सड़क पर नहीं उतरे
सड़क पर नहीं उतरे हम
चुपचाप देखते रह गए तस्लीमा का देश से निर्वासन
सह गए दाभोलकर का मर जाना
रुश्दी की गुमनामी हमें नहीं कचोटती
कलबुर्गी की हत्या भी बर्दाश्त कर गए हम
चुपचाप देखते रह गए तस्लीमा का देश से निर्वासन
सह गए दाभोलकर का मर जाना
रुश्दी की गुमनामी हमें नहीं कचोटती
कलबुर्गी की हत्या भी बर्दाश्त कर गए हम
प्रतिरोध के नाम पर शोक संवेदनाएँ
देखिए मोमबत्तियाँ मत जलाइएगा
यूँ भी मोमबत्तियों से चट्टानें नहीं पिघलतीं
देखिए मोमबत्तियाँ मत जलाइएगा
यूँ भी मोमबत्तियों से चट्टानें नहीं पिघलतीं
नहीं सूझती राह
रोशनी
की तलाश में
बहुत
दूर आ गए हम
नहीं
मिली अँधेरों से निजात
वह
छोर कहीं पीछे छूट गया
जहाँ
उगता है सूरज
होती
है सुबह
दुनिया
के अँधेरे कोने के
बियाबान
में
धरती,
आकाश, पेड़-पौधे, सबका
सिर्फ
एक रंग- काला
घुप्प
अन्धकार में होता है
दिशा
भ्रम
स्याह
कोने में गुम हो गई
रोशनी
की ओर जाने वाली राह
प्रेम
प्रेम!?
तुम्हारी
कामुक लिजलिजाहट में लिपटा
यह
लिसलिसा, भद्दा एहसास
देह
से गुजरने के बाद कितना बचता है?
झर
गईं
राधा-कृष्ण
से हीर-रांझा तक फ़ैली बेल पर
खिले
पुष्प की पंखुड़ियाँ
विज्ञापनों
और फिल्मों में
आपस
में लिपटी अधनंगी देहों द्वारा परिभाषित
प्रेम
ने
देह
के भूगोल में भटकते हुए
प्रतिस्थापित
कर दिया वासना को
शब्दकोश
में
इस देश में
इस
देश में
चीख
संगीत
की धुन बन जाती है
जिस
पर थिरकते हैं रईसजादे
पबों
में
सुन्दर
से ड्राइंग रूम में सजती है
द्रौपदी
के चीर हरण की
तस्वीर
रोटी
से खेलती सत्ता के लिए
भूख
चिंता का विषय नहीं बनती
मौत
की चिता पर सजा दी जाती है
मुआवजे
की लकड़ी
किसान
की आत्महत्या
आंकड़ों
में आपदा की शिकार हो जाती है
धर्म
आस्था का विषय नहीं
वोटों
की राजनीति में
महंतों
और मुल्लाओं की कठपुतली है
झंडों
के रंग
एक
छलावा है
बहाना
भर है चेहरे को छुपाने का
तेज़
धूप में पिघलते
भट्टी
की आग में जलते
आदमी
की शिराओं का रक्त
पानी
बनकर
उसके
बदन पर चुहचुहाता है
गंध
फैलाता है हर तरफ
इस
लोकतंत्र में
आदमी
की हैसियत रोटी से कम
और
भूख उम्र से ज्यादा है
डार्विन का सिद्धांत
कितने
कठिन होते हैं
जीवन
के प्रश्न
कठिन
कि
असफल हो जाती है पाइथागोरस प्रमेय
कुछ
काम नहीं आते
त्रिकोणमितीय
सूत्र
भौतिकी
के नियम
रासायनिक
समीकरण
समाजशास्त्रीय
गणित
सिर्फ किताबों में
सिमटकर रह जाते हैं
जीवन
को सरल नहीं बना पाते
अर्थशास्त्रीय
नियम
पर
सारे इंतज़ाम ऐसे जरूर हैं कि
आदमी
समझ जाए
डार्विन
का सिद्धांत
ऐसा क्यों होता है
ऐसा
क्यों होता है
रात
का बुना सपना
खो
जाता है
दिन
के उजाले में
दिन
की देह से टपकी
पसीने
की हर बूँद
सोख
लेती है
बंजर
जमीन
मौसम
के हर बदलाव के बाद
और
मोटी-खुरदरी हो जाती है
हथेली
की त्वचा
ऐसा क्यों होता
है?
-कवि परिचय
नाम- बृजेश नीरज
पिता- स्व0
जगदीश नारायण सिंह गौतम
माता- स्व0 अवध राजी
जन्मतिथि- 19-08-1966
जन्म स्थान- लखनऊ,
उत्तर प्रदेश
ईमेल- brijeshkrsingh19@gmail.com
निवास- 65/44,
शंकर पुरी, छितवापुर रोड, लखनऊ-226001
सम्प्रति- उ0प्र0
सरकार की सेवा में कार्यरत
कविता संग्रह- ‘कोहरा सूरज धूप’
साझा संकलन- ‘त्रिसुगंधि’ (बोधि प्रकाशन), ‘परों
को खोलते हुए-1’ (अंजुमन प्रकाशन),
‘क्योंकि हम जिन्दा हैं’ (ज्ञानोदय प्रकाशन), ‘काव्य सुगंध-२’ (अनुराधा प्रकाशन), अनुभूति के इन्द्रधनुष (अमर भारती)
संपादन- कविता संकलन- ‘सारांश समय का’
अर्द्धवार्षिक पत्रिका- ‘कविता बिहान’ में सह सम्पादक
मासिक ई-पत्रिका- ‘शब्द
व्यंजना’ के सम्पादक
सम्मान- विमला देवी स्मृति सम्मान २०१३
विशेष- जनवादी लेखक संघ, लखनऊ इकाई के कार्यकारिणी सदस्य
बहुत आभार राहुल भाई!
ReplyDeleteबहुत आभार राहुल भाई!
ReplyDeleteएक के बाद एक, एक से बढ़कर एक अतीव सुंदर प्रस्तुतियां. बृजेश भाई हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर
ReplyDeleteकविता को ज्यों- ज्यों पढ़ा गया मन भारी सा प्रतीत होने लगा, एक मौन चित्कार ने घेर लिया । एक-एक शब्द अपने भीतर समेटे हैं अनेकों प्रश्न ......... इस गहन प्रस्तुति के लिए कवि को अनेकों बधाइयाँ /सादर
ReplyDeleteकवितायेँ बहुत बढियाँ है ,आप लेखन को सदा यूहीं सजाते रहे,बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचनाएँ!
ReplyDeleteआपको जन्मदिन की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!