Saturday, 26 March 2016

तीन कवि : तीन कविताएँ – 19


बच्‍चे काम पर जा रहे हैं / राजेश जोशी 


कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह

काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?

क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजरते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।


उस स्त्री के भीतर की स्त्री के बारे में / विवेक निराला 



उस स्त्री के भीतर 
एक घना जंगल था 
जिसे काटा -
उजाड़ा जाना तय था
उस स्त्री के भीतर 
एक समूचा पर्वत था 
जिसे समतल 
कर दिया जाना था |
उस स्त्री के भीतर 
एक नदी थी 
बाढ़ की अनन्त 
संभावनाओं वाली 
जिसे बांध दिया जाना था |
उस स्त्री के भीतर 
एक दूसरी देह थी 
जिसे यातना देते हुए 
क्षत -विक्षत किया जाना था |
किन्तु उस स्त्री के भीतर 
एक और स्त्री थी 
जिसका कोई कुछ 
नहीं बिगाड़ सकता था |


अघोषित उलगुलान / अनुज लुगुन 


अल सुबह दांडू का काफिला
रुख करता है शहर की ओर
और साँझ ढले वापस आता है
परिंदों के झुंड-सा,

अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन !

वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
जहर-बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल

शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल

लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
गुफाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ

इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गए
रेमंड का सूट पहनने के बाद।

कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लावारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता

बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके 'हिंदू' या 'ईसाई' हो जाने की

यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलवे
और लोहे की ढेंकी में
कुटती है उनकी आत्मा

बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।

लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल,

दांडू जाए तो कहाँ जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।

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