Saturday, 19 December 2015

गिरीश पंकज की पांच ग़ज़लें

गिरीश पंकज मूलतः व्यंग्यकार है. लम्बे समय तक पत्रकारिता में अपने अवदान  के बाद अब स्वतन्त्र लेखन करते हुए ''सद्भावना दर्पण'' नामक  अनुवाद-पत्रिका का संपादन कर रहे हैं. 14 व्यंग्य संग्रहसात उपन्यास समेत अन्यान्य विधाओं में उनकी कुल 48 पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं.  साहित्य और पत्रकारिता की जुगलबंदी की परम्परा के वाहक गिरीश पंकज व्यंग्य के साथ-साथ सा-सामयिक विषयों पर गंभीर लेखन भी करते हैं। उनकी एक विशेषता यह भी है कि वे ग़ज़लें भी कहते हैं. उनके दो ग़ज़ल संग्रह  प्रकाशित हो चुके हैं. शायरी की दुनिया में 'साहिर', 'दुष्यंत' और 'अदम गोंडवी' को अपना आदर्श मानते हैं. यहाँ प्रस्तुत है उनकी पांच ग़ज़लें.
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1 
जो लड़ने निकले हैं तम से 
जीतेंगे वे अपने दम से

इस दुनिया क़ी रौनक होगी 
आखिर तुमसे और कुछ  हम से 

कितने बड़े -बड़े ग़म सबके 
मत घबरा तू अपने ग़म  से

सुख का फंडा उसने जाना 
काम चला लेता जो कम से

बदनामी वो सह न पाया 
जां दे दी उफ़ लाज-शरम से 

जो कहता है खून बहाओ 
धर्म नही वो कहूँ कसम से 

बात प्यार से बनती पंकज
कभी बनी न न गोली - बम से

2  

दौलत- फौलतशोहरत-गद्दी इस पर क्या इतराना है
लगता साहेब भूल गए हैं इक दिन इनको जाना है

किसकी खातिर जोड़ रहे हो इतनी दौलत बोलो तो 
अंत समय में केवल अपना मिट्टी से याराना है 

जिसको कोई तोड़ सके ना और बाद भी रह जाए 
सत्कर्मो का घर हैं सुन्दर हमको वही बनाना है 

जीवन क्या है चढ़ता सूरज फैलाएगा उजियारा 
लेकिन सच्चाई है उसको शाम हुए ढल जाना है

कर लो प्राणायाम बहुत से, मगर प्राण भी है जिद्दी 
जाने कब ये चल देगा इसका नहीं ठिकाना है 

रत्ती-सी इक बात ने
तोड़ दिया हालात ने
टूटे दिल को बहलाया
यादो की बारात ने

दिन भर तो मशगूल रहा
मगर रुलाया रात ने 

खुशिया भर दी झोली में
प्रेमभरी सौगात ने

हमें डुबाया है अक्सर
अपने ही ज़ज़्बात ने

जीत गए तो हँसते थे
दुःख पहुंचाया मात ने

4
जो खरा है वह कभी दुर्बल नहीं होगा
टूट जाए स्वर्ण पर पीतल नहीं होगा

मैं चलूँगा ज़िंदगी में बस चलूँगा मैं 
गर किसी का भी मुझे सम्बल नहीं होगा

माँ तुम्हारे बिन मेरी ये ज़िंदगी क्या है
क्या करुंगा जब तेरा आँचल नहीं होगा

हर तरफ धोखाधड़ी है, इक छलावा है 
कैसे कह दूँ इक भला पागल नहीं होगा

जो लगन से काम करते हैं सफल होंगे
काम सच्चा है तो फिर निष्फल नहीं होगा 

कोई भी रिश्ता कभी टिकता नहीं ज़्यादा 
मन हमारा गर कहीं निर्मल नहीं होगा


कुछ के वारे न्यारे हैं 
कुछ किस्मत के मारे हैं 

मौज यहाँ उनकी है जो 
सपनो के हत्यारे हैं

जो छलिया हैं वे सब ही 
क्यों लोगों को प्यारे हैं

धोखेबाज़ी में माहिर 
चंद सियासी नारे हैं 

गैरों से तो जीत गए
कुछ अपनों से हारे हैं 

जितनी थी चादर अपनी 
उतने पैर पसारे हैं 

जो वंचित हैं 'पंकज' के 
अपने राजदुलारे हैं
-- 

गिरीश पंकज
संपादकसद्भावना दर्पण
*२८ प्रथम तल, एकात्म परिसर
रजबंधा मैदान रायपुर. छत्तीसगढ़. 492001*
*मोबाइल* : 09425212720
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*पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2008-2012)*
उपन्यास, 14  व्यंग्य संग्रह सहित 44  पुस्तके 

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1-
 
http://sadbhawanadarpan.blogspot.com
2 -
 
http://girishpankajkevyangya.blogspot.com
3 -
http://girish-pankaj.blogspot.com

8 comments:

  1. बहुत सुंदर गजलें

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  2. धन्यवाद, इस नाचीज को महत्व देने के लिए .

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  3. वाह
    बेहद उम्दा और बेहतरीन ग़ज़लें

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  4. बेहतरीन....गज़लों की गहराई ....अत्यंत सुन्दर............बेहद उम्दा..वाह

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  5. उत्तम ग़ज़लें, सामयिक जीवन यथार्थ को रेखांकित करती ये ग़ज़ल उत्कृष्ट हैं ।

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  6. उत्तम ग़ज़लें, सामयिक जीवन यथार्थ को रेखांकित करती ये ग़ज़ल उत्कृष्ट हैं ।

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  7. साहित्य के दुनिया में पंकज जी का एक अलग पहचान है

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