एक दिन मेरे यहाँ कुछ साहित्यकारों के साथ ‘काव्य और आलोचना’ विषय पर चल रही एक
अनौपचारिक चर्चा, वर्तमान काव्य-परिदृश्य तथा आलोचना के विभिन्न पहलुओं,
आग्रह, दुराग्रह आदि को अपने में समेटती हुई,
गम्भीर विमर्श मे बदल गई। एक तरफ चर्चा चल
रही थी तो दूसरी तरफ मेरे मन में यह विचार स्थाई रूप ले रहा था कि कविता का
संक्रमण काल अभी भी जारी है और मैथ्यू आर्नल्ड का कथन, “The one dying and other
powerless to be borne” अर्थात एक मर रहा है और दूसरे में पैदा
होने का सामर्थ्य नहीं है, आज भी प्रासंगिक है। विषय के और गहराने साथ एक मित्र द्वारा बिना किसी दुराग्रह के
प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका ‘पाखी’ के
दिसम्बर 2014 अंक में निर्मला गर्ग जी के प्रकाशित आलेख ‘एक कवि जिसे गहराइयाँ पसंद नहीं’ की प्रति रखते हुये, उस पर मेरे विचार की अपेक्षा की गई। मैंने उस
समय उस आलेख मे निर्मला जी द्वारा श्री नरेश सक्सेना जी की कृतियों ‘समुद्र पर हो रही बारिश’ और ‘सुनो चारुशीला’ से संदर्भित की गई रचनाओं पर की गई आलोचना पर
कोई टिप्पणी नहीं की पर एक बात मेरे मन को मथी अवश्य कि क्या रचनाकार का भी वही
अभिप्राय है जो अलोचक ने समझा है, या उससे अलग? आलेख मे संदर्भित रचनायें अपनी प्रबल व्यंजना
शक्ति के साथ जब रात में मेरी नीद रोक कर मुझसे बार-बार कहने लगीं कि हमे ग़ौर से देखो और बताओ कि क्या
हमारे अंदर भाव की गहराई नहीं है, तब मैं विवश हो गया लेखनी उठाने के
लिये।
यहाँ यह स्पष्ट करते
हुये कि आलोचना के सूक्ष्म
सिद्धांतों पर मेरा कोई अधिकार
नहीं है, मैं आलोचक नहीं पाठक की दृष्टि से काव्य तथा शब्द-शक्ति के कुछ मूलभूत सिद्धंतों
को ध्यान में रखते हुये अपनी बात कहने की अनुमति चाहता हूँ। मैंने अपनी पुस्तक ‘जग शिवत्व
से भर दे’ में काव्य को निम्नवत्
परिभाषित करने का प्रयत्न किया है-
“सत्य रूपी आत्मा का; शब्द, अर्थ, भाव, कल्पना और बुद्धि
रूपी पंचतत्त्वों के सम्यक् योग द्वारा निर्मित
एवं लय द्वारा
प्राण प्रतिष्ठित, शिवम्, सुंदरम् स्वरूप
ही कव्य है।”
काव्य रचना भाव, भाषा और शिल्प की अत्यंत संशिल्ष्ट
कला है, जिसके द्वारा कवि अपने सम्प्रेष्य
भावों को यथावश्यक
अबिधा, लक्षणा
अथवा व्यंजना शब्द-शक्ति का सहारा लेकर श्रोता/पाठक तक अपने अभिप्राय के अनुसार सम्प्रेषित
करने का प्रयास
करता है। पंडित विश्वनाथ ‘साहित्यदर्पण’ मे लिखते हैं-
वाच्योsर्थोsभिधया बोध्यो
लक्ष्यो लक्षणया मतः।
व्यंग्यो व्यंजनया ता: स्युस्तिस्र: शब्दस्य
शक्तयः॥
अर्थात जो अर्थ अभिधा से बोधित हो वह वाच्य है, जो लक्षणा से जान पड़े वह लक्ष्य
है तथा जो व्यंजना से ज्ञात हो वह व्यंग्य
है। अभिधा शाब्दिक
अर्थ, लक्षणा
सांकेतिक, गुणात्मक
अथवा प्रतीकात्मक अर्थ तथा व्यंजना
अर्थ प्रसंग, परिस्थिति
या प्रकरण के क्रम मे अर्थबोध कराती है। शब्दार्थ
के सामान्य प्रचलन
का विखंडन लक्षणा
से अधिक जटिल व्यंजना मे हो जाता है। इसे कुछ इस तरह से स्पष्ट कर सकते है-
वक्तृबोधव्यकाकूनां वाक्यवाच्यान्यसन्निधे:।
प्रस्तावदेशकालादे:
वैशिष्ट्य प्रतिभाजुषाम्॥
अर्थ व्यंजकता तो अर्थबोध का भी अर्थबोध
है। रचनाकार के ऐसे प्रयोगों
का सही अर्थविधान
वाच्यार्थ के आधार पर नहीं अपितु उसके अभिप्राय के आधार पर ही किया जा सकता है।
‘अज्ञेय’
जी भी ‘तीसरा सप्तक’ के पहले संस्करण
की भूमिका मे लिखते हैं-
“प्रत्येक शब्द के
अपने वाच्यार्थ के अलावा अलग-अलग लक्षणाएँ और व्यंजनाएँ
होती हैं – अलग-अलग संस्कार और ध्वनियाँ।”
मित्रो! 2 अगस्त 1984 को बबा नागार्जुन ने एक
कविता कही, जिसकी अंतिम दो पंक्तियाँ हैं-
“तुम हमसे मुँह चुराते
हो!
आखिर ऐसा क्या कह
दिया मैंने!”
और ‘अज्ञेय’
जी के मन में आलोचकों,
अध्यापकों और सम्पादकों द्वारा अपना काम न किये जाने के कारण सम्मान्य साहित्य के
क्षयग्रस्त होने की जो पीड़ा थी, वह ‘तीसरा सप्तक’ की भूमिका मे इस रूप
में उभरी है-
“इस वर्ग ने वह काम
नहीं किया है, यह सखेद स्वीकारना होगा। बल्कि कभी तो
ऐसा जान पड़ता है कि नक़लची कवियों से कहीं अधिक संख्या और अनुपात नक़ली आलोचको का है
–धातु उतनी खोटी नहीं है जितनी की
कसौटियाँ ही झूठी हैं। इतनी अधिक छोटी-मोटी ‘एमेच्योर
(और इमेच्योर) साहित्य पत्रिकाओं का निकलना, जब कि जो दो चार
सम्मान्य पत्रिकायें हैं, वे सामग्री की कमी
से क्षयग्रस्त हो रही हैं, इसी बात का लक्षण है
कि यह वर्ग अपने कर्तव्य से कितना च्युत हुआ है।”
दोनों के कथन में, बिना किसी पूर्वाग्रह अथवा दुराग्रह के, कुछ संकेत है जो कहीं न कहीं आपस मे साम्य भी रखता है। इतना तो स्पष्ट
है ही कि कवि कर्म जितना कठिन है, आलोचना, अध्यापन और सम्पादन का कर्म उससे भी अधिक कठिन और गुरुतर है।
उपर्युक्त
तथ्यों को ध्यान में
रखते हुये मैं मूल विषय पर आता हूँ। मैं यहाँ श्री नरेश सक्सेना
जी के रचना-संसार का आलोचनात्मक विश्लेषण
नहीं करना चाहता क्योंकि यह एक समर्थ आलोचक का बृहद् विषय है। मैं यहाँ उनकी केवल उन रचनओं की शब्द-शक्ति और भाव की गहराई पर तार्किक
चर्चा करना चाहूँगा
जिनके विषय मे कहा गया है कि वे खासी बचकानी, बीभत्स
और छिछली हैं। प्रश्नगत् विषय पर
जाऊँ इसके पहले चार सम्मान्य कवियों की चार कविताओं की कुछ पंक्तियाँ आप के सामने रखना चाहता हूँ।
मैं सतह की धूप सा
फैला हुआ था
पर अंधेरे ने
मुझे चमका दिया
-धूमिल
ये शरद के चाँद से उजले धुले से पाँव
मेरी गोद मे!
ये लहर पे नाचते ताजे कमल की छाँव
मेरी गोद में!
-धर्मवीर भारती
ड्योढ़ी पर पहले दीप
जलाने दो मुझको
तुलसी जी की आरती
सजाने दो मुझको
मंदिर मे घंटे,
शंख और घड़ियाल बजें
पूजा की साँझ-सँझौती
गाने दो मुझको
-सर्वेश्वरदयाल
सक्सेना
साँप तुम सभ्य
तो हुये नहीं
नगर
मे बसना
भी
तुम्हे नहीं आया;
एक
बात पूछूँ- उत्तर दोगे-
फिर
कैसे सीखा डसना-
विष कहाँ से पाया?
-‘अज्ञेय’
चारों रचनाओं का अलग-अलग
भाव-जगत् है। बिना किसी पुर्वाग्रह के जब हम
सम्पूर्ण सतर्कता के साथ रचनाकार के प्रयोजन को पकड़ते हुये आहिस्ता-आहिस्ता
उसके शब्दों के पास जायेंगे और उनमें घुल-मिल जायेंगे तभी उनके
भाव के भेद को जान कर उसके भाव-साम्राज्य की सुषमा
का आनंद ले पायेंगे अन्यथा उनका शब्दकोशीय
अर्थ तो हम जानते ही हैं।
इस क्रम में मैं मदन वात्स्यायन जी के
चिंतन् ‘जहाँ भी विश्वास होगा,
ऋचाएँ उतरेंगी; तेज होगा,
महाकाव्य रचे जायेंगे; स्नेह होगा,
गीत बनेंगे’ में इतना और जोड़ना चाहता हूँ कि जहाँ
अग्राह्य के प्रति असहमति होगी व्यंजना के साथ नई कविता जन्म लेगी और उन रचनाओं को
आत्मसात करने के लिये उसी भाव–भूमि मे जाना
पड़ेगा। अब ‘पाखी’ में नरेश जी की
प्रश्नगत कुछ रचनाओं पर निर्मला जी द्वारा की गई आलोचना पर एक दृष्टि डालते हैं।
पहली-
“पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती ....”
इस रचना की आलोचना, इसे उक्ति चमत्कार
का उदाहरण मानते हुये श्रम की महत्ता
को स्वीकार न करने वाली अकेलेपन की रचना के रूप में की गयी है। मै आलोचक के प्रति सम्मान रखते हुए भी उसके इस मत से सहमत नहीं हूँ। कहना चाहूँगा कि जो व्यक्ति
गहरी, बेगवती और उफनती नदी मे उतर कर, उसकी धार को चीर कर एक किनारे
से दूसरे किनारे
पर नहीं गया है, केवल पुल का सहारा लेकर उसे पार किया है, वह न तो नदी के पार करने के कष्टसाध्य संघर्ष
को समझ सकता है न ही इस संघर्ष पर श्रम के विजय का प्रतीक उस पुल की महत्ता को ही। मै अपना एक शे’र यहाँ रखना चाहूँगा-
नदी की धार को जो चीर कर उस पार जाता है
उसे मालूम होती है महत्ता
पुल बनाने की
दूसरे के श्रम से सृजित साम्राज्य को उत्तराधिकार में प्राप्त करने वाला साम्राज्य
को बनाने मे बहाये गये पसीने की कीमत का सही आँकलन कभी नहीं कर सकता। स्वतंत्रता की महत्ता जितना स्वतंत्रता संग्राम
सेनानी जानता है उतना उसकी संतति कभी नहीं जान सकती। सहजता एवम् सरलता के साथ कही गई इन पंक्तियों में व्यंग्य की गहराई की इस भाव-भूमि को क्या नहीं देखा जा सकता?
दूसरी-
“सुबह उठ कर देखा तो आकाश
लाल, पीले, सिंदूरी
और गेरुये रंगों से रंग गया था
मजा आ गया ‘आकाश हिंदू हो गया है’
पड़ोसी ने चिल्ला कर कहा
‘अभी तो और मजा आयेगा’ मैंने कहा
बारिश आने दीजिये
सारी धरती मुसलमान हो जायेगी”
निर्मला जी का मत है, “खासी बचकानी यह कविता कवि की दुखद समझ का
पता देती है। एक किस्म की वीभत्सता है इसमें।”
अख़बारों मे ही नहीं प्रबुद्ध
वर्ग द्वारा भी भगवा, लाल, हरा और नीला आदि रंगों का मज़हब विशेष अथवा सोच विशेष के लिये किये जाने वाला प्रयोग
संवेदनशील को कभी न कभी चुभता अवश्य है। अखंडता
को विखन्डित करने वालों तथा प्रकृति
के सार्वजनिक सौंदर्य
को भी मज़हबी ऐनक से देखने वालो पर पड़ोसी और प्रकृति
का सहारा लेकर इन पंक्तियों
में किया गया व्यंग्य हृदय की गहराई तक उतरता है।
जब पड़ोसी की दृष्टि; लाल, पीले, सिंदूरी और गेरुये
रंगों से मंडित अद्भुत सूर्योदयी
सौंदर्य में भी, समुदाय विशेष को ही देखने मे सीमित हो जाती है तब एक दूसरे प्रबुद्ध
पड़ोसी का इससे गम्भीर, शिष्ट और सहज व्यंग्य क्या हो सकता है कि भाई तब तो बारिश के बाद हरियाई धरती मुसलमान
हो जायेगी। इस परिपेक्ष्य में उर्दू के महान दार्शनिक
शायर डॉ इक़बाल, जिनके पूर्वज
सप्रू गोत्र के कश्मीरी ब्राह्मण
थे, की दो पँक्तियों
मे व्यंग्य और दर्द देखें-
“अपनो से बैर रखना तुमने बुतों से सीखा
जंगो-जदल सिखाया वाइज़ को भी खुदा ने”
तीसरी-
“इतिहास के बहुत से भ्रमों
में से
एक यह भी है
कि महमूद गजनवी लौट गया था
लौटा नहीं था वह
यहीं था
सैकड़ों
बरस बाद अचानक
वह प्रकट हुआ अयोध्या में
सोमनाथ
मे उसने किया था
अल्लाह
का काम तमाम
इस बार उसका नारा था
जय श्रीराम”
इस रचना पर आलोचक के इस मत से सहमत नहीं हुआ जा सकता
कि “यहाँ एक जागरूक कवि इस धरणा को पुष्ट करने लगता हैं कि सारे आतताई मुसलमान ही होते थे।” एक पाठक के रूप मे मुझे तो इस भाव की गंध तक इन पक्तियों
में कहीं भी महसूस नहीं हो रही है। दृष्टांत के रूप मे रचनाकार जनमानस
मे रचे-बसे प्रतीकों को ही चुनता है। महमूद गजनवी आतंक, लूट और आस्था को ध्वस्त करने के प्रतीक
के रूप मे जन-मानस मे इस प्रकार अंकित है कि मिटाने पर भी नहीं मिट सकता। उस प्रतीक
को लेकर इन पंक्तियों में यह इंगित करने का प्रयास किया गया है कि बर्बबरता
का न तो कोई वर्ण होता है न ही कोई व्याकरण।
रचनाकार की इस भाव-भूमि को मै अपने इस शे’र के माध्यम
से सलाम करता हूँ-
“जब कहीं मंदिर है टूटा जब कभी मस्ज़िद ढही
राम औ’ रहमान के सँग रात भर रोई ग़ज़ल”
प्रश्नगत् रचनाओं
की आलोचना के क्रम में निर्मला जी का मत है कि “कल्पनाशीलता के मामले में विज्ञान कविता का फालोवर है, कविता विज्ञान की नहीं” सैद्धांतिक रूप से न तो मैं निर्मला जी के इस मत से सहमत हूँ न
ही ‘सुनो चारुशिला’ के पूर्वकथन में आये
नरेश जी के इस मत से ही सहमत हूँ कि “कविता निश्चित ही
विज्ञान से कुछ ऊपर की चीज़ है, नीचे की नहीं”
यहाँ मैं कुँवर
नारायण जी के ‘तीसरा सप्तक’ के वक्तव्य के एक अंश
की ओर आप का ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा-
“जो बुनियादी जिज्ञासा एक वैज्ञानिक को, रूढ़ि की उपेक्षा
करके यथार्थ के गूढ़ तहों में पैठने के लिये बाध्य करती है, खोज की वही
रोमंचकारी प्रवृत्ति कवि को भी अज्ञात के विराट् व्यक्तित्व मे भटकाती रहती है।
भौतिक शास्त्र के बहुत से सिद्धांत सूत्रबद्ध होने से पहले कुछ वैसी ही सी मानसिक
प्रक्रियाओं से गुजरते हैं जिन से कविता भाषाबद्ध होने से पहले। दोनों मे निकट
काल्पनिक सम्बंध है, क्योंकि दोनों
ही एक विशेष प्रज्ञा द्वारा विश्वसनीय सत्य तक पहुचना चाहते हैं।”
मेरा बेझिझक मानना
है कि कवि और वैज्ञानिक दोनों चेतना के विज्ञानमय और आनंदमय कोश मे विचरण करने
वाले कल्पनाशील विशुद्ध वैज्ञानिक होते हैं। दोनों मे से कोई किसी का फालोवर नहीं
होता और दोनों दोनों के फालोवर होते हैं। ‘अज्ञेय’ जी द्वारा सम्पादित ‘तीसरा सप्तक’ के पहले कवि प्रयागनारायण जी की प्रथम रचित कविता की अंतिम दो
पंक्तियाँ निम्नवत् हैं-
करता गान कला का जिसकी भारत-भू का प्रति आवास,
भारत-हृदय, भक्त-चूड़ामणि
गोस्वामी श्री तुलसीदास।
ऐसे
गोस्वामी जी का ‘श्रीरामचरितमानस’ मे
कवि के विषय में दिया गया मत मैं यहाँ उदघृत करना चाहूँगा-
“...वंदे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ”
कवि
और वैज्ञानिक दोनों के प्रस्तुतीकरण का बस स्वरूप अलग होता है। कल्पनाशीलता से
जहाँ शक्ति और सृष्टि के सम्बंध और संतुलन को आइंस्टाइन भौतिक विज्ञान के सूत्र E = mC2 से व्याख्यायित करते हैं वहीं उस भाव-भूमि को कवि इस रूप मे शब्द देता है-
जब परम् शांत गतिहीन शून्य,
गतिशील हुआ हलचल से भर।
तब व्याप्त हुआ अव्याप्त रूप ही,
ब्रह्म,
जीव, माया बन कर॥
तीनों के तीनों पूरक हैं,
तीनों निरपेक्ष अपूर्ण हुये॥
तीनों जब होते एकरूप,
तब शून्य हुये तब पूर्ण हुये॥
-‘जग शिवत्व से भर दे’ पृष्ट-70
इस
प्रकार दोनो अपने-अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ सत्, चित् और आनंद के नित नूतन अन्वेषण मे लगे
प्रकृति और पुरुष के प्रणम्य अंश हैं।
मैं
अपनी सोच को शब्द देकर संतुष्ट हूँ। इसे मानना, न
मानना, इस पर मंथन करना, न करना,
मेरे अधिकार क्षेत्र के बाहर, आप की परिधि का कार्य है। हाँ इस विषय-वस्तु पर आप से विदा लेते हुये अली सिकंदर ‘जिगर मुरादाबादी’
साहब का यह शे’र आप को अवश्य नज़र करना चाहूँगा-
“इक
लफ़्ज़ मुहब्बत का अदना-सा फ़साना है
सिमटे
तो दिले-आशिक़,
फैले तो ज़माना है”
.......................................................................................................
परिचय
लखनऊ विश्वविद्यालय के परास्नातक स्वर्ण पदक एवं डॉ
वाधवा स्मारक स्वर्ण पदक से सम्मानित डॉ अनिल मिश्र अन्तराष्ट्रीय स्तर पर
प्रकाशित, प्रसारित तथा पुरस्कृत बहुभाषीय कवि, लेखक एवं वक्ता
हैं। डॉ मिश्र ने हिंदी, भोजपुरी तथा अंग्रेजी में कई
पुस्तकों का प्रणयन किया है।
राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय सम्मान के अतिरिक्त डॉ
मिश्र पर सन २००१ में लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ में ‘डॉ अनिल मिश्र की
साहित्य साधना’ विषय पर शोध भी हो चुका है।
पता- 510/133 न्यू हैदराबाद, लखनऊ 226007
मो. 8005192532
ब्लॉग- http://integrity-parishkar.blogspot.in/
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