[ २३ नवंबर
को शील जी की पुण्यतिथि थी । इस अवसर पर कुछ बातें जो अक्सर ऐसे अवसर पर नहीं कही
जातीं ।]
शील का नाम आते ही उनकी जो तस्वीर उभरती है वह बहुत मनोरंजक है । दिल्ली
के मालरोड के पास के तिमारपुर इलाके में स्थित सत्यवती कालेज में जनवादी लेखक
सम्मेलन हो रहा था । यह जलेस बनने के पहले की बात है, सातवें दशक के मध्य में । कि देखते हैं
शील जी घोड़े तांगे पर दोनों हाथ हर्षोल्लास में उठाए चले आ रहे हैं आसबाब समेत ।
वाह क्या दॄश्य है ? दिल्ली में घोड़े तांगे की सवारी । पता
चला कि स्टेशन से खासतौर पर लेकर आए हैं । जनवादी सम्मेलन जा रहे हैं, कोई मजाक है क्या ?
इसकी जोड़ का कोई और वाकया उदाहरण स्वरूप देना मुश्किल है, है भी तो लीबिया के कर्नल गद्दाफी का,
जिसके शील जी के संदर्भ में उल्लेख से बहुतों की भृकुटियाँ तन सकती
हैं कि कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली !
अब तनें तो तनें हमें तो राजा भोज के सामने गंगू तेली का ठाठ हमेशा ही भाया
है । मैं 1989 में बल्गारिया में था जब गुट-निरपेक्ष देशों का सम्मेलन समीप के
देश यूगोस्लाविया की राजधानी बेल्ग्राद
में हुआ जिसे लेकर काफी दिनों तक दुनिया भर में खूब चर्चा रही । चर्चा का केंद्र थे लीबिया के रंगीन तबीयत नेता
कर्नल गद्दाफी । पता चला कि गद्दाफी अपने ऊँटों और टैंटों के पूरे लश्कर के साथ
आए और प्रतिनिधियों या राज्याध्यक्षों के
लिए निश्चित किए होटलों में न ठहरकर शहर के बाहर एक खुले स्थान में अपने टैंट लगाए,
अपने ऊँट बांधे । लोगों को चाहे यह तमाशा लगा हो लेकिन सुनकर मुझे
अच्छा लगा । आखिर यह भी क्या सम्मेलन हुआ कि राज्याध्यक्ष हवाई जहाजों में आएं,
चुपचाप होटलों में ठहरें, सभा-भवन में बैठ कुछ
बातचीत करें और वापस अपने-अपने देश चले जाएं । लोगों को इससे क्या लेना-देना ।
किसी कबीले ने मेहमान के रूप में बुलाया है तो पूरे बंदोबस्त के साथ जाना होगा,
डेरा लगाना होगा । लोग-बाग भी तो देखें किसी दूसरे कबीले का सरदार
आया है । नेताओं को चाहे जो लगा हो लेकिन इसमें संदेह नहीं कि बेलग्राद के लोगों
को गद्दाफी के डेरे से मालुम हुआ होगा कि बाहर के कबीले का सरदार शहर की ड्यौढ़ी पर
डेरा डाले पड़ा है । ठेठ देशी वेष-भूषा, रहन सहन, अंदाज ।
शील जी का संस्मरण लिखते वक्त यह बस अनायास याद आ गया । इसमें ज्यादा दूर
तक तुलना की जरूरत नहीं है । गद्दाफी गद्दफी थे और शील जी शील, हिंदी का एक स्वाभिमानी कवि जिसने
जिंदगी भर जीवन के व्यक्तिगत त्रासदियों और जीवन के अभावों में काटकर भी कभी चेहरे
पर शिकन तक न आने दी ।
ऐसे उल्लास की अभिव्यक्ति वही कर सकता था जिसने दशकों से साहित्य में
जनवाद के सपने देखे हों और जिसकी सुगबुगाहट से वह रोमांचित हो रहा हो । कोई नहीं
जान सकता था उस उल्लास के पीछे की वह हकीकत जिसमें इस वयोवृद्ध अवस्था में एक कवि
रास्ते के खर्चे का जुगाड़ कर स्वयं बोरिया-बिस्तर बांध, दिल्ली स्टेशन पर घोड़े ताँगे के लिए
भागमभाग कर यहाँ पहुँचा होगा । इसी जिजीविषा का नाम शील है ।
शील को उतने लोग नहीं जानते जितने लोग नागार्जुन, शमशेर, केदार
अग्रवाल, त्रिलोचन और मुक्तिबोध को जानते हैं । हालांकि थे
सब समकालीन और प्रगतिशील ही । बल्कि इसके लिए तो कहना होगा कि शील विचारों से
जितने खांटी प्रगतिशील और जनवादी थे, उतने बाकी नहीं । बाकी
की प्रातिशीलता और जनवाद साहित्यिक ज्यादा थे, विचारधारात्मक
कम । उसमें प्रतिबद्धता का कोटेशन ज्यादा था लोगों के बीच खड़े होकर कंधे से कंधा
मिलाकर संघर्ष करने का कम । बाकी में खासा बौद्धिक और साहित्यिक लचीलापन था । मतलब
यह कि उनकी मोटामोटी छवि तो प्रगतिशील की बनी रहती थी लेकिन व्यवहार में उनसे कोई
उम्मीद नहीं होती थी । जरूरत पड़ी तो
वामपंथ या जनवाद पर भी दो वार कर डाले । वामपंथ के एक खेमे से दूसरे पर वार साधने
का सिलसिला तो चलता ही रहता था । मसलन सी.पी.आई. पर वार साधना होता तो सी.पी.एम.
के तर्कों का प्रयोग कर लेते, एम. पर बिफरते तो सी.पी.एम.एल.
हो जाते । यानी व्यवहार में ऐसा खुलापन दिखता कि उन्हें किसी वामपंथी पार्टी से
नत्थी करके नहीं देखा जा सकता था । इसलिए कई वामपंथ विरोधी लोग भी साहित्यिक
तकाजों से उनकी प्रशंसा की गुंजाइश निकाल लेते । पहले शमशेर और त्रिलोचन की
प्रगतिशील खेमे से बाहर के, यहां तक कि खासे विरोधी लोगों
द्वारा प्रशंसा और बाद में मुक्तिबोध की प्रशंसा इसी का परिणाम था । कई बार तो ऐसा
माहौल बनता है जिसमें लगता है वामपंथियों को त्रिलोचन, शमशेर
और मुक्तिबोध को अपने खेमे का सिद्ध करने के लिए वैसे ही संघर्ष करना पड़ेगा जैसे
भाजपा और कांग्रेस में इन दिनों कई महापुरुषों को लेकर चल रहा है ।
शील इससे अलग थे । एक तो उन्होंने अपनी वामपंथी आस्था को ठोस पार्टीगत आधार
दिए रखा जिससे उसमें अमूर्तता की गुंजाइश ही नहीं बचती थी । जब तक सी.पी.आई. में
रहे तब तक वहां रहे । जब पार्टी टूट कर सी.पी.एम. बनी तो वे एम. में चले गए । उसके
बाद मार्क्सवाद, जनवाद,
रणनीति और कार्यनीति सब पार्टी से ही तय होते । कोई सवाल नहीं,
मौलिकता नहीं, संपूर्ण समर्पण ।
इसके व्यावहारिक कारण रहे । शील जहां भी रहते (गांव में या शहर में या
दोस्तों में), वहां
व्यवहारिक राजनीति भी करते । उसमें यह बताना जरूरी होता कि "पार्टनर तुम्हारी
पालिटिक्स क्या है ?" मुक्तिबोध का यह फिकरा हिन्दी में
चला तो बहुत लेकिन व्यवहार में शील जैसे लोगों ने ही उसे उतारा । शील जी कानपुर के
पास के एक ऐसे गाँव में अधिकांश समय रहे जहाँ जमींदार का शासन चलता था । ब्राह्मण
होते हुए भी हल चलाते थे । जमींदार के खिलाफ गाँव वालों को गोलबंद करते और उसके
अन्याय सहते । बरसों तक शील जी ने गाँव को शहर से जोड़ने वाली सड़क के लिए संघर्ष
किया क्योंकि उनका मानना था कि रोशनी और नई चेतना इसी से चलकर गाँव में आएगी ।
गाँव के जमींदार ने उनके इरादे को समझ लिया और उन्हें पहले तो अपने लठैतों से
त्रस्त किया , फिर गाँव-निकाला दे दिया । इस तरह वे जीवन भर
जमीनी स्तर पर पार्टी के कामों को अपनी क्षमता भर रूपांतरित करने के कामों में लगे
रहे और साहित्य में प्रवृत्त सभी जनपक्षधर लेखकों से अनुरोध करते रहे –
“ क्षेत्र क्षीण हो जाए न साथी--
हल की मूठ गहो!“
मतलब यह कि जनपक्षधर होने के लिए केवल विचारधारात्मक प्रतिबद्धता, केवल भाषा-संरचना-शब्दों की पारंगतता और
उसका जादुई प्रभाव ही काफी नहीं है, कमकर जीवन के यथार्थ में
वास्तविक भागीदारी भी जरूरी है, अन्यथा जीवन की आरामतलब
मध्यवर्गीय स्थितियाँ और आकांक्षाएं कब विचार और रचना पर हावी हो जाएं कहना
मुश्किल है । हावी न भी हों, शब्द के प्रभाव को क्षीण तो कर
ही देंगी ।खैर ।
साहित्य में आमतौर पर ऐसे वामपंथ को बेहद पसंद किया जाता है जिसमें लेबल
तो वामपंथ का रहे लेकिन व्यावहारिक स्तर पर कोई ठोस लगाव न दिखे । इस तरह विचार एक
शुचिता धारण कर लेता है और व्यवहार में उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है । अगर वह ठोस
रूप ले ले तो ऐसा करना लेखक को शोभनीय नहीं माना जाता । दुनिया में ऐसे तमाम लेखक
अपनी बिरादरी की नजरों में बहुत सम्मानजनक दर्जा नहीं पा पाए जिन्होंने अपनी आस्था
को ठोस राजनीतिक आधार देने की कोशिश की । स्वयं हमारी हिंदी में जन सरोकारों से
गहरे जुड़े कवियों और कविता को “लोक” में, “आंचलिकता” में, गीत में रिड्यूस कर ऐसे काव्य मुहावरे को
वरीयता दी गई जो अपने भाषा-भाव में लगभग लोकोत्तर, भाषा-भाव
में परिनिष्ठित और कुलीन हो । ऐसे कई दर्जन कवि होंगे जिन्हें अपनी ठोस
प्रतिबद्धताओं के कारण कविता के वर्जित प्रदेश में प्रवेश की भी इजाजत नहीं है ।
शील सीधे आदमी थे और अन्त तक वामपंथी लेखकों के राजनीतिक कच्चेपन, निराधारपन और अवसरवादिता पर आश्चर्य
करते रहे । वे यह मानकर चलते कि अधकचरापन या अवसरवाद प्रशंसा का नहीं, निन्दा का विषय होना चाहिए । लेकिन साहित्य का सोच उनसे एकदम विपरीत था और
इसीलिए उनकी उपेक्षा होती रही, यह बात आखिर तक उनकी समझ में
नहीं आई । खैर जो साहित्य ने उनका किया वह साहित्य जाने और इससे उनका जो बना-बिगड़ा
वह वे जानें ।
यहां केवल इतना बताना था कि शील जी को बाकी समकालीन प्रगतिशीलों की तुलना
में कम लोग जानते और मानते हैं । और इस उपेक्षा के ठोस साहित्येतर कारण हैं इसलिए
लगा कि इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए । वैसे भी साहित्य में उपेक्षितों के प्रति
सहानुभूति का जज्बा केवल रवीन्द्रनाथ टैगोर के आह्वान से ही शुरू नहीं हुआ है
जिसके बाद तो क्या लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला, क्या गौतम की पत्नी यशोधरा और क्या मार्क्स की पत्नी जैनी,
क्या रावण और उसका कुल, सबके प्रति सहानुभूति
दिखने लगी । साहित्य की प्रकॄति में ही यह उपेक्षित प्रेम रहा है । साहित्य और
साहित्यकार स्वयं अपने को उपेक्षित मानकर चलते हैं तो भला उपेक्षितों से सहानुभूति
क्यों नहीं होगी । इसलिए शील जैसे लोगों का जिक्र आने लगा तो स्वाभाविक ही है ।
शील जी से परिचय, दोस्ती और जीवन पर्यन्त चलने वाली आत्मीयता के पीछे यह उपेक्षितों वाला
मसला नहीं था । जिस समय उनसे परिचय हुआ उस समय तो हमें यह भी नहीं मालुम था कि
प्रसिद्धि और उपेक्षा होती क्या है ।
हम लोग दिल्ली विश्वविद्यालय में नए-नए अध्यापक हो गए थे और विभाग में
लगभग युद्ध-विराम की स्थिति थी । कुछ लिखना-पढ़ना शुरू हो गया था । मेरे साथ पढ़ाने
वालों में कानपुर के एक ललित शुक्ल भी थे जो साहित्य की पत्रिका निकालते थे और
कविता लिखते थे । शील जी के बहुत आत्मीय । एक दिन मुझे साथ लेकर राजेन्द्रनगर किसी
से मिलाने ले गए । रास्ते में बताया कि शील जी से मिलना है जो इन दिनों आकाशवाणी
के लिए 1857 पर काम कर रहे हैं । साहित्यकार हैं, यह भी बताया । मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता था ।
राजेन्द्रनगर में इकमंजिली बैरकों में एक किराए के कमरे में शील जी से
मुलाकात हुई । वे ऐसे गले मिले जैसे वर्षों से परिचित हों और लम्बे अन्तराल के बाद
मिल रहे हों । वे हम सबको (यानी विश्वविद्यालय में लगे सब नए कामरेडों को ) जानते
थे । यह परिचय पार्टी से उन्होंने लिया होगा । एक तो नया लेखक, ऊपर से पार्टी का सदस्य, इससे बढ़कर और कोई बात उनके लिए हो नहीं सकती थी । वे मुझे कामरेड ही
बुलाते रहे ।
वे बहुत ही सादा थे । बच्चों जैसी ऊर्जा और उत्सुकता उनके सुनने में, कहने में और करने में दिखती थी ।
उन्होंने फटाफट स्टोव पर चाय बनाई और हमे दी । दौड़कर गए और साथ की दुकान से कुछ
बिस्कुट ले आए । जब विदा होने लगे तो जल्दी-जल्दी उन्होंने कपड़े बदले और हमें
छोड़ने बस स्टाप तक आए ।
एक सहज, सरल,
हंसमुख, निश्छल आदमी की छाप ।
इसके बाद तो मुलाकातों और बातों का सिलसिला चल निकला । उन्हीं में
उन्होंने वे तमाम किस्से कई बार दोहराए जिन्हें मैं कुछ और लोगों से भी सुन चुका
था । मसलन पॄथ्वी थियेटर से उनका जुड़ाव और पॄथ्वी थियेटर द्वारा उनके
"किसान" नाटक के देश-विदेश में लगभग 700 प्रदर्शन । पृथ्वी थियेटर मंडली
में गीताबाली (या शायद गीतादत्त) से उनके प्रेम की पींगें । दो-तीन फिल्मों में
चेहरा बेचने की कहानी । फिल्मी गीतकार कवि शैलेन्द्र के साथ मंच के किस्से । और भी
ऐसे तमाम किस्से वे खूब विस्तार से सुनाते और बेहद भावुक हो जाते । कई बार कोई
कामरेड कुछ चुटकी लेता तो नाराज हो जाते । मुझे याद है एक बार कामरेड सव्यसाची ने
गीताबाली (या शायद गीतादत्त) के प्रति उनकी भावना को लेकर कुछ मजाक किया तो शील
जी की आँखों से आँसू बहने लगे । हम लोगों
की अपनी गलती का अहसास हुआ । यह अश्रुधार केवल गीताबाली (या शायद गीतादत्त) के प्रेम
की असफलता को लेकर दिखती थी लेकिन इसमें उनके व्यक्तिगत जीवन की न जाने कितनी
त्रासदियाँ और दुख रहे होंगे जिन्हें उन्होंने हमेशा अंदर ही दबाए रखा । अब यह
प्रेम भी कितना प्लैटोनिक या इकतरफा होगा कहना मुश्किल है । लेकिन उनके पास ऐसी ही
तो दस-बीस खूबसूरत कहानियाँ थीं जीवन की । मुझे उनके अपने परिवार की पक्की जानकारी
नहीं है लेकिन कई बार वे अपने जेल में
होने के दौरान अभावों के बीच घर में हुई त्रासदियों का जिक्र करते थे ।
आदर्शवादी मन यही समझता कि असल चीज है मकसद । उसमें सफल हों न हों, कुछ मिले न मिले के पैमाने अर्थहीन हैं
। लेकिन शील जी जैसे व्यक्ति को भी इन सवालों ने कितना विचलित किया है यह अक्सर
सामने आ जाता । साहित्य में मिली उपेक्षा से उनमें प्रसिद्धि की ललक और बढ़ गई थी ।
कई बार तो इसमें आत्ममुग्धता की झलक मिलती । वे ज्यादातर अपनी रचनाओं पर बात करते,
उनपर किसने क्या लिखा और क्या नहीं लिखा, इसकी
बात करते और इतनी बात करते कि कोई भी उससे ऊब जाय । अज्ञेय ने कटूक्ति में कहीं
लिखा होगा कि ‘अब प्रगतिशील में से प्रगति तो गायब हो गया है,
बस शील रह गया है ।‘ शील जी समझते कि अज्ञेय
ने यह उनके बारे में कहा है जिसका अर्थ है कि प्रगतिशीलता अब पार्टी साहित्य में
बदल गई है । भले ही अज्ञेय ने संकीर्णता और सपाटता दिखाने के लिए यह कहा हो जैसा
विजयदेव नारायण साही ने अपने प्रसिद्ध लेख “मार्क्सवादी
आलोचना और उसकी कम्युनिस्ट परिणति” में दिखाया था, लेकिन शील जी इसे अपनी प्रशंसा के रूप में लेते ।
साहित्य का उनका संसार शील केन्द्रित हो गया था । इससे उनके शानदार
प्राकॄतिक व्यक्तित्व में ऐसी विकॄतियां पैदा हो गई थीं जो उसकी गरिमा को कमतर
करती थीं । इससे तो यही लगता है कि न तो प्रसिद्धि किसी को कुछ देती है, न उसका अभाव ही आपके व्यक्तित्व में कुछ
जोड़ता है । दोनों कुछ विकॄतियां ही पैदा करते हैं शायद । इसलिए कि दोनों
अप्राकॄतिक हैं और अप्राकॄतिक प्रभाव पैदा करते हैं ।
उन्हें लगता कि इधर-उधर सभा-गोष्ठियों में आने-जाने से, लेखक संगठन के पदों पर बने रहने से एक
लेखक के रूप में उनका मूल्य और मूल्यांकन बढ़ेगा । इसलिए वे कहीं भी हो रहे कार्यक्रम
की सूचना मिलते ही उसके लिए दौड़ पड़ते । वह कार्यक्रम उनके काम का है या नहीं,
इसकी कोई परवाह नहीं । इसके लिए कई-कई दिन लम्बी यात्राओं पर निकल
पड़ते । आने-जाने का यह सिलसिला इतना बढ़ा कि कई बार तो कार्यक्रम के संयोजक उनको
सूचना तक नहीं भेजते थे ।
१९८२ में जब जनवादी लेखक संघ का गठन हुआ तो शील जी कई अन्य वरिष्ठ लेखकों
की तरह उसके उपाध्यक्ष बने । संगठन में यह ऐसा औपचारिक पद था जिसके लिए संख्या
एकाधिक थी जिसका मकसद ही था संगठन में अनेक वरिष्ठ लेखकों को जोड़े रखना । यह बस एक
औपचारिक पद ही था । उन लोगों से यह अपेक्षा नहीं थी कि वे संगठन की कार्यकारिणी या
अन्य बैठकों में वे भाग लें ही । कई उपाधयक्ष थे जो एक भी बार संगठन की बैठक में
नहीं आए । लेकिन शील जी हर बैठक में पहुंचना अपना जरूरी कर्तव्य-कर्म समझते ।
जनवादी लेखक संगठन ने भी बाद में उन्हें कहना शुरू किया कि संगठन की हर बैठक में
उनका आना जरूरी नहीं है । उनका उपाध्यक्ष का पद केवल औपचारिक है । लेकिन वे नहीं
माने और हर जगह आते-जाते रहे । लगता वे कहीं भी निकल पड़ने के लिए हमेशा बिस्तर बांधे प्लेटफार्म पर बैठे
रहते । कहीं से खबर मिली नहीं कि गाड़ी में चढ़े नहीं । और बिस्तर भी ऐसा-वैसा नहीं
पूरा भरा-पूरा । एक बड़ा सा होलडाल जिसमें एक गद्दा, सर्दियों में रजाई या फिर चादरें, तकिया
। एक बड़ा अटैची, एक कंधे वाला थैला, एक
किताबों का बंडल । जब वे पहुंचते तो लगता कि पूरा महीना रहेंगे । मेरे घर जब
स्कूटर से इस साजो-सामान के साथ वे उतरते तो लोग घबरा ही जाते कि न जाने इस बार
कितने दिन डेरा डलेगा । शहरी जिन्दगी और गॄहस्थ जीवन की मजबूरियां ।
लेकिन उसका दूसरा पहलू था कि वे कितनी आसानी से घर-गृहस्थी में एक
पारिवारिक बुजुर्ग की हैसियत बना लेते, पत्नी से बातचीत, खाना बनाने में
सहयोग, बाजार से सब्जी-सामान लाना, बच्चों
को पार्क में ले जाकर घुमाना-फिराना जैसे घर के कामों का वे जिम्मा ले लेते ।
इसमें एक बार का उनका रहना तो अविस्मरणीय है । शील जी आए हुए थे और घर में दूसरी
संतान के क्रम में पत्नी विजय को दस दिन के लिए अस्पताल में रहना था । मैं घर में
अकेला चार साल के बेटे के साथ था । शील जी ने घर की सारी जिम्मेदारियाँ सँभाल लीं
और मुझे कहा कि मैं विजय के पास अस्पताल में ही रहूँ, घर की
चिंता की जरूरत नहीं है । वे छोटे बच्चे की देखभाल करते, घर
की साज-सफाई का प्रबंध करते, खाना बनाते और मुझे दो बार
बुलाकर अस्पताल ले जाने के लिए देते, बच्चे का खयाल रखते ।
जब तक हम अस्पताल से बच्ची को लेकर घर नहीं आ गए शील जी ने सब कुछ सँभाले रखा । यह
क्या कभी जिंदगी में भुलाया जा सकता है ! अकेली यह बात ही उनके व्यक्तित्व को
दर्शाने के लिए काफी होती ।
मुझे उनके यात्रा प्रेम के कुछ
ठोस कारण नजर आते । उनमें से तीन-चार तो बिल्कुल स्पष्ट । स्वतन्त्रता सेनानी होने
के कारण उन्हें भारत सरकार ने प्रथम श्रेणी का सीमा रहित एक पास दे दिया था जिसमें
वे एक सहायक लेकर चाहे जितनी यात्राएं कर सकते थे । एक तो यह । दूसरे, वे कानपुर में अकेले ही रहते थे जहां
खाना बनाने से लेकर चौका-बुहार, खरीद-फरोख्त,धुलाई-सिलाई सब बन्दोबस्त उन्हें खुद ही करना पड़ता । वैसे भी अकेलापन कोई
सुखद स्थिति तो है नहीं । इसलिए वे अकेलेपन से मुक्त होने के लिए कहीं भी निकल
पड़ते । बाहर निकलेंगे तो डिब्बे में, रास्ते में, नई जगहों में लोगों से मिलन होगा । वे आम लोगों से मित्रवत बात करते और
शीघ्र ही घुलमिल जाते थे । यह भी उन्हें लगता कि सभा-गोष्ठियों में रहने से उनपर
लोगों का ध्यान बना रहेगा और साहित्य में उनकी उपेक्षा नहीं होगी । और कहीं यह भी
कि जितने दिन बाहर रहेंगे दवा-दारू का इन्तजाम भी होता ही रहेगा ।
यात्राओं ने कई अप्राकॄतिक चीजें पैदा कीं या शायद उन्हें बढ़ावा दिया । जो
भी हो, यह बस है सो है । इसका कुछ किया नहीं जा
सकता । इनमें से एक विनाशकारी प्रभाव था मदिरापान की लत । पान तो ठीक लेकिन उसकी
अति तो स्वास्थ्य को ही बिगाड़ देती है । आर्थिक अभावों से भरे जीवन में भी वे इस
आदत से इतने मजबूर थे कि भोजन का प्रबन्ध हो न हो, शराब का
जुगाड़ जरूर होना चाहिए । उसके बिना बेचैन हो जाते । मैंने एक बार उनसे कहा कि घर
में सब होते हैं इसलिए वे मदिरा पान से बचें तो अच्छा है ।
वे बहुत संवेदनशील थे इन मामलों में और अपने कारण किसी को होने वाली
असुविधा के बारे में सोच भी नहीं सकते थे
। दिल्ली के टैगोर पार्क का हमारा घर देश भर के लेखकों का अड्डा था ।
जनवादी लेखक संघ बनने के बाद पहली कार्यकारिणी की दो-दिवसीय बैठक इसी घर में हुई, जिसमें १५ लेखकों का साथ रहना-सहना हुआ
। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब किसी का आगमन नहीं होता या लंबी गोष्ठी नहीं जमती ।
इसी में मैंने देखा था कि अनेक लेखक घर-गिरस्ती की परवाह किए बिना ऐसा व्यवहार
करते कि बच्चे तक बाद में ऐतराज जताएं । शील इस मामले में महादेव साहा, भैरव प्रसाद गुप्त, चंद्रबली सिंह, सुधीश पचौरी जैसे उन लेखकों की श्रेणी में थे जो परिवार की छोटी-से-छोटी
असुविधा का खयाल रखते ।
फिर कभी घर में मदिरा लेकर नहीं आए ।
एक बार की बात है । वे आए तो मेज पर दो बड़ी-बड़ी आयुर्वेदिक बोतलें रख लीं । थोड़ी-थोड़ी देर में
ग्लास से ले लेते । पूछने पर बताया कि दिल की बीमारी इतनी बढ़ गई है कि औषधि ज्यादा
मात्रा में और जल्दी-जल्दी लेने की हिदायत है । एक-दो रोज बाद मुझे उत्सुकता हुई
कि ऐसी कौन सी औषधि है जो दिन में पूरी बोतल ही खत्म करनी होती है । कुछ मित्रों
से पूछने पर मालुम हुआ कि आयुर्वेद ने द्राक्षासव जैसा मदिरा का एक विकल्प तैयार
किया है जिसका असर बराबर ही होता है और पियक्कड़ लोग 'ड्राई डेज' में
मजबूरी में उसे ही खरीद कर पीते हैं ।
इसके बाद से शील जी की यह ट्रिक भी बन्द हो गई । लेकिन यह आदत उनके प्राण
के साथ ही गई ।
शील के लेखन के बारे में लगभग खेमेबन्दी की हालत है । एम. से जुड़े
जनवादियों के लिए शील न केवल लेखकीय प्रतिबद्धता के श्रेष्ठ उदाहरण हैं बल्कि उनका
लेखन भी सही अर्थों में जनवादी बन पड़ा है । दूसरी ओर साहित्यिक मूल्यवत्ता के आधार
पर मूल्यांकन करने वाले प्रगतिशीलों का ऐसा दल है जो शील को कवि मानने के लिए भी
तैयार नहीं है । प्रगतिशील कवियों के बीच से किसी को उठाने-गिराने का धंधा करने
वाले कुछेक पार्टीबाज आलोचकों ने खुले आम शील को कवि न मानने की बात कही । यह दुखद
प्रसंग है, भला
शील जी जैसे अंडरवैल्यूड लेखक से किसी प्रतिष्ठित लेखक की श्रेष्ठता को क्या खतरा
हो सकता था !
दलों के आधार पर लेखक के मूल्यांकन के ये अच्छे उदाहरण हैं और यह कहने में
कोई संकोच नहीं है कि आज भी यह सब चलता है ।
मानने-न-मानने वाली यह बहस जब तेज हुई तो कुछ लोगों ने रामविलास शर्मा से
पूछा कि उनकी क्या राय है । शर्मा जी ने कहा कि "देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल" के लेखक को जो कवि
न माने उसकी साहित्यिक समझ पर सवाल उठाना चाहिए । इस गीत के आधार पर उन्हें कवि या
बड़ा कवि माना जा सकता है या नहीं, यह विवादास्पद बना दिया
गया । तर्क था कि इस गीत के साथ गान तो जुड़ा ही है साथ ही बहुत से अन्य अनुसंग भी
जुड़े हैं - जैसे यह कि नेहरू ने आजादी के बाद यह गीत गाने को कहा, कि इसमें बहुत `पापुलिस्ट' सेंटिमेंट्स
हैं । इस आधार पर तो लता मंगेश्कर द्वारा गाया गया देशभक्ति पूर्ण गीत "ऐ
मेरे वतन के लोगो" भी उत्तम काव्य मान लिया जाना चाहिए । और भी ऐसा बहुत कुछ
है जो साहित्येतर कारणों से चल रहा है ।
लेकिन इस गीत के आधार पर कुछ फैसला न भी किया जाय तो भी शील के काव्य में, नाटक और एकांकियों में, निबन्ध और कहानियों में ऐसा बहुत कुछ है जो लेखन की किसी भी प्रतिमानी
दॄष्टि से अच्छा लेखन माना जा सकता है । उनमें शोषित-पीड़ित जन की आत्मा बसती है ।
इसे विवाद का विषय बनाने की जरूरत नहीं है । फिलहाल यह एक संस्मरण है इसलिए यहाँ
उनके साहित्य का मूल्यांकन करने का प्रयास नहीं है । लेकिन “चिट्ठी
आई है” की धुन पर झूम जाने वाले यदि शील की कविता ‘भाई की चिट्ठी’ (चिट्ठी आई भाई की कुछ रुपया भेजो)
पढ़ लें तो काव्य और पापुलिज्म का भेद अच्छी तरह समझ में आ जाय ।
सवाल यह था कि शील का जो लिखा है वह आधुनिक प्रकाशन में लोगों को उपलब्ध
नहीं है । उसे प्रकाशित किया जाना चाहिए । कैसे प्रकाशित हो? हिन्दी में प्रकाशन की हालत यह है कि
बड़े से बड़े लेखक की पुस्तक भी सालों पड़ी रहती है । फिर शील को तो प्रकाशक जानते भी
नहीं । यह भी सुनने में आया कि पहले कई मित्र इस प्रयास में हारकर बैठ गए हैं ।
जिससे भी बात करो तो कहे कि यह तो नुकसान का सौदा है । आखिर एक प्रकाशक को किसी
तरह से प्रगतिशील जमाने में शील के योगदान की याद दिलाकर पटाया कि वह तीन खंडों
में शील ग्रन्थावली का प्रकाशन करे । खंडों के बीच एक-दो साल का अन्तराल रहे जिससे
कि लगी हुई पूंजी साथ-साथ वापस आती रहे । यह योजना बनी कि पहले खंड में उनके
प्रमुख नाटक और एकांकी रहें, दूसरे में सब कविता संग्रहों की
कविताएं, तीसरे में कहानियां और अन्य गद्य रचनाएं । प्रत्येक
खंड लगभग 300 पॄष्ठों का रहे । योजना पर काम शुरू किया और सामग्री संकलन किया गया । पहला खंड तैयार हुआ ”शील ग्रंथावली -एक” नाम से । उसमें उनके सात नाटक और एकांकी छपे । साथ ही तीन नाटकों को अलग
से भी पुस्तकाकार रूप में निकाला गया । ग्रंथावली का यह पहला खंड उस समय के हिसाब
से खूब शानदार छपा । विमोचन समारोह हुआ जिसमें नामवर जी ने विमोचन किया । उन्होंने यह माना कि
उच्च साहित्यिक विमर्शों को प्राथमिकता देने के कारण उन जैसे आलोचकों ने शील जैसे
कवियों की उपेक्षा की । हालांकि नामवर जी हर समारोह में अपने करणीय और अकरणीय के
लिए जिस तरह खेद व्यक्त करते रहते हैं, उससे लोगों को यह एक जुमला लगा हो तो आश्चर्य नहीं । बस
कहना यही है कि ईमानदरी के क्षणों में वे इन बातों पर सोचते जरूर हैं । राजकमल की
शीला संधु जी वहाँ मौजूद थीं और उन्होंने माना कि यदि शील जी की रचनाएं उनके पास
छअने के लिए आतीं तो वे अवश्य ही उन्हें छापतीं । और भी काफी बातें हुईं । और भी
कई जगह समीक्षा निकली, गोष्ठियां हुईं । इस तरह शील जी पर
कुछ चर्चा शुरू हुई ।
शील जी का तो हुआ लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे किताब बिके । वैसे भी
हिन्दी में किताब बेचना एक अलग ही विद्या है जो केवल प्रकाशक ही जानता है । उसका
लेखक से ज्यादा सम्बन्ध नहीं । यह प्रकाशक भी पुराने जमाने का एक छोटा प्रकाशक रहा
जिसकी दुकान काफी दिनों से चल नहीं रही थी, जिसने पुस्तक व्यवसाय के नए गुर नहीं सीखे थे । इसलिए
किताब बेचने में सफल नहीं रहा । एक साथ चार किताबें छापने में उसने यहां-वहां से
जुटा कर अपनी हैसियत से अधिक पूंजी लगा डाली । किताब न बिकने से उसकी सांस उखड़ने
लगी थी ।
लेकिन उधर किताबों का छपना था कि शील जी हवा के घोड़े पर सवार हो गए ।
उन्हें हर जगह अपनी ही जयजयकार सुनाई पड़ रही थी । वे मगन थे और उन्मत्त थे । लेकिन
मागन्य और उन्मत्तता आर्थिक प्रश्नों से छुटकारा तो नहीं दिला सकते थे । सो शील ने
आर्थिक पहलुओं पर ध्यान दिया । उन्हें लगने लगा कि चारों तरफ उनकी चर्चा हो रही है तो किताब भी हाथों-हाथ
बिक रही होगी । साल होने आया और प्रकाशक ने अभी तक धेला नहीं दिया । उन्हें लगा कि
प्रकाशक हजारों प्रतियां बेचकर मालामाल हो गया है और एक लेखक है कि खाने के भी
लाले पड़े हैं । प्रकाशकों से उपेक्षा पाए या मार खाए ऐसे बहुत से लोग रहे होंगे
जिन्होंने `पूंजीपति'
प्रकाशकों का घिनौना चेहरा उन्हें दिखाया और लेखक के शोषण की दारुण
दशा । फिर क्या था । उनके मन में एक मुकम्मल कहानी बन गई । उन्होंने आव देखा न ताव
प्रकाशक को एक धमकी भरा खत रवाना कर दिया जिसमें बताई गई संख्या से कई गुना ज्यादा
कापियों की गैरकानूनी छपाई, हजारों की संख्या में किताबों की
बिक्री के आंकड़े और अन्त में कोर्ट में घसीटने की धमकी । भागा-भागा प्रकाशक मेरे
पास आया और लगा गिड़गिड़ाने कि एक तो उसने किताब छाप कर जोखिम लिया और अब जब उसकी
गॄहस्थी भी इस छापने के कारण बर्बादी के कगार पर है तो ऊपर से यह नई मुसीबत में
शील जी उसे फंसा रहे हैं । उसने यह भी बताया कि सब जगह किताब बांटने के जोश में
शील जी उससे लगभग 500 छपी किताबों में से 100 ले चुके हैं जो कुल किताबों का 20
प्रतिशत बनती है । यानी किताब तो बिकी हैं कुछेक लेकिन रायल्टी ले ली गई सभी की
एडवांस ।
उसका रोना भी सही था । लेकिन शील पर कोई तर्क काम नहीं कर रहा था । सारे
जीवन की प्रताड़ना का गुस्सा इस प्रकाशक पर निकल पड़ा । उन्होंने पार्टी के हाई कमान
से गुहार लगाई और पार्टी के वकील से प्रकाशक को कानूनी नोटिस दिलवा दिया । प्रकाशक
की हालत इस कदर बुरी थी कि वह अपने बचाव में कोई वकील भी नहीं कर सकता था । उसने
आपसी में ली गई किताबों का लेखा भी नहीं रखा । मैं इस पूरे मामले से इतना खिन्न हो
गया कि स्वयं को दोनों पक्षों से अलग कर लिया । अन्त में प्रकाशक को कई दिन थाने में रखा गया और वह इस शर्त पर रिहा हुआ
कि रायल्टी के बदले में लेखक को किताब की कापियां मुहैय्या कराएगा । और क्योंकि
कापियों की संख्या शील जी के मुताबिक तय की गई इसलिए इतनी कापियों की देनदारी उसके
ऊपर आई जितनी शायद उसके पास नहीं थीं ।
फैसला तो हो गया लेकिन इससे शील ग्रन्थावली के प्रकाशन का काम अधर में ही
लटक गया । अब कोई प्रकाशक उनके अन्य दो खण्डों के लिए तैयार नहीं था । मैं भी
विदेशों में प्राध्यापन के कार्यों में कई वर्ष बाहर रहा कि फिर इस काम को नहीं कर
पाया । इस तरह मॄत्यु पर्यन्त उनका केवल वही खंड प्रकाशित हो पाया ।
उनकी मॄत्यु के बाद वही गलती उनके घर वालों ने दुहराई । पता नहीं कहां से
उन्होंने सुन लिया कि लेखक भले ही अभावों में मरे लेकिन मरने के बाद उसके परिवार
वालों के तो पौबारह हो जाते हैं, कई पीढ़ियां तर जाती हैं । मुंशी प्रेमचंद का किस्सा सब लोगों ने सुन रखा
था । सो जब मॄत्यु पर एकत्र हुए लेखकों ने उनसे अनुरोध किया कि शील जी के जीते जी
जो नहीं छप पाया, अब उसके लिए फिर से सामूहिक प्रयास किए जा
सकते हैं । इसके लिए सुना माहेश्वर जी ने कुछ लेखकों को जुटाया भी । लेकिन उनके
परिवार वालों को लगा कि उनकी रचनाएं तो सोने की खान हैं जिनसे मालामाल हुआ जा सकता
है । शील उन लेखकों में नहीं जो मरने पर मालामाल कर जाएं । इसलिए किसी तरह साधन
जुटाकर उनकी रचनाएं प्रकाशित करने का जो उत्साह पैदा हुआ वह परिवार वालों के इस
रवैये से ठंडा हो गया । मरने के इतने वर्षों बाद भी उनका कुछ सामने नहीं आया ।
रामकुमार कृषक जी ने अलबत्ता बड़ी मेहनत से “अलाव” का शील विशेषांक निकाला । माहेश्वर जी ने सादातपुर के अपने घर में उन पर
एक गोष्ठी भी की जिसमें जाने का मुझे भी अवसर मिला । कुछ अन्य पत्रिकाओं ने भी
सुना उनपर लेखादि छापे । लेकिन ग्रंथावली के रूप में उनकी प्रकाशित कृतियों की
सामग्री सामने नहीं आई । कभी आएगी, इसमें भी सन्देह है ।
यह अलग से कहने की जरूरत नहीं कि हिन्दी के अधिकांश मसिजीवी लेखकों की तरह
शील भी जीवन भर आर्थिक अभावों में जिए । यह तो भला हो सरकार का कि उसने स्वतंत्रता
सेनानियों के लिए उनके शहरों में रिहाइशी प्लाट दिए, कुछ मासिक भत्ता दिया और सफर के लिए रेलवे पास दिया ।
इससे भुखमरी की नौबत तो नहीं आने पाई । लेकिन फिर भी यह सच्चाई रही कि अन्त तक वे
जीवन यापन की समस्याओं पर सोचते रहे । सरकार से मिले प्लाट पर दो कमरों का मकान
बनाया तो उसे लेकर कुछ स्वार्थ तो पनपने ही थे । शील की पत्नी और शायद एकमात्र
सन्तान का देहान्त बहुत पहले ही हो गया था । इस बारे में न तो वे कुछ बताते थे,
न किसी को कुछ मालुम था । बस यही कि वे अकेले ही थे । इसलिए इतना तो
तय था कि उनकी संपत्ति पर परिवार का ही अधिकार होता । बहुत अभाव देखकर मैंने
उन्हें सलाह दी कि जब घर की देखरेख भी मुश्किल हो रही है तो क्यों नहीं वे उसे बेच
कर पैसा बैंक में रख देते । ब्याज से इतना पैसा तो हर महीने मिल ही जायगा कि वे
शहर में अच्छा दो कमरे का मकान किराए पर ले सकें और आराम से गुजर-बसर कर सकें ।
पैसा बैंक में रहेगा तो सिक्योरिटी रहेगी । यह बात उन्हें जंची और उन्होंने उसे
बेचने का निर्णय ले लिया । परिवार की ओर से कड़ा विरोध हुआ । यहां तक कि जो सहायक
उनके साथ रख छोड़ा था उसे भी हटा लिया । और भी कुछ हुआ हो तो मुझे नहीं मालुम ।
आखिरी दिनों में वे चाहते थे कि पार्टी उन्हें दिल्ली में बुलाकर जनवादी
लेखक संघ के दफ्तर में रखे । वे काम करते रहेंगे । यह भी कि यहां उनकी देखभाल और
इलाज हो सकता है । लेकिन आज हर जगह ‘बुद्धिजीवियों’ का बोलबाला है । वे
मार्क्सवाद जानते हैं, क्रांति का आकाश-पाताल जानते हैं,
अच्छी प्रभावशाली शैली में उसे रख लोगों को प्रभावित कर सकते हैं ।
ऐसे में गाँव-देहात से मार खा आने वाला उस कसौटी पर कैसे खरा उतर सकता है ! जो
उतरता है वह खुद बुद्धिजीवी हो जाता है । कम्युनिस्ट आंदोलन के बीच भी हर विद्या
में प्रवीण यह नव-ब्राह्मणवाद उभर आया है जहाँ धरातल के लोग असहज हो रहे हैं और
बुद्धिजीवी शीर्ष पर पहुंच रहे हैं । शील जी एकदम सहज, भोलेभाले,
जन-विश्वासी, भावुक जीव थे । गोष्ठियों में
अपनी बात भी ठीक से नहीं रख पाते थे और भावुकता में बह जाते थे । ऐसे में वे
गोष्ठी महारथियों को बहुत उपयोगी नजर न आते हों तो आश्चर्य क्या ।
खैर । उन्हें दिल्ली नहीं लाया
गया । बाद में अस्पताल में कैंसर से जूझते उनकी मॄत्यु हो गई ।
देश हमारा, धरती अपनी
देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे
सौ-सौ स्वर्ग उतर आएँगे,
सूरज सोना बरसाएँगे,
दूध-पूत के लिए पहिनकर
जीवन की जयमाल,
रोज़ त्यौहार मनाएँगे,
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे ।
देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे ।।
सुख सपनों के सुर गूँजेंगे,
मानव की मेहनत पूजेंगे
नई चेतना, नए विचारों की
हम लिए मशाल,
समय को राह दिखाएँगे,
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे ।
देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे ।।
एक करेंगे मनुष्यता को,
सींचेंगे ममता-समता को,
नई पौध के लिए, बदल
देंगे तारों की चाल,
नया भूगोल बनाएँगे,
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे।
देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाँगे, नया इन्सान बनाएँगे ।।
-डॉ कर्ण सिंह चौहान