक प्रकाशन करवा चुके थे। फिर रवींद्रनाथ ने स्‍वयं भी इनमें से सौ पद चुनकर अंग्रेजी में अनुवाद किया और एवलिन अंडरहिल की भूमिका के साथ लंदन से 'वन हंड्रेड पोएम्‍स ऑफ कबीर' (1914) शीर्षक से प्रकाशित करवाया था। द्विवेदीजी के लिए ये दोनों ही सजीव प्रेरणाएँ सुलभ थीं। इसलिए इस अनुमान के लिए ठोस आधार है कि व्‍यापक क्षेत्र में इतनी ख्‍याति मिलने पर भी स्‍वयं अपने ही घर में कबीर को उपेक्षित पाकर द्विवेदीजी कबीर के अध्‍ययन की ओर प्रवृत्त हुए। अप्रासंगिक नहीं है कि द्विवेदीजी का 'कबीर' आचार्य क्षितिमोहन सेन को समर्पित है।

'कबीर' संबंधी अधिकांश मान्‍यताओं का बीजारोपण 'हिंदी साहित्‍य की भूमिका' (1910) में ही हो चुका था। 'भक्तिकाल के प्रमुख कवियों का व्‍यक्तित्‍व' शीर्षक आठवें अध्‍याय में कबीर पर प्राय: वह सब संक्षेप में कह दिया गया है जिसका पल्‍लवित रूप आगे चलकर 'कबीर' नामक ग्रंथ में मिलता है। कबीर की विद्रोही भावना स्‍वयं उनकी सा‍माजिक स्थिति की स्‍वाभाविक उपज थी, इसको रेखांकित करते हुए 'भूमिका' में द्विवेदीजी ने लिखा: '' वे दरिद्र और दलित थे इसलिए अंत तक वे इस श्रेणी के प्रति की गई उपेक्षा को भूल न सके।उनकी नस-नस में इस अकारण दंड के विरुद्ध विद्रोह का भाव भरा था।'' (पृ.96) इसके बाद कबीर के कवित्‍व को प्रकाशित करते हुए यह कहा गया : ''कविता करना उनका लक्ष्‍य नहीं था, फिर भी उनकी उक्तियों में कवित्‍व की ऊँची से ऊँची चीज प्राप्‍य है।'' (पृ.97) अंत में इस संक्षिप्‍त परिचय का उपसंहार इन वाक्‍यों से होता है: ''वे साधना के क्षेत्र में युग गुरु थे और साहित्य के क्षेत्र में भविष्‍य स्‍त्रष्‍टा। संस्‍कृत के 'कूपजल' को छुड़ाकर उन्‍होंने भाषा के 'बहते नीर' में सरस्‍वती को स्‍नान कराया। उनकी भाषा में बहुत सी बोलियों का मिश्रण है; क्‍योंकि भाषा उनका लक्ष्‍य नहीं था और अनजान में वे भाषा की सृष्टि कर रहे थे।'' (पृ.98) कहने की आवश्‍यकता नहीं कि बाद की पीढ़ी ने इस भविष्‍यस्‍त्रष्‍टा को जल्‍दी ही पहचान लिया और इस प्रकार हिंदी साहित्‍य के परवर्ती विकास ने द्विवेदीजी की भविष्‍यवाणी की पुष्टि कर दी।

चूँकि कबीर का तिरस्‍कार मुख्‍यत: उनकी अटपटी भाषा और कवित्‍वहीनता को ही लेकर किया गया था, इसलिए 'कबीर' नामक ग्रंथ में द्विवेदीजी ने इस पक्ष की सविस्‍तार और सोदाहरण चर्चा की। अब तक कबीर की 'डाँट -फटकार' और 'खंडन-मंडन' की चर्चा तो बहुत हुई थी, किंतु उनके व्‍यंग्‍यों का कहीं जिक्र भी नहीं आया था। द्विवेदीजी ने पहली बार कबीर के व्‍यंग्यकार रूप को प्रस्‍तुत करते हुए घोषित किया : ''सच पूछा जाय तो आज तक हिंदी में ऐसा जबर्दस्‍त व्‍यंग्‍य लेखक पैदा ही नहीं हुआ। उनकी साफ चोट करनेवाली भाषा, बिना कहे भी सब कुछ कह देनेवाली शैली और अत्‍यंत सादी किंतु अत्‍यंत तेज प्रकाशन भंगी अनन्‍य-साधारण है। हमने देखा है कि बाह्याचार पर आक्रमण करनेवाले संतों और योगियों की कमी नहीं है, पर इस कदर सहज और सरल ढंग से चकनाचूर कर देनेवाली भाषा कबीर के पहले बहुत कम दिखाई दी है। व्‍यंग्‍य वह है, जहाँ कहनेवाला अधरोष्‍ठों में हँस रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहनेवाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्‍पद बना लेना हो जाता हो।'' (पृ.172)

अन्‍यत्र भी ''भाषा पर कबीर का जबर्दस्‍त अधिकार था। वे वाणी के डिक्‍टेटर थे। जिस बात को उन्‍होंने जिस रूप में प्रकट करना चा‍हा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया- बन गया तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजर आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्‍मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्‍कड़ की किसी फरमाइश को नाहीं कर सके। और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत कम लेखकों में पाई जाती है।... इस प्रकार यद्यपि कबीर ने कहीं लिखने की प्रतिज्ञा नहीं की तथापि उनकी आध्‍यात्मिक रस की गगरी से छलके हुए रस से काव्‍य की कटोरी में भी कम रस इकट्ठा नहीं हुआ है।'' (पृ. 221-22)

कहने की आवश्‍यकता नहीं कि उपर्युक्‍त स्‍थापनाओं में से प्रत्‍येक के लिए द्विवेदी जी ने कबीर की रचनाओं से ढेरों उदाहरण दिए हैं और सच पूछिए तो किसी भी अच्‍छी और विश्‍वसनीय आलोचना की तरह उनकी शक्ति ये उपयुक्‍त उद्धरण ही हैं।

दरअसल इन सभी विशेषताओं का मूल स्‍त्रोत है कबीर का असाधारण व्‍यक्तित्‍व और इस ग्रंथ से यह बात तुरंत स्‍पष्‍ट हो जाती है कि उस व्‍यक्तित्‍व का ठीक-ठीक उद्घाटन ही द्विवेदीजी का मुख्‍य लक्ष्‍य है। और इस कथन में विवाद की गुंजाइश नहीं है कि 'व्‍यक्तित्‍व विश्‍लेषण' शीर्षक बारहवाँ अध्‍याय 'कबीर' का मेरुदंड है। प्रसंगवश मुझे यह भी कहने में संकोच नहीं है कि कबीर का व्‍यक्तित्‍व-विश्‍लेषण हिंदी गद्य का गौरव है, जिसे और किसी बात के लिए न सही तो केवल हिंदी गद्य की शक्त्‍िा और संभावना का अनुभव करने के‍ लिए भी समय-समय पर पढ़ा जा सकता है। सच तो यह है कि इससे कम प्राणवान और कम व्‍यंजक गद्य के द्वारा कबीर का व्‍यक्तित्‍व खड़ा हो ही नहीं सकता था, लेकिन यह एहसास भी द्विवेदीजी का गद्य पढ़ने के बाद ही होता है।

द्विवेदीजी से पहले कबीर का व्‍यक्तित्‍व हिंदी में एक ऐसे अक्‍खड़ फकीर का था जो सबको डाँटा-फटकारा करता है और अपढ़ लोगों पर रोब गालिब करने के लिए झूठी गर्वोक्तियाँ करता है तथा कभी-कभी उलटबाँसियाँ बककर लोगों को चौंकाता रहता है। आचार्य शुक्‍ल ने कबीर को बहुत कुछ ऐसे ही 'झूठे' महात्‍मा के रूप में पेश किया है। बाबू श्‍यामसुंदर दास ने भी 'कबीर ग्रंथावली' की प्रस्‍तावना में एकाधिक बार कबीर के 'अक्‍खड़पन' का जिक्र किया है। द्विवेदीजी ने सबसे पहले कबीर के इस 'अक्‍खड़पन' के मिथक को ही तोड़ने का प्रयास किया है। इसके लिए कबीर को पूर्ववर्ती सिद्धों और योगियों से अलगाना जरूरी है।

ऊपर-ऊपर से देखने पर कबीर भी सिद्धों और योगियों के समान ही आक्रामक लगते हैं, लेकिन द्विवेदीजी की दृष्टि में, ''कबीर के पूर्ववर्ती सिद्ध और योगी लोगों की आक्रमणात्‍मक उक्तियों में एक प्रकार की हीन भावना की ग्रंथि या 'इनफीरियरिटी काम्‍प्‍लेक्‍स' पाया जाता है। वे मानो लोमड़ी के खट्टे अंगूरों की प्रतिध्‍वनि है, मानो चिलम न पा सकनेवालों के आक्रोश हैं। उनमें तर्क है पर लापरवाही नहीं है, आक्रोश है पर मस्‍ती नहीं है, तीव्रता है पर मृदुता नहीं।(जबकि) कबीरदास का सर्वप्रधान गुण रस है; एक जीवन है।'' (पृ.172) इसलिए ''अक्‍खड़ता कबीरदास का सर्वप्रधान गुण नहीं है।'' (पृ. 163) वस्‍तुत: ''कबीरदास ने यह अक्‍खड़ता योगियों से विरासत में पाई नहीं है।'' (पृ. 162) इस प्रकार वे अक्खड़ आदत से ही थे, स्‍वभाव से तो वे फक्‍कड़ ही थे। (पृ.174) कारण, वे मूलत: भक्‍त थे, योगी नहीं।(पृ.116) किंतु उनकी भक्त्‍िा भी विशेष प्रकार की थी। ''भक्ति के अतिरेक में उन्‍होंने कभी अपने को पतित नहीं समझा; क्‍योंकि उनके दैन्‍य में भी उनका आत्‍मविश्‍वास साथ नहीं छोड़ देता था। उनका मन जिस प्रेम रूपी मदिरा से मतवाला बना हुआ था वह ज्ञान के गुड़ से तैयार की गई थी, इसलिए अंधश्रद्धा, भावुकता और हिस्‍टीरिक प्रेमोन्‍माद का उनमें एकांत अभाव था।'' (पृ.176)

कबीर के इस अक्‍खड़-फक्‍कड़ व्‍यक्तित्‍व की विलक्षणता का समग्रत: निरूपण इन शब्‍दों में किया गया है: ''कबीर 'ज्ञान के हाथी' पर चढ़े हुए थे, पर 'सहज' का दुलीचा' डाले बिना नहीं, भक्त्‍िा के मंदिर में प्रविष्‍ट हुए थे, पर 'खाला का घर' समझकर नहीं; बाह्याचार का खंडन किया था, पर निरुद्देश्‍य आक्रमण की मंशा से नहीं; भगवद्विरह की आँच में तपे थे, पर आँखों में आँसू भरकर नहीं; राम को आग्रहपूर्वक पुकारा था, पर बालकोचित मचलन के साथ नहीं-सर्वत्र उन्‍होंने एकसमता (बैलेंस) रखी थी। केवल कुछ थोड़े से विषयों में वे समता खो गए थे। अकारण सामाजिक उच्‍च-नीच मर्यादा के थोड़े से विषयों में वे समता खो गए थे। अकारण सामाजिक उच्‍च-नीच मर्यादा के समर्थकों को वे कभी क्षमा नहीं कर सके, भगवान के नाम पर पाखंड रचनेवालों को उन्‍होंने कभी छूट नहीं दी, दूसरों को गुमराह बनानेवालों को उन्‍होंने कभी तरह देना उचित नहीं समझा। ऐसे अवसरों पर वे उग्र थे, कठोर थे और आक्रामक थे। पर गुमराह लोगों की गलती दिखाने में उन्‍हें एक तरह का रस मिलता था। व्‍यंग करने में उन्‍हें जैसे तृप्ति मिलती थी।'' (पृ. 176)

कुछ मिलाकर द्विवेदीजी के अविस्‍मरणीय शब्‍दों में : ''ऐसे थे कबीर। सिर से पैर तक मस्‍तमौला; स्‍वभाव में फक्कड़, आदत से अक्‍खड़; भक्‍त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड; दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्‍त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर; जन्‍म से अस्‍पृश्‍य, कर्म से वंदनीय।'' (पृ.174)

कबीर की इस अभूतपूर्व और अभिनव कवि-प्रतिभा को ध्‍यान से देखें तो स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि यह द्विवेदीजी के मनोवांछित विद्रोही कवि की अपनी कल्‍प-सृष्टि है, जिस पर बहुत हद तक चौथे दशक के फक्‍कड़पन की गहरी छाप है। इस दिशा में सोचने का ठोस आधार यह है कि द्विवेदीजी के 'हिंदी साहित्‍य : उसका उद्भव और विकास' (1952) से होकर गुजरने पर सहसा हम एक ऐसे दौर में आते हैं जहाँ एक साथ बहुत से फक्‍कड़ कवि मिलते हैं-कबीर के बाद पहली बार और अंतिम बार। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि यह द्विवेदीजी का स्‍वयं अपना युग है- वह युग जिसमें अपनी पीढ़ी के अन्‍य लेखकों के साथ उन्‍होंने साहित्‍य-सृजन आरंभ किया। क्‍या संयोग है कि अपने समकालीनों का परिचय प्रारंभ करते ही द्वि‍वेदीजी की लेखनी से अदबदाकर प्राय: वही शब्‍द निकलने लगते हैं, जो कबीर के संदर्भ में प्रयुक्‍त हुए थे। उदाहरण के‍ लिए '' छायावादी मूल भावधारा से पृथक् किंतु विश्‍वासों में संपूर्ण स्‍वच्‍छन्‍दतावादी फक्‍कड़ कवि बालकृष्‍ण शर्मा नवीन की उद्दाम आवेगोंवाली कविताएँ इसी काल में लिखी गईं। ... सब कुछ छोड़कर आगे बढ़ जाने की घर फूँक मस्‍ती से इनकी रचनाएँ आकंठ भरी हुई हैं।'' (पृ.294) नवीन के बाद भगवतीचरण वर्मा आते हैं जिनमें 'मस्‍ती' है, उल्‍लास है और अपने आपके प्रति दृढ़ विश्‍वास है। ... वे अनासक्‍त भोक्‍ता की भाषा में सुंदर और सौंदर्य की महिमा और अपनी मस्‍ती के गान गाते हैं।'' (पृ.295) इसी क्रम में 'मस्‍ती और मौज के कवि बच्चन हैं... जिनकी कविता में क्षणिक उल्‍लास की मस्‍ती का प्रचार देखकर ...शुरू-शुरू में 'हालाबाद' का नाम दे दिया गया था।'' (पृ.295) अंत में '''मस्‍ती'' के कवि रामधारीसिंह दिनकर हैं।'' किंतु ''कल्‍पना की ऊँची उड़ान,विसदृश परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की उमंग और सामाजिक चेतना की तीव्रता के कारण, दिनकर (अन्‍य) दो कवियों से एकदम भिनन श्रेणी के कवि हैं। भगवतीचरण वर्मा और बच्‍चन में वैयक्तिक चेतना का प्राधान्‍य है (जबकि)दिनकर की उमंग और मस्‍ती में समाजिक मंगलाकांक्षा का प्राधान्‍य है।'' (पृ.296)

स्‍वयं हजारीप्रसाद द्विवेदी, यद्यपि मस्‍ती के दौरवाले इन कवियों की सूची में अनुपस्थित हैं, फिर भी आज का इतिहासकार निस्‍संकोच वहाँ उनका नाम जोड़ सकता है। संयोग से उनकी उसी दौर की एक कविता भी सुलभ है जिसका पहला छंद उल्‍लेखनीय है:

रजनी दिन नित्‍य चला ही किया मैं अनन्‍त की गोद में खेला हुआ;

चिरकाल न वास कहीं भी किया किसी आँधी से नित्‍य धकेला हुआ;

न थका, न रुका,न झुका किसी फक्कड़ बाबा का चेला हुआ;

मद चूता रहा, तन मस्‍त बना,अलबला मैं ऐसा अकेला हुआ।

कहने की आवश्‍यकता नहीं कि इस कविता की सारी पदावली वही है जो किसी-न-किसी रूप में नवीन, भगवतीचरण वर्मा, बच्‍चन और दिनकर में मिलती है।

फक्कड़पन का यह नशा उन दिनों द्विवेदीजी पर इस हद तक चढ़ा था कि अप्रत्‍याक्षित रूप में प्रेमचंद में भी उन्‍हें अपना एक समानधर्मा दिखाई पड़ गया। प्रेमचंद की मृत्‍यु के तीन वर्ष बाद नवंबर 1939 की 'वीणा' में उन्‍होंने 'प्रेमचंद का महत्‍व' शीर्षक एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें बड़ी आत्‍मीयता के साथ वे 'गोदान' के एक 'मौजी' चरित्र मेहता का यह कथन उद्धृत करते हैं: '' मैं भूत की चिंता नहीं करता, भविष्‍य की परवा नहीं करता। भविष्‍य की चिंता हमें कायर बना देती है, भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। हममें जीवनी शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्‍य में फैला देने से वह और भी क्षीण हो जाती है। हम व्‍यर्थ का भार अपने ऊपर लादकर रूढ़ियों और विश्‍वासों तथा इतिहास के मलबे के नीचे दबे पड़े हैं। उठने का नाम ही नहीं लेते। वह सामर्थ्‍य ही नहीं रही। जो शक्ति, जो स्‍फूर्ति मानवधर्म को पूरा करने में लगानी चाहिए थी, सहयोग में, भाईचारे में, वह पुरानी अदावतों का बदला लेने और बाप-दादों का ऋण चुकाने की भेंट हो जाती है।''

प्रेमचंद के संदर्भ में द्विवेदीजी के फक्कड़पन का वह क्रांतिकारी पहलू प्रकट होता है जिसकी पूर्ण अभिव्‍यक्ति कबीर की समीक्षा में होती है। प्रेमचंद का महत्‍व उनकी दृष्टि में क्‍या था, इसका पता उनकी इस घोषणा से चलता है कि '' वे अपने काल में समस्‍त उत्तरी भारत के सर्वश्रेष्‍ठ साहित्‍यकार थे।'' निश्‍चय ही यह घोषणा करते समय गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर भी उनके सामने रहे होंगे; फिर भी यह उल्‍लेखनीय है कि उस समय शायद ही किसी ने इतने अकुंठ भाव से प्रेमचंद के महत्‍व को पहचाना है। द्विवेदीजी ही पहले आदमी हैं जिन्‍होंने हिंदी जगत को यह बतलाया है कि ''वास्‍तव में तुलसीदास और भारतेंदु हरिश्चंद्र के बाद प्रेमचंद के समान सरल और जोरदार हिंदी किसी ने नहीं लिखी।''

उल्‍लेखनीय है कि प्रेमचंद के बारे में लिखते हुए द्विवेदीजी प्राय: उसी शब्‍दावली का प्रयोग करते हैं जो आगे चलकर कबीर के लिए काम आई, गोया वे प्रेमंचद के रूप में आधुनिक कबीर की प्रतिमा गढ़ रहे हो। लिखते हैं: ''दुनिया की सारी जटिलताओं को समझ सकने के कारण ही वे निरीह थे, सरल थे। धार्मिक ढकोसलों को वे ढोंग समझते थे, पर मनुष्‍य को वे सबसे बड़ी वस्‍तु समझते थे। उन्‍होंने ईश्‍वर पर कभी विश्‍वास नहीं किया फिर भी इस युग के साहित्‍यकारों में मानव की सद्वृत्तियों में जैसा अडिग विश्‍वास प्रेमचंद का था वैसा शायद ही किसी और का हो। असल में यह नास्तिकता भी उनके दृढ़ विश्‍वास का कवच थी। वे बुद्धिवादी थे और मनुष्‍य की आनंदिनी वृत्ति पर पूरा विश्‍वास करते थे। 'गोदान' नामक अपने अंतिम उपन्‍यास में अपने एक पात्र के मुँह से मानो वे अपनी बात कह रहे हैं : ''जो वह ईश्‍वर और मोक्ष का चक्‍कर है इस पर तो मुझे हँसी आती है। यह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्‍ठा है, जो हमारी मानवता को नष्‍ट किए डालती है। जहाँ जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्‍वर है और जीवन को सुखी बनाना ही मोक्ष है और उपासना है। ज्ञानी कहता है, होंठों पर मुस्‍कुराहट न आए, आँखों में आँसू न आए। मैं कहता हूँ, गर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते तो तुम मनुष्‍य नहीं पत्‍थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं कोल्‍हू है।'' ऐसे थे प्रेमचंद - जिन्‍होंने ढोंग को कभी बर्दाश्‍त नहीं किया, जिन्‍होंने समाज को सुधारने की बड़ी-बड़ी बातें सुझाई ही नहीं, स्‍वयं उन्‍हें व्‍यवहार में लाए, जो मनसावाचा एक थे, जिनका विनय आत्‍माभिमान का, संकोच महत्‍व का, निर्धनता निर्भीकता का, एकांतप्रियता विश्‍वासानुभूति का और निरीह भाव कठोर कर्तव्‍य का कवच था, जो समाजकी जटिलताओं की तह में जाकर उसकी टीमटाम और भभ्‍भड़पन का पर्दाफाश करने में आनंद पाते थे और जो दरिद्र किसान के अंदर आत्‍मबल का उद्घाटन करने को अपना श्रेष्‍ठ कर्तव्‍य समझते थे; जिन्‍हें कठिनाइयों से जूझने में मजा आता था और जो तरस खानेवाले पर दया की मुस्‍कुराहट बखेर देते थे, जो ढोंग करनेवाले को कसके व्‍यंग्‍य बाण मारते थे और निष्‍कपट मनुष्‍यों के चेरे को जाया करते थे।''

यह है प्रेमचंद का क्रांतिकारी फक्कड़पन जो उन्‍हें कबीर से जोड़ता है क्‍योंकि शायद कबीर से ही वह विरासत में मिला था; पर ध्‍यान देने की बात यह है कि इन दोनों को जोड़नेवाला कौन है? परंपरा के इस अंत:सूत्र को पहचाननेवाला कौन है?

अब यदि द्विवेदीजी के ललित निबंधों और उपन्‍यासों पर दृष्टिगत करें तो फक्कड़पन तथा मस्‍ती के ढेरों प्रमाण मिलेंगे। ''अशोक है कि आज भी उसी मौज है''; ''देवदारु के बार-बार कंपित होते रहने में एक प्रकार की मस्‍ती है; कुटज वैसे तो अदना-सा फूल है पर ऐसा मनस्‍वी और मस्‍त कि ''कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर और झंझा-तूफान को रगड़कर जीने का रस खींच लेता है''; कालिदास का दुलारा शिरीष तो ऐसा है कि ''जब धरती और आसमान जलते रहते हैं तब भी यह हजरत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं और मौज में आठों याम मस्‍त रहते हैं।'' आकस्मिक नहीं कि शिरीष को देखकर द्विवेदीजी को कबीर याद आ जाते हैं और वे बोल उठते हैं : ''कबीर बहुत कुछ इसी शिरीष के समान ही थे, मस्‍त और बेपरवाह, पर सरस और मादक।'' और तो और अपने क्लासिकी संयम के लिए विख्‍यात कालिदास भी इस प्रसंग में याद आए बिना नहीं रहते और द्विवेदीजी को लगता है, ''कालिदास भी जरूर अनासक्‍त योगी रहे होंगे।'' शिरीष के फूल फक्‍कड़ाना मस्‍ती से ही उपज सकते हैं और मेघदूत का काव्‍य उसी प्रकार के अनासक्‍त अनाविल उन्‍मुक्‍त हृदय से उमड़ सकता है।'' मेघदूत का उल्‍लेख यों ही नहीं आया है। आगे चलकर 'मेघदूत : एक पुरानी कहानी' के अंतर्गत 13वें छंद में 'जलद' शब्‍द आते ही द्विवेदीजी को 'फक्कड़पन ' की व्‍याख्‍या के लिए जैसे अवकाश निकल आता है। लिखते हैं : ''मेघ यक्षों की उस जाति का नहीं है, जो केवल संचय करना जानते है; यह तो उन क्षणजन्‍मा मानवों की जाति का है, जो केवल लुटाना जानते हैं - दोनों हाथों से लुटाते हैं, लुटाते हैं, लुटाते हैं! ऐसे फक्कड़ों का क्‍या ठिकाना! अड़े तो अड़ गए , ढले तो ढल गए। मेघ भी उन्‍हीं मस्‍तमौला लोगों की टोली का जीव है। किधर चलने को हुए किधर निकल गए। दुखी कहाँ नहीं है, संतप्‍त किस दिशा में नहीं मिलते? जिसने दुखियों का दु:ख दूर करने का व्रत ले रखा हो, उसका कार्यक्रम क्‍या होगाᣛ! ना, मेघ महशय को रास्‍ता अवश्‍य बता देना चाहिए। पता नहीं ये फक्कड़पन झूमते-झामते-लस्‍टम-पस्‍टम-जब तक अलका पहुँचेंगे तब तक यक्षप्रिया की क्‍या दुर्दशा हो जाए।'' कहाँ मेघ, कहाँ का‍लिदास और कहाँ कबीर! कबीर पर तो योग का प्रभाव था ही, कालिदास भी अनासक्‍त 'योगी' निकल आए।

जब कालिदास का यह हाल हुआ तो घुमक्‍कड़ बाणाभट्ट में तो फक्कड़पर की पूरी गुंजाइश है। सबसे पहले बाण का नामकरण संस्‍कार। ''ऐसे ही कृती पिता का मैं पुत्र था - जन्‍म का आवारा, गप्‍पी, अस्थिरचित और घुमक्कड़। मैं घर से जब निकल भागा था, तो अपने साथ गाँव के अन्‍य छोकरों को भी फोड़ ले गया था। वे सब अंत तक मेरे साथ नहीं रहे, तो भी मैं गाँव में बदनाम तो हो ही गया था। मगध की बोली में 'बंड' पूँछ-कटे बैल को कहते हैं। वहाँ यह कहावत मशहूर है कि 'बंड' आप आप गए, साथ में नौ हाथ का पगहा भी लेते गए। सो लोग मुझे 'बंड' कहने लगे। इसी को बाद में संस्‍कृत शब्‍द 'बाण' में जोड़ा। वैसे मेरा असली नाम दक्ष था।'' कहाँ भोजपुरी 'बंड' और कहा संस्‍कृत 'बाण'! लेकिन जब सर्जनात्‍मक कल्‍पना है, गल्‍प हाँकने का संकल्‍प तो ध्‍वनि विज्ञान क्‍या करेगा? बाण बंड हो गए। 'आत्‍मकथा' में बाण ने बड़ी व्‍यथा के साथ स्‍वीकार किया है कि ''इसी सहानुभूतिमय हृदय ने तो इसे आवारा बना दिया है।'' यह 'सहानुभूति हृदय' आवारापन की ही नहीं, फक्कड़पन की भी कुंजी है। बाणभट्ट में मस्‍ती की यदि कुछ कमी है तो उसकी पूर्ति कवि मित्र धावक (धोई) से हो जाती है, '' जिसकी दुनिया निर्लिप्‍त मस्‍ती की दुनिया है। जिस बात से अन्‍य कवि द्रवित हो जाते हैं उससे भी वह अपनी मस्‍ती का खाद्य निकाल लेता है'' और जिसका विश्‍वास है कि ''कवि बिंधता नहीं, बेधा करता है। अपांग बाण से नहीं, व्‍यंग्य बाण से। '' निर्दयता से पान खाए हुए और पुष्‍पों से सुसज्जित कविवर धावक प्रथम दर्शन में ही अपनी छवि से चौथे दशक के किसी लोकप्रिय गीतकार को मात देते नजर आते हैं।

' चारु चंद्रलेख' के सीदी मौला तो खैर तेरहवीं सदी के एक इतिहास-प्रसिद्ध विद्रोही फक्कड़ चरित्र ही हैं। किंतु 'पुनर्नवा' में दो-दो फक्कड़ प्रकट होते हैं। एक तो संस्‍कृत नाटकों के चिरपरिचित विदूषक माढ़व्‍य शर्मा हैं जो अधिक जीवंत रूप पा सके हैं , दूसरे हैं अटट गँवार सुमेर काका जो द्विवेदीजी के अपने और असली फक्कड़ चरित्र हैं: किसानों के सहज ज्ञान से संपन्‍न , साहसी और हर समय मस्‍त! अंत में जैसे कि फक्कड़ को नायक बनाकर पूरा उपन्‍यास लिखने की आकांक्षा का ही फल है, 'अनामदास का पोथा। ' उपन्‍यास के अंत में 'अनामदास की टिप्‍पणी' से पता चलता है कि ''छांदोग्‍य में एक से एक फक्कड़ विचारक मिलते हैं जो रूढ़ियों के बिल्‍कुल कायल नहीं।'' गाड़ीवान रैन्‍क्‍व को संभवत: इसी विलक्षणता के कारण नायक के रूप में चुना गया है जो जाने क्‍यों हर समय अपनी पीठ खुजलाया करता है। रैक्‍व के फक्कड़पन का इससे बड़ा प्रमाण और क्‍या होगा कि पहली बार उसने राजा को उपदेश देना अस्‍वीकार कर दिया कि अन्‍न और सोना का उपहार भी लौटा दिया। लेकिन दूसरी बार जब राजा अपनी सुंदरी कन्‍या को साथ लेकर फिर गए तो ''फक्कड़ ऋषि प्रसन्‍न हुए और राजा की सुंदरी कन्‍या का मुख अपनी ओर उठाकर बोले कि हे शूद्र, इस सुंदर मुख के कारण तुम मुझे बोलने को बाध्‍य कर रहे हो।''

कहानी निश्‍चय ही दिलचस्‍प है; किंतु जैसा कि आलोचकों ने लक्षित किया है, उपन्‍यास में रैक्‍व का यह फक्कड़ चरित्र एकदम उभर नहीं सका है; एक प्रकार का बालसुलभ भोलापन तो दिखता है, किंतु न वह फक्कड़पन है, न अक्‍खड़पन। यही नहीं बल्कि रैक्‍व के दीक्षागुरु औषस्ति भी छांदोग्‍य के अपने मूल चरित्र को खो बैठते है, जिसके लिए अंत में अनामदास को अपनी टिप्‍पणी में लिखना पड़ा कि ''औषस्तिपाद के प्रसंग मे फक्कड़ और अक्खड़ उषस्ति की कोई भी चर्चा न होना कुछ समझ में न आनेवाली बात है।''

फिर भी द्विवेदीजी ने 'अनामदास का पोथा' में इस अभाव की पूर्ति एक दूसरे चरित्र की अवतारणा से करने की कोशिश की है। उपन्‍यास समाप्‍त होते-होते सहसा एक जटिल मुनि प्रकट हो जाते हैं जो वस्‍तुत: किसी उपनिषद्कालीन ऋषि या मुनि की अपेक्षा मध्‍ययुग के किसी शूद्रजातीय संत के प्रतिरूप प्रतीत होते हैं। रैक्‍व को बताया गया कि वे महात्‍मा सब तरह से विचित्र हैं। ब्राम्‍हण नहीं हैं, क्‍योंकि ब्रह्म या वेद किसी के कायल नहीं है। ये अपने को अनेकांतवादी बताते हैं। कहते हैं, हर आदमी का सत्‍य अपना और निजी होता है। किसी के भी बताए मार्ग पर आँख मूँदकर नहीं चला जा सकता है। हर व्‍यक्त्‍िा का अपना सत्‍य है, उसी की खोज करनी चाहिए। वे अपने श्रम से उत्‍पन्‍न अन्‍न ही ग्रहण करते हैं, किसी का दिया कुछ नहीं लेते। रैक्‍व जब उनसे मिले तो वे घास छील रहे थे। सहायता की प्रार्थना की गई तो पास में पड़े पत्‍थर के क्षुरप्र (खुरपा) की ओर इशारा करके बोले कि बदले में मेरे लिए थोड़ी घास छील देनी होगी। तेज ऐसा कि रैक्‍व की ओर देखा तो लगा कि ''कोई भयंकर उल्‍का उनकी ओर बढ़ी चली आ रही है। '' लेकिन फिर ''ऐसा हँसे जैसे कोई आँधी सनसनाकर बढ़ती चली जा रही हो।'' फिर भी कुल मिलाकर जटिल वे बाहर से ही हैं, भीतर से एकदम सरल बच्‍चों जैसे।

इनसे पहले 'अनामदास का पोथा' में एक और साधु आते हैं, जिनसे जाबाला के गुरु आचार्य औदुंबरायण की भेंट होती है। वे भी यज्ञ के विरोधी हैं, ब्राम्‍हणों के विरोधी आचार्य ने जब उन्‍हें देखा तो महात्‍मा प्राय: निर्वस्‍त्र थे। उनमें एक विचित्र प्रकार का तेज था। ऐसा लगता था कि किसी बिल के द्वार पर मणिधर सर्प ने अपनी मणि उतारकर रख दी है। शरीर उनका काला था, नाक चिपटी, कान बड़े-बड़े चौड़े और ललाट सपाट। उनके निकट जो स्‍त्री - पुरुष बैठे थे वे प्राय: छोटी जाति के लोग थे। सामने आग की धूनी जलाए बैठे थे, उनका सारा शरीर इस धूनी की भस्‍म से पूता हुआ था। पास में एक ताँबे का चिमटा था और एक मिट्टी का टोंटीदार पात्र भी। आचार्य के साथ जिस अक्खड़पन से पेश आए , वह भगा देने के लिए काफी था। अंतत: पसीजे। लगा, भीतर काफी करुणा और कोमलता है। फिर भी जटिलमुनि का-सा फक्कड़पन यहाँ नहीं है।

क्‍या यह आकस्मिक है कि 'अनामदास का पोथा' के ये दोनों फक्कड़ और अक्‍खड़ साधु छोटी जातियों से सबंद्ध हैं और धर्म-कर्म में ब्राम्‍हण विरोधी हैं?

' मेरी जन्‍मभूमि' शीर्षक लेख में द्विवेदीजी ने अपने इलाके के निवासियों के फक्कड़ स्वभाव की चर्चा की है। द्वाबा का यह वह मध्‍यवर्ती भूभाग है जिसे गंगा और सरयू जैसी दो महानदियों का कोप बराबर सहते रहना पड़ा है। ''इस भूभाग का इतिहास ही निरंतर बनते और मिटते रहने का है। एक अजीब प्रकार की मस्‍ती और निर्भयता इन लोगों के चेहरों पर दीखती है।'' क्‍या इस मस्‍ती और निर्भीकता का स्‍त्रोत विपत्ति के इन थपेड़ों में तो नहीं?

बहरहाल अब यदि अशोक, शिरीष, देवदारु, कुटज आदि मस्‍ती में झूमते फूलों और बाणभट्ट, धावक , सीदी मौला, माढव्‍य, सुमेर काका, रैक्‍व, जटिलमुनि आदि फक्कड़ चरित्रों के आलोक में कबीर को देखें तो संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती कि 'कबीर' भी द्विवेदीजी की अन्‍य कल्‍प-सृष्टियों की ही श्रृंखला में एक कड़ी हैं-निश्‍चय ही आलोचना क्षेत्र की एक विशि‍ष्‍ट कल्‍प-सृष्टि! इस आलोचनात्‍मक कल्‍प-सृष्टि का मूल्‍य उसकी 'प्रामाणिकता ' से अधिक अपने रचनाकाल की तात्‍कालिक प्रासंगिकता में है।

वस्‍तुत: बीसवीं सदी के चौथे दशक में विद्रोही फक्कड़पन के ही किसी-न-किसी रूप को लेकर साहित्‍य में प्रकट हुआ था। इसका एक रूप निराला के ' कुकरमुत्ता' (1940) के बड़बोलेपन में है तो दूसरा रूप सांकृत्‍यायन की 'वोल्‍गा से गंगा' (1942) नामक कथाकृति में है जो भारतीय इतिहास की धमाकेदार क्रांतिकारी व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत करती है। इसके साथ ही राहुलजी के घुमक्कड़पन की कहानियों का भी इससे कुछ नाता-रिश्‍ता है। आकस्मिक नहीं है कि इस काल के अनेक उपन्‍यासों के नायक घर-परिवार से मुक्‍त क्रांतिकारी थे। नवीन ने जब यह गाया था कि 'ठाठ फकीराना है अपना, बाघंबर सोहे अपने तम/हम अनिकेतन, हम अनिकेतन' तो वे उस दौर के मिजाज को ही व्‍यक्त कर रहे थे। इतिहासकारों के अनुसार यह काल घोर उथल-पुथल और मंथर का काल था। गांधी-युग के आदर्शवाद का ढाँचा जीवन के हर क्षेत्र में चरमरा उठा था। अनेक राजनीतिक और नैतिक आदर्श संदिग्‍ध हो उठे थे। यह वही काल है जब मार्क्‍स और फ्रायड दोनों एक विचार के साथ भारत के शिक्षित मध्‍यवर्ग को प्रभावित और आंदोलित कर रहे थे। दूसरे महायुद्ध के कारण सामान्‍य जीवन के आर्थिक पक्ष पर जो प्रभाव पड़ा था उससे असुरक्षा की भावना और ज्यादा बढ़ी थी। हिंदू-मुस्लिम एकता की समस्‍या भी स्‍वाधीनता - संग्राम के संदर्भ में अत्‍यंत उग्र हो उठी थी। बच्‍चन की 'मधुशाला' का यह समाधान उस दौर के फक्कड़पन की ही उपज था :''बैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद मेल कराती मधुशाला।'' और ''सौ सुधारकों का करती है काम अकेली मधुशाला। ''

इस दौर के विद्रोह को यदि अपने अतीत से कोई नैतिक समर्थन मिल सकता था तो केवल कबीर से। जिस तरह व्‍यक्तिगत और सामाजिक पाखंड के प्रत्‍येक रूप के विरुद्ध आक्रोश इस दौर में था उसकी प्रतिध्‍वनि कबीर में ही सुनी जा सकती थी। किंतु कुल मिलाकर यह विद्रोह भावात्‍मक और साहित्यिक ही था। विद्रोही कवि और लेखक इस मामले में पूरी तरह सतर्क थे कि उन्‍हें समाज-सुधारक समझने का भ्रम न हो। उन्‍नीसवीं सदी के समाज-सुधारकों की उपदेशात्‍मक भंगिमा और भाषा से इस दौर के साहित्‍य का तेवर साफ अलगाया जा सकता है। अलगाव के लिए उपदेश की शुष्‍कता से बचना आवश्‍यक था। फक्कड़पन का बाना शायद इसी आवश्‍यकता की उपज था।

आकस्मिक नहीं है कि द्विवेदीजी ने कबीर के समाज-सुधारक रूप का खंडन बड़ी दृढ़ता से किया। शुक्‍लजी ने अपने 'इतिहास' में एक तरह से इस बात का समर्थन किया था कि ''पाश्‍चात्‍यों ने इन्‍हें (कबीर आदि निर्गुणिया संतों को) जो 'धर्म सुधारक' की उपाधि दी है'' वह उचित ही है। (पृ.71) । द्विवेदीजी ने संभवत: इसी बात को ध्‍यान में रखते हुए लिखा कि ''जो लोग कबीरदास को हिंदू-मुस्लि‍म धर्मों का सर्व-धर्म समन्‍वयकारी सुधारक मानते हैं वे क्‍या कहते हैं; ठीक समझ में नहीं आता। कबीर का रास्‍ता बहुत साफ था। वे दोनों को शिरसा स्‍वीकार कर समन्‍वय करनेवाले नहीं थे। समस्‍त बाह्याचारों के जंजालों और संस्‍कारों को विध्‍वंस करनेवाले क्रांतिकारी थे। समझौता उनका रास्‍ता नहीं था। इतने बड़े जंजाल को नाहीं कर सकने की क्षमता मामूली आदमी में नहीं हो सकती। (पृ.192)

सारांश यह कि द्विवेदीजी की दृष्टि में कबीर 'सुधारक' नहीं, बल्कि एक 'क्रांतिकारी ' थे। अपनी बात को और स्‍पष्‍ट करते हुए वे एक सिद्धांत के रूप में आगे यह जोड़ते हैं कि ''सबकी विशेषताओं को रखकर मानव-मिलन की साधारण भूमिका नहीं तैयार की जा सकती। जातिगत, कुलगत, धर्मगत, संस्‍कारगत, विश्‍वासगत , शास्‍त्रगत, संप्रदायगत बहुतेरी विशेषताओं के जाल को छिन्‍न करके ही वह आसन तैयार किया जा सकता है जहाँ एक मनुष्‍य दूसरे मनुष्‍य की हैसियत से ही मिलें।'' (पृ. 193)

स्‍पष्‍टत: यह क्रांतिकारी दृष्टिकोण है, जिसमें गांधीवादी 'सार-संग्रह' और'समन्‍वय' के सुधारवादी कार्यक्रम का विरोध निहित है। भारतीय साहित्‍य की यह दूसरी परंपरा है, जो काल प्रवाह में भले ही गौण हो गई हो किंतु क्रांतिकारी परंपरा यही है; और द्विवेदीजी ने 'कबीर' के माध्‍यम से उस क्रांतिकारी परंपरा को पुन: उद्भासित करके ऐतिहासिक कार्य किया है।

निस्संदेह कबीर के क्रांतिकारी रूप को पहचानने में उनके समकालीनों से भी कोई भूल नहीं हुई थी, जिसका प्रमाण है नाभादास के ' भक्‍तमाल' का वह प्रसिद्ध छप्‍पय: 'कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षटदरसनी।' इत्‍यादि। महिमा तो नाभादास ने सभी संतों की बखानी, किंतु 'मुख देखी नाहिन भनी' कबीर के सिवा किसी और के लिए नहीं कहा। नाभादास के बाद कबीर के उस क्रांतिकारी रूप को बीसवीं सदी में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ही पहली बार पहचाना। जरूरी नहीं कि 'फक्कड़पन' की क्रांति की पहचान हो, किंतु इसके साथ यह भी तय है कि चिलम न पाकर आक्रोश व्‍यक्‍त करनेवालों का 'अक्‍खड़पन' क्रांति नहीं है। आज का युग अपने कबीर की प्रतिमा स्‍वयं गढ़ेगा, लेकिन उससे द्विवेदीजी के कबीर की प्रतिमा धूमिल न होगी क्‍योंकि उसमें एक क्रांतिकारी परंपरा की पहचान से उत्‍पन्‍न कालजयी कांति है।

आज के राजनीति-प्रधान युग में यदि द्विवेदीजी के कबीर की क्रांतिकारिता में शंका होगी तो इस कारण कि उन्‍होंने अपने जमाने की राजसत्‍ता को कोई चुनौती नहीं दी। यह सही है कि द्विवेदीजी ने अपनी पुस्‍तक में उस किंवदंती का जिक्र नहीं किया है जिसके अनुसार कबीर को सिकंदर लोदी के कोप के कारण काशी छोड़ना पड़ा था। किंतु उस किंवदंती की प्रामाणिकता पर प्राय: अधिकांश विद्वानों ने संदेह प्रकट किया है। वैसे, यह विचारणीय है कि प्राय: सभी प्रमुख भक्‍तों के बारे में इस प्रकार की किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए तुलसीदास के विषय में यह किंवदंती है कि अकबर ने मिलने के लिए बुलाया, पर बाबा नहीं गए। नाराज होकर बादशाह ने उन्‍हें कैद करवा दिया। इस पर हनुमानजी का बंदर सेना ने इतना उपद्रव किया कि तुलसीदास को रिहा करने का हुक्‍म देना पड़ा। संतों के बारे में ये किंवदंतियाँ कब बनीं और इनके पीछे कौन-सी मनोवृत्ति थी, इस पर शोध की आवश्‍यकता है।

इधर कुछ उत्‍साहपरायण पंडित तुलसीदास - जैसे भक्‍तों की रचनाओं से दो-चार पंक्तियाँ निकालकर यह साबित करने की कोशि‍श करते पाए जाते हैं कि तुलसीदास अपने जमाने की राजसत्ता के विरोधी थे। ये प्रयास वस्‍तुत: उन किंवदंतियों की ही परंपरा में आते हैं। ये प्रयास मध्‍ययुगीन संतों और भक्‍तों के मुख्‍य कथ्‍य के प्रति अपनी अवज्ञा सूचित करने के साथ ही मध्‍ययुगीन भारतीय समाज के मुख्‍य अंतर्विरोध के प्रति भी घोर अज्ञान की सूचना देते हैं। राजसत्ता भक्‍तों के लिए सर्वथा उपेक्षा की वस्‍तु थी - उसके प्रति भक्‍तों के मन में न किसी प्रकार की भक्त्‍िा का भाव था, न विरोध का। यह आवश्‍यक भी न था। क्‍योंकि साधारण जनता के जिन दुखों से भक्‍त कवि दुखी थे उनका सीधा संबंध आगरा या दिल्‍ली के तख्‍त पर बैठे बादशाह से उतना न था, जितना अपने गाँव के उस समाज से जिसका नियमन जातिधर्म के परंपरागत नियमों से होता था जिसमें राजसत्ता के स्‍थानीय प्रतिनि‍धि गाँव के मालिकों के सहयोग से दमनकारी भूमिका निभाते थे। इस ग्रामीण व्‍यवस्‍था में, जहाँ परंपरागत जातिधर्म जीवन के समस्‍त क्रिया-कलापों का नियामक था, सरकार की हैसियत एक बाहरी लुटेरे से अधिक न थी, जिसे बहुत कुछ अनावश्‍यक या फालतू मानकर भी काम चलाया जा सकता था। ऐसी स्थिति में सरकार का विरोध विशेष अर्थ नहीं रखता। मुख्‍य शत्रु जबकि अपने अंदर ही हो तो विरोध का लक्ष्‍य स्‍वभावत: वहीं होगा और चूँकि यह जातिव्‍यवस्‍था धार्मिक विधि-विधानों के रूप में ही समाज का नियमन करती रही है, इसलिए दलित जातियों का असंतोष और आक्रोश भी प्राय: धर्म के ही रूप में प्रकट होता रहा है। इतने असंतोष और आक्रोश के बाद भी यह जाति-व्‍यवस्‍था इतने दीर्घकाल तक बनी रही तो इसका कारण यह है कि इसके अंदर हर विद्रोह को अंतर्मुक्‍त करने की क्षमता रही है; एक साथ ही यह इतनी कठोर और इतनी लचीली रही है कि इसे चुनौती देनेवाले धार्मिक आंदोलनों के अनुयायी भी अंतत: एक जाति बनाकर इसकी एक इकाई के रूप में अंतर्भुक्‍त हो गए ।

इस जाति-व्‍यवस्‍था के शिकार व्‍यक्ति जिस प्रकार अपनी अधोगति को स्‍वेच्‍छा से स्‍वीकार करते हैं और जिसमें न तो क्रोध का कोई निश्चित लक्ष्‍य दृष्टिगत होता है, न दुर्गति के लिए उत्तरदायी किसी निश्चित बिंदु का पता चलता है, उसे देखकर यदि बैरिंगटन मूर जैसा समाजशास्‍त्री यह कहे कि किसी पाश्‍चात्‍य व्‍यक्ति को वह काफ्का के संसार का प्रचंड व्‍यंग्‍यचित्र प्रतीत होता है, तो कोई आश्‍चर्य नहीं।

कबीर जैसे संत का विरोध संभवत: इसी सामंती-पुरोहिती के दमन के चक्र से था, जिसमें जनसाधारण हिंदू-मुसलमान दोनों ही पिस रहे थे। यह दमन चक्र किसी राजनीतिक अत्‍याचार से कितना अधिक और अमानुषिक है, इसे आज स्‍वाधीन भारत के किसी क्रांतिकारी को बतलाने की जरूरत नहीं है। इसलिए यदि कबीर ने अपने जमाने के किसी सुल्‍तान को छोड़कर सामंती-पुरोहिती शक्तियों के खिलाफ आवाज उठाई तो सिर्फ इसी कारण उनकी क्रांतिकारिता कम नहीं हो जाती। इसलिए द्विवेदीजी के कबीर पर उँगली उठाने से पहले आज के क्रांतिकारियों को अपने गरेबाँ में हाथ डालकर देखना चाहिए।

[1982]

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